सैकड़ों बाँधों से लगभग पूरा नक्शा ही काला हो गया था। बाँधों से उभरी यह कालिख प्रतीकात्मक रूप में तथाकथित ऊर्जा प्रदेश के भविष्य को भी रेखांकित करती है।
वर्तमान में उत्तराखण्ड में सबसे बड़ा बाँध टिहरी बाँध है। बाँध निर्माण के पिछले चार वर्षों से इस पर बनी जलविद्युत परियोजना के जो परिणाम आ रहे हैं, उससे उत्तराखण्ड सरकार की ऊर्जा नीति सवालों के घेरे में आ गई है। दावा था कि टिहरी बाँध 2,400 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेगा। लेकिन पिछले चार सालों से टिहरी जल विद्युत परियोजना सिर्फ 1,000 मेगावाट विद्युत का उत्पादन ही कर पा रही है। सैकड़ों गाँवों, हजारों लोगों के विस्थापन के साथ उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण नागर सभ्यता को झील में डुबो देने वाले इस बाँध का औचित्य क्या है, यह समझ नहीं आ रहा है। बाँध से पूरे उत्तराखण्ड के विकास की उम्मींदें लगाए लोग विद्युत के इतने कम उत्पादन को देख हतप्रभ हैं। सवाल यह भी उठ रहा है कि टिहरी बाँध के नाकाम हो जाने के बाद अब भी बांधों के लिए लालायित हो रही नौकरशाही व नेतृत्व के कौन से हित हैं जो अब पंचेश्वर बांध के लिए मंसूबे बांधे बैठे हैं।
कुछ समय पूर्व ‘नैनीताल समाचार’ ने उत्तराखण्ड की नदियों पर प्रस्तावित छोटे-बड़े बाँधों को काले धब्बे से दर्शा कर एक नक्शा प्रकाशित किया था।नेपाल-उत्तराखण्ड के बीच बहने वाली काली नदी पर टिहरी से तीन गुना बड़े पंचेश्वर बाँध (पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना) पर सरकारी तौर पर सहमति नजर आ रही है। भारत-नेपाल का 230 किमी. का सीमांकन करती महाकाली नदी पर पंचेश्वर में बनने वाले इस बांध के प्रस्ताव ‘भारत-नेपाल महाकाली संधि’ पर 12 फरवरी 1996 को दोनों देशों के हस्ताक्षर हो चुके हैं। नवम्बर 1999 में काठमांडू में एक संयुक्त परियोजना प्राधिकरण (जेपीओ) गठित की गई। इसके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट को नेपाल में उस समय विपक्षी दल नेकपा (एमाले) ने संसद में पास नहीं होने दिया था। यह जेपीओ भी 2002 में रद्द कर दिया गया। 2004 में दोबारा बनाए जेपीओ की पहली मीटिंग इसी वर्ष दिसम्बर में हुई। लेकिन 2005 में प्रस्तावित इसकी दूसरी मीटिंग नेपाल में आई राजनीतिक अस्थिरता के चलते टल गई। इसके बाद नेपाल में हुए चुनावों में सीपीएन (माओवादी) को अच्छी बढ़त मिली और पुष्पकमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनने के एक दिन पूर्व एक साक्षात्कार में बड़े बांधों के प्रति प्रचंड ने नकारात्मक रवैया दिखाया था। इससे कयास लगाए जा रहे थे कि नेपाल की माओवादी सरकार पंचेवर बांध को खारिज कर देगी। लेकिन बतौर प्रधानमंत्री प्रचण्ड की टिहरी बांध यात्रा से फिर पंचेवर का जिन्न सिर उठाने लगा। प्रचंड के बड़े बांधों के विरोध में कुछ न कहने से भी इस आशंका को बल मिला। टीवी चैनलों में उन्हें बांध भ्रमण के बाद गदगद देखा गया। प़त्रकारों द्वारा पंचेश्वर बांध के निर्माण की बात पूछे जाने पर उन्होंने सकारात्मक संकेत ही दिए। प्रचण्ड का यह रवैया उनकी पार्टी का आज का स्टैंड बन गया है। नेकपा (माओवादी) के प्रवक्ता दीनानाथ शर्मा से दूरभाष पर हुई बातचीत से इस बात की पुष्टि हुई। उन्होंने कहा कि ‘‘हम इस बाँध के पूर्णतया समर्थन में हैं। पार्टी विकास के विरोध में नहीं हो सकती। लेकिन इस बात का पूरा खयाल रखा जाएगा कि बाँध से प्रभावित होने वाले क्षेत्र की जनता के पुनर्वास और मुआवजे की पूरी व्यवस्था हो और उनके हकों के साथ खिलवाड़ न हो।’’ नेकपा (माओवादी) कुछ समय पहले तक यह मानती आई है कि ‘भारत-नेपाल महाकाली संधि’ भारत और नेपाली जनता की संधि न होकर नेपाल की राजशाही द्वारा भारत और अमेरिका के दबाव में की गई संधि थी। लेकिन यहां उनका रुख कुछ बदला है और इससे पंचेश्वर बाँध निर्माण पर पुनर्विचार की संभावनओं पर विराम लगता दिख रहा है।
पंचेश्वर बाँध 315 मी. ऊँचा विश्व में दूसरा सबसे बड़ा बाँध होगा। इस बाँध की क्षमता 6,480 मेगावाट आंकी जा रही है। इस परियोजना पर दो चरणों में काम होना है। पहले 315 मीटर ऊँचा बाँध पंचेश्वर में महाकाली और सरयू नदी के संगम से 2 किमी नीचे बनना है। दूसरे चरण में 145 मीटर ऊंचाई वाला बाँध इससे नीचे महाकाली की अग्रगामी शारदा नदी पर पूर्णागिरी में। बाँध की इस बहुउद्देश्यीय परियोजना में भारत और नेपाल का 134 वर्ग किमी क्षेत्र डूब जाना है। इसमें भी 120 वर्ग किमी का क्षेत्र उत्तराखण्ड का है। सिर्फ 14 वर्ग किमी का क्षेत्र नेपाल का डूबेगा। दोनों ही ओर महाकाली और सहायक नदियों की उपजाऊ तलहटी में बसे प्रमुखतः कृषि पर जीवनयापन करने वाले 115 गांवों के 11,361 परिवार प्रभावित होंगे। ‘टिहरी विस्थापन’ से उबर भी न पाए उत्तराखण्ड के लोगों को एक और बड़े विस्थापन से जूझने की तैयारी करनी है। नेपाल ने अपने प्रभावित क्षेत्र के गांवों के पुनर्वास का एक नक्शा भी तैयार कर लिया है। भारत की ओर से क्षेत्रीय लोगों को ऐसे किसी भी नक्शे की जानकारी नहीं है।
विस्थापन से पुनर्वास के अतिरिक्त मध्य हिमालयी क्षेत्र में बनने वाले इस बृहद बांध से कई समस्याएं हैं। भूगर्भवेत्ताओं का मानना है कि ‘पंचेश्वर’ भूगर्भीय हलचलों की दृष्टि से ’जोन 4’ में है। बांध में रोके जाने वाले पानी से यहां तकरीबन 80 से 90 करोड़ घन लीटर का दबाव पड़ेगा। यह दबाव पहाड़ों के भीतर संवेदनशील स्थिति में अवस्थित चट्टानों को धंसाने का काम कर सकता है। इसके कारण बड़े भूकम्पों की आशंका है। विगत 15 वर्षों में मध्य हिमालय के ‘सीसमिक 4 जोन’ में रिएक्टर पैमाने पर 5 अंकों की तीव्रता से ऊपर वाले दस भूकम्प दर्ज हुए हैं। इनमें से पांच भूकम्पों का केन्द्र पंचेश्वर से 10 किमी की दूरी के अंदर ही रहा है। भूकम्पीय खतरों के अतिरिक्त पर्यावरणीय दृष्टि से भी यह बांध मध्य हिमालय के इको सिस्टम पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा। इस बांध से नदियों के किनारे बसे 134 वर्ग किमी के क्षेत्र में आने वाले चौड़ी पत्ती के कई जंगल अपनी जैव विविधता के साथ डूब जाएंगे। इसके अलावा बांध विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े बांधों की उम्र लम्बी नहीं है। इसीलिये इन पर किए जा रहे बड़े निवेशों का कोई भविष्य नहीं है। पंचेश्वर बांध के लिए बनाई गई रिपोर्ट में इसकी उम्र 100 वर्ष आंकी गई है। लेकिन कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि यह बांध केवल 25 से 30 वर्षों में ही नदी के साथ बहकर आने वाले गाद के चलते बेकाम हो जाएगा। ऐसी स्थिति में केवल 25 से 30 वर्षों की एक योजना के लिए सैकड़ों वर्षों से नदियों के किनारे बसे हिमालयी समाज को विस्थापित कर दिया जाना जायज नहीं ठहराया जा सकता।
बाँध से उत्तराखण्ड के लिए सबसे महत्वाकांक्षी मानी जा रही व वर्तमान रेल बजट में सर्वेक्षण के लिए संस्तुत हुई टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन खटाई में पड़ जाएगी। इस रेल लाइन से पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में नई आर्थिक लहर पैदा होने की उम्मीद की जा रही थी। बांध से इस रेल लाइन का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। टनकपुर से जौलजीवी रेल लाइन के सर्वेक्षण को इस रेल बजट में हरी झण्डी मिली है। यह रेल लाईन महाकाली नदी के किनारे ही बननी है। इसे भारत-नेपाल के सीमावर्ती गांवों के साथ भारत के लिए सामरिक महत्व का भी माना जा रहा था। विदित हो पड़ोसी देश चीन सीमावर्ती तिब्बत के पठारों पर रेल दौड़ा रहा है।
पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय परियोजना मुख्यतः विद्युत उत्पादन के अतिरिक्त, सिंचाई, पेयजल और बिहार व उत्तर प्रदेश में आने वाली बाढ़ पर नियंत्रण के उद्देश्य के लिए बनाई गई है। उत्तराखण्ड का एक बड़ा क्षेत्रफल इस परियोजना के तहत डूब जाना है और एक बड़ी आबादी इससे प्रभावित भी होनी है। ऐसे में परियोजना से कितना फायदा उत्तराखण्ड को मिलेगा यह एक महत्वपूर्ण मसला है। जैसा कि अब तक तय है परियोजना से उत्पादित होने वाली विद्युत का 12 प्रतिशत हिस्सा उत्तराखण्ड को मिलना है। टिहरी बांध में निर्धारित 2,400 मेगावाट से सिर्फ 1,000 मेगावाट ही विद्युत उत्पादन हो पा रहा है। ऐसे में पंचेश्वर से भी तकरीबन 2,000 मेगावाट के करीब की उम्मींद की ही जा सकती है। तो यहाँ उत्तराखण्ड को मिलने वाली 12 प्रतिशत बिजली क्या यहां डूबने वाले 120 वर्ग किमी और होने वाली विस्थापन की त्रासदी की सही कीमत है ? यह बड़ा प्रश्न है।
इस सब के बीच दोनों ही देशों की नौकरशाही और नेतृत्व के इस परियोजना के प्रति अति उत्साह को भी परखने की भी जरूरत है। दरअसल इस परियोजना में तकरीबन 22 हजार करोड़ रुपये खर्च होने हैं। पूंजी के इस बड़े खेल में दोनों देशों के परियोजना में विशेष रुचि रखने वालों के हितों को समझा जा सकता है। नेकपा (माओवादी) द्वारा बांध को समर्थन के बाद अब नेपाल की ओर से इस बांध के व्यापक विरोध की उम्मीद नहीं की जा सकती। भारत में भी इसका विरोध करने वाले आंदोलनकारियों में इससे पहले टिहरी बांध के विरोध में शामिल भूगर्भवेत्ता, पर्यावरणविद, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक संगठनों के अतिरिक्त यहां की क्षेत्रीय जनता है। एक व्यापक प्रतिरोध के बावजूद भी जिस तरह टिहरी बांध को बनने से नहीं रोका जा सका, उस तरह ही पंचेश्वर बांध को बनने से रोका जाना असम्भव तो नहीं पर कठिन बहुत है।
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