पुनर्वास, भूमि अधिग्रहण और भ्रष्टाचार

‘‘...बागमती नदी के बीच में जितने भी गाँव पड़ते हैं उनमें से बहुतों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो पाई है। नतीजा है कि हर साल वह बर्बाद होते हैं और उनके जान-माल की क्षति होती है और सरकार को भी हर साल रिलीफ बांटना पड़ता है। आज तक स्लुइस गेट नहीं बन पाया है। ... इस साल तो चन्दौली और कन्सार निश्चित रूप से बह जायेगा। इसकी जिम्मेंवारी किस पर दी जाए, सरकार को या इसके अधिकारी को। कनुआनी से मकसूदपुर वाया तरियानी छपरा तक तटबंध का निर्माण नहीं हुआ है। एक करोड़ चालीस लाख का प्रोजेक्ट है, आज डेढ़ वर्ष से यह काम पड़ा हुआ है। ...इसी तरह से बेलसंड से चन्दौली और बेलसंड से कन्सार तटबंध भी अभी तक नहीं बन पाया है। ...इस विभाग में बहुत ज्यादा लूट होती है। काम नहीं होता है।’’

इधर पुनर्वास का मसला उठा और दूसरी तरफ जमीन के अधिग्रहण और विस्थापितों के बीच उसके बटवारे को लेकर भ्रष्टाचार का बाजार गर्म हुआ। इसकी वजह साफ थी। जिसकी जमीन का अधिग्रहण पुनर्वास के लिए होना तय था उसकी चिंता स्वाभाविक थी कि अव्वल तो उसकी जमीन का अधिग्रहण हो ही नहीं या फिर बहुत कम हो और अगर इसे टाला न जा सके तो कम से कम उसे उसकी जमीन का उचित मूल्य मिले और इसके लिए वह हर संभव कोशिश कर रहा था। जिसको पुनर्वास की जमीन की जरूरत थी और वह हर विस्थापित को थी, वह इस चिंता में कि कहीं पहले दौर में वह छूट न जाए और बाद में परेशानी हो, वह भी अधिकारियों को खुश रखने की कोशिश में कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था। ढुलाई शुल्क में तो भुगतान नकद होने वाला था। अतः वहाँ तो किसी तरह की रोक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। पुनर्वास से संबंधित हर अधिकारी के दोनों हाथों में लड्डू थे। पैसा हवा में उड़ता था और उसे अधिकारियों द्वारा हाथ बढ़ा कर पकड़ लेने भर की देर थी। विधायक रामस्वरूप सिंह ने बिहार विधान सभा में बागमती परियोजना के हालात को कुछ इस तरह से बयान किया, ‘‘...दरअसल अभी जो उसके लैंड एक्वीजि़शन का काम हो रहा है, उसमें बहुत भ्रष्टाचार है और बहुत बड़ी धांधली उसमें की जा रही है। वहाँ जो लैंड एक्वीजि़शन ऑफीसर है जो कि मुजफ्फरपुर में रहते हैं... वे इतना धांधली करते हैं कि हमारे यहाँ लोग परेशान हैं। खुलेआम घूस लेते हैं, वहाँ घूस का बाजार गर्म है... बिना घूस लिए कोई काम नहीं करते। सीतामढ़ी जिला में बागमती कार्यालय है, वहाँ श्री किशोरी लाल और दूसरे लोग भी हैं जिनकी जमीन एक्वायर की गयी है, उनके साथ भी धांधली की जा रही है। बैरगनियाँ थाने के मूसाचक गाँव के लोगों से भी घूस मांगी जा रही है। तो, इस तरह की जहाँ धांधली हो रही है, वहाँ आप बागमती योजना को कैसे पूरा कर सकते हैं?’’ सच यह था कि परियोजना जिस मुकाम पर पहुँच गयी थी वहाँ अब वह किसी के रोके रुकने वाली नहीं थी और जैसे हालात बन रहे थे उनमें योजना के आगे-आगे भ्रष्टाचार चल रहा था। वहाँ एक ओर जरूरतमंद और परेशान हाल लोग थे तो दूसरी ओर मौके का फायदा उठाने वाले क्षमतावान सरकारी अफसर। ऐसी परिस्थितियाँ भ्रष्टाचार की उत्पत्ति के लिए खाद-पानी का काम करती हैं और थोड़े ही दिनों में यह खेती लहलहाने लगती है। बागमती परियोजना में ये कहानियाँ गढ़ी नहीं गईं, बस दुहराई भर गईं।बहरहाल, एक ओर बहार ही बहार थी तो दूसरी ओर असमंजस और अनिश्चित भविष्य और इन दोनों के बीच बागमती परियोजना में पुनर्वास की गाड़ी किसी तरह घिसटती रही। 1980 में एक बार फिर रघुवंश प्रसाद सिंह ने विधान सभा में पुनर्वास का प्रश्न उठाया और कहा, ‘‘...बागमती नदी के बीच में जितने भी गाँव पड़ते हैं उनमें से बहुतों के पुनर्वास की व्यवस्था नहीं हो पाई है। नतीजा है कि हर साल वह बर्बाद होते हैं और उनके जान-माल की क्षति होती है और सरकार को भी हर साल रिलीफ बांटना पड़ता है। आज तक स्लुइस गेट नहीं बन पाया है। ... इस साल तो चन्दौली और कन्सार निश्चित रूप से बह जायेगा। इसकी जिम्मेंवारी किस पर दी जाए, सरकार को या इसके अधिकारी को। कनुआनी से मकसूदपुर वाया तरियानी छपरा तक तटबंध का निर्माण नहीं हुआ है। एक करोड़ चालीस लाख का प्रोजेक्ट है, आज डेढ़ वर्ष से यह काम पड़ा हुआ है। ...इसी तरह से बेलसंड से चन्दौली और बेलसंड से कन्सार तटबंध भी अभी तक नहीं बन पाया है। ...इस विभाग में बहुत ज्यादा लूट होती है। काम नहीं होता है।’’

धीरे-धीरे पुनर्वास की स्थिति और भी स्पष्ट होने लगी। इसके बारे में खुलासा होता है सीतामढ़ी जिले के उप-समाहर्ता सह पुनर्वास अधिकारी की एक रिपोर्ट से जो कि 29 नवम्बर 1985 के क्षेत्र और कार्यालय निरीक्षण के बाद लिखी गयी थी। इस समय तक कुल प्रभावित गाँवों की संख्या 95 तक पहुँच चुकी थी जिनका पुनर्वास किया जाना था (यह संख्या आज भी इतने पर ही टिकी हुई है) और कुल प्रभावित परिवारों की संख्या उस समय 14,018 निर्धारित की गयी थी (आज यह संख्या 14,881 है)। यहाँ हम केवल उन परिवारों और गाँवों की बात कर रहे हैं जो ढेंग से रुन्नी सैदपुर के बीच में नदी के दोनों तटबंधों के बीच में अवस्थित हैं। परियोजना सूत्रों के अनुसार नवम्बर 1985 तक पूरी तरह से पुनर्वासित गाँवों की संख्या मात्र 49 थी और आंशिक रूप से पुनर्वासित गाँवों की संख्या 32 थी। बाकी के चौदह गाँवों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं थी जिसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि इन गाँवों में पुनर्वास की प्रक्रिया शुरू ही नहीं हुई थी। परियोजना सूत्रों के अनुसार अब तक 6,742 परिवार पूर्णरूप से पुनर्वासित कर दिये गए थे जबकि 5094 परिवारों का पुनर्वास आंशिक रूप से हो पाया था। इसका यह भी मतलब होता है कि मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ ने 29 जून 1976 को बिहार विधान सभा में पुनर्वास की जो गुलाबी तस्वीर पेश की थी वह उतनी खुशगवार नहीं थी।

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Post By: tridmin
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