पर्यावरणीय प्रवचनों से आक्रोशित उत्तरकाशी की जनता


बागोरी ग्राम सभा की एक महिला ने कहा कि हमारा गाँव दो नालों के बीच में है। आपदा के समय दोनों नालों ने तबाही मचाई। सेब के कई बगीचे नष्ट हो गये। हमारे रास्ते, सड़कें, स्कूल टूटे, जिन्हें अभी तक पूरे तौर पर नहीं बनाया गया है। खेत नष्ट हो गये, सैंकड़ों पशु मारे गये अभी तक हमें कुछ राहत नहीं मिली क्या हम पाकिस्तानी हैं।

उत्तरकाशी जिला के भटवाड़ी गाँवों में ‘जन पहल से आपदा प्रबन्धन’ पर एक स्थानीय जनता की बैठक का आयोजन दिल्ली विश्वविद्यालय के समाज कार्य विभाग की प्रोफेसर मालती जी की पहल पर 30 अक्टूबर 2015 को आयोजित की गई। इस बैठक में 24 गाँवों के 90 से ज्यादा लोगों ने भाग लिया। यह रिपोर्ट उस बैठक की चर्चा और उसमें उठे सवालों को लेकर है।

चर्चा सामान्य चल रही थी, जैसे ही मैने अंत में अपनी बात रखनी शुरू की और बाँधों का विरोध, पर्यावरण इत्यादि के प्रश्न रखे तो लोग खड़े हो गये और मेरी ठुकाई करते हुए निम्न प्रश्न खड़े किये: हरसिल के एक युवा ने प्रश्न उठाया कि हमें रोटी के लाले पड़े हैं और आप पर्यावरण का प्रवचन सुना रहे हैं। इस भागीरथी घाटी की जनता ने पर्यावरण वादियों और एनजीओज के उक्त प्रवचनों को पिछले चार दशकों से झेला है। यहीं सब प्रवचन करने से संस्था वाले पैसा कमाते रहे हैं और हमारा विकास इस से रुक गया। इसके बावजूद टिहरी, मनेरी बहाली -1 और उत्तरकाशी बाँध बन गये। एनजीओ के विरोध करने के बावजूद लोगों का कुछ फायदा नहीं हुआ। बन चुकी टिहरी बाँध परियोजनाएँ से प्रदेश सरकार को केवल 8 प्रतिशत बिजली मिलती है, जबकि लोगों को न तो नौकरी तथा न ही इस बाँध से बारम्बार हो रहे नुकसान की भरपाई के लिये उचित राहत मिल रही है।

कुछ पर्यावरणवादियों व एनजीओ वालों ने पर्यावरण, धर्म व पवित्र गंगा के नाम पर, घाटी में बन रहे बाँधों के विरोध में 2009 को उत्तरकाशी में धरणा दिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि 70 प्रतिशत बन चुकी लोहारी नाग पाला और पाला मनेरी परियोजना का काम रुक गया। इस परियोजना में उस समय हजारों स्थानीय नौजवान काम कर रहे थे। आज वे सब बेरोजगार हो गये हैं। उससे पीछे बनने वाली सभी परियोजनाएँ भी स्थगित हो गई। जिनमें यहाँ के लोगों को रोजगार मिलने की सम्भावना थी। आपदा के बाद हमने तीन महीने सड़क के बिना वक्त झेला है, पीठ पर राशन ढोया और परिवार का पेट पाला है। इससे पहले जब प्रोजेक्ट का काम था, तब कम्पनी वाले तुरन्त सड़क ठीक करते थे। कई गाँवों की सड़कें भी बनाई। सरकार ने क्या किया? हमें अपने हाल पर छोड़ दिया।

एक व्यक्ति ने कहा कि गंगोत्री नेशनल पार्क बनने से भी हमें नुकसान हुआ और अब हमारी हरसिल घाटी को इको-जोन में शामिल कर दिया। हमारे सभी विकास के कार्य वन विभाग ने रोक दिये हैं, जबकि जल विद्युत परियोजनाएँ उस क्षेत्र में भी प्रस्तावित हैं। इको टूरिजम के नाम पर वन विभाग पार्क में पर्यटक भेज रहा है, जिनका सारा सामान नीचे से साथ आता है और स्थानीय लोगों व गेस्ट हाउस कारोबारियों को इससे कोई फायदा नहीं होता है।

यह क्षेत्र कई बड़ी आपदाएँ झेल चुका है। 1991 में इस घाटी में भूकम्प से भारी तबाही हुई। 2010 में अतिवृष्टि से आधे से ज्यादा भटवाड़ी गाँव व दूसरे अन्य गाँव भू-सख्लन से प्रभावित व क्षतिग्रसत हुये। 2012 में अस्सी गंगा घाटी में अतिवृष्टि से बर्बादी हुई। 2013 की आपदा ने तो पूरी भागीरथी घाटी में बर्बादी के अलावा आजीविका के सभी साधन भी तबाह कर दिये। पिछले माह इलाके में फिर से भारी ओलावृष्टि हुई, जिस से एक बार हमारी खेती फिर से नष्ट हो गई है।

जब मैंने यहाँ के मौसम में अच्छी खेती व बागवानी के विकास और उस से टिकाऊ आजीविका खड़ी करने पर चर्चा करने का प्रयत्न किया, तो एक युवा ने मुझे रोकते हुये कहा कि आपको यहाँ की वास्तविकता का पता नहीं है। काम करने वाले युवा तो पहले ही शहरों व दूसरी जगह काम की खोज में चले गये हैं। घर में ज्यादातर महिलाएँ व बूजूर्ग रहते हैं। कुछ परिवारों की महिलाएँ भी शहर में बच्चों को पढ़ाने के लिये चली गई हैं। हमारे पास खेती की भूमि भी बहुत कम है, जिसमें ज्यादातर भूमि असिंचित है। पहाड़ी ढलनदार भूमि होने के कारण इसकी उत्पादकता भी कम है। ऊपर से बारम्बार आपदा के कहर ने लोगों को आजीविका के लिये पलायन करने पर मजबूर कर दिया है।

हिमाचल में परमार साहब के नेतृत्व में सरकार ने समय पर बागवानी के विकास के लिये चार-पाँच दशक पहले काम किया था। हमारे यहाँ तो सरकार ने भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उतर प्रदेश के समय तो वैसे ही हमारी अनदेखी हुई है और जब से उत्तराखंड बना है, तब से इस ओर सरकार का कोई खास ध्यान नहीं है। रोजगार के दूसरे साधन व उद्योग भी यहाँ नहीं हैं। देखिये हमें राहत की भीख नहीं चाहिये, परन्तु सम्मान-जनक आजीविका के हकदार तो हम भी हैं।

2013 की आपदा और उस के बाद


एक स्थानीय व्यक्ति ने बताया कि 2013 की आपदा ने तो इस घाटी को बर्बाद कर के ही रख दिया। सैंकड़ों घर गिर गये, घरों की दीवारों पर दरारें पड़ गईं तथा कई ढाँचे तबाह हुये। अनगिनत पशु मारे गये। खेत व खेती नष्ट हो गई। सड़कें, पुल, स्कूल, अन्य सरकारी व सार्वजनिक ढाँचे तथा गाँवों के रास्ते सब नष्ट हो गये।

एक स्थानीय पर्यटन व्यवसायी ने बताया कि 2013 की आपदा के बाद से पर्यटन का काम समाप्त हो गया है, आपदा से पहले 40-50 लाख के करीब पर्यटक हर वर्ष इस रास्ते से गंगोत्री तथा अन्य तीर्थ स्थलों और पर्वतारोहण के लिये जाते थे। इन पर्यटकों की वजह से घाटी में हमारे सैंकड़ों गेस्ट हाउस, होटल, ढ़ावे व दुकानें चल रही थी। जिस से हजारों लोगों को इलाके में रोजगार मिल रहा था। पर्वतारोहण व पर्यटन से जुड़े दूसरे कामों में भी स्थानीय युवाओं को रोजगार मिल रहा था। अब ये सब आजीविका के साधन समाप्त हो गये। आपदा के बाद आजकल केवल दो से तीन लाख पर्यटक यहाँ से गुजरते हुये गंगोत्री जा रहे हैं, जो ज़्यादातर अपनी बस से आते हैं। खाने पीने का प्रबन्ध भी बस में ही होता है और वापिस ऋषीकेश चले जाते हैं।

एक प्रधान ने बताया कि इस आपदा के बाद राहत के नाम पर घाटी के लोगों से छल ही हुआ है। यहाँ राहत के नाम पर कुछ नहीं मिला। सरकार, एनजीओ व मीडिया का ज्यादातर ध्यान केदार घाटी में केन्द्रित रहा। नुकसान इस घाटी में भी बहुत हुआ था और आज तक हमारी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

भटवारी का एक व्यक्ति हमें बैठक से पहले मिला। हाथ में फाइल थी और बड़े आक्रोश में बोला। क्या मुझे राहत का अधिकार नहीं है? फाइल दिखाकर उसने बताया कि हमारा 22 कमरों का एक मकान था। जिसमें मेरे चाचा, पिता जी तथा हम भाइयों के कुल आठ परिवार रहते थे। सरकार की ओर से राहत के पाँच लाख हमारे पिता जी को ही मिले, जबकि सभी आठ परिवारों को फौरी राहत के एक-एक लाख तो दिये गये परन्तु बढ़ी हुई राहत राशि जो पाँच लाख है, अन्य परिवारों को नहीं मिली। इस बारे में हम कई बार अधिकारियों से मिलने गया, धरना भी दिया परन्तु कुछ भी नहीं हुआ।

बागोरी ग्राम सभा की एक महिला ने कहा कि हमारा गाँव दो नालों के बीच में है। आपदा के समय दोनों नालों ने तबाही मचाई। सेब के कई बगीचे नष्ट हो गये। हमारे रास्ते, सड़कें, स्कूल टूटे, जिन्हें अभी तक पूरे तौर पर नहीं बनाया गया है। खेत नष्ट हो गये, सैंकड़ों पशु मारे गये अभी तक हमें कुछ राहत नहीं मिली क्या हम पाकिस्तानी हैं। संगम चट्टी की महिलाओं ने बताया कि हमारे पुल टूटे हुये हैं, रास्ते व खेत बर्बाद हो गये हैं, जिसका न तो पुनः निर्माण हुआ है और न ही नुकसान का कोई मुआवजा दिया गया। बच्चों को आज भी नदी पार करके स्कूल जाना पड़ता है। अभी तक कोई पुल नहीं बना, पानी बढ़ने पर झूले से नदी पार करते हैं। हमें तीन चार किलो चावल और दाल राहत में मिली। क्या इससे हमारे नुकसान की भरपाई होती है? बहुत संस्था आई, पैसे वालों की सुनवाई हुई, हमारी नहीं। खेत के नुकसान का केवल तीन सौ रुपया कुछ लोगों को दिया गया जबकि तय पाँच हजार रुपये किये गये हैं। पशुओं के नुकसान की कोई राहत नहीं दी गई। सरकार के आदेश थे कि जिसके पशु का नुकसान हुआ है वह उसका कान काट कर पेश करे, तभी नुकसान की भरपाई होगी। संस्था वालों ने बिस्कुट और सड़े हुए ब्रेड बाँटे, क्या हम भिखारी हैं? हम आपदा से अपने आप निपटे हैं।

बागोरी की एक पूर्व महिला प्रधान ने कहा कि आपदा के बाद हमने चार दिन तक हजारों लोगों को रोटी खिलाई है, सारे गाँवों ने राशन इकट्ठा किया। मैं जानती हूँ कि हम महिलाओं ने कैसे दिन भर एक-एक क्विंटल तक आटा गूँथा है। आज नाम कामने वाले, संस्था वाले और सरकारी अफसर हो गये हैं।

सेना के लोगों ने भी आपदा राहत में बहुत काम किया। जबकि अन्त में मीडिया वालों ने हम स्थानीय लोगों पर पर्यटकों को लूटने का इल्जाम लगाया। चर्चा के अन्त में यह तय हुआ कि घाटी के 24 गाँव वालों को एक मंच बनाना चाहिये और आपदा से निपटने और अपने विकास के लिये हमारी अपनी तैयारी तथा योजना होनी चाहिये। हम किसी के भरोसे आगे नहीं चल सकते। इसके लिये लोगों ने अस्थाई समिति व योजना भी बनाई।

इस बहस को सुनने के बाद मेरा दिमाग ठंडा हो गया और सार्वजनिक तौर पर मानता हूँ कि मेरा प्रवचन बकवास था। मैंने महसूस किया कि मैं भुक्तभोगीयों की वास्तविकता से एक दम उलट प्रवचन दे रहा हूँ। यह दूसरी बात है कि मैं एनजीओ नहीं हूँ, न मीडिया वाला, न अफसर, इसलिए बात आगे बढ़ सकी। मेरा सभी सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ताओं, एनजीओ, मीडिया व खास कर सरकार व उसके अफसरों से कहना है कि मेरी तरह आप सभी भुक्तभोगीयों की वास्तविकता से दो चार होयें। कृपया कर के इन लोगों को प्रवचन देना बन्द करें और इनके लिये की जा रही कृपा व दया का विचार भी त्यागें।

उत्तराखंड के इन पहाड़ी इलाकों में आजीविका व रोजगार के अवसरों का विकास कैसे हो, इसका हल निकलना चाहिये। तभी पर्यावरण और गंगा रक्षा इत्यादि के प्रवचन को कोई सुनेगा और उसे जनता अपनायेगी भी । यह मान कर चलना होगा कि स्थानीय लोगों के लिये आजीविका के आधार के विस्तार के साथ टिकाऊ विकास व पर्यावरण संरक्षण के लिये परिस्थितियाँ निर्मित हों। जिसके लिये स्थानीय साझा संसाधनों, वन व स्वशासन के संवैधानिक अधिकारों को वास्तव में हासिल करने में जनता का सहयोग करें न की कृपा जो वास्तव में केवल ठगी है। हम सबको अपनी भूमिका टटोलनी चाहिये, अगर हम सच में ईमानदार हैं तो?

एनजीओ के प्रदेश उत्तराखंड में आज स्थानीय जनता की उक्त समझ, उन सभी के लिये आईना है। समझना है तो समझें नहीं तो जनता के विरोध और अलगाव को भुगतने के लिये तैयार रहें।

हिमालय नीति अभियान

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