प्रायद्वीपीय ब्रह्मांड आकाशगंगा


जब हम रात में तारों से भरे आकाश को देखते हैं तो हम उसकी दीप्ति के वैभव से प्रफुल्लित हो उठते हैं। यदि हम किसी गाँव में रहकर आकाश दर्शन करते हैं तो और भी अधिक आनंद आता है, क्योंकि शहरों की अपेक्षा गाँवों में बिजली की रोशनी की चकाचौंध कम होती है तथा वातावरण स्वच्छ एवं शांत होता है।

जब हम प्रतिदिन आकाश का अवलोकन करते हैं तो हमें धीरे-धीरे यह पता चलने लगता है कि न तो सभी तारों का प्रकाश एक समान है और न ही उनके रंग। हम अपनी नंगी आँखों से जितने भी तारों एवं तारासमूहों को देख सकते हैं, वे सभी एक अत्यंत विराट योजना के सदस्य हैं, जो आकाश में लगभग उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ नदी के समान प्रवाहमान प्रतीत होता है। इसे ‘आकाशगंगा’ या ‘मंदाकिनी’ कहते हैं।

यदि हम आकाशगंगा को वैज्ञानिक भाषा में परिभाषित करें तो हम यह कह सकते हैं कि यह तारों का ऐसा समूह है जो अपने ही गुरुत्वाकर्षण बल के कारण एक-दूसरे से परस्पर बंधे हुए होते हैं। प्राचीनकाल के ज्योतिषियों ने केवल आकाश में दिखाई देने वाले शुभ्र पट्टे को ही आकाशगंगा माना। परंतु आज हम यह जानते हैं कि इसमें अरबों तारों (जिसमें से अधिकांश तारे नंगी आँखों से दिखाई नहीं देते हैं) के अतिरिक्त हमारी पृथ्वी, चंद्रमा अन्य सभी ग्रह, सभी ग्रहों के भी चन्द्रमा (नैसर्गिक उपग्रह) उल्कापिंड तथा सौरमंडल के अन्य सभी सदस्य सम्मिलित हैं। आकाशगंगा की इसी विशालता के कारण ही इसे ‘प्रायद्वीपीय ब्रह्मांड’ भी कहते हैं।

हमारे ब्रह्मांड में करोड़ों-अरबों की संख्या में आकाशगंगाएं हैं। प्रत्येक आकाशगंगा में तारों के अतिरिक्त गैसों तथा धूलों का विशाल बादल भी होता है। इन विशाल बादलों को ताराभौतिकी में ‘नीहारिका’ कहा जाता है। आकाशगंगा के कुल द्रव्य का 98 प्रतिशत भाग तारों तथा शेष 2 प्रतिशत भाग गैस एवं धूल के विशाल बादलों से निर्मित है।

आकाशगंगाओं का वर्गीकरण


क्या आप जानते हैं कि सभी आकाशगंगाएं एक जैसी नहीं होती हैं। संरचना के आधार पर आकाशगंगाएं तीन प्रकार की होती हैं - सर्पिल, दीर्घवृत्ताकार तथा स्तंभ सर्पिल।

आकाशगंगा

सर्पिल आकाशगंगाएं


सर्पिल आकाशगंगा की संरचना डिस्क के आकार की होती हैं। सर्पिल आकाशगंगाओं का केंद्रीय भाग थोड़ा सा उठा हुआ प्रतीत होता है। केंद्रीय भाग के बाहर उसके दो विचित्र संरचना वाले हाथ निकले प्रतीत होते हैं। इस प्रकार की आकाशगंगा में मुख्यतः ‘ए’ और ‘बी’ प्रकार के गर्म एवं प्रकाशमान तारे होते हैं। जैसा कि हम जानते हैं कि ‘ए’ और ‘बी’ प्रकार के तारों का जीवनकाल बहुत ही कम होता है। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि सर्पिल आकाशगंगा में कम आयु वाले तारे हैं। और यहाँ पर नये तारों का निर्माण भी होता रहता है। हमारी आकाशगंगा भी इसी प्रकार की संरचना वाली है। हमारी पड़ोसन मंदाकिनी देवयानी भी सर्पिल संरचना वाली है। क्या आप जानते हैं कि अभी तक संपूर्ण ज्ञातव्य ब्रह्मांड में उपस्थित सभी आकाशगंगाओं में 80 प्रतिशत आकाशगंगाएं सर्पिल संरचना वाली हैं।

दीर्घवृत्ताकार आकाशगंगाएं


इस प्रकार की आकाशगंगाएं चिकनी तथा बिना किसी विचित्रता के होती हैं। ब्रह्मांड में अब तक ज्ञात कुल आकाशगंगाओं में लगभग 17 प्रतिशत आकाशगंगाएं इसी प्रकार की संरचना वाली हैं।

स्तंभ सर्पिल और अनियमित आकाशगंगाएं


इस प्रकार की संरचना वाली आकाशगंगाओं में ऐसा लगता है कि इनके दोनों सर्पिल हाथ एक सीधे स्तंभ में दोनों छोर से उद्भव हो रहे हों। यही सीधा स्तंभ आकाशंगगा के केंद्र से होकर गुजरता है। अब तक ज्ञात कुल आकाशगंगाओं में लगभग 1 प्रतिशत आकाशगंगाएं इसी प्रकार की संरचना वाली हैं।

इन तीन प्रकार की आकाशगंगाओं के अतिरिक्त ब्रह्मांड में लगभग 2 प्रतिशत आकाशगंगाएं नियमित संरचना वाली हैं। इनका आकार अनियमित है तथा छोटे होते हैं।

हमारी आकाशंगा : दुग्धमेखला


हमारा सूर्य और उसका परिवार यानी सौरमंडल जिस आकाशगंगा का सदस्य है उसका नाम मिल्की वे यानि दुग्धमेखला है। आकाशगंगा के आकार-प्रकार को समझने के लिये एक चपटी रोटी की कल्पना कीजिए, जिसका मध्य भाग थोड़ा सा फुला हुआ है। अरबों-खरबों तारों से मिलकर एक विशाल योजना बनती है, जिसे ‘मंदाकिनी’ कहते हैं। वास्तविकता में आकाशगंगा एक मंदाकिनी ही है।

हमारी प्रकाशगंगा का व्यास लगभग एक लाख प्रकाशवर्ष है और इसमें सौ अरब से भी अधिक तारे हैं, अर्थात इसका संपूर्ण द्रव्यमान हमारे लगभग 100 अरब सूर्यों के बराबर है। हमारी आकाशगंगा यानी दुग्धमेखला 24 आकाशगंगाओं के एक समूह का सदस्य है, जिसे ‘स्थानीय समूह’ कहते हैं। हमारा सूर्य आकाशगंगा के केंद्र से लगभग 30,000 प्रकाशवर्ष दूर है। दिलचस्प बात यह है कि पृथ्वी पर मानव के संपूर्ण अस्तित्व काल में सूर्य ने आकाशगंगा की एक भी परिक्रमा पूर्ण नहीं की है।

बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में खगोलशास्त्रियों की ऐसी धारणा थी कि संपूर्ण ब्रह्मांड हमारी आकाशगंगा में ही समाहित है, परंतु अंततोगत्वा यह धारणा पूरी तरह से गलत सिद्ध हुई।

सन 1924 में एक अमेरिकी खगोलशास्त्री एडविन हब्बल ने यह सिद्ध किया कि ब्रह्मांड में लाखों-करोड़ों की संख्या में आकाशगंगाओं का अस्तित्व है। दूसरी आकाशगंगाओं के अस्तित्व को सिद्ध करने के पश्चात हब्बल ने बाद के वर्षों में उनके वर्णक्रम का प्रेक्षण करने और तालिका के निर्माण में बिताया।

प्रसारी ब्रह्मांड


हब्बल ने अपने प्रेक्षणों से यह निष्कर्ष निकाला कि आकाशगंगाएं ब्रह्मांड में स्थिर नहीं हैं, जैसे-जैसे उनकी दूरी बढ़ती जाती है वैसे ही उनके दूर भागने की गति तेज होती है।

इस तथ्य को एक ही तरह समझाया जा सकता है - यह मानकर कि आकाशगंगाएं बहुत बड़े वेग यहाँ तक प्रकाश तुल्य वेग के साथ हमसे दूर होती जा रही हैं। आकाशगंगाएं दूर होती जा रही हैं तथा ब्रह्मांड फैल रहा है। यह डॉप्लर द्वारा ज्ञात किया गया है। सभी आकाशगंगाओं के वर्णक्रम की रेखाएं लाल सिरे की तरफ सरक रही हैं यानी वे पृथ्वी से दूर होती जा रही हैं, यदि आकाशगंगाएं पृथ्वी के समीप आ रही होतीं, तो बैंगनी-विस्थापन होता। अतः आज अनेकों तथ्य यह इंगित कर रहे हैं कि ब्रह्मांड प्रकाशीय वेग के तुल्य विस्तारमान है, ठीक उसी प्रकार जिस तरह हम गुब्बारे को फुलाते हैं तो उसके बिंदियों के बीच दूरियों को हम बढ़ते देखते हैं।

सन 2011 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित तीन खगोल वैज्ञानिकों साउल पर्लमुटर, एडम रीज और ब्रायन स्कमिड्ट ने निष्कर्ष निकला कि ब्रह्मांड के विस्तार की गति में त्वरण आ रहा है। यानी ब्रह्मांड समान नहीं बल्कि त्वरित गति से फैल रहा है। इसके त्वरित होने का मुख्य कारण श्याम ऊर्जा है। यानी श्याम ऊर्जा ब्रह्मांड के विस्तार को गति प्रदान कर रही है। हब्बल के निष्कर्ष के अनुसार किसी आकाशगंगा का वेग निम्न सूत्र द्वारा निकाला जा सकता है।

आकाशगंगा का वेग = हब्बल-स्थिरांक×दूरी

हम इतना तो अवश्य जान गए हैं कि दूरी, द्रव्यमान और काल तीनों ही दृष्टियों से ब्रह्मांड इतना अधिक विशाल है कि दैनिक जीवन के अनुभवों से अनुमान लगाना असंभव है। अतः हमें गणित और विज्ञान के नेत्रों का सहारा लेना आवश्यक है। गणित और विज्ञान की सहायता से हम खगोलीय प्रेक्षण कर रहे हैं तथा भविष्य में भी करते रहेंगे।

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प्रदीप
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