पुनर्वास की बहस जनता के बीच

कोसी क्षेत्र के लोग शायद ज्यादा जागरूक थे इसलिए उन्होंने सरकार से घरों के निर्माण के लिए पैसा ले लेने में सफलता पायी। यहाँ के नेताओं को शायद इतनी भी समझ नहीं थी कि जो मुआवजा कोसी में मिला उस जैसी मांग यहाँ उदाहरण के तौर पर रखते और हासिल करते। वैसा यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। यहाँ नेता चुना जाता है जाति के नाम पर, भले ही उसमें नेतृत्व का गुण हो या नहीं, समस्याओं की समझ हो या नहीं, विधानसभा या लोकसभा में मंतव्य और तर्क रखने की क्षमता हो या नहीं--

तटबंध के निर्माण का काम तो 1971 में ही शुरू हो चुका था और गाँव तटबंधों के बीच धीरे-धीरे फंसते जा रहे थे। तटबंध पीड़ितों की चाहत थी कि उनका पुनर्वास किया जाय। मार्च 1975 में सीतामढ़ी के बसबिट्टा बाजार में एक सीतामढ़ी जिला सिंचाई सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में किसानों ने बाढ़ नियंत्रण के काम पर संतोष जाहिर किया मगर तब तक बागमती से सिंचाई प्रदान करने की दिशा में कोई भी काम न किये जाने पर चिंता भी व्यक्त की। वह नदी के तटबंधों में जगह-जगह स्लुइस गेट का निर्माण किये जाने की मांग कर रहे थे। इस सम्मेलन में सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता के.पी. लाहा तथा यू. के. वर्मा भी मौजूद थे। उन्होंने सम्मेलन को आश्वस्त किया कि सिंचाई की समुचित व्यवस्था की जायेगी और आशा की गयी थी कि इस वर्ष ढेंग से कन्सार तक तटबंध का काम पूरा कर लिया जायेगा। ‘‘...तटबंधों के बीच पड़ने वाले लोगों के पुनर्वास का काम तो होगा ही किंतु यह इतना महत्वपूर्ण और आवश्यक है कि इस ओर अधिकारियों को विशेष ध्यान देना चाहिये और किसी तरह भी शिथिलता नहीं आने देना चाहिये।’’ बरसात में, इस साल बागमती में बहुत बड़ी बाढ़ आयी थी जिसके बारे में हम पहले भी चर्चा कर आये हैं। इस बाढ़ के बाद पुनर्वास का मसला तेजी से उभरा। मुहम्मद हुसैन आजाद द्वारा विधान सभा में 29 जून 1976 को दिया गया बयान इस मुद्दे पर तब तक स्पष्टता को दर्शाता रहा।

इस बात पर जरूर आश्चर्य होता है कि पुनर्वास का मतलब क्या तटबंधों के बाहर घर बनाने के लिए दिया गया एक प्लॉट ही होता है? खेती की जमीन के बदले जमीन, उत्तर बिहार में विस्थापितों को कभी नहीं दी जा सकती, यह प्रश्न तो कोसी योजना के विस्थापितों के पुनर्वास के समय ही हल हो गया था क्योंकि उतनी ज्यादा जमीन (लगभग 1.20 लाख हेक्टेयर) उस घनी आबादी वाली जगह में पैदा नहीं की जा सकती थी, इसलिए यह तय हुआ था कि लोग रहेंगे पुनर्वास में मगर खेती अपनी पुश्तैनी जमीन पर तटबंधों के बीच ही करेंगे। शायद इसीलिए यही व्यवस्था बागमती योजना के पुनर्वास में भी चला दी गयी। मगर इस बार घर बनाने के लिए सरकार की तरफ से कोई अनुदान बागमती परियोजना के विस्थापितों को नहीं दिया गया। उन्हें तो अपना जरूरी सामान उठा कर ले जाने के लिए 300 रुपयों से लेकर 1500 रुपयों की सहायता मात्र दी गयी। जहाँ तक जानकारी है, विस्थापितों के साथ इस गैर-बराबरी और अनैतिक भेदभाव के खिलाफ बिहार विधान सभा, बिहार विधान परिषद तथा दूसरी किसी अन्य संवैधानिक संस्था के अंदर या बाहर कभी कोई आवाज नहीं उठाई गयी। बागमती परियोजना के विस्थापितों ने पुनर्वास के इन टुकड़ों को अपनी नियति मान कर चुप्पी साध ली। नेताओं को शायद यह लगता होगा कि अगर घरों के बनाने के लिए अनुदान की मांग की गयी तो योजना की लागत बेतहाशा बढ़ेगी और तब मुमकिन है कि योजना ही बंद कर दी जाय। यह सोचना कि स्थानीय नेताओं को कोसी का पुनर्वास पैकेज नहीं मालुम था, बेवकूफी होगी। (तालिका 11.2 देखने के लिए नीचे दिए गये पी.डी.एफ फाइल देखें)

बागमती नदी पर तटबंधों के निर्माण को लेकर विवाद तो पहले से ही था। इसके लिए आज भी लगभग सभी संबद्ध व्यक्ति यह कहना नहीं भूलते कि डॉ. के. एल. राव शुरू से ही इस नदी पर तटबंध बनाये जाने के खिलाफ थे। यह भी बड़ी अजीब बात है कि जब डॉ. राव ने 1963 में यह बात कही होगी उस समय वह केन्द्र में सिंचाई मंत्री बन चुके थे और जब यह योजना 1969 में स्वीकृत हुई तब भी वह केन्द्र में मंत्री थे और वह तब तक केन्द्रीय सिंचाई मंत्री बने रहे जब तक बागमती के तटबंधों का निर्माण कार्य पूरा नहीं हो गया। अगर वह सचमुच बागमती नदी पर तटबंध बनाने के खिलाफ थे तब योजना कैसे स्वीकृत हो गयी और कैसे तटबंधों का निर्माण हो गया? सारी क्षमता उनके हाथ में केन्द्रित होने के बावजूद वह खामोश क्यों रह गए? इसका एक सरकारी जवाब यह हो सकता है कि सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण राज्य का विषय है, इसमें केन्द्र हस्तक्षेप नहीं करता। केन्द्र अगर राज्य की सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण योजनाओं में हस्तक्षेप नहीं करता है तो डॉ. राव कर क्या रहे थे? उन्हें सारा फैसला राज्य के नेताओं और इंजीनियरों पर छोड़ देना चाहिये था। राज्यों की अधिकांश योजनाओं में केन्द्र की वही भूमिका होती है जो गाँव में महाजन की होती है। केन्द्र पैसा दे और सुझाव न दे, यह मुमकिन नहीं है। उसे भी परिणाम चाहिये।

बिहार से कई बार विधायक/सांसद और मंत्री रहे बागमती क्षेत्र के नेता रघुनाथ झा का कहना है कि, ‘‘यह सच है कि जब डॉ. के. एल. राव ने बागमती पर तटबंधों के निर्माण के खिलाफ बात की थी और जब तटबंधों का निर्माण शुरू हुआ तब भी वे केन्द्र में सिंचाई मंत्री थे। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि राज्य के सिंचाई मंत्री महेश प्रसाद सिंह तटबंधों के प्रति आग्रह रखते थे और इन सब कामों में तो केन्द्र खुद तो खास नहीं करता है, वह तो सहयोगी भूमिका में ही रहता है।’’

अगर यह सच है तो फिर केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय, केन्द्रीय जल आयोग और गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग किस मर्ज की दवा हैं और राज्यों की योजनाएं वहाँ लम्बे समय तक क्यों लम्बित रहती हैं और क्यों राज्य के सिंचाई विभाग तथा इन संस्थाओं के बीच एक ही विषय पर वर्षों तक सवाल-जवाब चलता रहता है? दरअसल सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण की योजनाएं वे मुर्गियाँ हैं जो सोने का अंडा देती हैं और उसके लिए सामर्थ्यवान लोग, चाहे वह राजनीति में हों, प्रशासन में हों या तकनीकी विभागों में ही हों, किसी भी हद तक जाने का माद्दा रखते हैं।

बिहार सरकार में दो बार विधायक और एक बार मंत्री रहे नवल किशोर शाही का कहना है, ‘‘1975 में इमरजेन्सी लगी और उसके कुछ समय पहले डॉ. जगन्नाथ मिश्र मुख्यमंत्री बन गए थे। तब पैसा बनाने की नीयत से बागमती पर तटबंध निर्माण का काम शुरू हुआ। इस समय तक तटबंध का रेखांकन स्वीकृत नहीं था मगर परियोजना के लिए पैसा स्वीकृत करवा लिया गया था। स्थानीय लोगों के तमाम विरोध के बाद भी यह तटबंध बना और इसके सीधे-सीधे जिम्मेवार डॉ. जगन्नाथ मिश्र थे। मैं 1977 में पहली बार विधायक बना और 1980 में हार गया मगर 1985 में फिर चुन कर आया। उस समय बिन्देश्वरी दुबे मुख्यमंत्री बने। 1985 में ही बागमती परियोजना में पुनर्वास और मुआवजे की बात उठी मगर तटबंध का रेखांकन अभी तक स्वीकृत नहीं हुआ था जबकि तटबंध बन चुका था। मैंने विधान सभा में यह सवाल उठाया था कि तटबंध निर्माण के लिए जिस जमीन का अधिग्रहण हुआ था उसके पैसे का भुगतान अब तक क्यों नहीं हुआ? तब पता लगा कि अलाइनमेन्ट ही स्वीकृत नहीं है तो भुगतान कहाँ से होगा? फिर जल्दी-जल्दी में अलाइनमेन्ट की स्वीकृति दी गयी। उसके बाद ही सब भुगतान हुआ और पुनर्वास की बात पर चर्चाएं शुरू हुईं। ...बागमती के बाएं तटबंध के पास एक धारा नारायणपुर के पास से बहती थी और इसका पानी मनुस्मारा और लखनेदई से होकर निकल जाता था। बागमती पर बने तटबंध ने यह सारी व्यवस्था ध्वस्त कर दी। अब पानी न मनुस्मारा में जा सके और न लखनदेई में। यह सब इंजीनियरों की खुराफात थी। 95 गाँव विस्थापित हो गए और उनमें से बड़ी संख्या में लोगों को रहने के लिए तटबंधों पर आना पड़ा। बाद में कुछ लोगों को पुनर्वास मिला मगर सबको नहीं। इन सारे लोगों को बरसात के पूरे मौसम में सावधान रहना पड़ता है। तटबंधों के अंदर तो पानी रहता ही है मगर निकासी का रास्ता रुक जाने से बाहर भी पानी ठहर जाता है। नदी का तटबंध अब अपने आप टूट गया तो ठीक वरना बाहर रहने वाले लोग उसे काट कर पानी निकालने की व्यवस्था करते हैं। यहाँ तो सुनामी 1975 से हर साल आ रहा है। मनुस्मारा का पानी बागमती में नहीं जा पाता है सो 20,000 एकड़ जमीन पानी में हमेशा के लिए पानी में डूब गयी है। वहाँ के जमींदार तक भुखमरी के शिकार हो गए। कोढ़ में खाज की तरह रीगा चीनी मिल का पानी प्रदूषण पैदा करता है। सेवार तक जल जाता है तो धान कहाँ से होगा? ...इलाके के प्रभावशाली राजनीतिज्ञों के प्रभाव से बागमती तटबंध कीयोजना बनी। ठेकेदारों और इंजीनियरों ने खूब कमाया। बहती गंगा में राजनीतिज्ञों ने भी हाथ धोया। लूट बटे चार का मतलब किसी आदमी से सीतामढ़ी में पूछ लीजिये। एक हिस्से का काम होता था और बाकी का तीन हिस्सा समर्थ लोगों के बीच बँट जाता था। ऐसे में पुनर्वास के बारे में कौन सोचेगा?’’

राम स्वार्थ रायराम स्वार्थ रायबागमती परियोजना के अधिकारियों की धौंस के आगे परियोजना के विस्थापितों का पुनर्वास की शर्तों को स्वीकार कर लेने का विश्लेषण पूर्व विधायक राम स्वार्थ राय ने किया। उनका कहना है, ‘‘...ढंग से पुनर्वास तो इस योजना में किसी भी गाँव का नहीं हुआ। कहीं आधा-अधूरा हुआ, कहीं नहीं हुआ। सारा पुनर्वास विधान सभा के सवाल-जवाब और आश्वासनों में भटक कर रह गया। यहाँ घर के निर्माण के लिए नहीं वरन् केवल घर का सामान पुनर्वास तक ले जाने के लिए पैसा दिया गया था। कोसी क्षेत्र के लोग शायद ज्यादा जागरूक थे इसलिए उन्होंने सरकार से घरों के निर्माण के लिए पैसा ले लेने में सफलता पायी। यहाँ के नेताओं को शायद इतनी भी समझ नहीं थी कि जो मुआवजा कोसी में मिला उस जैसी मांग यहाँ उदाहरण के तौर पर रखते और हासिल करते। वैसा यहाँ कुछ भी नहीं हुआ। यहाँ नेता चुना जाता है जाति के नाम पर, भले ही उसमें नेतृत्व का गुण हो या नहीं, समस्याओं की समझ हो या नहीं, विधानसभा या लोकसभा में मंतव्य और तर्क रखने की क्षमता हो या नहीं - यह सभी गुण गौण हैं और केवल जाति का एक होना ही सबसेबड़ा गुण है। ऐसी हालत में समाज के बारे में कौन सोचेगा? पुनर्वास के मसले पर धोखा खा जाना इन्हीं सब चीजों का कुफल है।’’

इस तरह से नेतृत्व को सीधे-सीधे जिम्मेंवार मानते हैं राम स्वार्थ राय। बात केवल कोसी पुनर्वास जैसी व्यवस्था लागू करवाने की अक्षमता पर ही नहीं रुकती। कोसी योजना के विस्थापितों के साथ कम छलावा नहीं हुआ मगर उनके पास परमेश्वर कुँअर और बैद्यनाथ मेहता जैसे नेता थे जो कि पुनर्वास की मांग को खींच कर आर्थिक पुनर्वास तक ले गए और सरकार को इस बात के लिए मजबूर किया कि वह यह स्वीकार करे कि कोसी योजना के विस्थापितों का भौतिक पुनर्वास संभव नहीं है इसलिए उनका आर्थिक पुनर्वास करना पड़ेगा। बिहार सरकार द्वारा चन्द्रकिशोर पाठक समिति की नियुक्ति और कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार की स्थापना, भले ही वह कुछ भी न करता हो, इसी कोशिश का नतीजा था। बागमती परियोजना के विस्थापितों के बारे में इस दिशा में भी किसी ने नहीं सोचा और जब सोचा ही नहीं तब कोई पहल कहाँ से होती और संघर्ष कहाँ से होता?

उधर रघुनाथ झा का कहना है, ‘‘पुनर्वास का काम तो बागमती परियोजना में अभी तक मुकम्मल नहीं हुआ है। हजारों परिवार अभी भी तटबंधों के अंदर, तटबंध के ऊपर या बगल की जमीन पर बसे हुए हैं। परियोजना ने न जाने कितनी जमीन अपने कार्यालयों के नाम पर खरीद कर बरबाद की। सीतामढ़ी में डुमरा के पास, शिवहर में, सुप्पी में, गम्हरिया में, देकुली मठ के पास और न जाने कहाँ-कहाँ किसानों की जमीन ली गयी। गम्हरिया के पास सरकार की कितनी जमीन बर्बाद पड़ी है। मशीनों में जंग लग गया। सुप्पी कॉलोनी में प्रखंड कार्यालय चल रहा है वरना लोग खिड़की दरवाजे ले गए होते। सरकार कभी भी पुनर्वास की समस्या के प्रति कोई स्पष्ट नीति नहीं बना पायी और न ही विस्थापितों की जरूरत ही समझ पायी। हम भी 1980 के पास सरकार में आ गए थे। हमसे पहले रामदुलारी सिन्हा जी 1974 में सरकार में आ गयी थीं। हरिकिशोर बाबू सरकार में रह चुके थे मगर संस्थागत रूप में सरकार में इस मसले पर कोई स्पष्टता नहीं बन पायी। पुनर्वासित होने वाले लोगों का मसला बड़ा उलझा हुआ है। हर पुनर्वासित परिवार ठीक तटबंध के बाहर पुनर्वास चाहता है। यह हर समय संभव नहीं होता। तटबंध के ठीक बाहर वाली जमीन के साथ परेशानी है कि वह जमीन जिसकी है, हो सकता है उसी की जमीन पर तटबंध भी बना हो और उसकी जमीन भी तटबंध के भीतर हो। उसके साथ कितनी जोर-जबर्दस्ती होगी?’’

हरि किशोर सिंहहरि किशोर सिंहऔर अंत में हम बागमती क्षेत्र के एक अन्य प्रतिष्ठित नेता हरि किशोर सिंह, जो केन्द्र में मंत्री रह चुके हैं, से पुनर्वास के बारे में उनकी राय जानते हैं। उनका कहना है, ‘‘पुनर्वास का मसला अलग है और यथासंभव पुनर्वास दिया गया। बेहतर शायद यह हुआ होता कि शिवहर के पश्चिम में बागमती की जो पुरानी धार है, वैसे बागमती की कई धाराओं को पुरानी धार कहते हैं, उसे अगर सक्रिय किया गया होता तो नदी की प्रवाह क्षमता अधिक होती और तब तटबंधों के बीच का फासला भी कम होता और कम संख्या में गाँवों का पुनर्वास करना पड़ता। ...अब यह तटबंध रुन्नी सैदपुर से हायाघाट के बीच में बनना शुरू हुआ है। पिछले 35 वर्षों से शान्ति थी। कोई निर्माण नहीं चल रहा था मगर अब हो रहा है। तकनीकी लोगों ने जरूर राजनैतिक नेतृत्व को किसी भी अनहोनी के प्रति आश्वस्त कर दिया होगा। मगर जो दुःस्थिति यहाँ सीतामढ़ी या शिवहर में है वही समय के साथ उस तरफ भी बनेगी।’’

इतने बड़े लोगों द्वारा पुनर्वास के मूल्यांकन के बाद हम आम आदमी की ओर वापस मुड़ते हैं जिन्होंने इस त्रासदी को न सिर्फ लम्बे समय तक झेला है वरन आगे भी भोगने के लिए अभिशप्त हैं। बखार (प्रखंड पुरनहिया, जिला शिवहर) के दिवाकर मिश्र बताते है, ‘...हमारे गाँव के लगभग 140 परिवार तटबंध के अंदर हैं। उनका पुनर्वास नहीं हुआ। अगर उनके लिए जमीन अधिगृहीत भी हुई होगी तो उस पर कब्जा दूसरे-दूसरे लोगों का है। पुनर्वास दफ्तर कमाई का अड्डा बना हुआ है। मेरी जमीन पर आपका नाम चढ़ा दिया, आपकी जमीन पर तीसरे का नाम चढ़ा दिया। जैसे मर्जी आये रकबा बढ़ा दिया या घटा दिया, खतियान बदल दिया-वहाँ सब चलता है। वहाँ बैक डेट में भी चीजें बदल जाती है। गाँव के लोग आपस में लड़ते हैं, खूब मुकदमेबाजी चलती है। कहने को तो पुनर्वास सबको मिला मगर जो छूट गया वे अभी तक चक्कर काट रहा है। पुनर्वास में पिपराढ़ी, बखार और कोठिया टोला के लोग हैं। यह तीनों गाँव पूरी तरह तटबंध के अंदर थे। पिपराढ़ी के दो हिस्से थे-पिपराढ़ी जमाल और पिपराढ़ी सुल्तान। उनके करीब 300 परिवार यहाँ होंगे और बाकी सब अभी भी अंदर हैं। इनमें से कुछ तो पुनर्वास में आये ही नहीं और कुछ आकर वापस चले गए। हमारी खेती की जमीन तटबंध के अंदर है। सुबह 7 बजे घर से निकलें तो 9.30 या 10 बजता है वहाँ पहुँचने में। इतना ही समय वापस आने के लिए चाहिये। कब और कितनी देर तक हमारा मजदूर वहाँ काम कर पायेगा। उसको भी खाना खाने और थोड़ा बहुत आराम करने के लिए बीच में समय चाहिये। हमारा खाना भी पहुँचाने घर से कोई जायेगा। इस तटबंध की वजह से हम लोग दर-दर के भिखारी हो गए। जिसको दस एकड़ जमीन है वह भी साल भर अपने परिवार को खाने भर के लिए अनाज नहीं उपजा पाता है।’

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Post By: tridmin
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