नई दिल्ली के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के श्री दिनेश कुमार का कहना है कि देश की कृषि-वन संवर्धन योजना में सफेदे के पेड़ों की प्रमुख भूमिका है। खेतों के बीच सफेदा लगाइए, वह तेज हवा को रोक लेता है, मिट्टी में नमी बढ़ाता है और तपन कम करके आसपास की फसलों को बल देता है। इन्हीं कारणों से गुजरात में गेहूं की पैदावार में 23 प्रतिशत और सरसों की पैदावार में 24 प्रतिशत वृद्धि हुई है। आंध्रप्रदेश में मूंगफली में 40 से 43 प्रतिशत, अरहर में 39 से 47 प्रतिशत और बाजरे में 23 से 64 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। गुजरात में सिंचित वन-खेती का चलन बड़े पैमाने पर बढ़ता जा रहा है। इसलिए वहां के किसानों के सफेदे के साथ अनेक फसलें लेना शुरू कर दिया है। श्री कालिदास पटेल सफेदे के साथ-साथ अनाज और दालों का भी प्रयोग कर रहे हैं।
लेकिन कई लोग खेतों में घुस चुके इस पेड़ को फसलों से अलग ही रखने के पक्ष में हैं। पंजाब योजना बोर्ड के एक सदस्य और किसान डॉ. यूएस कंग कहते हैं कि अनेक किसानों ने खेतों की मेड़ों पर सफेदा लगाना बंद कर दिया है क्योंकि वह मेंड़ के दोनों ओर पानी को सुखा देता है। उनका अपना अनुभव है कि फसल में जब बाली निकलने लगती हैं, सफेदे पर कौए खूब आ बैठते हैं और अनाज की फसलों को खराब करते हैं। उनका सुझाव है कि मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के लिए सफेदे के बीच में सुबबूल जैसे फलीदार पेड़ बोने चाहिए। उधर गुजरात में सफेदे के कारण गेहूं की फसल में बताई जा रह वृद्धि पर व्यंग्य करते हुए श्री भूंबला कहते हैं, “यह भला कैसी जादुई खती है कि बस मेड़ पर सफेदा लगाते ही 24 प्रतिशत फसल बढ़ जाए।”
फिर भी सरकार की राय, जिसे सरकारी वैज्ञानिकों का समर्थन भी प्राप्त है, यही है कि अगर लकड़ी की बढ़ती मांग की पूर्ति करनी है तो साधारण और बंजर जमीन पर सफेदा लगाना जारी रहना चाहिए। जनवरी 84 में केरल में एक सफेदा सम्मेलन में पर्यावरण विभाग के सचिव ने सफेदा को वरदान बताते हुए कहा था कि इस पेड़ से कोई नुकसान नहीं होने वाला। कर्नाटक सलाहकार समिति तो इससे भी एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि बार-बार सूखा ग्रस्त होने वाले इलाकों में कुछ हद तक अनाज वाले खेतों में भी सामाजिक वानिकी के तहत सफेदा लगाना पर्यावरण की दृष्टि से लाभदायक ही होगा।
फिर भी, अभी कुछ दिनों से सरकार को उन किसानों के कारण चिंता होने लगी है जो सिंचित जमीन में अनाज छोड़ सफेदे की ही खेती करने लगे हैं। श्री भूंबला कहते हैं, “सिचिंत खेतों में सफेदा लगाने से अनाज के उत्पादन पर उल्टा असर पड़ेगा। पंजाब, हरियाणा में 10 लाख हेक्टेयर खेत में सफेदा लग गया तो 60 लाख टन अनाज की कमी होगी। अब तो कई विशेषज्ञ सिंचित जमीन में सफेदा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाने तक की बात कर रहे हैं।”
सब देसी पेड़ों की ‘टांगे’ बांध दी गयी हैं और छुट्टर छुट्टा सफेदा दौड़ जीत रहा है। किसी ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की है कि हमारे पेड़ कौन से हैं। वे समाज पर आए इस संकट में कुछ कर पायेंगे या नहीं? शायद ये पेड़ एक भिन्न किस्म के विकास के कारण पसर रहे बाजार की मांग पूरी नहीं कर पाएंगे। फिर भी डॉ. भूंबला ने तो इस मामले में भी देशी पेड़ों की तरफ देखने का आग्रह किया है।
योजना आयोग की एक बैठक में श्री भूंबला ने सफेदे के बारे में एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया था-क्या सफेदे की पैदावार किसी भी परिस्थिति में दूसरे सभी पेड़ों से ज्यादा होती है? भूंबला ने कहा, “हमारे पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जिससे हम कह सकें कि सफेदे में दूसरे अनेक देसी पेड़ों से ज्यादा पत्ते टहनियां आदि होती हैं। वन विभाग वाले केवल तने को नापते हैं, पत्ते व टहनी आदि का हिसाब नहीं करते।”
हिमाचल प्रदेश वन विकास निगम के डॉ. एमपी गुप्ता ने भी शिकायत की कि सफेदा लगाने पर इतना धन खर्च करने के बावजूद, “सफेदे के बारे में हमारी जानकारी नगण्य है। एक वन अधिकारी के नाते, विदेशी पेड़ों के बारे मुझे भरोसा नहीं है। हमने कीकर और खैर को तेजी से बढ़ते देखा है।” उन्होंने यह बात योजना आयोग को बताई। यह सचमुच सही है कि देसी पेड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सफेदे की खेती करने वाले किसान और वन विभाग वाले बार-बार कहते हैं कि वे सफेदे को इसलिए पसंद करते हैं कि उसे पशु खाते नहीं है। यह बिलकुल अजीब बात है कि ऐसा पेड़ लगाया जा रहा है वह भी इतने बड़े पैमाने पर, जिसके चारे के लिए छंटाई नहीं हो सकती जबकि ईंधन से भी ज्यादा चारे की बेहद कमी है। 1976 में जब राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सामाजिक वानिकी का विचार रखा था तब उसका एक प्रमुख उद्देश्य चारा पैदा करना था। लेकिन आज सफेदे की आंधी पर सवार सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम चारा उत्पादन को बिलकुल नजरअंदाज करके चल रहा है।
भारतीय एग्रो-इंडस्ट्रीज फाउंडेशन, उरलीकांचन (पूना) के श्री मणिभाई देसाई चारा देने वाले एक अन्य विदेशी सुबबूल के प्रचारकों में से हैं। उनकी पक्की राय है कि किसानों को ऐसे पेंड़ बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए जो चारे के काम नहीं आते हों। “आखिर खेती की सभी फसलों का उपयोग चारे के रूप में होता है और किसान उनकी देखभाल भी करते हैं।” उत्तराखंड में चिपको की मातृ संस्था दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल द्वारा आयोजित पर्यावरण शिविरों का भी यही अनुभव है कि किसान पेड़ों की रक्षा करना चाहें तो कर सकते हैं।
पर वन विभाग चारे वाले पेड़ नहीं लगा सके और ठीक से रखवाली भी नहीं कर सकते। एक निरीक्षक का कहना है कि “सफेदे के खिलाफ चल रहे आंदोलन से वन विभाग का वन संवर्धन कार्यक्रम ही ठप हो जाएगा। अगर सफेदा नहीं लगाएंगे तो फिर वे जो भी लगाएंगे वह सब गायब हो जाएगा।”
जब कागज उद्योग का बाजार किसान के दरवाजे पर आकर सफेदा खरीदने के लिए तैयार बैठा है तब क्या इससे ईंधन की जरूरतें पूरी हो सकेंगी? सफेदे के घोर समर्थक भी इस सवाल पर बगलें झांकने लगते हैं और सारा दोष राजनीति पर मढ़ देते हैं। श्री कारंत और श्री मेवासिंह स्वीकार करते हैं कि सार्वजनिक पेड़ों से हर साल 1,00,000 टन से ज्यादा प्लाइवुड बन रहे हैं अच्छा होता है कि ये पेड़ लोगों की ही बुनियाद जरूरतों के लिए, जरूरी हो तो रियायती दर पर बेचे जाते। लेकिन सभी सरकारें सफेदे की सारी लकड़ी कारखानों के हवाले कर रही हैं। अच्छा तो पर्यावरण वाले सफेदे का विरोध करने के बजाय इसके सही वितरण की मांग उठाएं।
कर्नाटक के एक सेवानिवृत वन अधिकारी श्री वाईएमएल शमा कहते हैं, “लोग जानते नहीं कि वन विभाग पर कितना दबाव है। सरकार और राजनैतिक लोग उद्योगपतियों को लकड़ी देने का वायदा कर देते हैं। फिर उसे जुटाने के लिए हमसे कहते हैं। तब सफेदे जैसे पेड़ न लगाएं तो हम क्या करें?”
कर्नाटक के मुख्य वन संरक्षक श्री श्याम सुंदर का कहना है, “इस समय हम उद्योगों के बजाय लोगों को लकड़ी देने की कोशिश कर रहे हैं।” पर वहां के आंकड़े कुछ और ही बताते हैं। आज कर्नाटक में 40 लाख टन ईंधन लकड़ी की मांग है। उसमें केवल छह लाख टन लकड़ी वन विभाग से आती है। बाकी मांग तो गरीब लकड़हारे पूरा कर रहे हैं, सफेदे के अमीर किसान नहीं।
निस्संदेह सफेदे के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां पहले से ऊर्जा की काफी किल्लत है, ऊर्जा संकट बदतर जरूर होगा। ईंधन की कम से उन लोगों की तकलीफ ज्यादा बढ़ेगी, जिनके पास इतनी जमीन नहीं है जहां से वे खरपतवार जुटा पाते या जिनके पास कोई पशु नहीं है, जिनका गोबर जलाने के काम आता। ऐसे लोग मिट्टी का तेल आदि भी नहीं खरीद सकते। यों कहने को देश भर में फैली बंजर जमीन में पनप रही बेशरम और ऐसी ही झाड़ियां भी लोग जला रहे हैं। पर ऐसी जमीन में भी सफेदा लगा देने से ऊर्जा संकट और भी बढ़ जाएगा।
बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि जो भूमिहीन परिवार किसानों के खेतों में से डंठल वगैरह बटोरते थे उन खेतों में अब सफेदा लगने पर ये वहां से सफेदा के पत्ते तक बटोरने लगे हैं। कई जगह सफेदा के खेतों में इन पत्तों के कारण इतनी बार झाडू लगती है कि उससे ज्यादा साफ जमीन शायद ही कहीं मिले।
सफेदे के पेड़ लगाने का इससे भी ज्यादा बुरा असर गिरिजनों पर हुआ है। केरल में बड़े पैमाने पर वनों को काट कर जहां सफेदे के सघन वन खड़े किए गए, उसके बारे में वेल्लनिक्कारा के केरल कृषि विश्वविद्यालय के श्री टी माधवमेनन कहते हैं कि इसका असर झूम की खेती पर भी पड़ा है। अदल-बदल कर खेती करने के लिए जमीन कम पड़े और एक बार फसल लेकर छोड़ी जमीन को पूरी तरह फिर उपजाऊ बनने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिले तो जमीन की कस घट जाती है। प्राकृतिक वनों में मिलने वाले कंद मूल खत्म हो गए हैं। छप्पर छाने के लिए घास, ईंधन भी गया। पेड़ लगाने के काम के लिए मजदूरों की मांग जरूर बढ़ी है, लेकिन पहले की तरह उसका लाभ गिरिजनों को नहीं मिल रहा है, क्योंकि सारे मजदूरों को ठेकेदार बाहर ला रहे हैं। सफेदे के पेड़ों से गिरिजनों के जरूरत की चीजों के उत्पादन को बढ़ावा नहीं मिलता है, क्योंकि सफेदा लगाने का उद्देश्य ही शहरी उद्योग की जरूरतें पूरी करना है।
कर्नाटक में सफेदे के पौधों को उखाड़ने का अभियान चलाने वाले ‘रैयत संघ’ ने सामाजिक आवश्यकता की दृष्टि से वांछित पेड़ों की किस्मों के बारे में कुछ बुनियादि सवाल उठाए हैं। संघ का कहना है कि जो भी पेड़-पौधे लगें, वे विकेंद्रित आर्थिक अभिवृद्धि और गांव की आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने वाले होने चाहिए। सफेदे के कारण गांव वाले किसी बड़े उद्योगपति से बंध जाते हैं। उससे गांव के भी उद्योग को प्रोत्साहन नहीं मिलता।
रैयत संघ नें 1982 में हासन जिले के येलगूंडा गांव में सफेदे के विरोध में एक आंदोलन शुरू किया था। वहां लगभग 600 एकड़ वन भूमि में वन विभाग ने सफेदे के पेड़ लगाए थे। उस भूमि से गांव वालों को ईंधन को चारा मिलता था। सफेदे के कारण वे उससे वंचित हो गए। लोगों ने सारे पौधे उखाड़ फेंके। पुलिस आई। काफी बहस हुई। आखिर में वह सारी जमीन 600 भूमिहीन और सीमांत किसानों में बांट दी गई और उन्होंने उसमें इमली और कटहल के पेड़ लगाए, और अब रागी की फसल भी ले रहे हैं। रैयत संघ एक ग्रामीण सहकारी समिति बनाकर उसके मार्फत कोई छोटा उद्योग शुरू करने के बारे में भी सोच रहा है। संघ के दो साथी श्री मंजुनाथ दत्त और श्री हनुमत गौड़ कहते हैं, “जमीन और पानी का यह लुटेरा तो अब आदमी से भी होड़ करने लगा है।”
एक पेड़ की तरह जमीन पर जिसकी थोड़ी-बहुत जगह थी, एक मेहमान की तरह घर में जिसकी इज्जत भी हो सकती थी उसे सरकार ने वन विभागों ने, उद्योगों ने एकमात्र पेड़ की तरह उछालकर, उसे वरदान देकर एक तरह का भस्मासुर बना दिया है। वह सबको भस्म किए जा रहा है प्राकृतिक वन, वनवासी, पानी, उपजाऊ खेत, अनाज की फसलें उन पर टिके लोग, मजदूर, घास-फूस की छाये गये छप्पर और उन छप्परों तले जलने वाले चूल्हों का ईंधन-सब सफेदे की भेंट चढ़ रहे हैं। और इसे लेकर उत्साह से आगे बढ़ रहे वन विभाग और अन्य सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं लोगों से और भी दूर होती जा रही हैं।
लेकिन कई लोग खेतों में घुस चुके इस पेड़ को फसलों से अलग ही रखने के पक्ष में हैं। पंजाब योजना बोर्ड के एक सदस्य और किसान डॉ. यूएस कंग कहते हैं कि अनेक किसानों ने खेतों की मेड़ों पर सफेदा लगाना बंद कर दिया है क्योंकि वह मेंड़ के दोनों ओर पानी को सुखा देता है। उनका अपना अनुभव है कि फसल में जब बाली निकलने लगती हैं, सफेदे पर कौए खूब आ बैठते हैं और अनाज की फसलों को खराब करते हैं। उनका सुझाव है कि मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के लिए सफेदे के बीच में सुबबूल जैसे फलीदार पेड़ बोने चाहिए। उधर गुजरात में सफेदे के कारण गेहूं की फसल में बताई जा रह वृद्धि पर व्यंग्य करते हुए श्री भूंबला कहते हैं, “यह भला कैसी जादुई खती है कि बस मेड़ पर सफेदा लगाते ही 24 प्रतिशत फसल बढ़ जाए।”
फिर भी सरकार की राय, जिसे सरकारी वैज्ञानिकों का समर्थन भी प्राप्त है, यही है कि अगर लकड़ी की बढ़ती मांग की पूर्ति करनी है तो साधारण और बंजर जमीन पर सफेदा लगाना जारी रहना चाहिए। जनवरी 84 में केरल में एक सफेदा सम्मेलन में पर्यावरण विभाग के सचिव ने सफेदा को वरदान बताते हुए कहा था कि इस पेड़ से कोई नुकसान नहीं होने वाला। कर्नाटक सलाहकार समिति तो इससे भी एक कदम आगे बढ़कर कहती है कि बार-बार सूखा ग्रस्त होने वाले इलाकों में कुछ हद तक अनाज वाले खेतों में भी सामाजिक वानिकी के तहत सफेदा लगाना पर्यावरण की दृष्टि से लाभदायक ही होगा।
फिर भी, अभी कुछ दिनों से सरकार को उन किसानों के कारण चिंता होने लगी है जो सिंचित जमीन में अनाज छोड़ सफेदे की ही खेती करने लगे हैं। श्री भूंबला कहते हैं, “सिचिंत खेतों में सफेदा लगाने से अनाज के उत्पादन पर उल्टा असर पड़ेगा। पंजाब, हरियाणा में 10 लाख हेक्टेयर खेत में सफेदा लग गया तो 60 लाख टन अनाज की कमी होगी। अब तो कई विशेषज्ञ सिंचित जमीन में सफेदा पर पाबंदी लगाने के लिए कानून बनाने तक की बात कर रहे हैं।”
सब देसी पेड़ों की ‘टांगे’ बांध दी गयी हैं और छुट्टर छुट्टा सफेदा दौड़ जीत रहा है। किसी ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की है कि हमारे पेड़ कौन से हैं। वे समाज पर आए इस संकट में कुछ कर पायेंगे या नहीं? शायद ये पेड़ एक भिन्न किस्म के विकास के कारण पसर रहे बाजार की मांग पूरी नहीं कर पाएंगे। फिर भी डॉ. भूंबला ने तो इस मामले में भी देशी पेड़ों की तरफ देखने का आग्रह किया है।
छिटपुट तथ्य
योजना आयोग की एक बैठक में श्री भूंबला ने सफेदे के बारे में एक बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाया था-क्या सफेदे की पैदावार किसी भी परिस्थिति में दूसरे सभी पेड़ों से ज्यादा होती है? भूंबला ने कहा, “हमारे पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है जिससे हम कह सकें कि सफेदे में दूसरे अनेक देसी पेड़ों से ज्यादा पत्ते टहनियां आदि होती हैं। वन विभाग वाले केवल तने को नापते हैं, पत्ते व टहनी आदि का हिसाब नहीं करते।”
हिमाचल प्रदेश वन विकास निगम के डॉ. एमपी गुप्ता ने भी शिकायत की कि सफेदा लगाने पर इतना धन खर्च करने के बावजूद, “सफेदे के बारे में हमारी जानकारी नगण्य है। एक वन अधिकारी के नाते, विदेशी पेड़ों के बारे मुझे भरोसा नहीं है। हमने कीकर और खैर को तेजी से बढ़ते देखा है।” उन्होंने यह बात योजना आयोग को बताई। यह सचमुच सही है कि देसी पेड़ों के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सफेदे की खेती करने वाले किसान और वन विभाग वाले बार-बार कहते हैं कि वे सफेदे को इसलिए पसंद करते हैं कि उसे पशु खाते नहीं है। यह बिलकुल अजीब बात है कि ऐसा पेड़ लगाया जा रहा है वह भी इतने बड़े पैमाने पर, जिसके चारे के लिए छंटाई नहीं हो सकती जबकि ईंधन से भी ज्यादा चारे की बेहद कमी है। 1976 में जब राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सामाजिक वानिकी का विचार रखा था तब उसका एक प्रमुख उद्देश्य चारा पैदा करना था। लेकिन आज सफेदे की आंधी पर सवार सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम चारा उत्पादन को बिलकुल नजरअंदाज करके चल रहा है।
भारतीय एग्रो-इंडस्ट्रीज फाउंडेशन, उरलीकांचन (पूना) के श्री मणिभाई देसाई चारा देने वाले एक अन्य विदेशी सुबबूल के प्रचारकों में से हैं। उनकी पक्की राय है कि किसानों को ऐसे पेंड़ बिल्कुल नहीं लगाना चाहिए जो चारे के काम नहीं आते हों। “आखिर खेती की सभी फसलों का उपयोग चारे के रूप में होता है और किसान उनकी देखभाल भी करते हैं।” उत्तराखंड में चिपको की मातृ संस्था दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल द्वारा आयोजित पर्यावरण शिविरों का भी यही अनुभव है कि किसान पेड़ों की रक्षा करना चाहें तो कर सकते हैं।
पर वन विभाग चारे वाले पेड़ नहीं लगा सके और ठीक से रखवाली भी नहीं कर सकते। एक निरीक्षक का कहना है कि “सफेदे के खिलाफ चल रहे आंदोलन से वन विभाग का वन संवर्धन कार्यक्रम ही ठप हो जाएगा। अगर सफेदा नहीं लगाएंगे तो फिर वे जो भी लगाएंगे वह सब गायब हो जाएगा।”
ईंधन वह ज्वलंत प्रश्न
जब कागज उद्योग का बाजार किसान के दरवाजे पर आकर सफेदा खरीदने के लिए तैयार बैठा है तब क्या इससे ईंधन की जरूरतें पूरी हो सकेंगी? सफेदे के घोर समर्थक भी इस सवाल पर बगलें झांकने लगते हैं और सारा दोष राजनीति पर मढ़ देते हैं। श्री कारंत और श्री मेवासिंह स्वीकार करते हैं कि सार्वजनिक पेड़ों से हर साल 1,00,000 टन से ज्यादा प्लाइवुड बन रहे हैं अच्छा होता है कि ये पेड़ लोगों की ही बुनियाद जरूरतों के लिए, जरूरी हो तो रियायती दर पर बेचे जाते। लेकिन सभी सरकारें सफेदे की सारी लकड़ी कारखानों के हवाले कर रही हैं। अच्छा तो पर्यावरण वाले सफेदे का विरोध करने के बजाय इसके सही वितरण की मांग उठाएं।
कर्नाटक के एक सेवानिवृत वन अधिकारी श्री वाईएमएल शमा कहते हैं, “लोग जानते नहीं कि वन विभाग पर कितना दबाव है। सरकार और राजनैतिक लोग उद्योगपतियों को लकड़ी देने का वायदा कर देते हैं। फिर उसे जुटाने के लिए हमसे कहते हैं। तब सफेदे जैसे पेड़ न लगाएं तो हम क्या करें?”
कर्नाटक के मुख्य वन संरक्षक श्री श्याम सुंदर का कहना है, “इस समय हम उद्योगों के बजाय लोगों को लकड़ी देने की कोशिश कर रहे हैं।” पर वहां के आंकड़े कुछ और ही बताते हैं। आज कर्नाटक में 40 लाख टन ईंधन लकड़ी की मांग है। उसमें केवल छह लाख टन लकड़ी वन विभाग से आती है। बाकी मांग तो गरीब लकड़हारे पूरा कर रहे हैं, सफेदे के अमीर किसान नहीं।
ऊर्जा संकट
निस्संदेह सफेदे के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां पहले से ऊर्जा की काफी किल्लत है, ऊर्जा संकट बदतर जरूर होगा। ईंधन की कम से उन लोगों की तकलीफ ज्यादा बढ़ेगी, जिनके पास इतनी जमीन नहीं है जहां से वे खरपतवार जुटा पाते या जिनके पास कोई पशु नहीं है, जिनका गोबर जलाने के काम आता। ऐसे लोग मिट्टी का तेल आदि भी नहीं खरीद सकते। यों कहने को देश भर में फैली बंजर जमीन में पनप रही बेशरम और ऐसी ही झाड़ियां भी लोग जला रहे हैं। पर ऐसी जमीन में भी सफेदा लगा देने से ऊर्जा संकट और भी बढ़ जाएगा।
बहुत कम लोगों को अंदाज होगा कि जो भूमिहीन परिवार किसानों के खेतों में से डंठल वगैरह बटोरते थे उन खेतों में अब सफेदा लगने पर ये वहां से सफेदा के पत्ते तक बटोरने लगे हैं। कई जगह सफेदा के खेतों में इन पत्तों के कारण इतनी बार झाडू लगती है कि उससे ज्यादा साफ जमीन शायद ही कहीं मिले।
उलटा असर
सफेदे के पेड़ लगाने का इससे भी ज्यादा बुरा असर गिरिजनों पर हुआ है। केरल में बड़े पैमाने पर वनों को काट कर जहां सफेदे के सघन वन खड़े किए गए, उसके बारे में वेल्लनिक्कारा के केरल कृषि विश्वविद्यालय के श्री टी माधवमेनन कहते हैं कि इसका असर झूम की खेती पर भी पड़ा है। अदल-बदल कर खेती करने के लिए जमीन कम पड़े और एक बार फसल लेकर छोड़ी जमीन को पूरी तरह फिर उपजाऊ बनने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिले तो जमीन की कस घट जाती है। प्राकृतिक वनों में मिलने वाले कंद मूल खत्म हो गए हैं। छप्पर छाने के लिए घास, ईंधन भी गया। पेड़ लगाने के काम के लिए मजदूरों की मांग जरूर बढ़ी है, लेकिन पहले की तरह उसका लाभ गिरिजनों को नहीं मिल रहा है, क्योंकि सारे मजदूरों को ठेकेदार बाहर ला रहे हैं। सफेदे के पेड़ों से गिरिजनों के जरूरत की चीजों के उत्पादन को बढ़ावा नहीं मिलता है, क्योंकि सफेदा लगाने का उद्देश्य ही शहरी उद्योग की जरूरतें पूरी करना है।
कर्नाटक में सफेदे के पौधों को उखाड़ने का अभियान चलाने वाले ‘रैयत संघ’ ने सामाजिक आवश्यकता की दृष्टि से वांछित पेड़ों की किस्मों के बारे में कुछ बुनियादि सवाल उठाए हैं। संघ का कहना है कि जो भी पेड़-पौधे लगें, वे विकेंद्रित आर्थिक अभिवृद्धि और गांव की आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने वाले होने चाहिए। सफेदे के कारण गांव वाले किसी बड़े उद्योगपति से बंध जाते हैं। उससे गांव के भी उद्योग को प्रोत्साहन नहीं मिलता।
रैयत संघ नें 1982 में हासन जिले के येलगूंडा गांव में सफेदे के विरोध में एक आंदोलन शुरू किया था। वहां लगभग 600 एकड़ वन भूमि में वन विभाग ने सफेदे के पेड़ लगाए थे। उस भूमि से गांव वालों को ईंधन को चारा मिलता था। सफेदे के कारण वे उससे वंचित हो गए। लोगों ने सारे पौधे उखाड़ फेंके। पुलिस आई। काफी बहस हुई। आखिर में वह सारी जमीन 600 भूमिहीन और सीमांत किसानों में बांट दी गई और उन्होंने उसमें इमली और कटहल के पेड़ लगाए, और अब रागी की फसल भी ले रहे हैं। रैयत संघ एक ग्रामीण सहकारी समिति बनाकर उसके मार्फत कोई छोटा उद्योग शुरू करने के बारे में भी सोच रहा है। संघ के दो साथी श्री मंजुनाथ दत्त और श्री हनुमत गौड़ कहते हैं, “जमीन और पानी का यह लुटेरा तो अब आदमी से भी होड़ करने लगा है।”
एक पेड़ की तरह जमीन पर जिसकी थोड़ी-बहुत जगह थी, एक मेहमान की तरह घर में जिसकी इज्जत भी हो सकती थी उसे सरकार ने वन विभागों ने, उद्योगों ने एकमात्र पेड़ की तरह उछालकर, उसे वरदान देकर एक तरह का भस्मासुर बना दिया है। वह सबको भस्म किए जा रहा है प्राकृतिक वन, वनवासी, पानी, उपजाऊ खेत, अनाज की फसलें उन पर टिके लोग, मजदूर, घास-फूस की छाये गये छप्पर और उन छप्परों तले जलने वाले चूल्हों का ईंधन-सब सफेदे की भेंट चढ़ रहे हैं। और इसे लेकर उत्साह से आगे बढ़ रहे वन विभाग और अन्य सरकारी, गैर-सरकारी संस्थाएं लोगों से और भी दूर होती जा रही हैं।
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