इस बीमारी का भले ही कोई इलाज नहीं हो पर जन जागरूकता बढ़ाकर आम लोगों तक इसकी पूरी जानकारी देकर इसके खतरों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इस रोग की जानकारी बहरहाल गाँवों में बहुत कम है। पंचायत प्रतिनिधि भी ख़ासतौर पर गाँवों में पेयजल स्रोतों के परीक्षण तथा लोगों को इसके प्रति आगाह करने में इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
एक तरफ जहाँ लोग पीने के पानी के संकट से रूबरू हो रहे हैं तो दूसरी तरफ हमारे देश के 15 राज्यों के करीब ढाई करोड़ लोग पीने के पानी के जल स्रोतों में फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा होने से फ्लोरोसिस जैसी घातक बीमारी से जूझ रहे हैं। इसका सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी और दूरस्थ अंचलों में रहने वाले लोग ही होते हैं। पानी के स्रोत में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाने का इन्हें कोई पता नहीं चल पाता और जब तक पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। सबसे बुरी स्थिति उन बच्चों और किशोरों की होती है, जिनके सामने सारी जिन्दगी सामने होती है पर वे स्थाई रूप से विकलांग हो चुके होते हैं। चाहकर भी फिर कुछ नहीं बदलता।अब देखते हैं कि फ्लोराइड आखिर है क्या और यह क्यों इस तरह की बीमारी देता है। सरल शब्दों में समझें तो फ्लोराइड वास्तव में फ़्लोरीन नामक गैस का एक प्रमुख यौगिक है जो प्राकृतिक अवस्था में कभी स्वतन्त्र रूप से नहीं मिलता है। यह आमतौर पर प्रकृति में तीन मुख्य अयस्कों के रूप में मिलता है- पहला फ्लोरस्पार, दूसरा क्रायोलाइट और तीसरा फ्लोरोएपाटाइट। सामान्यतया फ्लोराइड के अयस्क पानी में घुलते नहीं हैं, लेकिन कुछ खास किस्म की भूगर्भीय परिस्थितियों में ये पानी में घुलकर मानव शरीर में पहुँच जाते हैं। बताते हैं कि करीब 60 प्रतिशत तक फ्लोराइड पानी के जरिये ही मानव शरीर में पहुँचता है। हालाँकि कुछ मात्रा में यह भोजन और कुछ खास खाद्य पदार्थों से भी पहुँचता है। इनमें कुछ प्रजाति की मछलियों, पनीर, चाय, तम्बाकू सुपारी तथा दन्त मंजन या माउथ फ्रेश उत्पादों से भी मिलता है।
फ्लोराइड का सांद्रण बढ़ जाने से कैल्शियम फ्लोरोएपेटाईट की परतें हड्डियों के जोड़ों के बीच की खाली जगहों में भर कर सख्त हो जाती है। इससे हड्डियाँ विकृत होकर कठोर हो जाती है। इससे पीड़ित व्यक्ति बिना सहारे के चल नहीं सकता। इससे उनकी पीड़ा बढ़ जाती है। इसके शुरूआती लक्षणों में दाँत और मसूढ़ों का काला होना, दाँतों की सुरक्षा परत का खत्म होना, दाँतों का टेढ़ा–मेढा होना, दाँतों का कमजोर होना अथवा पाचन तन्त्र में गड़बड़ी माना जाता है। यह तो हुई शुरुआत की बात लेकिन यह यहीं नहीं रूकता बल्कि इससे आगे हाथ और पैरों की हड्डियाँ मुड़ने लगती है और वे विकृत होकर स्थाई विकलांग कर देता है। इस बीमारी वाले बच्चों के दाँत टेढ़े–मेढे हो जाते हैं और उनकी सफेद परत की जगह पीलापन या भूरापन आ जाता है। हाथ–पाँव सूखने लगते हैं। धीरे–धीरे कमर झुक जाती है और चालीस की उम्र तक पहुँचते–पहुँचते व्यक्ति कुबड़ा हो जाता है। इसे फ्लोरोसिस बीमारी के रूप में पहचाना जाता है। फ्लोराइड प्रभावित इलाकों में ऐसे सैकड़ों मरीज नजर आ जाते हैं, जिन्हें देखते ही आप पहचान सकते हैं। सबसे बुरी बात इसमें यह है कि इसका कोई भी इलाज नहीं है। शुरूआती दौर में ही कुछ हो सकता है, थोड़ा भी समय बीतने पर इसका कोई इलाज नहीं हो सकता। लेकिन इन छोटे–छोटे गाँवों में इलाज तो दूर इनकी पहचान ही बहुत देर से हो पाती है। केवल आम लोगों के बीच इसके प्रति जागरूकता ही इससे बचा सकती है। इन इलाकों में लोग ही नहीं इस पानी को पीने वाले मवेशी भी इस बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। रोगी मवेशी की हड्डियाँ भी इसी तरह कमजोर हो जाती हैं।
विशेषज्ञ बताते हैं कि एक निश्चित अनुपात तक फ्लोराइड की मात्रा हर पानी में उपलब्ध रहती है लेकिन जब इसकी मात्रा इससे अधिक हो जाती है तो यह मानव शरीर में पहुँचकर तमाम तरह की विकृतियों का कारण बनता है। स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इसकी अधिकतम मात्रा 1.5 मिलीग्राम प्रति लिटर हो सकती है। इस मात्रा तक यह किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुँचाता है, लेकिन इससे ज्यादा जैसे ही यह 1.5 मिलीग्राम से बढ़ने लगता है, वैसे-वैसे यह परेशानी का सबब बनने लगता है। कहीं–कहीं तो यह दुगने यानी 3.0 मिलीग्राम प्रति लिटर तक भी पाया जाता है और जब इसकी मात्रा इससे भी बढ़कर 5.0 मिलीग्राम प्रति लिटर हो जाती है तो फिर यह स्थाई अपंगता पैदा करता है।
अकेले भारत ही नहीं तीसरी दुनिया के करीब 40 देश इस समस्या से जूझ रहे हैं। इनमें ज्यादातर वे देश हैं जहाँ जंगलों और दूरस्थ इलाकों में गरीब लोग रहते हैं और पीने के पानी के जरिये इस बीमारी का शिकार बन जाते हैं। विकसित देशों में इसके मामले कम ही सामने आते हैं। विकासशील देशों में जहाँ गाँवों में रहने वाले लोग जरूरी संसाधनों के लिए खुद पर निर्भर होते हैं, वहीं जल स्रोतों में बिना किसी जाँच के लोग पानी पीने के उपयोग में लेना शुरू कर देते हैं और उन्हें इस तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ता है। जहाँ के लोगों को दूर–दूर से पानी की व्यवस्था करनी पड़ती हो और बाल्टी–बाल्टी पानी जुटाना उनके लिए भारी पड़ता हो वहाँ किसी तरह के पानी से परहेज मुश्किल ही होता है। हाँ, उन्हें इस बात का पता ही नहीं होता कि यह पानी उन्हें ऐसी बीमारी भी दे सकता है।
भारत में सबसे पहले यह बीमारी 1930 में मवेशियों तथा 1937 में मानव शरीर में पाई गई। अकेले राजस्थान के करीब 6 हजार गाँवों में इस बीमारी से ग्रस्त लोग हैं। राजस्थान में मरूस्थलीय इलाके में भूजल का भौतिक रासायनिक जाँच करने पर यह पता चला है कि नागौर, बाड़मेर, जालौर, पाली, सिरोही, सीकर, झुंझुनू तथा चुरु क्षेत्र के कई गाँवों के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। यहाँ कई लोग फ्लोरोसिस बीमारी से ग्रस्त हैं। इससे कुछ क्षेत्रों में तो लडके कुँवारे ही रह जाते हैं। दरअसल यहाँ का पानी खराब होने से लोग यहाँ अपनी बेटियों का ब्याह करने से कतराते हैं। वहीं मेहमान भी कम ही आते हैं। कमोबेश यही हालात राजस्थान से सटे मध्यप्रदेश के 22 जिलों की है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति रतलाम, धार, झाबुआ जैसे जिलों की है। इसी तरह बिहार, उत्तरप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, उड़ीसा, आंध्र, केरल, कर्नाटक और जम्मू कश्मीर की भी है।
फ्लोराइड का परीक्षण करने के लिए जरूरी होता है कि गाँव–गाँव में हर पेयजल स्रोत का अलग-अलग परीक्षण करना पड़ता है। जलस्रोतों के पानी का नमूना लेकर समीप की प्रयोगशालाओं में इस बात की तस्दीक की जाती है कि यह पानी पीने योग्य है या नहीं। यह हर गाँव से संग्रहित करना और इसकी जाँच बहुत श्रमसाध्य है। लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अधिकारी लवाजमे की कमी का रोना रोते हैं तो कर्मचारी बजट का। इन दिनों पेयजल संकट होने से गाँव–गाँव सरकारें बड़ी तादाद में हैंडपम्प लगवा रही है। अब इसमें हर जगह बार–बार जाकर जाँच करना भी मुश्किल है। फिलहाल अकेले मध्यप्रदेश में तीन लाख से ज्यादा पेयजल स्रोत हैं, तमाम प्रयासों के बाद भी अभी कई जल स्रोतों का परीक्षण बाकी है। हालाँकि नियमों के अनुसार कोई भी पेयजल स्रोत बिना जाँच के मनुष्यों के पीने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता लेकिन कई जगह नियमों की अनदेखी की जाती है। ग्राम स्तर के पेयजल स्रोतों की नियमित जाँच भी नहीं हो पाती। अब तक जितने जल स्रोतों का परीक्षण किया गया है, उनमें से 6 फीसदी में फ्लोराइड पाए जाने की पुष्टि हुई है। यह आँकड़ा भयावह है। जिन स्रोतों में फ्लोराइडयुक्त पानी है, उन्हें प्रतिबंधित कर वैकल्पिक जलस्रोत की व्यवस्था की जाती है। लेकिन कई गाँवों में वैकल्पिक स्रोत भी फ्लोराइडयुक्त ही होता है तो ऐसे में समस्या बढ़ जाती है। ऐसी दशा में वहाँ परिवहन से पेयजल उपलब्ध कराया जाता है। हालाँकि ऐसे पानी का रासायनिक उपचार भी किया जा सकता है पर गाँवों में इसकी सम्भावना बहुत ही कम होती है।
महत्त्वपूर्ण यह है कि इस बीमारी का भले ही कोई इलाज नहीं हो पर जन जागरूकता बढ़ाकर आम लोगों तक इसकी पूरी जानकारी देकर इसके खतरों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इस रोग की जानकारी बहरहाल गाँवों में बहुत कम है। पंचायत प्रतिनिधि भी ख़ासतौर पर गाँवों में पेयजल स्रोतों के परीक्षण तथा लोगों को इसके प्रति आगाह करने में इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
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