मनीष कुमार नेमा, सुरेन्द्र कुमार चंदनीहा, प्रवाहिनी अंक 24 (2017), राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
किसी नदी का पारिस्थितिकी तंत्र वह समग्र क्षेत्र होता है जिसमें उसके अपने प्राकृतिक वातावरण में उपस्थित सभी जैविक (Biotic) घटकों जैसे पौधों, जानवरों और सूक्ष्म जीवों और सभी अजैव (Abiotic) घटकों के बीच समस्त भौतिक और रासायनिक क्रियाएँ संपादित होती हैं।
लगभग सभी भारतीय नदियों के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र, मानव गतिविधियों के अतिक्रमण एवं हस्तक्षेप से पीड़ित है, जिसके परिणामस्वरूप दिन-प्रतिदिन नदियों के प्राकृतिक आवास (Natural Habitat) को नुकसान पहुंच रहा है और उसकी गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। और इसके कारण अनेक मछलियों सहित कई ताजे जल की प्रजातियां लुप्तप्राय हो रही हैं। भारत का सबसे बड़ा नदी बेसिन, गंगा बेसिन जहां ताजे पानी की मांग बहुतायत में है वो भी इससे अछूता नहीं रहा है। भारत सहित अधिकांश देशों में नदी संरक्षण और प्रबंधन की गतिविधियां, पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण घटक बायोटा के अपर्याप्त ज्ञान से पीड़ित हैं और कारगर साबित नहीं हो पा रही हैं।
ताजे पानी में जैव विविधता को होने वाली हानि के मुख्य कारणों में निवास स्थान की गुणवत्ता में गिरावट और विखंडन, विदेशी प्रजातियों का प्रादुर्भाव, जल विचलन (Diversion), जल प्रदूषण और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव आदि सम्मिलित हैं।
गंगा नदी अपनी पारिस्थितिक अखंडता बनाए रखने की चुनौतियों का सामना कर रही है। बांधों के निर्माण द्वारा सिंचाई के लिए अंधाधुंध जल विचलन, जल प्रदूषण और लगातार जल प्रवाह एवं गुणवत्ता में गिरावट इसके प्रमुख कारण हैं। इसके अलावा, हिमालय में भागीरथी, अलकनंदा और उनकी सहायक नदियों की मुख्य शाखाओं पर चल रहे और प्रस्तावित पनविद्युत परियोजनाओं के निर्माण, गंगा नदी के जल की गुणवत्ता के साथ-साथ इसके पारिस्थितिक तंत्र को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहे हैं। गंगा के पारिस्थितिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए नदी के जल में प्रदूषकों के निर्वहन को नियंत्रित करने, बाढ़ एवं सूखे को नियंत्रित करने के लिए वैकल्पिक गैर-संरचनात्मक उपायों को अपनाने और ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में स्थित वनों का प्रबंधन करने की आवश्यकता है। नदी के जल और उसके जैव-संसाधनों के दीर्घकालीन एवं टिकाऊ उपयोग के लिए प्रयास करना होगा।
चूँकि गंगा नदी में बेसिन भारत के अलावा चीन, नेपाल, और बांग्लादेश भी शामिल हैं; अत: गंगा नदी का संरक्षण और प्रबंधन करने के लिए सभी देशों के मध्य आपसी अंतरराष्ट्रीय सहयोग और सामंजस्य बनाए रखने की भी आवश्यकता है, जिसमें सभी अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम राष्ट्र अपना-अपना हित साध सकें। इसके अलावा, ताजे पानी की जैव विविधता और नदी पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने के लिए संरक्षण योजना को आगे बढ़ाने और बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान की महती आवश्यकता है।
गंगा बेसिन का परिचय
गंगा नदी बेसिन, जो भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों की विरासत है, विश्व का पांचवां सबसे बड़ा नदी बेसिन है। यह लगभग 10,60,000 वर्ग किमी क्षेत्र में विस्तारित है और उसमें से लगभग 8,61,000 वर्ग किमी का क्षेत्र भारत में है।
गंगा नदी का उद्गम 4,100 मीटर की ऊंचाई पर गढ़वाल हिमालय में स्थित गौमुख (30 डिग्री 55' उत्तर /70 डिग्री 7' पूर्व) नाम की हिम-कन्दरा से होता है जो गंगोत्री ग्लेशियर का एक भाग है। लगभग 2,550 किमी की यात्रा तय करके गंगा बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाती है। गंगा बेसिन को भारतीय उपमहाद्वीप में तीन मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है। सबसे पहले उत्तर दिशा में घने वन युक्त युवा हिमालय के पहाड़ियाँ के साथ ही विशाल वन्य शिवालिक पर्वत श्रृंखला, दूसरी तरफ दक्षिण में पहाड़ों और पठारों से घिरे प्रायद्वीपीय ढाल, और घाटियों और नदी के मैदान और तीसरा इन दोनों के बीच में स्थित गंगा नदी का विशाल उपजाऊ जलोढ़ मैदान। अपने वार्षिक जल निर्वहन क्षमता 18,700 घन मीटर /सेकंड वाली गंगा दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी नदी है। गंगा जलग्रहण क्षेत्र के भीतर अंतरवार्षिक प्रवाह में चरम बदलाव संकलित एवं आंकलित किए गए हैं। गंगा नदी के औसत अधिकतम प्रवाह 468.7X109 घनमीटर है जो भारत के कुल जल संसाधनों के 25.2% के बराबर है। और साथ ही तलछट आक्षेप (sediment) की एक विशाल परिमाण (1,625x106 टन) भी नदी से नीचे की ओर ले जाया जाता है और मानसून के दौरान बाढ़ के मैदानों में वितरित किया।
चित्र 4. गौमुख : गंगा नदी का उद्गम (बाएँ) और पटना में गंगा पर गांधी सेतु
गंगा बेसिन में भारत, नेपाल और बांग्लादेश मिलकर 45 करोड़ से अधिक लोगों को आश्रय देते हैं (Gopal 2000)। भारत में गंगा बेसिन में लोगों की औसत जनघनत्व 540 व्यक्ति प्रति वर्गकिमी है जो दुनिया के औसत 13.3 व्यक्ति प्रति वर्गकिमी से कहीं अधिक है। जबकि बिहार राज्य में यह औसत लगभग 1102 व्यक्ति प्रति वर्गकिमी है। इस प्रकार गंगा बेसिन दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है।
भारत में, गंगा और गंगा की अधिकांश सहायक नदियों को सिंचाई, जलविद्युत परियोजनाओं आदि के लिए बैराज और बांधों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। इससे मछली उत्पादन में गिरावट, प्रजातियों की जैव-विविधता का नुकसान और परिणामस्वरूप गंगा की पारिस्थितिक अखंडता पर बुरा प्रभाव देखने में आया है (Das 2007, Payne Etal 2001)। झरने की तरह बहने वाली गंगा और उसकी सहायक नदियों के तेज पानी का प्रवाह को स्थिर जल के जलाशयों में बदल दिया गया है या नदियों के कई हिस्सों को पूरी तरह से प्रवाह से वंचित किया गया है। इसके अलावा, सरकार द्वारा दर्ज की गयी करीब 29 ताजे पानी की मछलियों की प्रजातियों को कमजोर और लुप्तप्राय श्रेणियों के तहत चिह्नित किया गया है (Lakra et al 2010)। इसलिए, गंगा बेसिन के समग्र विकास और भारत-गंगा क्षेत्र की पोषण और आजीविका सुरक्षा के लिए नदी के संरक्षण और बहाली महत्वपूर्ण हो गई है। नदी की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को जल और मछली प्रदान करने तक ही सीमित नहीं हैं लेकिन संभवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण सेवा उनके अपशिष्टों के एकीकरण (Assimilation) में निहित होती है, जो अनेक मानव गतिविधियों का परिणाम है। व्यावहारिक रूप से जैव विविधता के सभी घटक इस अपशिष्ट प्रसंस्करण और एकीकरण में योगदान करते हैं, और इसके उपयोग जल की उच्च गुणवत्ता और उत्पादकता को बनाए रखने में होता है।
पारिस्थितिकी तंत्र के लिए चिंता के विषय
जैव विविधता : गंगा नदी बेसिन में, बायोटा विविधता और समुदाय की संरचना में परिवर्तन पाये गए हैं और इस परिवर्तन के लिए जलविज्ञानीय परिवर्तन, बांध निर्माण, अत्यधिक मत्स्य पालन, जल प्रदूषण, जल विचलन, बदलते भूमि उपयोग पैटर्न, विदेशी प्रजातियों के आक्रमण, तेजी से अवसादन, वनों की कटाई, जलवायु परिवर्तन और भूमि का क्षरण आदि मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र के लिए विभिन्न खतरों और उनके प्रभावों का समुचित मूल्यांकन, प्रत्यक्ष रूप से पारिस्थितिकी तंत्र के लिए संरक्षण रणनीतियों, प्रबंधन विकल्प और प्राथमिकताओं को सूचित करता है (Linke et al 2007)। ताजे पानी की पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण योजना मुख्य रूप से पारिस्थितिकी प्रणालियों की पारिस्थितिकीय- अखंडता के आंकलन करने पर निर्भर करती है (Rao 2001) । गंगा नदी के ऊपरी जल प्रवाह क्षेत्र में ऋषिकेश से नरोरा तक बैराज और बांधों की एक श्रृंखला सी बना दी गई है और उत्तराखंड की पहाड़ियों में निर्मित टिहरी बांध ने भी गंगा नदी के प्रवाह को प्रभावित किया है। इन विभिन्न जल विचलकों का महाशीर, कैटफिश, हिलसा आदि अन्य प्रवासी मछलियों के अंडे देने के स्थान और प्रवास मार्गों पर हानिकारक प्रभाव देखने को मिला है (Sharma 2003) ।
चित्र 2 : गंगा नदी में पाई जाने वाली डॉल्फिन मछली और घड़ियाल
पर्यावरणीय और जलविज्ञानीय परिवर्तनों के मुख्य कारणों में नदियों पर बांध और बैराज के निर्माण, दलदली स्थलों और बाढ़ के मैदानों की हानि और जल विचलन है। जल प्रवाह में परिवर्तन, मौसमी प्रवाहों और बांध से जल विचलन द्वारा जल प्रवाह की विविधता के पैटर्न या अंतर-बेसिन स्थानांतरण आदि के कारण कई नदियों में जैव विविधता पर गंभीर और नकारात्मक प्रभाव पड़े हैं।
प्रदूषण की स्थिति: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board, सीपीसीबी) द्वारा वर्ष 2001-2006 अवधि में गंगा बेसिन में स्थित सभी राज्यों में जल गुणवत्ता पर कराये गए अध्ययन में यह पाया गया है कि उत्तराखंड राज्य में गंगा नदी अपेक्षाकृत स्वच्छ है। कुल कॉलिफोर्म (TC) और मल कॉलिफोर्म (FC) इन दो मापदण्डों को छोड़कर अन्य सभी मापदंडों पर गंगा खरी उतरती है। हालांकि हरिद्वार के डाउन स्ट्रीम स्थान को एक चिंतनीय स्थान के रूप में चिह्नित किया गया है। उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के ऊपरी भाग (गढ़मुक्तेश्वर से कानपुर डाउन स्ट्रीम) में पानी की गुणवत्ता स्थान और समय के अनुरूप अस्थायी रूप से प्रदूषित पायी गयी। उत्तर प्रदेश में ही निचले भाग (डाल्मू से त्रिघाट तक) में पानी की गुणवत्ता आकलन भी प्रदूषित पाया गया था। बिहार राज्य में पानी की गुणवत्ता का स्तर (बक्सर से खालगाँव तक) और जैविक प्रदूषण के तुलनात्मक रूप से उच्च पाया गया। पश्चिम बंगाल में अधिकांश निगरानी स्थानों में जल गुणवत्ता आकलन से कार्बनिक और कोलेमिफ प्रदूषण की बात की पुष्टि होती है। सीपीसीबी ने हरिद्वार के डाउन स्ट्रीम, कन्नौज से वाराणसी डाउन स्ट्रीम और पश्चिम बंगाल में कुछ स्थानों (दक्षिणेश्वर, उलबेरिया और डायमंड हार्बर) को गंगा नदी के तीन अत्यंत प्रदूषित खंडों के रूप में चिह्नित किया है।
जहरीले रसायन : गंगा बेसिन में प्रतिदिन लगभग 12,000 मिलियन लीटर (एमएलडी) अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, जबकि वर्तमान में केवल 4,000 एमएलडी अपशिष्ट जल की शोधन क्षमता उपलब्ध है (NMCG.nic.in/pollution.aspx)। गंगा और इसकी सहायक नदियों की मुख्य धारा के किनारे-किनारे लगभग पचास बड़े शहर (36 प्रथम श्रेणी और 44 द्वितीय श्रेणी) बसे हुये हैं जो प्रतिदिन लगभग 2720 मिलियन लीटर नगरीय अपशिष्ट जल को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गंगा में निर्वाहित करते है। अभी तक इस अपशिष्ट जल के शोधन हेतु मात्र 1000 एमएलडी क्षमता वाले शोधन संयंत्र ही स्थापित किए जा सके हैं जो कुल आने वाले अपशिष्ट जल का एक तिहाई ही है। गंगा नदी के पानी को जहरीले रसायनों और रोगाणुओं से दिन-प्रतिदिन प्रदूषित
किया जा रहा है।
परिमाणिक रूप में औद्योगिक प्रदूषण का योगदान लगभग 20 प्रतिशत है, लेकिन इसकी जहरीली और अजैविक विनाशशील प्रकृति के कारण, इसका दुष्परिणाम अत्यधिक है। गंगा बेसिन के भारतीय क्षेत्र में लगभग 764 प्रदूषणकारी छोटी बड़ी औद्योगिक इकाइयां हैं जो या तो सीधे या नालियों के माध्यम से अपशिष्ट जल को गंगा में निर्वाहित कर रही हैं। इन 764 उद्योगों में से, 687 उत्तर प्रदेश में स्थित हैं। इन अत्यधिक प्रदूषणकारी उद्योगों द्वारा 1123 एमएलडी शुद्ध जल का उपयोग किया जाता है और कुल 501 एमएलडी अपशिष्ट जल को विसर्जित किया जाता है। यह खपत की कूल पानी का 45% (लगभग) है।
रामगंगा और काली नदियों के जल प्रवाह क्षेत्र और कानपुर शहर के औद्योगिक क्षेत्र, गंगा नदी में औद्योगिक जल प्रदूषण के कुख्यात स्रोत हैं। गंगा बेसिन में जल प्रदूषण के लिए कानपुर के चर्म उद्योग तथा कोसी, रामगंगा एवं काली नदी जल प्रवाह क्षेत्र में स्थित शराब, पेपर और चीनी के कारखाने आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।
औद्योगिक इकाइयों की संख्या के संदर्भ में चमड़े के कारखाने गंगा क्षेत्र में प्रथम स्थान पर हैं। वहीं अपशिष्ट जल उत्पादन के मामले में पल्प और पेपर के कारखाने प्रथम स्थान पर हैं और उनके बाद खाद, रासायनिक और चीनी कारखानों का दूसरा स्थान है। बड़ी संख्या में उपस्थित इन कल-कारखानों के अपशिष्ट जल एवं जहरीले कचरे से गंगा नदी का जल इतना दूषित हो गया है कि इसके गंभीर प्रभाव से अनेक मछलियां और अन्य जल प्रजातियां लुप्त अवस्था में पहुंच गयी हैं।
वाराणसी के आसपास किए गए अध्ययन में तो ये पाया गया है कि मछलियों के शरीर में भारी धातुओं का संचय शुरू हो गया है (Das et al 2007, Sinha 2004)। गंगा बेसिन में कृषि और स्वास्थ्य क्षेत्रों में डीडीटी, एल्ड्रिन, डेल्दरिन, बीएचसी, एचसीएच आदि जैसे जैविक-क्लोरीन कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से मछलियां और अन्य लुप्तप्राय जानवरों जैसे गंगा-डॉल्फिन में इन जहरीले रसायनों के कारण जैव-सांद्रता (Bio Concentration) और जैव-परिवर्तन (Boi-Mutation) के लक्षण बढ़ गए हैं। कृषि क्षेत्र में लगभग 134.8 मिलियन लीटर दूषित जल गंगा नदी में गिर जाता है। इसी तरह लगभग 2,573 टन हानिकारक कीटनाशक, मुख्य रूप से डीडीटी और बीएचसी सालाना गंगा बेसिन में कीट नियंत्रण (Sinha 2007) के लिए उपभोग किया जाता हैं। गंगा बेसिन में प्रतिदिन कुल प्रदूषण के हिसाब से करीब 200 टन जैविक ऑक्सीजन की मांग (बीओडी) होती है। हालांकि, यह अभी भी अपेक्षाकृत स्थानीय है और हरिद्वार, कानपुर, वाराणसी और कोलकाता के निकट डायमंड हार्बर सहित शहरी केंद्रों पर केंद्रित है।
गंगा बेसिन में ऐसी सभी मानव-रचित गतिविधियों से न केवल बेसिन में जैव विविधता में कमी आ रही है बल्कि नदियों को उनके अस्तित्व के खतरे का सामना भी करना पड़ रहा है। इसलिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हमें नदियों को अविरल धारा और निर्मल धारा के मूल मंत्र अनुरूप प्रवाहित होने देना चाहिए। हमें सिंचाई के प्रयोजनों के लिए आपूर्ति की जा रही पानी के अपव्यय को कम करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि नदियों में अधिकतम प्रवाह संभव हो सके। सिंचाई के लिए विभिन्न आधुनिक और अधिक दक्ष सिंचाई पद्धतियों जैसे फव्वारा सिंचाई, ड्रिप सिंचाई आदि को अपनाया जाना चाहिए।
संभाव्य उपाय
- 1 - गंगा नदी और इसकी जैव विविधता के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम यह है कि गंगा नदी और इसकी सहायक नदियों के ऊपरी क्षेत्रों में प्रजाति विशेष के लिए संरक्षित क्षेत्रों को चिह्नित किया जाना चाहिए। उनके महत्वपूर्ण प्राकृतिक निवास को स्थानीय समुदायों के साथ विचार-विमर्श कर संरक्षित क्षेत्रों के रूप में घोषित किया जाये।
- 2 - गंगा या उसकी सहायक नदियों पर प्रस्तावित किसी भी पनबिजली परियोजनाओं के क्रियान्वयन से पहले उचित पर्यावरणीय मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
- 3 - यह आवश्यक है कि साल भर नदी के पारिस्थितिकी तंत्र और जलीय जीवन को संरक्षित करने के लिए न्यूनतम प्रवाह बनाए रखा जाए। यह बनाने के लिए सलाह दी जाती है कि गंगा नदी बेसिन में अधिक जल भंडारण की सुविधा बनाई जाए और न्यूनतम प्रवाह अवधि में नदी में प्रवाह सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए उस जल भंडार से पानी छोड़ा जाये।
- 4 - नदी गंगा और उसकी सहायक नदियों के लिए औद्योगिक अपशिष्ट जल एक बहुत बड़ी समस्या है। प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में विशेष रूप से चर्मशोधन, चीनी, पल्प एंड पेपर, शराब आदि के कारखानों द्वारा पर्यावरणीय मानकों के अनुपालन को सुनिश्चित किया जाए और
- पर्यावरण निगरानी इकाइयों से समय-समय पर जांच करवाई जाए।
- 5 - जल के तीनों प्रमुख उपभोक्ता सैक्टर म्यूनिस्पिल, कृषि और उद्योग के लिए जल अंकेक्षण (Wat Auditing) अनिवार्य किया जाए।
- 6 - चूंकि अपशिष्ट जल के प्रादुर्भाव और उसके शोधन क्षमता के बीच एक बहुत बड़ा अंतर है। अत: गंगा और उसकी सहायक नदियों के किनारे बसे हुए शहरों और कस्बों में अधिक से अधिक अपशिष्ट शोधन संयंत्र (सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट, एसटीपी) का निर्माण किया जाये। इस कार्य में गंगा एक्शन प्लान (GAT) तथा स्वच्छ गंगा राष्ट्रीय मिशन (NMCG) के तहत राज्य सरकार को वित्तीय सहायता भी दी जा सकती है।
- 7 - विकास कार्यो के साथ-साथ गंगा नदी के मध्य और निचले हिस्सों में मछलियों के संरक्षण के लिए प्रवासी प्रजातियों के आवास वश्यकताओं आदि को भी ध्यान में रखना चाहिए।
- 8 - गंगा नदी की कई प्रजातियों के जैविक लक्षण, आवासीय आवश्यकताओं तथा सर्वेक्षण के संदर्भ में अभी भी आधा अधूरा ज्ञान है और इसलिए अध्ययन और शोध की आवश्यकता है।
- 9 - प्रजातियों के प्राकृतिक शेयरों को बहाल करना एक प्राथमिकता होनी चाहिए, जिसमें न्यूनतम प्रवाह की आवश्यकताएं सुनिश्चित करना और खोए गए प्रजनन मैदानों के पुनरुद्धार करना शामिल हो। और इस प्रक्रिया की सफलता स्थानीय निवासियों को हितधारक भागीदार के
- रूप में प्रतिनियुक्त कर प्राप्त की जा सकती है ताकि नदी की आवश्यक प्रवाह और गहराई बनाई जा सके।
- 10 - बाढ़ के मैदानों और दलदलीय भागों के संरक्षण एवं बहाली की भी प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि ये नदी पारिस्थितिकी तंत्र का एक अभिन्न अंग होते हैं। भारी गाद के जमाव के कारण कई बाढ़ के मैदानों ने पहले ही मुख्य चैनल के साथ अपना संपर्क खो दिया है। कई प्रजातियां मिलन, जनन, प्रजनन और प्राकृतिक आवास के रूप में इन बाढ़ के मैदानों का उपयोग करती हैं।
- 11 - नदियों के महत्वपूर्ण प्राकृतिक आवासों को बहाल करने के लिए, अनुसंधान के प्रयासों की यथासंभव सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के रूप में परिवर्तित किए जाने की आवश्यकता है।
- 12 - नदी के किनारे और आसपास के जलग्रहण क्षेत्र पर स्थानीय पेड़ों, झाड़ियों आदि के व्यापक वृक्षारोपण द्वारा मृदा कटाव के रोकने और तलछट प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
- 13 - मछली को किसी जल संरचना से पार कराने के लिए संरचना का प्रभावी निर्माण आवश्यक है। अभी प्रयोग में आने वाली पारंपरिक मछली-सीढ़ी (Fish ladder) सफल नहीं हो सकी है क्योंकि, ज्यादातर मछलियां कूद नहीं सकती हैं। पहले गंगा नदी के मध्य खंड में, जो इलाहाबाद से नीचे हिलसा मछली बहुतायत में पाई जाती थी किन्तु, फरक्का बैराज की स्थापना के बाद वो लगभग गायब हो गयी है, जबकि बैराज में मछली-सीढ़ी का प्रावधान रखा गया है। मछली के रास्ते को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए ताकि मछलियां अप्स्ट्रीम क्षेत्रों में प्रवास और प्रजनन कर सकें।
- 14 - नदी के पारिस्थितिकी तंत्र उपस्थित विभिन्न प्रजातियों के जीवन-चक्र एवं उनकी सह-जीविता के ज्ञानवर्धन के लिए अनुसंधान के प्रयासों का सफल परिरक्षण एवं संरक्षण अति आवश्यक है। नदी पारिस्थितिकी तंत्र की विभिन्न क्रिया-कलापों में प्रजाति विविधता की भूमिका को भारतीय नदियों की व्यापक पर्यावरण प्रबंधन नीतियों में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
- 15 - गंगा बेसिन में बाढ़ नियंत्रण और जल संसाधन विकास के नाम पर तथाकथित विकास गतिविधियों के लागत और लाभ के आदान-प्रदान और विश्लेषण करने का यह एक उचित समय है। हमें अपनी प्राकृतिक प्रणालियों के साथ न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए, विशेषरूप से नदियां जो न केवल हमारी जीवन-रेखा ही हैं बल्कि हमारी सभ्यता के पालनहार हैं।
निष्कर्ष
गंगा नदी न केवल भारतीय सभ्यता का लालन-पालन करती है, बल्कि यह दुनिया के इस हिस्से के लोगों के लिए जीवन-रेखा है। नदी ने उपजाऊ भूमि का विशाल मैदान बनाया है, जिसने मध्य एशिया तक के लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया। समय के साथ-साथ इस नदी के तट पर कई शहर और कस्बे अस्तित्व में आये।
यह नदी बेसिन दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से एक है। गंगा नदी अनादिकाल से ही शुद्ध मीठे पानी के स्रोत के साथ ही साथ आर्थिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का भी स्रोत बनी रही है। यह हजारों जलीय वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों की निरंतरता को बनाए रखे हुए है जिसमें नाना प्रकार के स्थानीय जीव जैसे गंगा डॉल्फिन, गवायालिस, घड़ियाल आदि शामिल हैं।
हालांकि, 1950 के दशक से ही अनेक बांधों, बैराजों और तटबंधों के निर्माण, जंगलों की अंधाधुंध कटाई, मृदा अपरदन, औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट से जल-प्रदूषण आदि मानवीय गतिविधियों के चलते गंगा नदी अपनी पारिस्थितिक अखंडता के क्षरण के खतरों का सामना कर रही है। उक्त कारणों से गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता प्रभावी रूप से गिर गई है और कुछ स्थानों पर तो गंगा-जल नहाने के उद्देश्यों के लिए भी उपयुक्त नहीं रह गया है तो पीने के बारे में बात ही क्या करनी। गंगा नदी में जल प्रवाह बहुत कम हो गया है। विशेष रूप से नरौरा और इलाहाबाद के बीच स्थिति सबसे खराब है, जहां नदी में मीठे पानी की तुलना में औद्योगिक और घरेलू अपशिष्ट जल अधिक प्रवाहित होता है। लगातार कम होते जल प्रवाह के कारण गंगा नदी की समावेश क्षमता प्रभावित हुई है और नदी ने अपनी स्वतःशुद्धिकारी क्षमता खो दी है।
इन सभी परिस्थितियों के बाद भी, गंगा नदी आज भी संपन्न और प्रचुर जलीय जैव विविधता को आश्रय देती है। यदि पारिस्थितिकी तंत्र की उपेक्षा कर हिमालय क्षेत्र में केवल विकास पर ध्यान दिया गया तो ये विकास परियोजनाएं इस वर्तमान स्थिति को बिगाड़ सकती हैं। विदेशी प्रजातियों का बढ़ता हुआ प्रवाह भी स्थानीय जल-जीवन के लिए एक बड़ा खतरा है। जैसा कि सर्वविदित है कि, जलीय-जैव और नदी दोनों में स्थिति-स्थापक क्षमता (Resilient Capacity) है। अतः गंगा नदी में जल प्रवाह में वृद्धि करने और नदी में प्रदूषण भार को कम करने की तत्काल आवश्यकता है। और यह तब ही संभव है जब उन कृषि पद्धतियों का अधिक से अधिक उपयोग किया जाए जो सिंचाई के लिए नदी के पानी का कम से कम उपभोग करती हों। नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाए, जिससे मृदा अपरदन की रोकथाम की जा सके। जल प्रदूषण की कमी के लिए कड़े कदम उठाए जायें।
गंगा नदी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। लेकिन आज सरकार और हम सभी के निहित स्वार्थों के कारण गंगा का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है। जबकि गंगा सदियों से हमारी इस संस्कृति और सभ्यता को अपने निर्मल जल से सींचती आ रही है। आज समय आ गया है कि हम, अपनी थोड़ी सी सुख सुविधा का लालच छोड़कर इस गंगा, जिसको सदियों से हम माँ गंगा कहते आ रहे हैं, को विलुप्त होने से बचाने के लिए उठ खड़े हों और गंगा नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने का वचन लें। तथा “गंगा बचाओ”, “राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन” और “नमामि गंगे” जैसे आन्दोलनों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर अपना योगदान प्रदान करें।
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