जिले के उत्तरी भाग में हथिनी नदी व दक्षिणी भाग में अनास नदी बहती है। यहाँ पर सागोन, खेर, महुआ, ताड़ी व बाँस के पेड़ बहुतायत में हैं। लाइम स्टोन, डोलामाइट, केल्साइट आदि यहाँ की प्रमुख खनिज सम्पदा हैं। मेघनगर जिले का मुख्य औद्योगिक क्षेत्र है।
झाबुआ जिले की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। यहाँ की मुख्य फसलें मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास, गेहूँ, उड़द, अरहर, मूँगफली व चना है। जिले की 85 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। इसमें भील व भिलाला जनजाति प्रमुख है। इस जनजाति के भगोरिया नृत्य अपनी अनूठी संस्कृति का प्रतीक है।
धार्मिक स्थल
जिले में पुरातात्विक एवं धार्मिक महत्त्व के अनेक दर्शनीयस्थल है। इनमें झाबुआ नगर से पाँच किलोमीटर दूर स्थित देवझिरी का शिव मन्दिर, दो किलोमीटर दूर स्थित रंगपुरा का राम मन्दिर प्रमुख है। इसके अलावा झाबुआ में हनुमान टेकरी, झाबुआ-पेटलावद मार्ग पर स्थित ग्राम भगोर का प्राचीन मन्दिर, राणापुर क्षेत्र के देवलफलिया में स्थित शिव मन्दिर, हिडिम्बा वन हनुमान मन्दिर भी दर्शनीय है।
प्रमुख मेले
देवझिरी का शिवरात्रि मेला, क्रिसमस मेला, थांदला का मवेशी मेला।
उत्सव
भगोरिया व गाय गोहरी पर्व।
भौगोलिक परिवेश-
झाबुआ जिला इन्दौर सम्भाग के तहत मध्य प्रदेश के दक्षिण पश्चिम छोर पर स्थित है। जिले की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार है-अक्षांश 21.30 डिग्री से 23.5 डिग्री तथा देशांतर 73.20 डिग्री से 75.01 डिग्री। भौगोलिक क्षेत्रफल 3 हजार 782 वर्ग किलोमीटर है। आदिवासी बहुल यह जिला इंदौर-अहमदाबाद राष्ट्रीय राजमार्ग पर इंदौर से 150 किलोमीटर दूर स्थित है। जिले की 376 ग्राम पंचायतों में 656 आबाद ग्राम हैं। जिले के सभी छह विकासखण्ड आदिवासी विकासखण्ड की श्रेणी में आते हैं। सभी विकासखण्डों में आदिवासियों की विरल बसावटें हैं। गाँव फलियों में बँटे हुए हैं। एक गाँव में दो से 10 फलिये तक हैं। जिले के सामान्य निवासी भील-भिलाला व पटलिया है। भीलों की तुलना में पटलिये अधिक विकसित माने जाते हैं। इन जनजातियों द्वारा विभिन्न प्रकार की बोलियाँ बोली जाती हैं।
प्राकृतिक परिदृश्य
प्राकृतिक दृष्टि से जिले को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।
1. मालवा का पठार।
2.विध्यांचल का पहाड़ी क्षेत्र।
मालवा के पठार में पेटलावद विकासखण्ड आता है तो शेष भाग विन्ध्याचल के पहाड़ी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। जिले की अधिकांश भूमि ऊँची-नीची है। झाबुआ शहर समुद्र तल से न्यूनतम 428 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। उत्तरी क्षेत्र में माही नदी बहती है। इसके अलावा झाबुआ शहर से अनास नदी गुजरती है।
सांस्कृतिक परिवेश
आदिवासी बहुल जिले में मुख्यत: 85 फीसदी आबादी आदिवासी वर्ग की है। यहाँ के आदिवासियों की अपनी सभ्यता व संस्कृति है। तेजी से बदलते देश व प्रदेश के सांस्कृतिक ताने-बाने के बावजूद यहाँ के आदिवासी अपनी मूल संस्कृति की पहचान अभी बनाए हुए हैं। लोगों का जीवन व रहन-सहन सादा है। लंगोटी पहनने वाले लोगों की संख्या तेजी से घट रही है। लोग अब धोती या हॉफ पैंट पहनते हैं। पक्के मकानों की संख्या कम है। गाँवों में लोग खेतों में झोपड़ी बनाकर रहते हैं।
पक्के मकानों में रहने वालों की संख्या बहुत कम है। यहाँ संयुक्त परिवार की प्रथा नहीं है। प्राय: विवाह होने पर या विवाह के बाद दम्पति समर्थ व आत्मनिर्भर होते ही एक झोपड़ी बनाकर अलग निवास शुरू कर देते हैं। समाज में बाल विवाह की प्रथा है। हालांकि अब इसमें धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। प्राय: बेमेल विवाह होते हैं। लड़के की उम्र कम तो लड़की की उम्र अधिक होती है। बेमेल विवाह होने के कारण विवाह सम्बन्धों में विग्रह भी होते हैं। वधू अपने पति को छोड़कर किसी अन्य के साथ रहने लगती है। बिरादरी की पंचायत के फैसले के अनुसार ऐसे सम्बन्धों को मान्यता दी जाती है। शादी में लड़के वालों को वधू का मूल्य देना होता है। लड़की द्वारा दूसरा पति करने पर उसे पंचायत के फैसले के अनुसार पहले पति को निर्धारित राशि देनी होती है। यहाँ के आदिवासियों में बहु विवाह की प्रथा भी है। विवाह में रिश्तेदार नोतरा के रूप में मदद करते हैं।
खेती में पिछड़ने पर भी गाँव वाले तथा रिश्तेदार मदद करते हैं। इसे हलमा कहा जाता है। इस तरह आदिवासी समाज में सहकारिता की प्रवृत्ति संस्कार में घुली हुई है। शादी-विवाह के अवसर पर शराब पिलाया जाना जरूरी होता है। यहाँ तक कि किसी की मृत्यु के समय भी रिश्तेदारों द्वारा दुखी परिवारों को शराब पिलाई जाती है। शराब इनकी संस्कृति में रची-बसी है। सामाजिक धार्मिक त्योहारों के अवसर पर भी सामूहिक मदिरापान किया जाता है।
झाबुआ जिला एक नजर में
जिले का क्षेत्रफल | 3782 वर्ग किमी |
वनक्षेत्र | 645 वर्ग किमी |
तहसील | 5 |
विकासखण्ड | 6 |
ग्राम पंचायत | 376 |
राजस्व ग्राम | 813 |
आबाद ग्राम | 656 |
विवरण | वर्ष | |
2011 | 2001 | |
जनसंख्या | 1024091 | 784286 |
पुरुष | 514830 | 396141 |
महिला | 509261 | 388145 |
जनसंख्या वृद्धि दर | 30.58 प्रतिशत | 21.20 प्रतिशत |
जनसंख्या घनत्व | 285 | 218 |
लिंगानुपात (प्रति 1000) | 989 | 980 |
साक्षरता | 44.45 | 41.37 |
पुरुष साक्षरता | 54.65 | 53.95 |
महिला साक्षरता | 34.29 | 28.58 |
विकासखण्डवार जनसंख्या
विकासखण्ड | जनसंख्या | अजजा | अजजा(अन्य) |
झाबुआ | 155799 | 148241 | 1510 |
मेघनगर | 159015 | 149508 | 1696 |
पेटलावद | 217626 | 181917 | 4144 |
रामा | 131652 | 125192 | 1471 |
राणापुर | 102367 | 98124 | 1320 |
थांदला | 166606 | 158456 | 1256 |
योग | 933065 | 861498 | 11397 |
फ्लोराइड : एक धीमा जहर (झाबुआ जिले के सन्दर्भ में रिपोर्ट)
प्रस्तावना
झाबुआ वैसे तो काफी सम्पन्न है, लेकिन यहाँ पर कई प्रकार की बीमारियाँ व्याप्त हैं। जिनमें से अधिकांश बीमारियाँ पीने के पानी से उत्पन्न होती हैं। फ्लोरोसिस भी ऐसी ही एक बीमारी है जो पीने के पानी के कारण होती है। खास बात यह है कि फ्लोरोसिस बीमारी वायरस या जीवाणुओं से उत्पन्न नहीं होती है। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि इसका अभी तक कोई कारगर उपचार भी नहीं है।
कैसे होता है फ्लोरोसिस
पीने के पानी में फ्लोराइड की अधिकता से फ्लोरोसिस होता है। फ्लोराइड की 0.8 से 1 पीपीएम तक की मात्रा हड्डियों के निर्माण के लिये आवश्यक भी होती है। 1.5 पीपीएम तक की मात्रा को पीने के पानी में नजरअन्दाज किया जा सकता है, परन्तु इससे अधिक मात्रा फ्लोरोसिस का कारण है।
विश्व के संगठनों के मापदण्ड
इंटरनेशनल स्टैंडर्ड जैसे अमेरिकन पब्लिक हेल्थ एसोसिएशन (एपीएचए), वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ), मिनिस्ट्री ऑफ अरबन डेवलपमेंट या फिर इंडियन स्टैंडर्ड हों, सभी ने पीने के पानी में फ्लोराइड की अधिकतम मात्रा 1.5 पीपीएम निर्धारित की है। मानव शरीर में फ्लोराइड की अधिकतम मात्रा पीने के पानी से, टूथपेस्ट से, दवाइयों से और भोज्य पदार्थों से पहुँचती है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने भी पुष्टि की है कि टूथपेस्ट में फ्लोराइड का का प्रयोग होता है, जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इसलिये 7 वर्ष से कम आयु के बच्चों को टूथपेस्ट का प्रयोग नहीं करने की सलाह दी जाती है।
ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1992 का पालन नहीं
एक सर्वे के अनुसार टूथपेस्ट का इस्तेमाल बच्चों द्वारा बड़ी संख्या में किया जाता है। पेस्ट का स्वाद अच्छा लगने की वजह से कई बार बच्चे उसे खा लेते हैं। जिससे उनके कोमल दाँतों के कैल्शियम पर फ्लोराइड का विपरीत प्रभाव पड़ता है और बच्चों में रक्ताक्षय (एनीमिया), भूख न लगना, पेट दुखना, अतिसार जैसे विकारों का हो जाने की सम्भावना बन जाती है। इसलिये शासन को छोटे बच्चों द्वारा ऐसे टूथपेस्ट के प्रयोग पर पाबन्दी लगाकर बच्चों के लिये फ्लोराइड- फ्री टूथपेस्ट बनाना चाहिए। जिसका प्रावधान ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट 1992 में किया गया था, लेकिन विडम्बना है कि एक्ट का पालन आज तक नहीं किया गया। न ही ऐसे आदेशों को सम्बन्धित विभागों तक पहुँचाया गया।
फ्लोराइडयुक्त पदार्थों से निर्मित हैं झाबुआ की चट्टानें
झाबुआ की भौगोलिक संरचना के अध्ययन से पता चला है कि यहाँ की चट्टानें फ्लोराइडयुक्त पदार्थों से निर्मित हैं, जो कि झाबुआ क्षेत्र में फ्लोरोसिस का सबसे बड़ा प्राकृतिक कारण है। इन चट्टानों से फ्लोराइड जलस्रोतों में घुल-मिल जाता है और जब इन जलस्रोतों का उपयोग पीने के पानी में होता है तो फ्लोराइड मानव शरीर में पहुँच जाता है। जब इस तरह के पानी का उपयोग 6 माह से अधिक समय तक पीने के लिये किया जाता है तो फ्लोरोसिस होने की सम्भावनाएँ निरन्तर बढ़ती जाती है।
दो तरह का फ्लोरोसिस
1. जब पीने के पानी में 1.5 से 3 पीपीएम तक मात्रा फ्लोराइड की होती है तो इससे डेंटल फ्लोरोसिस होता है। इसकी प्रारम्भिक अवस्था में दाँतों पर पीली रेखाएँ दिखाई देती है। जो निरन्तर बढ़ने लगती है और धीरे-धीरे यह पीले धब्बों में परिवर्तित होने लगती है। बाद में यह धब्बे गहरे भूरे काले रंग के गड्ढों में परिवर्तित होने लगते हैं और अन्त में दाँतों का टूटना शुरू हो जाता है।
2. यदि पीने के पानी में 3 से 10 पीपीएम तक की मात्रायुक्त फ्लोराइड का सेवन कई वर्षों तक निरन्तर करते हैं तो स्केलेटल फ्लोरोसिस या अस्थि फ्लोरोसिस हो जाता है। इसके कारण अस्थियाँ बाधित होती हैं और शरीर के अंगों को साधारण तरीके से मोड़ नहीं सकते। सबसे अधिक प्रभावित होने वाले अंग हाथ, पैर व गर्दन वाले हिस्से होते हैं। कई बार तो यह इतना गम्भीर हो जाता है कि रोगी स्वयं चल फिर भी नहीं सकता। अस्थियों में भी अत्यधिक दर्द होता है।
गुर्दे पर भी असर
झाबुआ जिले के सन्दर्भ में शोध करने वाले रसायनशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. सुनील कुमार सिकरवार के अनुसार हाल ही के वर्षों में यह देखने में आया है कि फ्लोराइड की अधिक मात्रा गुर्दे के साथ ही कई प्रकार के उत्तकों व एंजाइम की क्रियाविधि को भी प्रभावित करने लगी है। सबसे दुखद बात बात यह है कि फ्लोरोसिस से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले 7 से 12 वर्ष के बच्चे हैं जो डेंटल फ्लोरोसिस से प्रभावित है। प्रोफेसर सिकरवार के अनुसार उनके दो वर्ष का शोध कार्य जो कि यूजीसी भोपाल द्वारा प्रदत्त रिसर्च प्रोजेक्ट का एक भाग हैं, में पाया गया कि झाबुआ में फ्लोराइड की मात्रा 1.24 पीपीएम 7.38 पीपीएम तक पाई गई है जो सामान्य (1.5 पीपीएम) से बहुत ज्यादा है।
ब्लॉकवार फ्लोराइड की मात्रा
ब्लॉक | फ्लोराइड की मात्रा |
राणापुर | 1.32 से 4.7 पीपीएम |
रामा | 1.42 से 4.5 पीपीएम |
पेटलावद | 1.60 से 4.9 पीपीएम |
थांदला | 4.03 से 718 पीपीएम |
मेघनगर | 3.98 से 7.34 पीपीएम |
झाबुआ | 1.56 से 4.62 पीपीएम |
शासन के कार्यक्रम नाकाफी
सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि शासन द्वारा चलाए जा रहे अनके कार्यक्रमों के बावजूद ग्रामीणों में फ्लोरोसिस के सम्बन्ध में उतनी जागृति नहीं आ पाई है। जिसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जिले के स्वास्थ्य केन्द्रों में अब भी फ्लोरोसिस रोगी या तो अंकित नहीं हैं या फिर नाम मात्र के दर्ज किये गए हैं। जबकि व्यक्तिगत सर्वे में विभिन्न गाँवों में स्कूली व कॉलेज छात्र तथा सामान्य ग्रामीणों में डेंटल फ्लोरोसिस के कई रोगी है। चूँकि झाबुआ जिले में फ्लोरोसिस का एक बड़ा कारण प्राकृतिक है इसलिये जरूरी है कि शासन एवं जनता दोनों मिलकर इस समस्या से छुटकारा पाएँ। कई ऐसी तकनीक उपलब्ध है, जिनसे फ्लोराइड की अत्यधिक मात्रा को सफलतापूर्वक हटाया जा सकता है।
ये हैं वे तकनीक, जिनसे कम की जा सकती है फ्लोराइड की मात्रा
1. नलगोंडा तकनीक।
2. ऑयन एक्सचेंज।
3. एलुमिना आधारित फिल्टर से।
4. डेस्टिलेशन विधि से।
इन सब तकनीकों के अलावा ग्रामीण घरेलू स्तर पर भी फ्लोराइड की मात्रा को कम कर सकते हैं। यदि पीने के पानी को उबालकर छान लें और फिर उसमें फिटकरी डालकर 10-12 घंटे रख दें और छानकर पानी का उपयोग करें। इस प्रक्रिया को सतत करने पर फ्लोराइड की मात्रा को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
झाबुआ जिले की एकीकृत फ्लोरोसिस नियन्त्रण परियोजना के अन्तर्गत प्रथम चरण की स्वीकृत योजना की जानकारी
1. अविभाजित झाबुआ जिले (अलीराजपुर भी शामिल) के फ्लोरोसिस नियन्त्रण परियोजना कार्यक्रम के अन्तर्गत केन्द्र शासन तथा मप्र शासन द्वारा झाबुआ जिले के 221 गाँवों की 554 फ्लोराइड प्रभावित बसाहटों में शुद्ध पेयजल प्रदान करने के लिये 4903 लाख की प्रथम चरण योजना वर्ष 1998 में स्वीकृत की गई थी। जिसमें निम्नानुसार गाँव व बसाहट सम्मिलित थे
गाँव | बसाहट | यह कार्य करना था |
150 | 253 | फ्लोराइड रहित नलकूपों का खनन |
37 | 78 | बसाहटों में सेनीटरी डगवेल निर्माण कर हैण्डपम्प स्थापना |
34 | 223 | सतही स्रोत आधारित समूह |
2. झाबुआ विकासखण्ड की मोद नदी पर एनीकट आधारित समूह जल प्रदाय योजना में फ्लोराइड प्रभावित 48 बसाहटों को शामिल किया गया है। इस योजना की लागत 739.60 लाख है। जिसकी मंजूरी वर्ष 2008 में प्राप्त हुई थी और कार्य 2014 में पूर्ण हुआ।
3. राणापुर विकासखण्ड की मोद नदी पर एनीकट आधारित समूह जल प्रदाय योजना में फ्लोराइड प्रभावित 80 बसाहटों को सम्मिलित किया गया। इस योजना की लागत 562.75 लाख रुपए हैं। इसकी भी मंजूरी 2008 में मिली थी।
4. मेघनगर विकासखण्ड की पाट नदी पर एनीकट आधारित समूह जलप्रदाय योजना में फ्लोराइड प्रभावित 28 बसाहटों को शामिल किया गया। इसकी लागत 755 लाख रुपए हैं।
5. थांदला विकासखण्ड की अनास नदी पर एनीकट आधारित समूह जल प्रदाय योजना में फ्लोराइड प्रभावित 22 बसाहटों को शामिल किया गया है। लागत 487.08 लाख रुपए हैं।
6. झाबुआ जिले के विभिन्न विकासखण्डों की सेनेटरी डगवेल आधारित नल जल योजना में फ्लोराइड प्रभावित 54 बसाहटों को शामिल किया है। जिसकी कुल लागत 371.25 लाख रुपए हैं।
7. झाबुआ विकासखण्ड की सेनेटरी डगवेल आधारित हैण्डपम्प योजना में 52 फ्लोराइड प्रभावित बसाहटें शामिल की गई हैं। कुल लागत 300 लाख रुपए हैं।
इनरेम फाउंडेशन ने मटके से बनाया फिल्टर, फ्लोराइड हुआ छू मंतर
1. फ्लोराइड प्रभावित गाँव जसोदाखुमजी व मियाटी में प्रायोगिक तौर पर ग्रामीणों को दिये गए मटके, बेहतर नतीजे सामने आए।
झाबुआ में फ्लोराइड अलग कर पानी शुद्ध करने की सबसे सस्ती तकनीक इजाद की है गैर सरकारी संस्था इनरेम फाउंडेशन ने। संस्था ने प्रायोगिक तौर पर फ्लोराइड प्रभावित दो गाँव जसोदाखुमजी व मियाटी में कुछ परिवारों को ये मटके दिये थे। जिसके बेहतर नतीजे सामने आए हैं। रामा विकासखण्ड के गाँव जसोदाखुमजी व थांदला के मियाटी में कई ग्रामीण फ्लोरोसिस का दंश झेल रहे थे। इनमें भी सबसे ज्यादा असर बच्चों पर हुआ।
प्रशासनिक स्तर पर बीमारी से निपटने के लिये किये जा रहे प्रयासों के बीच अहमदाबाद (गुजरात) की गैर सरकारी संस्था इनरेम फाउंडेशन ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए नया काम कर दिखाया। चूँकि, फ्लोरोसिस बीमारी लगातार फ्लोराइडयुक्त पानी पीने से होती है, लिहाजा संस्था ने दोनों गाँव के कुछ चुनिन्दा परिवारों को एक-एक घरेलू फिल्टर उपलब्ध करा दिया। इनके नतीजे जाँचे जा रहे हैं। इनरेम फाउंडेशन के आर इंदू के अनुसार एक मटका करीब 12 लीटर पानी आधे घंटे में फिल्टर करता है। फिल्टर किये पानी को आप अन्य बर्तन में भरकर पीने में उपयोग कर सकते हैं। प्रारम्भिक परिणाम उम्मीद के अनुरूप आए हैं।
ऐसे डिज़ाइन किया है मटके को
मटके को घरेलू फिल्टर की तरह डिज़ाइन किया गया है। इसके पेंदे में एक छेद कर वहाँ माइक्रोफिल्टर लगाया है। मटके के अन्दर 3 किग्रा एक्टिवेटेड एलुमिना भरा होता है। यह पानी में से फ्लोराइड को काफी हद तक सोख लेता है। मटके के मुँह पर जीरो बी से जुड़ी एक फनल लगाई जाती है। जीरो बी बैक्टीरिया को खत्म करता है। फ्लोराइडयुक्त पानी इस फनल के जरिए अन्दर जाता है और फिर जीरो बी, एलुमिना व माइक्रोफिल्टर से गुजरकर शुद्ध पानी के रूप में बाहर निकलता है।
इस तरह करते हैं टेस्ट
फ्लोराइड की सामान्य टेस्ट के लिये एक छोटा सा कीट आता है। इसमें फ्लोराइड रिएजेंट व एक टेस्ट ट्यूब होती है। टेस्ट ट्यूब में 4 मिमी पानी व एक मिमी रिएजेंट मिलाया जाता है। यदि पानी का रंग गुलाबी आता है तो यह शुद्ध होगा। पीलापन पानी में फ्लोराइड की पुष्टि करता है।
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