मूल समस्या ग्रामसभा सदस्यों के बीच एकजुटता व जागरूकता की कमी तथा उदासीनता है। अतः ग्रामसभाओं को उनके अस्तित्व को एहसास कराना जरूरी है। ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थान... दोनों को ही यह एहसास कराना भी जरूरी है कि यदि अपने अधिकार व कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह करें तो वे अपनी और देश की किस्मत बेहतर करने में कितना बड़ा योगदान कर सकते हैं। ‘चलो गांव की ओर’ नारे के साथ बाजार जिस तेजी और मंशा से गांवों की ओर भागता दिखाई दे रहा है, इस कारण भी ग्राम स्तरीय लोक तांत्रिक संस्थानों का सशक्त, ईमानदार, कार्यकुशल, सदाचारी और एकजुट होना अतिआवश्यक है; वरना ग्राम्य संरचना की रचना के सुंदर कार्यों को अपनी बाढ़ में बहाने के लिए कारपोरेट जगत कमर कस ही चुका है। वह गांवों की आदत बिगाड़ ही डालेगा। वह गांव का खानपान, पहनावा, लालच, आदतें, दिखावा, खर्च.... सभी कुछ को बाजार आधारित बना देना चाहता है।
बाजार के आकर्षण व मीडिया प्रचार के चलने ग्रामीण जीवनशैली में शहरी प्रभाव व परिवर्तन अभी ही दिखाई दे रहा है। गांवों में खर्च बढ़ रहा है, लेकिन खर्च के अनुपात में आमदनी की बढ़ोतरी सिर्फ एक तबके के हिस्सें में ही आई है। ज्यादातर ग्रामीणों के पास बचत के नाम कर्ज ही ज्यादा है। यह खर्च और कर्ज अभी और बढ़ेगा। मोटा खाना, मोटा पहनाना और मोटे काम की आदत एक बार छूटी तो फिर खेती करना भी मुश्किल होता जाएगा। गांव के हाथ में न गांव की रोटी रहेगी, न गांव की चोटी। तब गांव न गांव रह जाएंगे, न शहर ही बन पाएंगे।
गांव अपनी जीवनशैली, जरूरत और भविष्य की योजना खुद तय करें, इसके लिए जरूरी हैं कि ग्राम स्तरीय लोकतांत्रिक संस्थानों में ग्रामीण की भूमिका और सक्रिय और प्रभावी हो। नए शहरों का सपना साकार करने से पहले जरूरी है कि अच्छे दिन के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार पुराने गांवों और गांवों के बुनियादी लोकतांत्रिक संस्थानों के बारे में संजीदा व सक्रिय हो। पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता, चुनौतियों व अनुभवों का आकलन इस दिशा में पहला कदम हो सकता है।
64वें संविधान संशोधन का मूल मंतव्य था-सत्ता का विकेन्द्रीकरण। जहां इस मंतव्य की पूर्ति हेतु पंचायतीराज संस्थानों को अनेक अधिकार सौंपे गए हैं, वहीं पंचपरमेश्वर की ऐतिहासिक भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए पंचायतीराज संस्थानों का यह कर्तव्य भी निर्धारित है कि ये गांवों के जीवन व हकदारी का संरक्षण करेंगे। यूं कहें कि यदि ग्रामसभा की भूमिका ‘तीसरी सरकार’ की है, तो ग्राम पंचायतों की भूमिका मंत्रिमंडल की।
भारत की 75 प्रतिशत आबादी की किस्मत तय करना.. देश की किस्मत तय करने जैसा है। यह तय करने का दायित्व बहुत कुछ ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थानों पर आकर टिक गया है। योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ने इस भूमिका को जटिल, किंतु और महत्वपूर्ण बना दिया है।
इस महत्ता के मद्देनजर अत्यंत महत्वपूर्ण है कि संबंधित चुनौतियों और सीख पर गहन मंथन हो। संबंधित वर्ग व संस्थानों को वस्तुस्थिति का एहसास कराया जाए। खासकर ग्रामसभाओं को उनकी दायित्वपूर्ति के लिए प्रेरित करने का प्रयास हो।
पंचायतीराज को संवैधानिक मान्यता के तीन दशक बीत जाने के बाद यह जांच जरूरी है कि पंचायतीराज का सपना कितना पूरा हुआ और कितना अभी अधूरा है और क्यों? इसके लिए पंचायतीराज की कार्यकुशलता की जांच जरूरी है। कार्यकुशलता के समक्ष पेश चुनौतियों को समझे बगैर कार्य कुशलता में बेहतरी संभव नहीं है। बहुत संभव है कि इस लेख में आगे उल्लिखित कुछ कदम इसमें मददगार हो सकें। आइए, समझें कि क्या हैं पैमाने, व्यवहार, चुनौतियां और सीख।
पंचायतीराज संस्थान व ग्राम सभा की भूमिका क्या है? कार्यकुशलता का पैमाना क्या? क्या ये अपनी भूमिका के कुशल निर्वाहन में सफल हुए? नई पंचायतीराज व्यवस्था लागू होने से अब तक के 18 वर्षीय अनुभव क्या कहते हैं? सफलता-असफलता के कारण? कार्यकुशलता के मार्ग में बाधाएं क्या हैं?
ग्रामसभाओं को अपने अस्तित्व का एहसास नहीं है। ग्रामसभाएं पंचायतीराज संस्थानों के प्रति अपनी भूमिका को लेकर उदासीन व निष्क्रिय हैं। तालमेल का अभाव है। परिणामस्वरूप तमाम कानूनों व प्रावधानों के बावजूद पंचायतीराज संस्थानों की कार्यप्रणाली पर ग्रामसभाओं का नियंत्रण नगण्य है। पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता का संगठन आधारित होने की बजाय, प्रधान यानी एक व्यक्ति की ईमानदारी व कार्यकुशलता पर आकर टिक गई है।
पंचायतीराज संस्थान में असल लोक प्रतिनिधि का प्रवेश स्वयंमेव एक चुनौती बन गया है। पंचायत प्रतिनिधि पंचायतीराज अधिनियम के असल सपने से दूर हैं। पंचायती चुनावों में राजनीतिक दलों की घुसपैठ एक बड़ी चुनौती है।
चुनावों के कारण गांवों में सद्भाव में कमी आई है और गुटबाजी बढ़ी है। इस कारण भी कार्य कुशलता प्रभावित हुई है। योजना क्रियान्वयन व क्षमता विकास संबंधी कार्यक्रम का औपचारिक हो कर रह गए हैं।
क्या पंचायती राज संस्थानों की कार्यकुशलता के मार्ग की असल चुनौतियां यही हैं? यदि हां, तो इनके मूल कारण क्या हैं? पंचायतीराज के 18 वर्षीय अनुभवों व पेश चुनौतियों से मिली सीख क्या है? क्या इन प्रश्नों पर और विस्तृत विचार और पहल आवश्यक नहीं?
मूल समस्या ग्रामसभा सदस्यों के बीच एकजुटता व जागरूकता की कमी तथा उदासीनता है। अतः ग्रामसभाओं को उनके अस्तित्व को एहसास कराना जरूरी है। ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थान... दोनों को ही यह एहसास कराना भी जरूरी है कि यदि अपने अधिकार व कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह करें तो वे अपनी और देश की किस्मत बेहतर करने में कितना बड़ा योगदान कर सकते हैं।
कहना न होगा कि ग्रामसभा बैठकों का ईमानदार व सतत संचालन सुनिश्चित करना जरूरी है। ग्रामसभाओं व पंचायतों को उनके दायित्व व अधिकारों के प्रति जागरूक करना जरूरी है। ग्रामसभा व पंचायतों को अधिकारों के प्रयोग व दायित्वों के निर्वाहन के लिए पूरी संजीदगी के साथ प्रेरित, प्रोत्साहित और प्रशिक्षित किए बगैर काम चलने वाला नहीं। साथ ही साथ जरूरी है कि ग्रामसभा की सक्रियता बनाए रखने वाले प्रयासों में सातत्य हो। मगर, यह हो कैसे?
ग्राम योजना का निर्माण, संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, ग्रामहाट का महत्व व संचालन, योजनाओं के प्रत्येक पहलू की जानकारी, योजनाओं की जन निगरानी, सोशल ऑडिट और चुनाव में विवेकपूर्ण सहभागिता आदि हेतु क्षमता विकास जैसे कार्य भी पर्याप्त सक्रियता और सातत्य की मांग करते हैं जरूरी है कि योजनाओं के अनुसार बजट आवंटन करने की बजाय ग्रामसभा द्वारा बनाई ग्राम योजना, तय बजट व क्रियान्वयन अवधि के अनुसार बजट आवंटित हो।
हर छमाही में प्राप्त बजट व तय कार्य का जन अंकेक्षण कराना व प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करना व ग्रामसभा द्वारा उसकी मंजूरी लेना जरूरी हो। ग्राम सभा द्वारा मंजूर न किए जाने पर अगले कार्य व बजट आवंटन का स्थगित करने का प्रावधान हो। इससे जरूरत न होने पर भी योजना बजट खपाने की फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार कम होगा। इसके अलावा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के तरीके क्या हो सकते हैं? जानना व लागू करना जरूरी है।
पंचायत चुनाव में धन व बल पर रोक पर उपाय व सख्ती जरूरी है ही। पंचायती चुनावों में यदि उम्मीदवारों के नामांकन का अधिकार व्यक्तियों के हाथ से छीनकर ग्रामसभा के हाथ में कर दिया जाए, तो कैसा हो? ग्रामसभा खुद प्रत्येक पद के लिए तीन उम्मीदवारों का नामांकन करे। उन्हीं उम्मीदवारों पर मतदान हो। इससे चुनाव की चाबी धन व बल की बजाय सीधे ग्रामसभाओं के हाथ में आ जाएगी और सद्भाव भी बच जाएगा।
गौरतलब है कि ग्रामसभा और ग्रामसभाओं में कार्यकुशलता की समस्या व्यवस्था पर कसे ज्यादा चारित्रिक है। इसका कुप्रभाव जगजाहिर है। अतः इस दिशा में भी प्रयास जरूरी हैं। इस दिशा में ईमानदार, सतत् और प्रभावशाली प्रयास किए बगैर भारत के गांवों में न तो बेहतर लोकतंत्र की कल्पना अब संभव दिखती है और न ही भारतीय राजनीति में शुचिता।
बाजार के आकर्षण व मीडिया प्रचार के चलने ग्रामीण जीवनशैली में शहरी प्रभाव व परिवर्तन अभी ही दिखाई दे रहा है। गांवों में खर्च बढ़ रहा है, लेकिन खर्च के अनुपात में आमदनी की बढ़ोतरी सिर्फ एक तबके के हिस्सें में ही आई है। ज्यादातर ग्रामीणों के पास बचत के नाम कर्ज ही ज्यादा है। यह खर्च और कर्ज अभी और बढ़ेगा। मोटा खाना, मोटा पहनाना और मोटे काम की आदत एक बार छूटी तो फिर खेती करना भी मुश्किल होता जाएगा। गांव के हाथ में न गांव की रोटी रहेगी, न गांव की चोटी। तब गांव न गांव रह जाएंगे, न शहर ही बन पाएंगे।
गांव अपनी जीवनशैली, जरूरत और भविष्य की योजना खुद तय करें, इसके लिए जरूरी हैं कि ग्राम स्तरीय लोकतांत्रिक संस्थानों में ग्रामीण की भूमिका और सक्रिय और प्रभावी हो। नए शहरों का सपना साकार करने से पहले जरूरी है कि अच्छे दिन के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार पुराने गांवों और गांवों के बुनियादी लोकतांत्रिक संस्थानों के बारे में संजीदा व सक्रिय हो। पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता, चुनौतियों व अनुभवों का आकलन इस दिशा में पहला कदम हो सकता है।
मूल विचार
64वें संविधान संशोधन का मूल मंतव्य था-सत्ता का विकेन्द्रीकरण। जहां इस मंतव्य की पूर्ति हेतु पंचायतीराज संस्थानों को अनेक अधिकार सौंपे गए हैं, वहीं पंचपरमेश्वर की ऐतिहासिक भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए पंचायतीराज संस्थानों का यह कर्तव्य भी निर्धारित है कि ये गांवों के जीवन व हकदारी का संरक्षण करेंगे। यूं कहें कि यदि ग्रामसभा की भूमिका ‘तीसरी सरकार’ की है, तो ग्राम पंचायतों की भूमिका मंत्रिमंडल की।
भारत की 75 प्रतिशत आबादी की किस्मत तय करना.. देश की किस्मत तय करने जैसा है। यह तय करने का दायित्व बहुत कुछ ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थानों पर आकर टिक गया है। योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी ने इस भूमिका को जटिल, किंतु और महत्वपूर्ण बना दिया है।
इस महत्ता के मद्देनजर अत्यंत महत्वपूर्ण है कि संबंधित चुनौतियों और सीख पर गहन मंथन हो। संबंधित वर्ग व संस्थानों को वस्तुस्थिति का एहसास कराया जाए। खासकर ग्रामसभाओं को उनकी दायित्वपूर्ति के लिए प्रेरित करने का प्रयास हो।
पंचायतीराज को संवैधानिक मान्यता के तीन दशक बीत जाने के बाद यह जांच जरूरी है कि पंचायतीराज का सपना कितना पूरा हुआ और कितना अभी अधूरा है और क्यों? इसके लिए पंचायतीराज की कार्यकुशलता की जांच जरूरी है। कार्यकुशलता के समक्ष पेश चुनौतियों को समझे बगैर कार्य कुशलता में बेहतरी संभव नहीं है। बहुत संभव है कि इस लेख में आगे उल्लिखित कुछ कदम इसमें मददगार हो सकें। आइए, समझें कि क्या हैं पैमाने, व्यवहार, चुनौतियां और सीख।
कार्यकुशलता की जांच
पंचायतीराज संस्थान व ग्राम सभा की भूमिका क्या है? कार्यकुशलता का पैमाना क्या? क्या ये अपनी भूमिका के कुशल निर्वाहन में सफल हुए? नई पंचायतीराज व्यवस्था लागू होने से अब तक के 18 वर्षीय अनुभव क्या कहते हैं? सफलता-असफलता के कारण? कार्यकुशलता के मार्ग में बाधाएं क्या हैं?
कार्यकुशलता के समक्ष पेश चुनौतियां
ग्रामसभाओं को अपने अस्तित्व का एहसास नहीं है। ग्रामसभाएं पंचायतीराज संस्थानों के प्रति अपनी भूमिका को लेकर उदासीन व निष्क्रिय हैं। तालमेल का अभाव है। परिणामस्वरूप तमाम कानूनों व प्रावधानों के बावजूद पंचायतीराज संस्थानों की कार्यप्रणाली पर ग्रामसभाओं का नियंत्रण नगण्य है। पंचायतीराज संस्थानों की कार्यकुशलता का संगठन आधारित होने की बजाय, प्रधान यानी एक व्यक्ति की ईमानदारी व कार्यकुशलता पर आकर टिक गई है।
पंचायतीराज संस्थान में असल लोक प्रतिनिधि का प्रवेश स्वयंमेव एक चुनौती बन गया है। पंचायत प्रतिनिधि पंचायतीराज अधिनियम के असल सपने से दूर हैं। पंचायती चुनावों में राजनीतिक दलों की घुसपैठ एक बड़ी चुनौती है।
चुनावों के कारण गांवों में सद्भाव में कमी आई है और गुटबाजी बढ़ी है। इस कारण भी कार्य कुशलता प्रभावित हुई है। योजना क्रियान्वयन व क्षमता विकास संबंधी कार्यक्रम का औपचारिक हो कर रह गए हैं।
क्या पंचायती राज संस्थानों की कार्यकुशलता के मार्ग की असल चुनौतियां यही हैं? यदि हां, तो इनके मूल कारण क्या हैं? पंचायतीराज के 18 वर्षीय अनुभवों व पेश चुनौतियों से मिली सीख क्या है? क्या इन प्रश्नों पर और विस्तृत विचार और पहल आवश्यक नहीं?
कैसे संभव हो कार्यकुशलता : अनुभव की सीख
मूल समस्या ग्रामसभा सदस्यों के बीच एकजुटता व जागरूकता की कमी तथा उदासीनता है। अतः ग्रामसभाओं को उनके अस्तित्व को एहसास कराना जरूरी है। ग्रामसभा व पंचायतीराज संस्थान... दोनों को ही यह एहसास कराना भी जरूरी है कि यदि अपने अधिकार व कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह करें तो वे अपनी और देश की किस्मत बेहतर करने में कितना बड़ा योगदान कर सकते हैं।
कहना न होगा कि ग्रामसभा बैठकों का ईमानदार व सतत संचालन सुनिश्चित करना जरूरी है। ग्रामसभाओं व पंचायतों को उनके दायित्व व अधिकारों के प्रति जागरूक करना जरूरी है। ग्रामसभा व पंचायतों को अधिकारों के प्रयोग व दायित्वों के निर्वाहन के लिए पूरी संजीदगी के साथ प्रेरित, प्रोत्साहित और प्रशिक्षित किए बगैर काम चलने वाला नहीं। साथ ही साथ जरूरी है कि ग्रामसभा की सक्रियता बनाए रखने वाले प्रयासों में सातत्य हो। मगर, यह हो कैसे?
ग्राम योजना का निर्माण, संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग, ग्रामहाट का महत्व व संचालन, योजनाओं के प्रत्येक पहलू की जानकारी, योजनाओं की जन निगरानी, सोशल ऑडिट और चुनाव में विवेकपूर्ण सहभागिता आदि हेतु क्षमता विकास जैसे कार्य भी पर्याप्त सक्रियता और सातत्य की मांग करते हैं जरूरी है कि योजनाओं के अनुसार बजट आवंटन करने की बजाय ग्रामसभा द्वारा बनाई ग्राम योजना, तय बजट व क्रियान्वयन अवधि के अनुसार बजट आवंटित हो।
हर छमाही में प्राप्त बजट व तय कार्य का जन अंकेक्षण कराना व प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करना व ग्रामसभा द्वारा उसकी मंजूरी लेना जरूरी हो। ग्राम सभा द्वारा मंजूर न किए जाने पर अगले कार्य व बजट आवंटन का स्थगित करने का प्रावधान हो। इससे जरूरत न होने पर भी योजना बजट खपाने की फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार कम होगा। इसके अलावा भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के तरीके क्या हो सकते हैं? जानना व लागू करना जरूरी है।
पंचायत चुनाव में धन व बल पर रोक पर उपाय व सख्ती जरूरी है ही। पंचायती चुनावों में यदि उम्मीदवारों के नामांकन का अधिकार व्यक्तियों के हाथ से छीनकर ग्रामसभा के हाथ में कर दिया जाए, तो कैसा हो? ग्रामसभा खुद प्रत्येक पद के लिए तीन उम्मीदवारों का नामांकन करे। उन्हीं उम्मीदवारों पर मतदान हो। इससे चुनाव की चाबी धन व बल की बजाय सीधे ग्रामसभाओं के हाथ में आ जाएगी और सद्भाव भी बच जाएगा।
गौरतलब है कि ग्रामसभा और ग्रामसभाओं में कार्यकुशलता की समस्या व्यवस्था पर कसे ज्यादा चारित्रिक है। इसका कुप्रभाव जगजाहिर है। अतः इस दिशा में भी प्रयास जरूरी हैं। इस दिशा में ईमानदार, सतत् और प्रभावशाली प्रयास किए बगैर भारत के गांवों में न तो बेहतर लोकतंत्र की कल्पना अब संभव दिखती है और न ही भारतीय राजनीति में शुचिता।
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