प्रकृति से बढ़ती छेड़छाड़ का नतीजा है विनाश

पेड़ों की अंधाधुंध कटाई मिट्टी खिसकने की प्रमुख वजह है। बरसात के मौसम में पहली बारिश होते ही यह मिट्टी अपने साथ आसपास के इलाके को समेटते हुए नीचे गिरने लगती है। जिससे इलाके को बंजर बनना और पहाड़ियां खिसकना शुरू होती हैं, विनाश की एक अलग किस्म की कहानी है। प्रकृति की गोद में बसे खूबसूरत राज्य सिक्किम में भूकंप से बड़े पैमाने पर होने वाला विनाश प्रकृति से बढ़ती छेड़छाड़ और खतरे की चेतावनियों की अनदेखी का नतीजा है। इस राज्य में इतनी तीव्रता का भूकंप भले 18 सितंबर को पहली बार आया, भूविज्ञानिकों ने इसकी चेतावनी कोई 10 साल पहले ही दे दी थी।

प्रकृति की गोद में बसे खूबसूरत राज्य सिक्किम में भूकंप से बड़े पैमाने पर होने वाला विनाश प्रकृति से बढ़ती छेड़छाड़ और खतरे की चेतावनियों की अनदेखी का नतीजा है। इस राज्य में इतनी तीव्रता का भूकंप भले 18 सितंबर को पहली बार आया, भूविज्ञानिकों ने इसकी चेतावनी कोई 10 साल पहले ही दे दी थी।प्रोफेसर रोजर बिलहाम, विनोद के. गौड़ और पीटर मोलनार नामक भूविज्ञानिकों ने वर्ष 2001 में ‘जर्नल साइंस’ में ‘हिमालय सेशमिक हाजार्ड’ शीर्षक अपने शोधपत्र में कहा था कि इस बात के एकाधिक संकेत मिले हैं कि हिमालय के इस इलाके में एक बड़ा भूकंप कभी भी आ सकता है। उससे लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। उन्होंने कहा था कि हिमालय के छह क्षेत्रों में रिक्टर स्केल पर आठ या उससे ज्यादा के भूकंप आने का अंदेशा है।

दार्जिलिंग-सिक्किम रेंज भी इनमें शामिल है। इस बात का प्रबल अंदेशा है कि हिमालय के जिन इलाकों में बीते पांच-सात सौ वर्षों में कोई बड़ा भूकंप नहीं हुआ है वहां अब ऐसा हो सकता है। वैसे, विशेषज्ञों का कहना है कि मिट्टी का कटाव ही जमीन धंसने की प्रमुख वजह है। लेकिन इसके अलावा एक और वजह यह है कि हिमालय के इस पूर्वी रेंज के पहाड़ अपेक्षाकृत जवान है। इनकी बनावट में होने वाले बदलावों की वजह से भूगर्भीय ढांचा लगातार बदलता रहता है और अब तक स्थिर नहीं हो सका है।

इसके अलावा देश के दूसरे पर्वतीय इलाकों की तरह यहां होने वाली पेड़ों की अंधाधुंध कटाई भी मिट्टी खिसकने की एक प्रमुख वजह है। पेड़ों की कटाई के चलते मिट्टी नरम हो जाती है। बरसात के मौसम में पहली बारिश होते ही यह मिट्टी अपने साथ आसपास के इलाके को समेटते हुए नीचे गिरने लगती है। और नीचे बनी सड़क ही इसका पहला शिकार बनती है।

पश्चिम बंगाल में सिलीगुड़ी स्थित हिमालयन नेचर एंड एडवेंचर फाउंडेशन नामक एक गैर-सरकारी संगठन, जो पहाड़ों को बचाने की दिशा में काम कर रहा है, इसके संयोजक अनिमेष बसु कहते हैं, ‘हिमालय का पूर्वी हिस्सा अभी अपनी किशोरावस्था में है। इसलिए इसकी चपनें अभी दूसरे हिस्सों की तरह ठोस नहीं है। यह बात इसे भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील बनाती है।’ वे कहते हैं कि पर्वतीय इलाके की तमाम सड़कें ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बनी थी। तब उन पर चलने वाले वाहनों की तादाद बहुत कम थी। अब यह तादाद सौ गुने से ज्यादा बढ़ गई है। नतीजतन पहाड़ों पर बोझ भी बढ़ा है। इस बोझ को नहीं सह पाने की वजह से भी पहाड़ियों के पैर उखड़ रहे हैं।

अतीत में बड़े भूकंप का कोई इतिहास नहीं होने की वजह से पहाड़ियों की यह दार्जिलिंग-सिक्किम रेंज भूकंप के प्रति बेहद संवेदनशील हो गई है। कौंसिल फार साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (सीएसआईआर) के सेंटर फार मैथेमेटिकल एंड कंप्यूटर सिमलेशन की एक टीम ने बीते कुछ वर्षों के अध्ययन के बाद अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा था कि इन पहाड़ियों के नीचे धीरे-धीरे दबाव बन रहा है। टीम के नेता प्रोफेसर गौड ने चेतावनी दी थी कि इलाके में कभी भी कोई बड़ा भूकंप आ सकता है। जमीन के नीचे दबी उर्जा जब बाहर निकलेगी तब भूकंप से जिस पैमाने पर विनाश होगा, उसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है। लेकिन उनकी यह चेतावनी और अध्ययन रिपोर्ट फाइलों में पड़ी धूल फांक रही है। इन चेतावनियों पर ध्यान देने की बजाय राजधानी गंगटोक में हर साल दर्जनों बहुमंजिली इमारतें खड़ी होती रहीं। अब पहले ही भूकंप में उनकी जड़ें हिल गईं और कई इमारतें ताश के पत्तों की तरह ढह गई हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक, जमीन के नीचे भारतीय व यूरेशियाई प्लेटों के बीच टकराव की वजह से विशालकाय चपनें दक्षिण की ओर बढ़ती हैं। इन चपनों को एक-दूसरे से अलग करने वाली प्लेटों के जगह बदलने से ही उनके नीचे दबी उर्जा के बाहर निकलने की वजह से भूकंप आते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि सिक्कम में तिस्ता नदी पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाओं के तहत बनाए जा रहे बांध भी विनाश को न्योता दे रहे हैं। पहाड़ों का सीना चीर कर बनने वाले यह बांध उर्जा के विभिन्न रूपों में किसी छोटे से इलाके में केंम्ति कर रहे हैं। तिस्ता को दुनिया में सबसे ज्यादा तलछट वाली नदी माना जाता है। बांधों के लिए बने जलाशयों में भारी मात्रा में तलछट जमा होगी। यह उर्जा बाहर निकली तो इलाके का मटियामेट होना तय है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से नदी के उद्गम स्थल पर बने ग्लोशियरों के लगातार पिघलने की वजह से आगामी कुछ वर्षों के दौरान तिस्ता का जलस्तर बढ़ने का अंदेशा है। ऐसे में यह खतरा और बढ़ जाता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि सिक्कम में तिस्ता नदी पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाओं के तहत बनाए जा रहे बांध भी विनाश को न्योता दे रहे हैं। पहाड़ों का सीना चीर कर बनने वाले यह बांध उर्जा के विभिन्न रूपों में किसी छोटे से इलाके में केंम्ति कर रहे हैं। तिस्ता को दुनिया में सबसे ज्यादा तलछट वाली नदी माना जाता है। बांधों के लिए बने जलाशयों में भारी मात्रा में तलछट जमा होगी। यह उर्जा बाहर निकली तो इलाके का मटियामेट होना तय है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से नदी के उद्गम स्थल पर बने ग्लोशियरों के लगातार पिघलने की वजह से आगामी कुछ वर्षों के दौरान तिस्ता का जलस्तर बढ़ने का अंदेशा है। ऐसे में यह खतरा और बढ़ जाता है।

भूविज्ञानी हिमालय की अरुणाचल और मध्य नेपाल रेंज को अपेक्षाकृत सुरक्षित मानते हैं। इसकी वजह यह है कि उन दोनों इलाकों में तो लमशः 1950 और 1934 में बड़े पैमाने पर भूकंप आ चुके हैं। लेकिन दार्जिलिंग-सिक्कम व भूटान रेंज में कोई बड़ा भूकंप नहीं आया है। हिमालय के भूकंप के प्रति संवेदनशील होने को ध्यान में रखते हुए सवाल यह नहीं था कि भूकंप आएगा या नहीं। असली सवाल यह था कि भूकंप कब आएगा। लेकिन तमाम चेतावनियों की अनदेखी करते हुए प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का सिलसिला जारी रहा और अब नतीजा सबसे सामने हैं। अनिमेष बसु कहते हैं, ‘इलाके में तेजी से होने वाले अवैध निर्माण और बड़े-बड़े बांध हिमालय पर बेहद प्रतिकूल असर डाल रहे हैं। इलाके की भूगर्भीय परिस्थितियों का ख्याल किए बिना हम अपनी जरूरतों के मुताबिक मनमाने तरिके से पेड़ और पहाड़ काट रहे हैं।’ बसु कहते हैं कि सिक्किम तक रेल की पटरियां बिछाने के रेल मंत्रालय का फैसला और जलढाका, झालंग और नेवड़ावैली जंगलों से होकर राजधानी गंगटोक तक वैकल्पिक सड़क बनाने का सेना का प्रस्ताव सिर पर मंडरा रहे विनाश को न्योता देने के लिहाज से ताबूत की आखिरी कील साबित हो सकते हैं। पूरा पर्वतीय इलाका विनाश की कगार पर खड़ा है। लेकिन किसी को इस ओर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है।

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