साँपना नदी के पास, बैतूल के हिस्से की तरह बसा बैतूल बाजार कस्बा अपनी खेती के कारण पूरे जिले में मशहूर है। कहते हैं कि पिंडारियों ने बसाया था और अन्य जगहों की तरह यहाँ भी पानी के लिए असंख्य कुएँ हुआ करते थे। कहा जाता है कि पहले हर घर में एक या कहीं-कहीं तीन-चार तक निजी कुएँ और मंदिर हुआ करते थे। सम्पन्न किसानों के खेतों पर ‘आपसी यानि सिंचाई के कुएँ थे और चालीस फुट खोदने से अथाह पानी मिल जाया करता था। पास के सोहागपुर गाँव के पाण्डे परिवार को 1916 में गहरा और पक्का कुआँ खुदवाने के लिए अंग्रेज सरकार ने 200 रुपये के पुरस्कार से नवाजा था।
साँपना के पास बसे इसी गाँव के गणेश प्रसाद जी ने मटकों की रहट बनवाई थी। असल में इलाके में आए पंजाबी लोगों ने 1945-50 के आसपास रहट बनाकर बेचना शुरू किया था। तब एक रहट 200 रुपए तक में लग जाती थी। कुओं में लगी रहट और ‘माहुट’ यानी रबी की बोनी के बाद होने वाली बरसात से पर्याप्त सिंचाई हो जाती थी और बेहतर फसलें मिल जाती थीं।
इलाके में आम और करंजी के असंख्य पेड़ों वाला घना जंगल था और अक्सर चीता समेत कई जंगली जानवर गाँव के भीतर टहल जाया करते थे। सार्वजनिक कुएँ भी पर्याप्त संख्या में थे जिनमें से एक चार घिर्री का कुआँ प्रसिद्ध था। इसमें दो घिर्री से मीठा और बाकी की दो से खारा, बेस्वाद पानी मिलता था। इन कुओं की हर साल सफाई की जाती थी और नीचे से मिट्टी, गाद और कचरा निकालकर तल में चूना डाल दिया जाता था ताकि गंदगी निथरकर तली में ही जम जाए। कुओं की सफाई गाँव के सब लोग मिलकर करते थे।
उस जमाने की संपन्नता का कारण संतोष और लालचहीनता को बताते हुए बुजुर्ग ग्रामवासी सन् 30-32 में 50 रुपए में हुई गाँव की पटैलन की शादी का जिक्र भी करते हैं। यह संतोष और लालचहीनता पानी के मामले में भी थी। 80 सदस्यों वाला एक परिवार तब सिर्फ एक छोटी-सी कुंइया से अपनी पानी की जरूरतें पूरी कर लेता था लेकिन आज उसी परिवार के चार-पाँच लोगों को मोटरवाला कुआँ भी पूरा नहीं पड़ता।
नतीजे में जलसंकट खड़ा होता रहता है। 98 के साल में ही कम बरसात के कारण हुए जलसंकट में लोग ‘ऐक्का’ कर रहे थे। ‘ऐक्का’ का मतलब है एक पैर पर खड़े होकर 24 घण्टों की रामधुन या भजन गाना। गाँव के बड़े-बूढ़ों का कहना है कि पानी नहीं है तो लोग ‘ऐक्का’ कर रहे हैं लेकिन पानी आते ही उसे उलीच कर लोगों की गर्दन दबाएँगे। अकाल को झीरी यानि पतले कमजोर दाने के अकाल की तरह याद करने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि सूखे में भी पूरी पैदावार न हो, ऐसा कभी नहीं होता था।
पिछले 35-40 सालों में जंगलों का सफाया होने और पानी के किफायती इस्तेमाल की परम्परा टूटने से तीन तरफ साँपना नदी से घिरा होने के बावजूद बैतूल बाजार कई बार सूखा हो जाता है। बरसों से धीरे-धीरे हो रही पानी की इस कमी को देखने वाले बताते हैं कि कुओं में रहट लगने के कुछ साल बाद डीजल इंजन लगे और फिर बिजली की मोटरें। बटन दबाकर सरलता से पानी मिलने लगा तो फसल चक्र और आधुनिक संकर बीजों का चलन भी शुरू हुआ। लेकिन बाजारों को अधिक और तेजी से पहुँचायी जा सकने वाली फसलों की हड़बड़ी में लोग धरती की छाती से पानी उलीचने की बेरहमी को अनदेखा करते गए।
1956-57 से 62 के बीच साँपना नदी पर मझौला बाँध बनाकर इलाके की खेती के विकास की योजना बनी थी। इस बाँध से 40 फुट गहरा भू-जल उठकर 20-22 फुट पर आ गया था। लेकिन अधिक पानी और आधुनिक बीजों के चलते फसलों में गेरूआ रोग लगना शुरू हुआ। नदी को बाँधने से इलाके भर के छोटे-मोटे नाले सरीखे प्राकृतिक स्रोत भी कम या समाप्त हो गए।
घटते पानी और टोंटी खोलकर ले सकने की सुविधा के चलते सरकार ने कस्बे में 1972 में एक नलकूप खोदा था लेकिन यह असफल हो गया। इसके बाद इसी विभाग ने साँपना नदी से पूरे कस्बे को पानी पहुँचाने की योजना बनाई लेकिन यह भी महँगी होने के कारण निरस्त कर दी गई। तब अंत में पाढर के स्वयंसेवी अस्पताल से जुड़े ‘जल विकास कार्यक्रम’ से सरकार ने अनुरोध किया कि वे जल प्रदाय का काम हाथ में ले। ‘इवेंजिकल लूथेरियन चर्च’ (ई.एल.सी.) के जरिए दुनिया भर से सहायता प्राप्त कर चलाए जा रहे इस कार्यक्रम में सर्वेक्षण करके 42 मीटर गहरा एक नलकूप खोदा गया और पाइप लाइन डालकर जल प्रदाय योजना शुरू की गई। नल के जल की यह योजना कितने दिन और चल पाएगी, पता नहीं?
साँपना के पास बसे इसी गाँव के गणेश प्रसाद जी ने मटकों की रहट बनवाई थी। असल में इलाके में आए पंजाबी लोगों ने 1945-50 के आसपास रहट बनाकर बेचना शुरू किया था। तब एक रहट 200 रुपए तक में लग जाती थी। कुओं में लगी रहट और ‘माहुट’ यानी रबी की बोनी के बाद होने वाली बरसात से पर्याप्त सिंचाई हो जाती थी और बेहतर फसलें मिल जाती थीं।
इलाके में आम और करंजी के असंख्य पेड़ों वाला घना जंगल था और अक्सर चीता समेत कई जंगली जानवर गाँव के भीतर टहल जाया करते थे। सार्वजनिक कुएँ भी पर्याप्त संख्या में थे जिनमें से एक चार घिर्री का कुआँ प्रसिद्ध था। इसमें दो घिर्री से मीठा और बाकी की दो से खारा, बेस्वाद पानी मिलता था। इन कुओं की हर साल सफाई की जाती थी और नीचे से मिट्टी, गाद और कचरा निकालकर तल में चूना डाल दिया जाता था ताकि गंदगी निथरकर तली में ही जम जाए। कुओं की सफाई गाँव के सब लोग मिलकर करते थे।
उस जमाने की संपन्नता का कारण संतोष और लालचहीनता को बताते हुए बुजुर्ग ग्रामवासी सन् 30-32 में 50 रुपए में हुई गाँव की पटैलन की शादी का जिक्र भी करते हैं। यह संतोष और लालचहीनता पानी के मामले में भी थी। 80 सदस्यों वाला एक परिवार तब सिर्फ एक छोटी-सी कुंइया से अपनी पानी की जरूरतें पूरी कर लेता था लेकिन आज उसी परिवार के चार-पाँच लोगों को मोटरवाला कुआँ भी पूरा नहीं पड़ता।
नतीजे में जलसंकट खड़ा होता रहता है। 98 के साल में ही कम बरसात के कारण हुए जलसंकट में लोग ‘ऐक्का’ कर रहे थे। ‘ऐक्का’ का मतलब है एक पैर पर खड़े होकर 24 घण्टों की रामधुन या भजन गाना। गाँव के बड़े-बूढ़ों का कहना है कि पानी नहीं है तो लोग ‘ऐक्का’ कर रहे हैं लेकिन पानी आते ही उसे उलीच कर लोगों की गर्दन दबाएँगे। अकाल को झीरी यानि पतले कमजोर दाने के अकाल की तरह याद करने वाले बुजुर्ग बताते हैं कि सूखे में भी पूरी पैदावार न हो, ऐसा कभी नहीं होता था।
पिछले 35-40 सालों में जंगलों का सफाया होने और पानी के किफायती इस्तेमाल की परम्परा टूटने से तीन तरफ साँपना नदी से घिरा होने के बावजूद बैतूल बाजार कई बार सूखा हो जाता है। बरसों से धीरे-धीरे हो रही पानी की इस कमी को देखने वाले बताते हैं कि कुओं में रहट लगने के कुछ साल बाद डीजल इंजन लगे और फिर बिजली की मोटरें। बटन दबाकर सरलता से पानी मिलने लगा तो फसल चक्र और आधुनिक संकर बीजों का चलन भी शुरू हुआ। लेकिन बाजारों को अधिक और तेजी से पहुँचायी जा सकने वाली फसलों की हड़बड़ी में लोग धरती की छाती से पानी उलीचने की बेरहमी को अनदेखा करते गए।
1956-57 से 62 के बीच साँपना नदी पर मझौला बाँध बनाकर इलाके की खेती के विकास की योजना बनी थी। इस बाँध से 40 फुट गहरा भू-जल उठकर 20-22 फुट पर आ गया था। लेकिन अधिक पानी और आधुनिक बीजों के चलते फसलों में गेरूआ रोग लगना शुरू हुआ। नदी को बाँधने से इलाके भर के छोटे-मोटे नाले सरीखे प्राकृतिक स्रोत भी कम या समाप्त हो गए।
घटते पानी और टोंटी खोलकर ले सकने की सुविधा के चलते सरकार ने कस्बे में 1972 में एक नलकूप खोदा था लेकिन यह असफल हो गया। इसके बाद इसी विभाग ने साँपना नदी से पूरे कस्बे को पानी पहुँचाने की योजना बनाई लेकिन यह भी महँगी होने के कारण निरस्त कर दी गई। तब अंत में पाढर के स्वयंसेवी अस्पताल से जुड़े ‘जल विकास कार्यक्रम’ से सरकार ने अनुरोध किया कि वे जल प्रदाय का काम हाथ में ले। ‘इवेंजिकल लूथेरियन चर्च’ (ई.एल.सी.) के जरिए दुनिया भर से सहायता प्राप्त कर चलाए जा रहे इस कार्यक्रम में सर्वेक्षण करके 42 मीटर गहरा एक नलकूप खोदा गया और पाइप लाइन डालकर जल प्रदाय योजना शुरू की गई। नल के जल की यह योजना कितने दिन और चल पाएगी, पता नहीं?
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