पर्यावरण संरक्षण : विविध आयाम

पर्यावरण संरक्षण : विविध आयाम, PC-Hans India
पर्यावरण संरक्षण : विविध आयाम, PC-Hans India

"हे मेघ! जब तुम आकाश मार्ग से अलकापुरी की ओर बढ़ रहे होगे, तब नीचे धरती पर जहां तुम्हें शत-शत योजनों तक जलाशय ही जलाशय दिखें तो समझ लेना कि तुम छत्तीसगढ़ से गुजर रहे हो।" महाकवि कालिदास ने यदि अपनी अमर काव्य कृति "मेघदूत' में देश की नैसर्गिक सुषमा का चित्रण करते हुए छत्तीसगढ़ को भी शामिल किया होता तो उनका यक्ष शायद इसी तरह का वर्णन करता !

छत्तीसगढ़ के सामाजिक- सांस्कृतिक भूगोल में जलसंरक्षण का प्राचीन समय से कितना महत्व रहा है, मेरी यह कल्पना उसकी ओर संकेत करती है। लेकिन जल ही क्यों, प्रकृति ने तो दोनों हाथों से, उदार मन से, छत्तीसगढ़ को कितने ही वरदान दिए हैं। धान की बीस हजार किस्में, साल और सागौन के गगनचुंबी वृक्ष, विविध प्रजातियों के फूल और फल, बीज और पत्तियां, वन्यजीव और जलचर, खनिज पदार्थ-लिस्ट बनाते चलिए । थक जाएंगे लेकिन सूची पूरी नहीं हो पाएगी।

मैं उन दिनों को याद करता हूं जब हमारे संगी साथी रायपुर नगर और लभांडी ग्राम की सीमा बनाते छोकड़ा नाला पर पिकनिक मनाने जाते थे। रायपुर से धमतरी के रास्ते पर दोनों ओर कौहा के वृक्ष छाया करते थे। इसी छाया में बरसाती झरनों का शीतल जल साल भर प्रवाहित होता था। धमतरी के आगे मरकाटोला से और आगे तक सामने- सामने आम, भीतर सघन वन, घर के आंगन में सलफी के पेड़ देखकर तबियत हरी हो जाती थी। इधर बिलासपुर रोड पर सिमगा के आगे, इधर बोडला से चिल्फी घाटी के बीच कुटज (दूधी) के फूलों की सुगंध बरसात में मन मोह लेती थी। सराईपाली से सारंगढ़ के रास्ते में कनकबीरा के पास नाले पर आधी रात पानी पीने आए बाघ के दर्शन भी मैंने किए हैं।

छत्तीसगढ़ के समृद्ध प्राकृतिक परिवेश पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लिखा भी गया है। कविताएं रची गई हैं। उपन्यास-कहानियों की सर्जना हुई है। मुकुटधर पांडेय की प्रवासी पक्षी पर लिखी कविता "कुररी के प्रति" हिंदी साहित्य में एक नई भावभूति का प्रवर्त्तन करती है। बस्तर के गुलशेर अहमद "शानी" अपने एक ग्रंथ का शीर्षक "शालवनों का द्वीप" रखते हैं और नरेंद्र देव वर्मा के गीत में नदी, पहाड़, पर्वत आराध्य का रूप ग्रहण कर लेते हैं।

यह पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ के हर निवासी के मन को उत्फुल्ल करे, उसे एक उचित गर्व से भर दे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन लाख टके का सवाल यहां उठता है कि निसर्ग से मिले उपहार को संरक्षित रख पाने में यह प्रदेश किस सीमा तक सफल हो पाया है? क्या कभी मन में यह सोच उठी है कि हमें जो पुरखों से मिला है, उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सम्हाल कर संवार कर रखना हैय न कि उसे तात्कालिक लाभ के लिए नष्ट कर देना है?

व्यक्ति बनाम समाज

एक पूरक प्रश्न भी उभरता है जो प्राकृतिक विरासत या पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में कहीं अधिक मौजू है। एक जनतांत्रिक व्यवस्था में नागरिकों की जिम्मेदारी कहाँ तक और कितनी है तथा जिन्हें नीति निर्धारण व अनुपालन के लिए चुना गया है, उनकी जवाबदेही क्या है? इस दिशा में समाज कितना जागरूक है और उसने जिन पर विश्वास कर नेतृत्व सौंपी हैं, वे पर्यावरण के प्रति कितने सजग एवं गंभीर हैं? क्या इसमें कोई पहला और दूसरा पक्ष है, या यह सबका मिला-जुला दायित्व है? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए यह बात भी उठती है कि क्या पर्यावरण और विकास की अवधारणाएं परस्पर विरोधी हैं अथवा इनका यह सहअस्तित्व संभव है? इस विषय पर आगे बढने के पहले उचित होगा कि महात्मा गांधी की उस चेतावनी को याद कर लिया जाए जो उन्होंने आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व दी थी। गांधीजी ने कहा था-

"The earth provides enough to satisfy everyone's need but not enough for everyone's greed-" इस उक्ति का हिंदी भाषांतर कुछ इस तरह होगा-

"पृथ्वी हर व्यक्ति की जरूरतें पूरी करने में समर्थ हैं, किंतु हरेक का लालच पूरा करने में नहीं ।"

राष्ट्रपिता के इस कथन को दिशा-निर्देशक मानकर व्यक्ति निजी तौर पर अपनी आवश्यकताओं को सीमित रखने के लिए प्रेरित हो सकता है, किंतु विगत सौ वर्षों में तकनीकी व वैज्ञानिक प्रगति के कारण उत्पादन की विधियां बदली हैं, उत्पादन के संबंध बदले हैं और इस वजह से सामाजिक परिदृश्य में भी अनेक परिवर्तन आए हैं। एक समय जो मांग आधारित अर्थव्यवस्था थी, वह धीरे-धीरे कर पूर्ति आधारित अर्थव्यवस्था में तब्दील हो गई है। अब न्यूनतम श्रम, न्यूनतम समय, न्यूनतम लागत में अधिकतम उत्पादन का दौर है। दूसरे शब्दों में कहें तो श्रम और पूंजी के बीच जो संतुलन होना चाहिए था, वह हासिल नहीं हो सका है और पूंजी का दबदबा लगातार बढ़ते जा रहा है। ऐसे वातावरण में पर्यावरण संरक्षण व समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है। निजी या छोटे समूहों में किए गए प्रयत्न नाकाफी हैं। सामूहिक कार्रवाई भी तभी संभव है जब उसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति हो । देश के अनुभव

यहां ग्राम पंचायत से लेकर विधानसभा और संसद तक के उन तमाम सदनों की भूमिका का महत्व स्थापित होता है, जिनमें जनता द्वारा चुनकर भेजे गए प्रतिनिधि सदस्य बनकर बैठते हैं। लोकमहत्व के हर विषय पर जनता इन सदनों की ओर विश्वासभरी निगाहों से देखती है कि उनमें जनाकांक्षाओं का संज्ञान व समादर करते हुए समयोचित नीतिगत निर्णय लिए जाएंगे व उन निर्णयों का क्रियान्वयन होगा। हमारे सामने ऐसे प्रेरक उदाहरण हैं जब विभिन्न स्तरों पर स्थापित इन सदनों ने अपनी भूमिका का निर्वाह कर जन सामान्य के विश्वास की रक्षा की है। केरल की प्लाचीमाडा ग्राम पंचायत ने एक बहुराष्ट्रीय शीतल पेय कंपनी को गांव की नदी का पानी दोहन करने से रोक दिया। दूसरी तरफ महाराष्ट्र के मंडालेखा ग्राम पंचायत ने वनोपज विशेषकर बांसवनों पर जनता का अधिकार स्थापित करने संघर्ष किया और विजय हासिल की। हमारी विधानसभाओं व संसद ने भी समय-समय पर पर्यावरण संरक्षण के लिए बेहतर कानून बनाए हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1950 में उ.प्र. के राज्यपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा प्रारंभ "वन महोत्सव" को अपना समर्थन दिया और केवलादेव घना पक्षी अभयारण्य (भरतपुर, राजस्थान) को संरक्षित करने में रुचि ली।

श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल के प्रारंभ में 1966 में ही देश की संसद ने भारतीय वन सेवा (आई एफ एस) के गठन को स्वीकृति दी। इंदिराजी उत्कल पर्यावरण प्रेमी थीं और "प्रोजेक्ट टाइगर" जैसी अनेक योजनाएं उनकी पहल पर ही मूर्तरूप ले सकीं। लेकिन मैं यहां विशेषकर राजीव गांधी का उल्लेख करना चाहूंगा, जिन्होंने 1986 में एक अभिनव कदम उठाते हुए प्रख्यात पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल को आमंत्रित किया कि वे उनके मंत्रीमंडल को देश में पर्यावरण की स्थिति पर व्याख्यान देकर दिशा बोध दें मेरी राय में यह एक अनुकरणीय उपक्रम था। मंत्रीगण अपनी विभागीय जिम्मेदारियों के चलते काफी व्यस्त रहते हैं। उन्हें अपने सीमित दायरे के बाहर विचार करने के लिए समय का अभाव हमेशा होता है। अनिल अग्रवाल के व्याख्यान और उनके साथ खुली चर्चा से मंत्रियों को अवसर मिला कि वे अपने विभागीय क्रियाकलापों में पर्यावरण संरक्षण का आयाम भी जोड़ सकें व कुल मिलाकर एक समग्र समन्वित दृष्टि का विकास हो सके। मुझे यहां ध्यान आता है कि छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद ही नए-नए जल संसाधन मंत्री बने भूपेश बघेल ने प्रतिष्ठित पर्यावरणवेत्ता अनुपम मिश्र को जल संरक्षण पर व्याख्यान देने व परामर्श लेने के लिए अपने विभाग की ओर से आमंत्रित किया था।

विधानसभा की संभावित भूमिका

ये उदाहरण इस संभावना की ओर इशारा करते हैं कि यदि राजनैतिक इच्छाशक्ति हो तो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस काम किए जा सकते हैं। इसके लिए विचार करना होगा कि किसी एक प्रतिनिधि की निजी रुचि अथवा पहल तक सीमित रह जाने के बजाय उसे विस्तार कैसे दिया जाए। मैं इस बिंदु पर विधानसभा की भूमिका की विवेचना करना चाहूंगा। यह जानी-मानी बात है कि अपने निर्वाचित प्रतिनिधि याने विधायक से जनता की ढेर सारी अपेक्षाएं होती हैं। विधायकों को अपने मतदाताओं या यूं कहें कि क्षेत्र की जनता के साथ हर समय जीवंत संपर्क बनाए रखना होता है। क्षेत्र के विकास के लिए उनके सामने मांगों व सुझावों की लंबी फेहरिस्त होती है, जिनमें से वह कुछ को पूरी करवाने में समर्थ हो पाता है और शेष के लिए आश्वासन देना होता हैं। उनकी पार्टीगत व्यस्तताएं व विवशताएं भी होती हैं। विधानसभा की बैठकों में भी बहुत सा समय तात्कालिक विषयों में बीत जाता है।

ऐसे में यह सुझाव विचारणीय हो सकता है कि विधानसभा में समय-समय पर पर्यावरण संरक्षण पर संगोष्ठी, परिसंवाद आदि का विशेष रूप से आयोजन हो जिसमें विधायकों के सामने विषय विशेषज्ञ विस्तारपूर्वक अपने विचार रखें और उन पर खुली चर्चा हो। इसमें प्रमुखतः विधानसभा अध्यक्ष को पहल करना होगी व सदन में पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों का सहयोग मिलना भी आवश्यक होगा। अध्यक्ष उचित समझें तो पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे विद्वानों व संस्थानों का सहयोग ले सकते हैं। वृहत्तर लोकहित के अन्य विषयों पर इसी तरह चर्चाओं का आयोजन किया जाए तो उसके वांछित परिणाम मिलने की आशा की जा सकती है।

विधानसभा की एक प्राथमिक व संवैधानिक भूमिका यथाआवश्यकता नए कानून बनाने अथवा जारी कानून को संशोधित करने की होती है। इसके लिए शासन अर्थात सत्तारूढ दल द्वारा विधेयक पेश किए जाते हैं। पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में बात करें तो यह एक अत्यन्त व्यापक तथा बहुआयामी विषय है जिसे आनन-फानन में नहीं समझा जा सकता। वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, वन्यजीव संरक्षण, खनिज उत्खनन, वन संरक्षण, उद्योगों की स्थापना, औद्योगिक गतिविधियों से उत्पन्न प्रदूषण, वनसंपदा का दोहन, शहरीकरण के दुष्प्रभाव, वाहनों से उत्पन्न प्रदूषण, कृषि में घातक रसायनों का उपयोग, अतिशय जल निर्भरता वाली फसलें, जंगल कटने से वन्यप्राणियों का विस्थापन, छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में पड़ोसी राज्यों से हाथियों का आगमन, तालाबों को पाटकर रीयल एस्टेट का विकास जैसे कितने ही मुद्दे हैं जिन पर विधानसभा में सदस्यों से जागरूकता की अपेक्षा की जाती है। उनके द्वारा तात्कालिक परिस्थितियों से जुड़े सवाल उठाए जाते हैं तो दूसरी और उसके स्थायी समाधान की प्रत्याशा में कानून बनाने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। प्रदेश में जल नीति वन नीति, औद्योगिक नीति, कृषि नीति आदि का निर्माण इसी प्रक्रिया का अंग हैं।

मेरा मानना है कि जनतांत्रिक शासन व्यवस्था में सत्तापक्ष को ऐसे सभी मुद्दों पर एक ओर लोक शिक्षण और दूसरी ओर व्यापक आम सहमति बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए। इसी के समानांतर यह भी आवश्यक है कि विधानसभा में ऐसे हर प्रश्न पर चर्चा के लिए पर्याप्त समय निर्धारित किया जाए। कोई विधेयक पेश हो तो उस पर आम जनता से सुझाव आमंत्रित करना भी एक स्वागत योग्य पहल होगी। यह सुझाव भी गौरतलब होगा कि विषय में रुचि रखने वाले सदस्यों को देश में जहां उपलब्ध हों वहां अनुकरणीय दृष्टांतों के अध्ययन हेतु भेजा जाए। इसी सिलसिले में एक और सुझाव है कि विपक्ष द्वारा छाया मंत्रिमंडल का गठन अवश्य किया जाए जिसमें एक सदस्य को पर्यावरण संबंधी मुद्दों में ही महारत हासिल हो। इससे एक लाभ यह होगा कि सत्तापक्ष द्वारा लाए गए।  किसी भी प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक चर्चा करने का वातावरण बनेगा, जबकि दूसरा लाभ इस रूप में मिलेगा कि विपक्ष जिम्मेदाराना व पुरजोर तरीकों से अपनी बात सदन में रख सकेगा। अन्तरराष्ट्रीय दृष्टांत

मैं अपनी बात विदेश के दो दृष्टांत देकर समाप्त करूंगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में सीनेटर अल गोर ने आगे चलकर देश का उपराष्ट्रपति पद भी सुशोभित किया। श्री गोर की गणना विश्व में पर्यावरण संरक्षण पर जाने-माने अधिकारी विद्वानों में की जाती है। वे जब अमेरिकी उच्च सदन याने सीनेट के सदस्य थे, तब 1992 में उन्होंने "अर्थ इन द बैलेंस फोर्जिंग अ न्यू कॉमन परपस' शीर्षक पुस्तक प्रकाशित की थी। इसका हिंदी अनुवाद होगा पृथ्वी का संतुलन एक नए सामुदायिक ध्येय का निर्माण पंद्रह अध्यायों की इस पुस्तक में उन्होंने पर्यावरण संरक्षण से संबंधित विभिन्न चुनौतियों का बहुत गहराई में जाकर वर्णन किया है और उनका सामना करने के लिए व्यवहारिक उपाय सुझाए हैं। इसके बाद भी वे लगातार इस विषय पर अपनी कलम चलाते रहे हैं और उनकी एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

दूसरा उदाहरण अभी हाल का है, जब स्वीडन की सोलह वर्षीय छात्रा ग्रेटा थनबर्ग को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में आमंत्रित किया गया। जहां उसने 21 सितंबर 2019 को विश्व बिरादरी के सामने जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों पर एक प्रखर और मर्मस्पर्शी भाषण दिया। ग्रेटा विश्व की नई पीढ़ी की प्रतिनिधि हैं। • और उसने सं.रा. महासभा के मंच से जो मार्मिक अपील की है, उस पर हर व्यक्ति को हर चुने हुए जनप्रतिनिधि को, हर सदन को गौर करना समय की मांग है, अन्यथा हम भावी पीढियों के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वाह में चूक के दोषी माने जाएंगे।
 

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Post By: Shivendra
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