राष्ट्रीय मीडिया संवाद के निहितार्थ

प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और लेखक अनुपम मिश्र ने कहा इस देश को देश का आम आदमी चला रहा है। यह सोचना गलत है कि कोई अच्छा नेता आएगा और देश सुधर जाएगा। अच्छे समाज की भाषा में खुशबू होती है जो उसके काम को दूर तक पहुंचाती है। पाकिस्तान की सीमा के पास राजस्थान के गांव छत और आंगन का पानी इकट्ठा कर लेते हैं। जयपुर के पास स्थित जयगढ़ गांव में 400 वर्ष पूर्व बनाई व्यवस्था से आज भी 3 करोड़ लीटर प्राकृतिक जल इकट्ठा किया जाता है। आजकल नियम की बातें दीवारों पर लिखी जाती हैं जबकि इस देश में अच्छे-अच्छे नियम मन में लिखे होते थे। राष्ट्रीय मीडिया संवाद का सातवां सम्मेलन जिला होशंगाबाद के केसला ब्लाक के सुखतवा गांव में संपन्न हुआ। 29, 30 जून और 1 जुलाई तक चलने वाले इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में देश भर के मीडिया के लोगों ने सहभागिता की है। इस चिंतन और मनन के बाद अमृत की कुछ बूंदे अवश्य निकली हैं जिसका प्रत्रकारिता के राष्ट्रीय फलक पर दूरगामी प्रभाव अवश्यभांवी है। इस सम्मेलन का आधारपत्र जारी करते हुए विकास-संवाद के कुछ मूल प्रश्नों को खड़ा करने का प्रयास किया है। इन बिंदुओं को आधार बनाकर बहुत सारे मुद्दे न केवल स्पष्ट रूप से उभर कर आए हैं बल्कि इससे पत्रकारिता के भावी सरोकारों का रास्ता भी साफ हुआ है। विकास-संवाद ने अपने आधारपत्र में संवैधानिक तंत्र का बदलता चेहरा और मीडिया पर केंद्रित विमर्श में कई संवैधानिक संस्थाओं का कमजोर और इससे इतर संस्थाओं का ताकतवर होते जाना सभी के लिए चिंता का विषय है। इस परिप्रेक्ष्य में मीडिया की ढांचागत भूमिका पर कई प्रश्न भी उठते हैं। इन प्रश्नों से ही एक रास्ता उभरता हुआ दिखाई देता है।

इस सम्मेलन की रेखांकित करने योग्य एक विशेषता यह रही कि इसमें अंग्रेजी-हिंदी की मुख्यधारा के प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ-साथ क्षेत्रीय मीडिया के लोगों ने भी पत्रकारिता के नए उभरते वैश्विक परिदृश्य में अपनी बातों को सामने रखा। इस मीडिया संवाद की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह रही कि- देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अखबार ‘द हिंदू’ के मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त ग्रामीण-मामलों के संपादक पी. सांईनाथ ने व्यापक फलक में अपनी बातें रखीं। पी सांईनाथ ने आंकड़ों सहित बताया कि देश के उद्योग जगत को केंद्रीय बजट में कई लाख करोड़ रुपयों की छूट दी गई है जबकि देश की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए धन उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। वास्तव में इसे आर्थिक लूटमार का वैश्वीकरण कह सकते हैं। आपने कहा हम राजनैतिक रूप से स्वतंत्र पर ‘लाभ की जेल’ में सजायाफ्ता लोग हैं।

पी. सांईनाथ के अनुसार ‘क्रोनी-केपिटेलिज्म’ के इस युग में धन की कमी के कारण पूरे देश में अब तक 5 हजार पत्रकार और फोटोग्राफर आदि नौकरी से निकाल दिए गए हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया का एक बड़ा घराना जो पत्रकारों को इस तरह से नौकरी से निकाल देने के विरुद्ध अभियान चला रहा था, ने खुद अपने चैनल से 150 लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया।

आपने बताया कि इस देश के सबसे बड़े औद्योगिक-घराने देश के सबसे बड़े मीडिया-घराने भी बन गए हैं। इस तरह की प्रवृत्ति निरंतर जारी है। टी.वी. पर थोड़े पैसे में लंबी-लंबी बहसें चल सकती हैं तो पत्रकारों और फोटोग्राफर की जरूरत ही नहीं रह गई है। आपने आगे बताया कि देश के औद्योगिक, शराब और रियल एस्टेट घरानों के लोग मीडिया समूह के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर में हैं। यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है।

प्रिंट मीडिया के बड़े घराने साफ-साफ कहते हैं कि हम ‘विज्ञापन-उद्योग’ में हैं। बंगाल में पिछले 2 वर्षों में चिटफंड कंपनियों के 7 नए अखबार बाजार में आ गए हैं। न्यूज चैनल में प्रतिमाह उद्योग और व्यापार जगत के लोगों को ‘लीडरशिप अवार्ड’ से सुशोभित किया जा रहा है। यह भी विज्ञापन धंधे का एक रूप है जो प्रिंट से इलेक्ट्रानिक मीडिया में आकर अधिक व्यापक हो गया है। इसमें देश के आर्थिक-जगत के लीडर गढ़े जाते हैं।

पी. सांईनाथ ने व्यापार जगत द्वारा अच्छे-अच्छे शब्दों के इस्तेमाल की तरफ इशारा करते हुए बताया कि हमारे देश में सत्यम और आदर्श घोटाले होते हैं। हमें भ्रष्ट की जा रही भाषा पर भी निगाह रखने चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले आर्थिक-सामाजिक और पर्यावरणीय सम्मेलनों में भारत से सैकड़ों की संख्या में पत्रकार, फोटोग्राफर और समाजसेवी पहुंचते हैं, जिनका प्रायोजन बड़े औद्योगिक घरानों के द्वारा मीडिया-समूहों से मिलकर किया जाता है। बड़ी संख्या में पत्रकार स्वीटजरलैंड जैसे महंगे देशों में जाते रहते हैं। इसके भी कई अर्थ हैं। मीडिया में इन प्रायोजकों के स्पष्ट संदेश पत्रकारों को मिलते रहते हैं।

अब देश की व्यवस्था और उद्योग जगत के लिए मंदी शब्द की जगह धीमी गति शब्द का प्रचलन आगे बढ़ाया गया है। मीडिया घरानों के पास कंपनियों के शेयर हैं और इसलिए शेयर-बाजार गिरने से मीडिया घरानों को भी नुकसान होता है।

पेड-न्यूज तो भयावह शक्ल ले चुकी है। समाचार-पत्रों के द्वारा विभिन्न संस्करणों के प्रभारियों को स्पष्ट बता दिया जाता है कि उन्हें कम से कम कितना पेड-न्यूज का ‘काम’ करना है। इस लक्ष्य को प्राप्त न कर सकने वाले व्यक्तियों को नौकरी से हटा दिया जाता है।

पी. सांईनाथ ने कहा ऐसे समय में स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए ‘गुरिल्ला पत्रकारिता’ की जरूरत है। चुनाव आयोग ने ‘पेड न्यूज’ पर कड़ा रुख अपनाया था पर चुनाव आयोग से श्री कुरैशी के सेवानिवृत्त हो जाने के बाद वह मामला दब सा गया है। अब पेड न्यूज की समस्या देश के सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।

देश पेड न्यूज से भी बड़ी समस्याओं की ओर बढ़ रहा है। देश के सामने सबसे प्रमुख चेतावनी यह है कि देश में एकाधिकारवादी-प्रवृत्ति बढ़ रही है। व्यापार और उद्योग जगत ने मीडिया को भी अपने प्रभाव में ले लिया है। यह युग ‘कार्पोरेट सेंसरशिप’ के युग की ओर बढ़ रहा है जिसमें कंपनियों के हितों में ही देश का हित देखा जा रहा है। आपने अंत में कहा स्वतंत्रता आंदोलन के प्रायः सभी बड़े नेता पत्रकार भी थे। लोकमान्य तिलक की गिरफ्तारी के विरुद्ध आम लोग सड़कों पर उतर आए थे। इन लोगों में कई लोग तो पढ़ना भी नहीं जानते थे। परंतु वह यह समझते थे कि उनकी भलाई के लिए काम करने वाले को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया है। इसलिए पत्रकारों को आम लोगों की भलाई की लड़ाई लड़नी चाहिए।

आम लोगों से भी पत्रकारिता की यह अपेक्षा है कि जब भी उन्हें समाज की किसी बात पर गुस्सा आए तो वे एक पत्र संपादक के नाम जरूर लिखें। इस समय देश में आर्थिक संकट के पूर्व की स्थिति चल रही है। एक बड़ा संकट आने वाला है और देश का प्रेस चुप है।

इस सत्र की अध्यक्षता प्रभात किरण इंदौर के संपादक प्रकाश पुरोहित ने की। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् और लेखक अनुपम मिश्र ने कहा इस देश को देश का आम आदमी चला रहा है। यह सोचना गलत है कि कोई अच्छा नेता आएगा और देश सुधर जाएगा। अच्छे समाज की भाषा में खुशबू होती है जो उसके काम को दूर तक पहुंचाती है। पाकिस्तान की सीमा के पास राजस्थान के गांव छत और आंगन का पानी इकट्ठा कर लेते हैं। जयपुर के पास स्थित जयगढ़ गांव में 400 वर्ष पूर्व बनाई व्यवस्था से आज भी 3 करोड़ लीटर प्राकृतिक जल इकट्ठा किया जाता है। आजकल नियम की बातें दीवारों पर लिखी जाती हैं जबकि इस देश में अच्छे-अच्छे नियम मन में लिखे होते थे।

अनुपम मिश्र ने राजस्थान की परंपरागत जल बचाने की पद्धतियों की व्याख्या करते हुए बताया कि सन् 1847 में दुनिया का सबसे पहला इंजीनियरिंग कॉलेज रुड़की में स्थापित किया गया था। इस कॉलेज में प्राकृतिक जल बचाने की पढ़ाई होती थी। उस समय तक इंग्लैंड में इंजीनियरिंग कॉलेज स्थापित करने की कल्पना भी नहीं की गई थी।

इस सत्र में जयराम, संपादक, स्टार समाचार ने समाज का लोकतंत्र और संवैधानिक लोकतंत्र पर अपनी बातें रखी। कश्मीर उप्पल ने लोकप्रिय साप्ताहिक ‘दिनमान’ से कवि और साहित्कार रघुवीर सहाय जैसे संपादकों को हटाने की घटना को पत्रकारिता जगत को लगे एक बड़े आघात के रूप में बताया। देश में पत्रकारिता की नर्सरी खत्म करने का यह सोचा समझा कदम था। रघुवीर सहाय जैसे संपादकों को हटाने की बाद की पत्रकारिता कहां पहुंच गई है यह सबके सामने है।

रजनी बख्शी टाइम्स ऑफ इंडिया की मुंबई स्थित पत्रकार ने कहा वैश्वीकरण देश के कुशल श्रमिकों को खत्म करता है। कंपनी और संगठित बाजार भारत के लघु बाजारों पर एकाधिकार प्राप्त करता जा रहा है।

सर्वोदय प्रेस सर्विस के चिंमय मिश्र ने सभी सत्रों का समन्वय किया। इस तीन दिवसीय सेमिनार के सभी सत्रों में अनेक महत्वपूर्ण बातें उभरकर आई हैं। इन बातों से पत्रकारिता में नए चिंतन और नई दृष्टि पैदा होने की पूर्ण संभावना है। राकेश दीवान ने कहा आजकल पत्रकार बहुत कम पढ़ रहे हैं। ‘सामयिक-वार्ता’ के संपादक सुनील के अनुसार मीडिया हिंसा को तो प्रमुखता देता है परन्तु आम लोगों के अहिंसक लोकतांत्रिक आंदोलन कभी राष्ट्रीय समाचार नहीं बनते हैं।

पी.के. कुठियाला कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि ने कहा कि मीडिया को ‘वाचडाग’ कहना उसे समाज की रचना से बाहर रखना है। अनिल बैखाल एक एक्टिविस्ट हैं। उनके अनुसार राजनैतिक दलों को आर.टी.आई. के दायरे के अंदर लाया जाना जरूरी है। अरविंद मोहन दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनके अनुसार कार्पोरेट हाउस के लोग संसद में आ रहे हैं और कानून बनाने का काम कर रहे हैं। प्रजातंत्र के पीछे बाजार की ताकत चल रही है। आपने कहा पहले दो दलों की राजनीति चलती थी जो अब 2 व्यक्तियों की राजनीति में बदल गई है। पूरा देश यह दृश्य देख रहा है।

एक सत्र में केसला क्षेत्र के स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने अनुभव सुनाए। फागराम और बाबा मायाराम ने कहा कि होशंगाबाद जिला विस्थापितों का जिला है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है। शेर बसाए और आदिवासी उजाड़े जा रहे हैं।

अरुण तिवारी संपादक, कल्पतरु एक्सप्रेस ने कहा कि न्यायाधीश कानूनों की व्याख्या करते हैं परन्तु प्रशासनिक अधिकारी कानूनों को क्रियान्वित करते हैं। देश में असमानता के लिए वे लोग जिम्मेदार नहीं है जो असमानता के विरुद्ध हथियार उठाते हैं। राजनीति के कनेक्शन ही समाज को डिस्कनेक्ट करने का काम करते हैं।

इस तरह राष्ट्रीय मीडिया संवाद के निहितार्थ अत्यंत गूढ़, गहन और चिंतनीय हैं। मीडिया के समस्त माध्यम एक बुरी खबर की तरफ इशारा करते हैं। अब सवाल देश की अस्मिता से बड़े होकर देश के प्रजातांत्रिक ढांचे के अस्तित्व के बनते जा रहे हैं। वैश्वीकरण ने हमारी समाज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था के बाद संवैधानिक व्यवस्था के ऊपर भी प्रश्न खड़े कर दिए हैं। राष्ट्रीय मीडिया संवाद से उठे प्रश्नों के निहितार्थ समझने का यह सही अवसर है।

कश्मीर उप्पल
एम.आई.जी.-31, प्रियदर्शनी नगर
इटारसी (म.प्र.) 461111,
फोन : 09425040457
ईमेल : kashmiruppal@gmail.com
(लेखक शासकीय महाविद्यालय इटारसी से सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं।)


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