पुनर्वास की बदहाली पर प्रशासन की नींद टूटी

जहाँ तक पुनर्वास पैकेज का सवाल था वहाँ तो सिर्फ ढुलाई शुल्क और रिहाइशी प्लॉट के अलावा किसी परिवार को तो कुछ मिलना नहीं था। इसलिए जब आंशिक पुनर्वास की बात की जाती है तब या तो इन परिवारों को ढुलाई शुल्क नहीं मिला होगा या फिर प्लॉट का आवंटन नहीं किया गया होगा। वैसे भी पुनर्वास के प्लॉट का आवंटन किये बिना ढुलाई शुल्क के भुगतान का कोई मतलब नहीं होता। पुनर्वास बस्तियों का विकास तो सरकार को करना था जिससे इन पुनर्वासित या गैर-पुनर्वासित परिवारों को कोई लेना देना नहीं था। इस पूरे मसले पर उप-समाहर्ता द्वारा लिखी गयी रिपोर्ट (दिनांक 29 नवम्बर 1985) के कुछ हिस्सों को हम यहाँ नीचे उद्धृत कर रहे हैं।

‘‘जिला कार्यालय में संबंधित पुनर्वास सम्बंधी संचिकाएं देखने तथा अन्य जानकारी के आधार पर पुनर्वासित व्यक्तियों की समस्याओं की जो जानकारी मुझे मिली है उनका वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है-

1. पुनर्वासित होने वाले ग्राम के बासडीह एवं मकानों के सर्वेक्षण का कार्य अमीनों से कराया गया है जिसका पर्यवेक्षण एवं जांच वरीष्ठ पदाधिकारी द्वारा नहीं किया गया है। कुछ पंजियों में पृष्ठ संख्या आदि का प्रमाण पत्र नहीं दिया गया है। इन मूल पंजियों में कालक्रम में निहित स्वार्थ वाले व्यक्तियों द्वारा काटकूट, रबड़ से मिटा कर दूसरी स्याही से इन्दराज आदि गड़बड़ी की गयी है जिससे इन पंजियों के आधार पर किये गए कार्य गलत भी हो सकते हैं।
2. पुनर्वास कार्य योजनाबद्ध ढंग से नहीं किया गया है और सरकार द्वारा इस कार्य के लिये गठित समन्वय समिति की राय कहीं भी नहीं ली गयी है। एक ही ग्राम में कुछ लोगों को पुनर्वासित कर दिया गया है और कुछ लोगों को छोड़ दिया गया है। छोड़े गए व्यक्ति सामान्यतः कमजोर वर्ग के लोग हैं जो साधनहींन हैं और जिनकी पहुंच ऊपर नहीं है।
3. अधिकांश पुनर्वासित ग्रामों में सामान्य सुविधा मुहय्या करने का कार्य जैसे सड़क बनाना, चापाकल लगाना आदि कार्य नहीं हुए हैं जिससे पुनर्वासित व्यक्ति कष्ट का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
4. पुनर्वास स्थलों में जिन लोगों को बसाया गया है उसका न तो सीमांकन किया गया है और न ही उन्हें भू-स्वामित्व का कोई भी अभिलेख जैसे पर्चा आदि हस्तगत करवाया गया है। जिससे वहाँ कमजोर वर्ग के लोग सम्पन्न वर्ग के लोगों द्वारा अतिक्रमण के शिकार बन रहे हैं और भूमि पर अधिकार संबंधी समस्यायें पैदा हो रही हैं।
5. पुनर्वास के लिए जो भूमि अर्जित की गयी है उनमें से बहुत से स्थान ऐसे हैं जो बसने के उपयुक्त नहीं हैं। ऐसे स्थलों पर पुनर्वासित होने वाले लोग अभी भी तटबंधों के बीच ही बसे हुए हैं और पुनर्वास स्थल की जमीन को सबल लोग मुफ्त में जोत कर उसका उपयोग कर रहे हैं।
6. कई स्थानों पर पुनर्वास की जमीन के आवंटन के विरुद्ध अधिक मात्रा में सबल व्यक्तियों द्वारा दखल कर लिया गया है। फलतः बहुत से परिवार जिन्हें पुनर्वास की जमीन मिली थी वे अभी भी दोनों तटबंधों के बीच नारकीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं।इसके सिवा अन्य छोटी-छोटी स्थानीय समस्याएं भी हैं जिनका हल होना आवश्यक है।’’

इस रिपोर्ट को आधार बना कर सीतामढ़ी के जिलाधीश (समाहर्ता) ने अपनी एक रिपोर्ट सचिव, साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग तथा निदेशक, पुनर्वास एवं भू-अर्जन, सिंचाई विभाग को भी भेजी जिनका संक्षिप्त रूप नीचे दिया जा रहा है। सचिव, साहाय्य विभाग को लिखे अपने पत्र में जिलाधीश ने (पत्रांक 43 दिनांक 20.1.1986) लिखा कि,

1. ‘‘प्रारम्भ में बागमती परियोजना से संबंधित पुनर्वास कार्य, परियोजना के बजट से परियोजना के विभिन्न आभियांत्रिक प्रमंडलों द्वारा किया जाता रहा है। सम्भवतः पुनर्वास कार्यों में उनकी अभिरुचि की कमी और 10 वर्षों में भी इस समस्या का हल नहीं किये जाने के कारण सिंचाई विभाग द्वारा मई, 1981 में परियोजना के अधीन स्वतंत्र पुनर्वास कार्यालय की स्थापना की गयी। इस कार्यालय के लिए सिंचाई विभाग द्वारा अलग से पुनर्वास पदाधिकारी की पदस्थापना मात्र डेढ़ वर्ष के लिए हुई। शेष अवधि में अंशकालीन पदाधिकारियों के साथ यह कार्यालय सम्बंद्ध रहा। फलतः स्वतंत्र कार्यालय की स्थापना के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकी और इस गैर-प्राकृतिक आपदाजन्य पुनर्वास के कार्य में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हो सकी। यह मानवीय समस्या अभी भी बरकरार है। जिला प्रशासन के लिए यह एक अहम समस्या तथा साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग के लिए साहाय्य कार्यों पर वार्षिक आवर्तक व्यय का जरिया बना हुआ है।
2. सिंचाई विभाग (बागमती परियोजना) के इस जिले के पुनर्वास कार्य की विडम्बना यह है कि इस समस्या के समाधान के किसी उपक्रम में अब तक जिला प्रशासन को सम्बद्ध नहीं किया गया है। सिंचाई विभाग द्वारा गठित पुनर्वास समन्वय समिति के अध्यक्ष समाहर्ता हैं। सदस्य के रूप में सम्बंद्ध अनुमंडल पदाधिकारी तथा स्थानीय अंचलाधिकारी हैं। लेकिन पुनर्वास के लिए स्थल, भवन, पुनर्वासित लोगों के बीच भूमि का आवंटन, पुनर्वास स्थल के विकास आदि का कार्य बिना समिति की राय से मनमाने ढंग से किया गया है। पुनर्वासित होने वाले व्यक्तियों की राय भी नहीं ली गयी है। फलतः सिंचाई विभाग दस वर्षों से अधिक की अवधि में भी इस समस्या का समाधान नहीं कर सका है। समस्याग्रस्त जनता अपनी समस्याओं के निदान के लिए जिला प्रशासन की मुखापेक्षी है और जिला प्रशासन इस कार्य पर नियंत्रण नहीं रहने के कारण समस्या के निदान में बड़ी कठिनाई का अनुभव करता है।

3. गैर प्राकृतिक आपदाओं के निवारण हेतु दिनांक 9.10.85 को मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक बैठक हुई है जिसकी कार्यवाही साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग के ज्ञापांक 3034, दिनांक 15.10.85 द्वारा भेजी गयी है। इस बैठक के निर्णय के अनुसार साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग को गैर प्राकृतिक आपदाओं से सम्बंधित पुनर्वास कार्यों के सूत्रण, समन्वय एवं मोनिटरिंग के लिए Overall Nodal Department घोषित किया गया है। बागमती परियोजना के कार्यान्वयन से पैदा हुए इस गैर प्राकृतिक आपदाजन्य पुनर्वास कार्य के लिए Overall Nodal Department की हैसियत से साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग को इसके नियम में निम्नांकित बिंदुओं पर पहल करने की आवश्यकता प्रतीत होती है-

1. पुनर्वास कार्यालय को समाहर्ता के नियंत्रण में कर दिया जाय। पुनर्वास के लिए स्थल चयन से लेकर पुनर्वासित व्यक्तियों के बीच भूमि वितरण तक के सारे कार्य समाहर्ता के अनुमोदन के पश्चात् ही किये जाएं ताकि समस्या के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपना कर उसका समाधान सम्भव हो सके।
2. पुनर्वास कार्य के लिए उपयुक्त होने वाली निधि जिसके लिए परियोजना के बजट में प्रावधान रहता है, निदेशक, भू-अर्जन एवं पुनर्वास, सिंचाई विभाग के माध्यम से पुनर्वास पदाधिकारी को उपलब्ध करायी जाय। अब तक मात्र वेतन, भत्ता और कार्यालय आकस्मिक व्यय की राशि ही निदेशक के माध्यम से उपलब्ध कराई जाती है। पुनर्वास कार्य यथा भू-अर्जन, ढुलाई भार भुगतान, भूमि सीमांकन, पुनर्वास स्थल का विकास आदि कार्यों के लिए निधि अधीक्षण अभियंता द्वारा उपलब्ध कराई जाती है जिससे बहुत सारे कार्य निधि के अभाव में लम्बित पड़े रह जाते हैं। पुनर्वास सम्बंधी मानवीय कार्य को अभियंत्रण विभाग द्वारा तृतीय कोटि का कार्य गिने जाते रहने की परम्परा बागमती परियोजना में रही है। जबकि कल्याणकारी राज्य में इसे प्रथम कोटि में रख कर प्राथमिकता के आधार पर पहले इस कार्य का निष्पादन होना चाहिये था। कोई भी परियोजना मनुष्य के लाभ के लिये बनाई जाती है। अतः परियोजना का प्रतिकूल प्रभाव जिन थोड़े से लोगों पर पड़ता है उनके पुनर्वास की समस्या को प्राथमिकता के आधार पर निष्पादित करने के बाद ही परियोजना का कार्यान्वयन होना चाहिये। सिंचाई विभाग द्वारा इस पहलू पर अब तक ध्यान नहीं दिया गया है और समस्या नये आयाम ग्रहण कर रही है।

3. सिंचाई विभाग को कहा जाए कि यह पुनर्वास पदाधिकारी के रूप में बिहार प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारी की ही पदस्थापना करें। पुनर्वास कार्य पूर्णतः भूमि पर अधिकार परिवर्तन से संबंधित है। पुनर्वासित व्यक्ति द्वारा धारित भूमि के अनुरूप उसके लिए दूसरी जगह भूमि अर्जन की व्यवस्था कर धारित भूमि के अनुपात में उसे भूमि उपलब्ध कराने तथा उसका सबूत देने एवं अभिलेख संधारण का कार्य पुनर्वास पदाधिकारी को करना पड़ता है। इसके साथ ही उसे विस्थापितों की भावना के अनुसार उनके लिए सुविधाजनक पुनर्वास स्थल का चयन कर उन्हें सौहाद्रपूर्ण वातावरण में बसा देना है। भू-राजस्व नियम एवं भू-अभिलेख तथा मानवीय समस्या से उलझी हुई इस समस्या का निदान प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों द्वारा ही सम्भव है क्योंकि उन्हें ही इन कार्यों का विशेष प्रशिक्षण प्राप्त है।

बागमती परियोजना अब तक सप्तम पंचवर्षीय योजना में सम्मिलित नहीं की गयी है। अतः इसके लिये निधि का अभाव बना रहेगा। इस परिप्रेक्ष में परियोजना जनित गैर प्राकृतिक आपदा के स्थायी समाधान के लिए देय सीमित निधि ही उपलब्ध करा सकेंगे ऐसा अनुमान किया जा सकता है। समस्या लम्बे अर्से तक साहाय्य एवं पुनर्वास विभाग के लिए आवर्तक व्यय का विषय बनी रहेगी।’’

समाहर्ता ने इसी आशय के दो पत्र (संख्या 45, दिनांक 20 जनवरी 1986 और संख्या 46, दिनांक 20 जनवरी 1986) निदेशक, पुनर्वास एवं भू-अर्जन, सिंचाई विभाग, पटना को भी लिखे।

इस पत्राचार के बाद बागमती परियोजना के पुनर्वास अधिकारी द्वारा लिखित पत्र (पत्रांक 163/पु-, दिनांक 15 अप्रैल 1986) जो निदेशक, पुनर्वास एवं भू-अर्जन, जलश्रोत विकास एवं बाढ़ नियंत्रण विभाग, बिहार-पटना को लिखा गया, उसमें कहा गया, ‘‘...पुनर्वास का कार्य पूर्व में अभियंताओं द्वारा किया गया है और उनमें जो खामियाँ हैं, उनका वर्णन मुख्यालय से मैं अपनी निरीक्षण टिप्पणी में कर चुका हूँ। सबसे महत्वपूर्ण समस्या जिसका सामना मुझे करना पड़ रहा है वह पुनर्वासित लोगों के बीच भू-स्वामित्व एवं आवंटन का प्रमाण-पत्र (पर्चा) निर्गत करना है। प्रायः सभी पुनर्वास स्थल पर पूर्व में पुनर्वास की जो कार्यवाही की गयी है, उससे सम्बंधित सुसंगतअभिलेख कार्यपालक अभियंताओं द्वारा पुनर्वास कार्यालय में नहीं दिया गया है। साथ-साथ उनके द्वारा भू-स्वामित्व का कोई भी अभिलेख पुनर्वासित व्यक्तियों को उपलब्ध नहीं कराया गया है जिससे भूमि सम्बंधी विवाद प्रायः सभी पुनर्वास स्थलों पर हो रहे हैं। अधिकांश पुनर्वासित व्यक्ति आवश्यकता से अधिक जमीन दखल किये हुए हैं और अभिलेख के अभाव में अतिक्रमण हटाना संभव नहीं हो पा रहा है। साथ-साथ पुनर्वासित व्यक्तियों को भू-स्वामित्व संबंधी पर्चा देने में भी कठिनाई पैदा हो रही है। क्योंकि उन्हें किस आधार पर पर्चा दिया जाए इस स्तर पर निर्णय करना संभव नहीं है।

अतः इस बिंदु पर अनुदेश देने की कृपा की जाए कि सुसंगत अभिलेख के अभाव में पर्चा देने का आधार जमीन पर वास्तविक दखल कब्जा को माना जाए अथवा नहीं क्योंकि इस आधार पर पर्चा निर्गत करने में इस बात की संभावना है कि अतिक्रमणकारी को प्रपत्र मिल जाए और वैसे व्यक्ति, जो अब तक पुनर्वासित नहीं हुए, उनके लिए भू-अर्जन कर पुनः पुनर्वासित करना होगा। यह भी निमूलक समस्या है जिस पर सरकारी निर्णय अपेक्षित है।’’

जाहिर है कि प्रशासनिक और तकनीकी ढिलाई की खींचा-तानी के बीच बागमती परियोजना में पुनर्वास का मसला फंस गया जिसमें विस्थापितों का कोई दोष नहीं था। प्रशासन स्वीकार करता है कि तटबंधोंके निर्माण के दस साल बाद भी विस्थापित लोग तटबंधों की चक्की में पिस रहे थे जबकि अधिकारीगण मुजफ्फरपुर में रह कर बहती गंगा में हाथ धो रहे थे। यहाँ तक तो हुई दस साल में हुए पुनर्वास की सरकारी समीक्षा की बात जहाँ प्रशासन ने सारी जिम्मेवारी जमीन के मामलों से अनभिज्ञ इंजीनियरों के कंधों पर डाल दी मगर जब यह जिम्मेवारी तथाकथित रूप से ‘मानवीय संवेदना’ से भरपूर और ‘भूमि-अर्जन और उसके हस्तांतरण में प्रशिक्षित’ प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ में आयी तब भी स्थिति नहीं सुधरी जिसकी एक बानगी नीचे दी गयी तालिका 11.1 में मिलती है जिसे बागमती परियोजना के पुनर्वास विभाग ने 2009 में जारी किया था। (तालिका 11.1 को देखने के लिए नीचे दिए पी.डी.एफ फाइल देखें)

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Post By: tridmin
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