पुनर्वास का तीसरा दौर-रुन्नी सैदपुर से हायाघाट

सरकार की इस तरह की बातें लोग बहुधा मान लेते हैं क्योंकि सरकार के प्रचार तंत्र ने यह झूठ परोस दिया हुआ है कि अन्य जगहों में ऐसे पुनर्वासित लोग बड़े आराम से रह रहे हैं। इस मिथ्या प्रचार में ठेकेदार भी सरकार के सहयोग करते हैं और दुर्भाग्य से मिडिया भी।

ढेंग से रुन्नी सैदपुर तक का तटबंध वास्तव में इस प्रखंड के शिवनगर गाँव में समाप्त होता है पर प्रचलन में रुन्नी सैदपुर नाम ही रहता है। रुन्नी और सैदपुर भी जुड़वाँ गांवों के नाम हैं। कटौंझा से, जहाँ बागमतीकी वर्तमान धारा मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी मार्ग (एन.एच. 77) को पार करती है, रुन्नी की दूरी प्रायः 3 किलोमीटर उत्तर में है और रुन्नी से 1.5 किलोमीटर के फासले पर सैदपुर बाजार पड़ता है। लखनदेई इसी स्थान पर मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी मार्ग को पार करती है। कटौंझा से प्रायः दो-ढाई किलोमीटर उत्तर-पश्चिम दिशा में बागमती के बायें किनारे पर शिवनगर और दाहिने किनारे पर तिलकताजपुर गाँव पड़ता है। बागमती के जिस तटबंध को ढेंग-रुन्नी सैदपुर तटबंध कहा जाता है, वह इन्हीं गाँवों में समाप्त हो जाता था। यहाँ से नदी का दाहिना किनारा आगे सोरमार हाट तक और बायाँ किनारा हायाघाट तक 2006 पर्यन्त मुक्त रहा करता था।

व्यावहारिक दृष्टि से यह बड़ी ही विचित्र स्थिति थी। नदी के भारतीय भाग के ऊपरी हिस्से में लगभग 60 किलोमीटर की लम्बाई में दोनों ओर तटबंध बने हुए हैं और तकनीकी तौर पर नदी इन दोनों तटबंधों के बीच सीमाबद्ध है। नदी के निचले हिस्से में सोरमार हाट से बदलाघाट तक 145 किलोमीटर लम्बे तटबंध दाहिनी तरफ और हायाघाट से फुहिया के बीच 72 किलोमीटर लम्बे तटबंध बायीं तरफ बने हुए हैं और बीच की लगभग 60 किलोमीटर लम्बाई पूरी तरह से खुली हुई है। जिस किसी व्यक्ति ने भी यह योजना बनाई हो और जिस किसी ने भी उसकी स्वीकृति दी हो उसे इतनी अक्ल तो जरूर रही होगी कि अगर बागमती जैसी नदी को तटबंधों में बांध कर मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी मार्ग के सामने ला कर छोड़ दिया जायेगा तो वह पहला काम यह करेगी कि बरसात के मौसम में इस सड़क की धज्जियाँ उड़ा कर रख देगी। 1975 के बाद से बागमती ने कभी भी ऐसा मौका नहीं खोया। यहाँ से नदी का पानी बुलेट की तरह निकलता है और हर साल मुजफ्फरपुर के औराई, कटरा तथा गायघाट प्रखंडों को डुबाता हुआ दरभंगा जिले के सिंघवारा प्रखंड होते हुए हनुमान नगर प्रखंड में प्रवेश करता है और रास्ते में पड़ने वाले सारे गाँवों को डुबाता है। हायाघाट के नीचे बागमती के तटबंधों के बीच का फासला 800 मीटर से एक किलोमीटर है जबकि शिवनगर और तिलक ताजपुर के पास यही दूरी तीन किलोमीटर है। सभी दिशाओं में फैला हुआ बागमती का यह पानी हायाघाट से नीचे अपने 1956-58 के बीच बने तटबंध में होकर कैसे बहेगा और कितना बहेगा? इसी के परिणाम में निचले क्षेत्रों में जल-निकासी की भीषण समस्या तथा मुजफ्फरपुर-सीतामढ़ी मार्ग के पूरब तथा मुजफ्फरपुर-दरभंगा मार्ग के दोनों तरफ भयंकर बाढ़ की स्थिति रहती है। इन्हीं दोनों विपत्तियों से निबटने के लिए, जिसकी अकेली वजह अदूरदर्शिता है, सम्भवतः राज्य सरकार बागमती तटबंधों को रुन्नी सैदपुर से आगे बढ़ा कर हायाघाट ले जाना चाहती थी।

2006 के अंत में, बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (राजग) की सरकार बनी और तब पिछले 16 वर्षों से तटबंधों के निर्माण में जो सन्नाटा छाया हुआ था, उसमें कुछ गति आयी यद्यपि योजनाओं केप्रस्ताव, उन पर विचार और उनकी स्वीकृति की प्रक्रिया पहले से चल रही थी। बागमती परियोजना का जो काम 1980 के आस-पास रुक सा गया था वह फिर शुरू हुआ। यह तय हुआ कि 792 करोड़ रुपयों की लागत से बागमती का वह हिस्सा जो खुला हुआ था उसे शिवनगर से हायाघाट के बीच में बांध दिया जायेगा और ऐसा कर के नदी के दोनों किनारों पर बसे क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षित कर दिया जायेगा। इसके साथ ही एक लम्बे समय से तटबंधों के रख-रखाव, उन्हें ऊँचा और मजबूत करने का और उनकी सुरक्षा बढ़ाने का जो काम रुका हुआ था, उस पर हाथ लगा।

हम पहले बता आये हैं कि इस काम की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करने का काम हिन्दुस्तान स्टील वर्क्स कन्सट्रक्शन कम्पनी नाम के भारत सरकार के एक संस्थान ने किया था। योजना के अनुसार अगर तटबंध आगे बढ़ता है तो उसमें नये-नये गाँव बीच में फसेंगे। इन गाँवों का पुनर्वास करना पड़ेगा, यह तय था। बागमती परियोजना के पिछली दो पुनर्वास प्रक्रियाओं के बारे में फिलहाल हम जानते हैं। 1980 से लेकर अब तक के 25-30 वर्षों में नदी घाटी योजनाओं में पुनर्वास और पर्यावरण पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को लेकर देश में बहुत से आन्दोलन हुए। नर्मदा घाटी के बांधों, उत्तराखण्ड के टिहरी बांध तथा झारखण्ड की सुवर्णरेखा परियोजना आदि में विस्थापितों के पुनर्वास को लेकर हुए संघर्षों पर राष्ट्रव्यापी बहस हुई जिसका कुछ लाभ विस्थापितों को मिला। यह आन्दोलन अगर न हुए होते तो सरकार शायद वहाँ भी पुनर्वास की खानापूरी उसी तरह करती जैसा कि उसने उत्तर बिहार की बाढ़ नियंत्रण की योजनाओं में किया था। यहाँ पहली बार तो समाज और देश के व्यापक हित में कुर्बानी देने का जज़्बा उभार कर पुनर्वास की समस्या को निबटा दिया गया लेकिन 1970 के आस-पास के दूसरे दौर में घर बनाने के लिए जमीन दी गयी मगर घर बनाने के नाम पर केवल ढुलाई शुल्क देकर विस्थापितों को चलता किया गया। इस घनी आबादी वाले इलाके में खेती की जमीन के बदले जमीन न तो मौजूद थी, न दी जा सकती थी और न दी गयी। राजनीतिज्ञों और इंजीनियरों ने यह मान लिया कि जब किसानों की खेती की जमीन तटबंधों के बीच कैद हो जायेगी तब भी उस पर उसी तरह गाद जमा होगी जैसा पहले होती थी और उसकी उर्वरता कायम रहेगी और वहाँ किसी किस्म की सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ेगी। तटबंधों के बाहर पड़ने वाली जमीन पर कभी बाढ़ नहीं आयेगी, इसलिए वहाँ भी राम-राज्य उतर आयेगा। बालू से बने तटबंध टूट भी सकते हैं, यह बात सरकार और उसके इंजीनियर तटबंध टूट जाने के बाद भी कबूल करने में काफी समय लेते हैं और इसलिए इसके बारे में योजना क्रियान्वित होने के पहले कौन और क्यों सोचता? ऐसा न होना था और न हुआ। बाद के वर्षों में यह सारी पूर्व कल्पनाएं थोथी और नाकारा साबित हुईं।

पुनर्वास के मुद्दे पर कोसी परियोजना में परमेश्वर कुअँर, बैद्यनाथ मेहता, शोभा कान्त झा और बहादुर खान शर्मा जैसे दिग्गज लोग पहले ही थक कर बैठ चुके थे यद्यपि उन्हें सरकार से थोड़ी बहुत रियायतें पाने में जरूर सफलता मिली थी। बागमती परियोजना में उस तरह के नेतृत्व का सर्वथा अभाव था और इसलिए यहाँ वैसा कोई संघर्ष भी नहीं हुआ।

इस पृष्ठभूमि में ही तीसरे दौर के तटबंधों का निर्माण शुरू होता है। दूसरे और तीसरे दौर की इस निर्माण प्रक्रिया में करीब 25 वर्ष का फासला था। इस बीच तटबंधों का पर्यावरण पर प्रभाव भी जाहिर हो चुका था।

जहाँ तक तटबंधों के निर्माण से पर्यावरण पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का प्रश्न है तो उसकी एक सूरत बनती थी कि कम से कम अब योजना शुरू होने के पहले इस दुष्प्रभाव का अध्ययन हुआ होता और तटबंधों से नकारात्मक रूप से प्रभावित होने वाले लोगों को जन-सुनवाई के माध्यम से अपनी बात रखने का, भले ही सरकार उन सुझावों का संज्ञान लेती या नहीं और उन पर अनुकूल प्रतिक्रिया करती या नहीं, एक मौका मिलता। दुर्भाग्यवश 14 सितम्बर 2006 के दिन जो नया पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन कानून (एनवरायनमेन्टल इम्पैक्ट असेसमेन्ट ऐक्ट 2006) प्रभावी हुआ उसमें अब तक चली आ रही बाढ़ नियंत्रण परियोजनाओं के मूल्यांकन का प्रावधान वापस ले लिया गया और आम जनता का अपनी बात कहने का वह रास्ता भी बंद हो गया। अब सरकार को खुली छूट है कि वह बाढ़ नियंत्रण की इस योजना पर किसी बहस से बच निकले और अपनी मनमानी करे। अब जो होना है वह यह कि शिवनगर से हायाघाट तक न सिर्फ नदी तटबंधों के बीच कैद होगी बल्कि उसमें बहुत से नये-नये गाँव फंसेंगे। भविष्य में इन गाँवों की वही हालत होगी जैसा कि आज डुमरा, इब्राहिमपुर, मौलानगर या रक्सिया आदि गाँवों की है। जो लोग पुनर्वास पायेंगे और वहाँ रहने के लिए जायेंगे उनकी स्थिति मसहा आलम, रामपुर कंठ, अखता, कन्सार या रक्सिया से किसी भी मायने में अलग होगी यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। रघुनाथ झा ने एक बार बिहार विधान सभा में 9 जून 1972 के दिन सरकार से पूछा था कि ‘क्या सरकार को मालुम है कि पहाड़पुर, रोहुआ, कनुआनी, कटसरी, अम्बा, बेलवा, चक-फतेहा, माधोपुर, दोस्तिया, पकड़ी, कुम्मा, बनबीर, नारायणपुर, छतौना एवं धनकौल गाँव पर बागमती का कटाव हर साल होता है।’ इसके जवाब में सरकार का कहना था कि प्रस्तावित बागमती बाढ़ नियंत्रण योजना के समापन के पश्चात नदी की बदलती धारा प्रवृत्ति पर नियंत्रण पा लिया जा सकेगा और उपर्युक्त गाँव की मुख्य आबादी जो तटबंध के बाहर पड़ती है, की बाढ़ से मुक्ति मिल जायेगी। सरकार की इस तरह की बातें लोग बहुधा मान लेते हैं क्योंकि सरकार के प्रचार तंत्र ने यह झूठ परोस दिया हुआ है कि अन्य जगहों में ऐसे पुनर्वासित लोग बड़े आराम से रह रहे हैं। इस मिथ्या प्रचार में ठेकेदार भी सरकार के सहयोग करते हैं और दुर्भाग्य से मिडिया भी।

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Post By: tridmin
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