पुनर्वासितों के साथ वायदा खिलाफी

बागमती परियोजना के विस्थापितों ने धोखा कैसे खाया वह तो अब धीरे-धीरे साफ हो रहा है मगर कितना धोखा खाया और इसके बाद भी बेहतरी की उम्मीद नहीं छोड़ी यह जानने के लिए कुछ इस तरह के गाँवों की ओर चलते हैं जिनकी उम्मीदें अभी भी कायम हैं। शुरुआत करते हैं ढेंग और बैरगनियाँ के बीच बागमती के दाहिने किनारे बसे (या अब उजड़े) मसहा आलम के विस्थापितों से-

11.7.1 हम लोग इस देश के नागरिक हैं या नहीं?-


150 एकड़ क्षेत्रफल का मसहा आलम एक ऐसा गाँव है जो बागमती तटबंधों के बीच में पड़ गया था और उसके 420 परिवारों को पुनर्वासित करने की योजना थी। यह गाँव तटबंधों के बीच फँस तो 1971-72 के बीच गया था मगर पुनर्वास की कोई नीति न होने की वजह से गाँव के लोग वहीं पुराने घर या तटबंध पर रह कर बाढ़ के थपेड़े झेल रहे थे। उन दिनों अधिकारियों को पुनर्वास की जमीन और ढुलाई शुल्क पर 10 प्रतिशत घूस देनी होती थी और गाँव वाले ऐसा करना नहीं चाहते थे भले ही उनके सामने मसहा नरोत्तम गाँव के पुनर्वास की मिसाल थी जहाँ मुखिया की मध्यस्थता के कारण दस प्रतिशत का चढ़ावा चढ़ाने पर पुनर्वास हो गया था। बैरगनियाँ के अंचलाधिकारी ने बागमती परियोजना के पुनर्वास अधिकारी को पत्र संख्या 396/14-6-84 द्वारा विस्थापितों की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा और पत्रांक 191 (सहाय्य) दि. 28.7.84 के माध्यम से पुनः याद भी दिलाया मगर रिश्वत के अभाव में यह काम हो नहीं पाया। बागमती परियोजना के सूत्रों के अनुसार उन 420 परिवारों में से 104 परिवारों को बेल, डुमरबन्ना, भकुरहर और नन्दवारा गाँवों में बसाया गया है और बाकी 316 परिवारों का पुनर्वास किया जाना अभी भी बाकी है (जून 2010)। मसहा आलम के विस्थापित परिवारों के अनुसार बैरगनियाँ रिंग बांध के अंदर उनके पुनर्वास के लिए 5 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया जिसमें से 2.5 एकड़ नन्दवारा में तथा 2.5 एकड़ जमीन भकुरहर में अधिगृहीत हुई। इन दोनों जगहों पर कोई 35-35 परिवार बसे होंगे और इतने ही लोग पुराने गाँव में अपने डीह पर ही बने हुए हैं। कुछ लोग जिनके लिए किसी भी तरह से पुराने गाँव में रह पाना संभव नहीं था वे अपनी फसल या जमीन बेच कर रिंग बांध के अंदर जहाँ-तहाँ बस गए। रिंग बांध के अंदर भी बागमती नदी के दाहिने तटबंध के टूटने की वजह से और स्लुइस गेट से पानी अंदर आने के कारण खतरा बना ही रहता है।

बाकी लोगों के लिए भकुरहर में जमीन का अधिग्रहण करने का प्रस्ताव था मगर वहाँ के भू-धारी इस तरह के अधिग्रहण के खिलाफ हाईकोर्ट से स्टे-ऑर्डर ले आये और अधिग्रहण की प्रक्रिया रुक गयी। अब जो स्थिति है वह यह कि बाकी परिवार बागमती तटबंध के ऊपर, ढेंग को बैरगानियाँ रेल स्टेशन से जोड़ने वाली रेल लाइन के दोनों तरफ तथा रेल-पुल के दक्षिण तटबंध की कन्ट्रीसाइड के बीसफुट्टी सरकारी जमीन पर अनाधिकृत तौर पर बसे हुए हैं। जो लोग रेल लाइन के किनारे बसे हैं उन्हें रेलवे अधिकारी कभी भी हटा सकते हैं। तटबंध पर बसे लोगों को तटबंध की मरम्मत और उसे ऊँचा और मजबूत बनाने में लगे इंजीनियर और ठेकेदार तथा उनके उकसाने पर पुलिस अक्सर खदेड़ती रहती है। इस गाँव के नागेन्द्र राय का कहना है, ‘‘...1972 में इस गाँव का जो बच्चा 10 साल का रहा होगा और जिसके पिता तक का पुनर्वास नहीं हुआ और जो इस समय 45-50 वर्ष का हो गया होगा, उसके खुद की और बेटी-बेटों के रहने की जगह कहाँ है? बेटियाँ तो मान लेते हैं चली गईं मगर बहुओं का क्या होगा? भाई-भाई अलग हो गए, उनके रहने के लिए जमीन कहाँ से आयेगी?’’

नन्दवारा की जिस जमीन का पुनर्वास के लिए अधिग्रहण होना था उसका फैसला जब हुआ तब उसमें गेहूँ लगा हुआ था। जैसे ही जमीन के मालिक को पता लगा कि जमीन हाथ से निकल जायेगी तब उसने एक रात के अंदर उस जमीन को बहुत से लोगों के हाथ टुकड़ा-टुकड़ा कर के बेच दिया। रात भर में लोगों ने गेहूँ काट लिया, वहाँ झोपडि़याँ बन गईं और जानवर लाकर बांध दिये गए। लोग डरे हुए थे कि अगर हटना पड़ा तो अपने खेतों के पास में जमीन नहीं मिलेगी। इसलिए उन्होंने 500-700 रुपये कट्ठा देकर जमीन खरीद ली। जमीन के मालिक को रैयत से भी पैसा मिला और सरकार से भी। नन्दवारा वाला पुनर्वास तो इसी तरह पूरा किया गया। 1993 में इसी पुनर्वास बस्ती के सामने बागमती का तटबंध टूट गया था और नदी ने बस्ती वाली पुनर्वास की पूरी आबाद जमीन एकदम साफ-सुथरी कर के गाँव वालों को वापस लौटा दी। तटबंध टूटने की वजह से जो बड़ा गड्ढ़ा बना था वह सत्रह साल बाद आज भी वैसे का वैसा ही मौजूद है।

इसके बाद पुनर्वास दिलवाने वाले दलाल पैदा हुए। वे आकर गाँव वालों को दिलासा देते थे कि इतना पैसा दो तो पुनर्वास अधिकारी से बात करते हैं, इतना पैसा दो तो कलक्टर से बात करते हैं, यहाँ 20 एकड़ है, वहाँ 42 एकड़ है, वगैरह-वगैरह। लोग उन्हें पैसे देते गए मगर वह तो कटी हुई पेंदी का घड़ा था, कभी भरता ही नहीं था। पैसा देते-देते थक जाने के बाद गाँव वालों को यकीन आया कि उनके साथ कुछ स्वार्थी लोग जान-बूझ कर वैसी ही धोखा-धड़ी कर रहे हैं जैसी राज्य की सरकार उनसे पहले कर चुकी है। अब गाँव वालों का भरोसा बचा है तो सिर्फ अपने मुखिया सीता राम पर जो उनका सारा दौड़ने-धूपने का काम अपनी पूरी ताकत से कर देते हैं। सीता राम मुखिया का कहना है कि अभी पिछली साल सरकार के लोग आये थे बांध पर बसे लोगों को यहाँ से हटाने के लिए। जाड़े का दिन था, गाँव वालों ने कहा कि कोई तिरपाल वगैरह की व्यवस्था कर दीजिये तो बाल-बच्चों को थोड़ी सहूलियत हो जायेगी मगर दारोगा का कहना था कि 24 घंटे में खाली करना पड़ेगा जबकि गाँव के लोग तीन दिन की मोहलत मांगते थे। पुलिस और ठेकेदार दोनों में से कोई भी इतना इंतजार करने के लिए तैयार न था। हम लोग कड़कड़ाती ठंड में बिना कोई व्यवस्था किये हुए जबरन अपने हटाये जाने के विरोध में सीतामढ़ी-बैरगनियाँ रेल लाइन पर धरना देकर बैठ गए और रेल रोक दी तो बैरगनियाँ से लोगों का आवागमन रुक गया। इसके अलावा बैरगनियाँ आने-जाने की कोई दूसरी व्यवस्था है भी नहीं। मामले ने जब तूल पकड़ा तब गाँव वाले एक तरफ और ठेकेदार तथा पुलिस दूसरी तरफ मोर्चा लेकर आमने-सामने आ गए। दोनों पक्षों में जमकर मार-पीट हुई और पुलिस को गोली चलानी पड़ गयी। दोनों तरफ से मुकद्दमें दायर हुए। गाँव वालों का कहना था कि हमें पुनर्वास की जमीन दे दीजिये, हम लोग अपने आप चले जायेंगे। ‘‘...हम लोग कलक्टर से यह पूछने के लिए गए कि हम लोग इस देश के नागरिक हैं या नहीं जो हमें इस तरह खदेड़ा जा रहा है। अगर बागमती परियोजना के कारण हमारी भारत की नागरिकता समाप्त हो जाती है तो आप हुक्म कीजिये, हम नेपाल में जाकर बस जाते हैं। कलक्टर ने तब थाना प्रभारी को फोन किया कि इन लोगों को मत उजाड़िये और न ही परेशान कीजिये। उन्होंने हम लोगों से इतना जरूर कहा कि आप लोग तटबंध पर रह रहे हैं, रहिये मगर रास्ता मत बंद कीजियेगा। हमने उनसे कहा कि दुपहिया तो चलेगा मगर चार पहिया वाहन के लिए वहाँ जगह ही नहीं है। दुपहिए वाहन पर तो हम लोग भी चलते ही हैं। उसके बाद से हम लोग यहाँ तटबंध पर बने हुए हैं।

पुनर्वास का मसला बड़ा पेचीदा है। सरकार जमीन अधिग्रहण करना चाहती है और जमीन आस-पास में कहीं है ही नहीं। आज से कोई 10-12 साल पहले सीतामढ़ी के कलक्टर ने बी.डी.ओ., पुनर्वास अधिकारी, अंचल अधिकारी और नन्दवारा, मूसाचक तथा मसहा आलम के मुखिया को बुला कर मीटिंग की और कहा कि आप लोग मूसाचक, नन्दवारा, बेल और डुमरबन्ना में अलग-अलग जगहों पर जमीन ले लीजिये। गाँव वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। सरकार का कहना था कि कई बार और कई स्तरों पर जमीन का अधिग्रहण करते-करते वह अब हार चुकी है और कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। गाँव वालों ने पूछा कि सारी क्षमता होते हुए भी सरकार अगर इतनी मजबूर है तो वे बताये कि गाँव के गरीब लोग क्या कर सकने की स्थिति में हैं? जमीन का पैसा लेने में किसी की रुचि नहीं है क्योंकि लोग कर्ज में इस तरह डूबे हैं कि पैसा मिलते ही उसके पर उग जायेंगे और वे महाजनों की तिजोरी की ओर फुर्र हो जायेगा’’।

महंत बृज कुमार दास अपनी पत्नी के साथमहंत बृज कुमार दास अपनी पत्नी के साथतालिका-11.1 के अनुसार अखता गाँव के उन सभी टोलों का पुनर्वास पूरा हो चुका है जो बागमती नदी के दोनों तटबंधों के बीच पड़ते थे। अखता गोठ के पूर्व मुखिया महंत बृज कुमार दास का कहना है, ‘‘अखता में अखता पूर्वी, अखता पश्चिमी और अखता उत्तरी तीन पंचायतें हैं। बागमती के पश्चिम चकवा, लोहारी टोला, बरवा टोला, पुराना अखता बाजार टोला, ततपुरवा टोला, तकिया टोला मिला कर पश्चिमी अखता का गठन हुआ। अखता गोठ एवं बाजपेयी टोला मिला कर अखता पूर्वी का गठन हुआ। मोतीपुर, सोनाखान, मलाही टोला एक साथ और मधुरापुर- इनका रेवेन्यू नंबर अलग हो गया है। रामपुर कंठ और कोढ़ियार एवं गोसाईंपुर टोला का भी रेवेन्यू नम्बर अलग है। तीन सौ वोटर कम थे जो हमने अखता गोठ से दे दिया और तब अखता उत्तरी पंचायत का गठन हुआ। हम लोग जहाँ बैठे हैं (पूर्वी तटबन्ध् के पूरब) वहाँ 1966 में अखता उत्तरी और अखता पूर्वी पंचायत से होकर बागमती नदी बहती थी। ...तटबंध निर्माण होने के बाद 9 फरवरी 1982 के दिन, इस गांव को पुनर्वास में बसाने के लिए तत्कालीन शिक्षा राज्यमंत्री रघुनाथ झा, हसनैन साहब, समाहर्ता एवं सम्बंधित पदाधिकारियों की एक बैठक हुई। उसमें अदौरी, अखता, चकफतेया आदि गांवों को बसाने का निर्णय लिया गया। अखता के विस्थापितों के लिए 76 एकड़ जमीन मिली। बागमती तब भी निजी जमीन में बहती थी, आज भी निजी जमीन में ही बहती है। अखता पूर्वी का बाजपेयी टेाला (ऊर्फ भेड़िहरवा टोला), मोतीपुर टोला, मलाही टोला का कुछ अंश (कुछ कट गया था) तटबंध के बाहर पड़ गया। चकवा, लोहारी टोला, बरवा टोला यह अभी भी तटबंध के अंदर हैं। सतपुरवा बाहर था सो बाहर ही रह गया। उस समय सरकार और भू-धारियों के बीच पुनर्वास सम्बंधी बातचीत हुई। स्थानीय बड़े भूमिधारी, जिनकी जमीन अर्जित होनी थी, उनका तर्क था कि अखता मात्र 26 या 27 एकड़ में ही है तब उससे ज्यादा जमीन क्यों चाहिये?

मैं 1953 से मुखिया हूँ। मैंने कहा कि यह गाँव गरीब मजदूरों की बस्ती है- चार में से तीन लड़कों की बहुएँ कहाँ रहेंगी? पुनर्वास दे रहे हैं तो जमीन फाजिल देनी पड़ेगी। गाँव में फैलने की, बथान, खलिहान बनाने की आजादी होती है। भू-स्वामियों से कुछ संघर्ष हुआ। सरकार कहती थी कि जमीन कम से कम अधिगृहीत हो-भूमिस्वामी भी यही चाहते थे। हमने 82 एकड़ जमीन मांगी मगर 76 एकड़ पर संतोष करना पड़ा। अभी भी लगभग 32-33 परिवार ऐसे हैं जो सड़क पर हैं जिन्हें हम इतना सब करने के बावजूद जमीन नहीं दे पाये। 4-5 एकड़ और मिल गया होता तो सबको कायदे से बसा लेते। सम्बंधित पदाधिकारी की मानसिकता आज भी नहीं बदली। आजादी मिली, अपना शासन, अपना संविधान सब कुछ मिला। बापू/नेहरू ने जो समाज उत्थान की शिक्षा दी उस पर हम चल नहीं पाये, यह दुर्बलता है। कुछ लोगों को जमीन नहीं मिली है तो कुछ को पर्चा नहीं मिला। एक लिंक रोड के लिए पिछले 28 वर्षों से मांग कर रहे हैं जो अब तक नहीं मिली। कब तक लड़ेंगे? हाथापाई करते तो फाइल सरकती। जहाँ तक पहुँचेगी वहाँ से वापस फाइल लाने में भी यही करना पड़ेगा। सामने वाला आदमी क्यों हथियार उठा रहा है-यह हमें हथियार उठाने वाले से पूछना चाहिये था। तटबंध के अंदर कितनी जमीन बर्बाद हुई और वहाँ कितना बालू जमा हुआ है वह जाकर अखता की ईदगाह पर देख लीजिये। ऐसी हालत में रोज़ी-रोटी का क्या होगा? ...पुरानी समाज व्यवस्था में सरदार लाठी वाला होता था। किसी के पास 40 बकरी थी जिनमें से 10 बिक गयी तो उसके पास पैसा हो गया। उसके पास पैसा देख कर किसी दूसरे को सरदर्द हो गया तो वह सरदार के पास गया। सरदार इलाज बताता है कि बकरी बेचने वाला डाइन है उसी की वजह से तुम्हें सरदर्द हो रहा है। बकरी बेचने वाले का पैसा सरदार को पहुँच गया और बेचने वाला मारा गया। संशोधित रूप में वही परिस्थिति आज भी है।’’

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Post By: tridmin
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