रेगिस्तान में स्वराज कहानी गोपालपुरा गांव की

गोपालपुरा गांव में ग्राम सभा
गोपालपुरा गांव में ग्राम सभा

राजस्थान के चुरू ज़िले की सुजानगढ़ के रेगिस्तान में गोपालपुरा गांव विकास की नई कहानी लिख रहा है। 2005 में हुए पंचायत चुनाव में गोपालपुरा पंचायत के तहत आने वाले तीन मजरों- गोपालपुरा, सुरवास और डूंगरघाटी के लोगों ने सविता राठी को सरपंच चुना। वकालत की पढ़ाई कर चुकीं सविता राठी ने (लोगों के साथ मिलकर) गांव के विकास का नारा दिया था। लेकिन सरपंच बनने के बाद सविता राठी ने सबसे पहला काम ग्राम सभा की नियमित बैठकें बुलाना शुरु करके किया। एक पिछड़े और गरीब गांव के विकास के लिए पांच साल कोई बहुत लंबा समय नहीं होता लेकिन ग्राम सभा की बैठकें होने से गांव के लोगों में विश्वास जागा है कि उनके गांव की स्थिति भी बेहतर हो सकती है। गांव में अब हर तरफ सफाई रहने लगी है। विकास के काम का पैसा गांव के विकास में लग रहा है। गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ उन लोगों तक पहुंचने लगा है जो गांव में सबसे गरीब हैं। दीवारों पर शिक्षा और पानी को लेकर नारे हर तरफ दिखते हैं जो खुद गांव वालों ने लिखे हैं वह भी बेहद सरल भाषा में। उदाहरण के लिए पानी बचाने के लिए लिखा है, (जल नहीं तो कल नही)। गोपालपुरा पंचायत का नाम आज देश भर में इसलिए जाना जा रहा है कि वहां की सरपंच पूरे गांव को साथ लेकर फैसले लेती हैं।

तीन गांव को मिलाकर ये पंचायत बनती है : गोपालपुरा, सुरवास और डूंगरघाटी। गोपालपुरा में करीब 800 परिवार हैं। सुरवास में 150 और डूंगरघाटी अलग गांव नहीं है अलग से बस्ती है इसमें भी 150 परिवार। कुल मिलाकर 6000 की आबादी। ज्यादातर लोग पिछड़ी जातियों से हैं।

यहां पंचायत का हर काम ग्राम सभा की खुली बैठक में तय होता है। ग्राम सभा में फैसले होने के चलते लोग ऐसे-ऐसे फैसले भी मान लेते हैं जो सामान्यत: अगर अफसरों द्वारा या नेताओं द्वारा लिए जाएं तो कभी न माने जाएं।

• इसमें सबसे अहम रहा है पानी बेचने का फैसला। सरपंच के साथ गांव वालों ने लगकर पानी की कमी पूरी की। पानी के स्रोत ठीक किए। तालाब में पानी बढ़ गया। ज़मीन के नीचे का पानी भी ऊपर उठ आया। तो इसके बाद पानी का व्यापार शुरू हो गया। राजस्थान में पानी की कमी रहती ही है। कुछ लोगों ने गांव के तालाब का पानी टैंकर में भरकर बाहर ले जाकर बेचने का धंधा शुरू कर दिया। इसमें गांव के भी कुछ लोग शामिल थे। लेकिन ग्राम सभा में जब ये मुद्दा उठा तो तय हुआ कि बड़ी मुश्किल से पानी का स्तर ऊपर आया है और गांव का पानी इस तरह बेचा नहीं जाना चाहिए। ग्राम सभा में निर्णय लेकर तालाबों के चारों तरफ बाउण्ड्री वाल बनवाई गई और गेट लगाकर ताले जड़ दिए गए। अब कोई गांव में टैंकर से पानी नहीं उठाता।

• गांव के आपस में खूब झगड़े थे। आए दिन लोग एक दूसरे के खिलाफ एफ.आई.आर करवाते रहते थे। महीने में एक दो केस दर्ज होना सामान्य बात थी। धीरे धीरे जब ग्राम सभाएं होने लगीं तो ये मुद्दे भी उठे और आश्चर्यजनक रूप से लोगों के मतभेद कम होते चले गए।

• गांव में लोग कचरा इधर-ऊधर फैलाते थे। निर्मल ग्राम योजना का भी कोई फायदा नहीं पहुंच रहा था। तब ग्राम सभा में स्वच्छता की ज़रूरत पर भी चर्चा हुई और सब लोगों ने मिलकर कचरा निस्तारण की व्यवस्था की।

• गांव में राशन की चोरी होनी बन्द हो गई है। पटवारी, आशा बहन, आंगनवाड़ी वर्कर आदि सबका ग्राम सभा में आना ज़रूरी है। पंचायत भवन में एक रजिस्टर रखा है। अगर किसी को शिकायत होती है तो उस पर लिख जाता है। पंचायत उस पर कार्रवाई करती है। ज़रूरत पड़ने पर अगली ग्राम सभा में भी उस पर चर्चा होती है।

• गांव में गाय खेती न चर जाएं इसलिए फसल के दौरान साझा गौचर का काम चलाया जाता है और खेती की रक्षा होती है इसलिए ग्राम सभा के फैसले के मुताबिक किसानों से 5 रुपए से 7 रुपए प्रति बीघा लिया जाता है जिससे गांव की गायों के चारे की व्यवस्था की जाती है।

 

 

बातचीत


सरकार अफसरशाही और नियम थोपने की जगह ग्राम सभा कराने में सख्ती करे
आपकी ग्राम सभायें कितनी बार होती है? आप कब-कब कराते है?


वैसे तो जो निश्चित ग्राम सभायें है, सरकार की तरफ से डेट फिक्स है उन पर तो होती ही है। उनके अलावा भी जब भी कभी पूरे गांव का कोई मसला होता है तो हम ग्राम सभा आयोजित करते है और उस मसले को उसी में हल करते है…

…एवरेज… यूं समझ लें कि महीने में एक एवरेज ग्राम सभा होती ही है। और हर ग्राम सभा में करीब करीब 100-150-200 स्त्री पुरूष लोग आते हैं

शुरूआत करने में कठिनाई नहीं हुई। हर गांव में कुछ लोग पहले से प्रभाव जमाकर बैठे होते हैं और नई बात का, नए लोगों का विरोध् करते हैं?

शुरू में तो जो प्रभावशाली और दलाल टाइप के लोग थे। उनकी यह भावना थी कि यह महिला है काम नहीं कर पायेंगी। सारा कुछ हमें ही सम्भालना होगा। लेकिन जब मैंने अपना काम शुरू किया तब यह भावना उनकी खत्म हुई और आम जनता में विश्वास बना ग्राम सभाओं के द्वारा। तब आम जनता को यह लगा कि यह हमारे लिए कुछ करेगी। क्योंकि हमारी पंचायत की मीटिंग में… कोई मीटिंग कभी केवल पंचो की नहीं हुई। जब भी हम मीटिंग करते पुरा गांव इक्टठा होते। उनकी समस्या सुनते और उनकी समस्याओं का निस्तारण शुरू किया तो जो विश्वास जमा उस विश्वास के कारण ही हम कोई कार्य करने में सफल हो पायें।

आम तौर पर सरपंचों की शिकायत होती है कि ग्राम सभाएं बुलाते हैं तो लोग गुटबाज़ी के चलते आपस में लड़ने लगते हैं इसलिए ग्राम सभाएं नहीं हो पातीं। दूसरी तरफ गांव वालों का भी इन बैठकों से भरोसा उठ चुका है। ये समस्याएं आपके सामने भी आई?

हमारे यहां, जब मैंने पंचायत सम्भाली थी तो पंचायत भवन में कुछ नहीं होता था। मैंने आने के बाद अपना पंचायत-घर खुलवाया और वहां मीटिंग बुलानी चालू की। लोगों में विश्वास जमाया कि अगर वो आयेंगे तो उनकी बात भी सुनी जाएगी और जो मांग रखेंगे वह काम भी होगा। जब विश्वास जमा तो लोग आने शुरू हुए। अगर कोई ऐसा मसला आया भी जिसमें विवाद उठा तो खुद गांव वालों ने ही एक दूसरे को समझाया और गांववालो की समझाई से ही उसका हल निकला। शुरुआत को छोड़ दें तो मुझको कभी ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई ग्राम सभा में।

गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ लेने के लिए खूब मारामारी रहती है। हर कोई, खासकर प्रभावशाली लोग, गरीब बनकर इन योजनाओं का लाभ लेना चाहते हैं। और सारे देश में यह समस्या है। आपके गांव में भी होगी? आपके सामने ये समस्या आई?

नहीं… उसके लिए तो सबसे बड़िया ज़रिया ही ग्राम सभा है। अगर जनप्रतिनिधि मन में रखकर चले कि वास्तव में किसी गरीब को फायदा मिलना चाहिए तो सर्वोत्तम ज़रिया ग्राम सभा है। गांव के बीच में प्रभावशाली व्यक्ति चाहे वो कितना भी वो आम आदमी के बीच में यह नहीं कह सकता कि फायदा मुझे मिले। वो अलग से जरूर कह सकता है मगर गांव के बीच में नहीं कह सकता। गांव के बीच में कोई भी व्यक्ति उसे यह कहना हो कि वास्तव में जो गरीब है उसे फायदा मिलना चाहिए। तो हमने तो इसी जरिए से गरीब लोगो को फायदा पहुंचाया है वरना हमारे यहां जो प्रभावशाली लोग थे वो तो यही चाहते थे कि उन्हें सारा फायदा मिले और हमने यह जरिया अपनाया तो उस वजह से हम उन्हें अलग कर पाये।

गांव में आने वाला ज्यादातर पैसा तो योजनाओं के रूप में आता है, टाइड फण्ड के रूप में। ऐसे में लोग जब ग्राम सभा में अपने हिसाब से मांग उठाते होंगे तो दिक्कत नहीं आती?

हां, बिल्कुल यह टाइड फण्ड के चलते ही हमें काफी दिक्कतें हुई हैं। ग्राम सभाओं में बैठकर हमने लोगों के बीच योजनाएं पहुंचाने का काम बिना किसी पक्षपात के किया। बिना किसी राजनिति के, क्योंकि लिमिटेड सोर्सिस है। उसके बाद हमने अपने अपनी पंचायत की निजी आय भी बढ़ाई। टैक्स वगैरह लगा कर। निजी आय से भी हमने जो जरूरतमन्द लोग है उनको हाल ही में मैंने 35 मकान उनको दिए है और कुछ दानदाताओं को भी प्रेरित करते है। अभी हमे एक दानदाता ने 5 लाख दिये कि हम गरीब लोगों के मकान बना सके।

अगर टाइड फण्ड न होकर, सीधे पैसा आए तो ग्राम सभा उसपर योजनाएं बना सकती है?

बिल्कुल सही है हमने भी कई जगह आवाज उठाई है कि पंचायतो को टाइड फण्ड नहीं मिलना चाहिए अनटाइट फण्ड मिलना चाहिए। पंचायत अपना फैसला अपने तरीके से कर पाये। हर जगह की अलग-अलग परिस्थिति होती है। और हर गांव में जो है अलग-अलग तरह के जीवन यापन के स्रोत होते है तो योजनाएं भी वहीं के लोग बनाएं। पंचायतों में योजनाएं बने और सरकार यह सुनिश्चित करे कि पंचायतें सारे फैसले ग्राम सभाओं में ले। उसकी आप विडियोग्राफी करवायें। उसपर आप सख्ती करें। लेकिन आप अनटाइट फंड दीजिये उन्हें।

आप तो पांच से सरपंच रहीं हैं कुछ ऐसे मौके आप हमें बता सकती हैं कि अगर अनटाइट फण्ड होता तो गांव में क्या काम कराया जाता।

जैसे हमारे गांव में स्वाइन फ्लू के काफी केस हुए। हेल्थ के नज़रिए से हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर पाये। इसी तरह जब भी तेज बारिश आती है तो बरसाती नाला नदी की तरह निकलता है। उसने अपना रास्ता बदल लिया और वो कच्ची बस्ती के अन्दर चली गई। उससे कई घर तबाह हो गए और टूट गए… कच्चे घर थे। हमारे पास अनटाइट फण्ड होता तो हम उन्हें तुरन्त कुछ सहायता दे पाते। लेकिन हमारे पास कुछ भी नही था और सरकार की व्यवस्था ऐसी है कि… हालांकि हमने कलेक्टर को सारे कागज बनाकर भेजे। लेकिन अधिकतम 1500 रूपये मिल सकते है तो उन्हें 1500 ही मिल पाये। फिर हमने कुछ दानदाताओं से उनकी मदद करवाई।

सरकार की नीतियां आपको कहीं पंचायत विरोधी लगती हैं? क्या कभी ऐसा लगता है कि सरकार पंचायतों पर भरोसा नहीं करती?

… जैसे इन्दिरा आवास में प्रतीक्षा सूची का काम अध्यापकों को दिया गया है। अब जिसने मास्टरों को दो पैसे दे दिये, मास्टर ने उसका नाम कर दिया प्रतिक्षा सूची में… एक तरफ तो आप बात करते है पंचायतों को अधिकार देने की, पंचायतो पर विश्वास बनाने की, लेकिन पंचायत के जनप्रतिनिधियों पर विश्वास रहा नहीं सरकार का। आप देखिए जो मास्टरों ने बी.पी.एल. सर्वे 2002 सुचकांक तैयार किया उसके आधार पर प्रतिक्षा सूची दिल्ली और जयपुर से ही बनकर आती है। और जो हम पहले तय करते थे कि गांव में बैठकर जो सबसे गरीब है उसे इन्दिरा आवास दिया जाये। अब पंचायतो की उसमें कोई भी भुमिका नहीं रही। जो प्रतिक्षा सूची में तय हो कर नाम आ गये उन को ही इन्दिरा आवास तय कर दिये गये। यदि वो गलत है तब भी और सही है तब भी।

अफसरशाही गांव सभा और पंचायत पर हावी रहती है। आपको इसका अनुभव हुआ?

हां, बिल्कुल वो अफसर कभी नहीं चाहेंगें कि जनप्रतिनिधि अपने ढंग से काम कर सकें। हमने हमारा मन्दिर का फैसला था। 600 साल पुराना पुकरनी माता का मन्दिर था। और उसमें कुछ लोगो ने कब्जा कर लिया। उस मन्दिर को बन्द कर दिया। पुरे गांव ने कहा कि यह मन्दिर खुलना चाहिए। इसमें पुजा अर्चना करनी चाहिए। हमने उसके लिए ग्राम सभा में प्रस्ताव रखा। लेकिन वे जो प्रभावशाली लोग थे उन्होंने पंचायत समीति से हमारे इस फैसले पर स्टे रख दिया जबकि उन्हें कोई अधिकार नहीं कि वो स्टे कर सके। यह हमारे गांव से उनको पाबंद कर दिया। यह ऐसी सेकड़ों चीजें हैं। जिसके द्वारा यह समझ में आता है।

अफसरों को अधिकार देने का पक्ष लने वालों का कहना है कि गांवों में जनप्रतिनिधि भी प्रभावशाली लोगों के पक्ष में फैसला ले सकते हैं?

मै तो कहती हूं कि जनप्रतिनिधि को आप पाबंद करिये कि वो ग्राम सभायें करें। घर बैठकर निर्णय न ले। इसकी पाबंदगी होनी चाहिए जनप्रतिनिधि पर, न कि यह होना चाहिए कि उसे टाइट फण्ड दिया जाये। या उसपर कोई दूसरे नियम थोपे जाये।

 

 

 

 

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