पलायन की त्रासदी में पिसता बचपन


‘एड एट एक्शन’ नाम की संस्था ने भोपाल में पलायन कर शहरों में काम करने आये मजदूरों के बच्चोंके साथ काम शुरू किया

.आज से यही कोई 5 साल पहले छत्तीसगढ़ से अपने परिवार के साथ भोपाल पलायन करके आये हेमराज की पढ़ाई शुरू नहीं हो पा रही है, क्योंकि माँ-बाप दोनों ही मजदूरी करते थे। दिन भर वह कंस्ट्रक्शन साईट के इर्द-गिर्द ही धूल-धूसर में घूमता रहता। ऐसे में पढ़ाई की बात सोचता भी कोई नहीं! यहाँ तो जीवन बचाने की जद्दोजहद ही पहले है। यह हेमराज जैसे लाखों प्रवासी मजदूरों के बच्चों की कहानी है। दिन-भर चोट लगने का खतरा बना रहता सो अलग। कभी काम चौथी मंजिल पर लगता तो कभी उससे भी ऊपर, ऐसे में बच्चे भी आस-पास ही खेलते रहते। कई बार ऐसे मौके भी आये कि बच्चे ऊँचाई से गिरे और उनकी ईहलीला समाप्त हो गई।

ऐसे में ‘एड एट एक्शन’ नाम की संस्था ने भोपाल से पलायन कर शहरों में काम करने आये मजदूरों के बच्चों के साथ काम शुरू किया। सबसे पहले समन्वय केन्द्र लगने शुरू हुए। इन केन्द्रों में मजदूरों के बच्चों को दिन के कुछ घंटे रखे जाने का काम शुरू हुआ। मजदूरों के लिये और उनके बच्चों के लिये यह प्रयोग वरदान साबित हुआ। इस प्रयोग ने बच्चों को सुरक्षित वातावरण देना शुरू किया, साथ ही उनके माँ-बाप भी चिंतामुक्त तरीके से काम करने लगे। यहाँ सवाल यह आया कि बच्चे तो आने शुरू हो गए हैं लेकिन इनके बैठने के लिये व्यवस्था कैसे की जाए! संस्था ने वित्तीय संसाधन के लिये बर्नार्ड वेन लियर फ़ाउंडेशन की मदद ली, वह पर्याप्त तो थी लेकिन संस्था चाह रही थी कि बिल्डर्स की भी इस काम में सहभागिता रहे। इसके लिये उन बिल्डरों से ही संपर्क किया, जिनके यहाँ पर यह मजदूर काम करते हैं। लेकिन जैसा होता है कि बिल्डरों ने मजदूरों के बच्चों की देखभाल की इस परियोजना में रूचि नहीं दिखाई। पूँजीवाद का यह एक बड़ा ही वीभत्स रूप है कि जिनके दम पर यह बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हो जाती हैं, वे ही इसकी छाँव के लिये तरसते हैं।

हालाँकि बिल्डरों के पीछे हटने के भी कुछ खास मायने थे क्योंकि संस्था ने इनके सामने शर्त रखी कि उन्हें कार्यस्थल के पास ही एक कमरा, जिसमें शुद्ध पेयजल, बिजली कनेक्शन और पंखा आदि न्यूनतम सुविधाएँ दी जाएं। बच्चों के लिये पढ़ाने वाली शिक्षिका की तनख्वाह, उसके शिक्षण आदि की व्यवस्था, बच्चों के खेलकूद का सामान व केन्द्र का पर्यवेक्षण व प्रबंधन यह योगदान संस्था ने अपनी तरफ से करने की बात भी रखी। बिल्डर इसके लिये तैयार नहीं हुए। संस्था के क्षेत्रीय निदेशक प्रवीण भोपे कहते हैं कि हम संसाधन तो एकत्र कर सकते थे, लेकिन हमारी मजबूत मान्यता रही है कि बिल्डर और अन्य स्टेकहोल्डर आदि को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। वे कहते हैं कि संस्था ने अपने केन्द्र जारी रखे जिससे दबाव बना। बच्चे भी रोचक तरीके से पढ़ते हुए केन्द्र पर आने की मांग करने लगे तो मजदूरों ने भी अपनी ओर से यह प्रस्ताव बिल्डर्स को दिया।

श्री भोपे कहते हैं कि सबसे पहले एक बिल्डर तैयार हुए और उन्होंने अपने कैम्पस में ही हमारी अपेक्षानुरूप एक बड़ा हॉल तैयार कराया और सारी व्यवस्थाएं की, यहाँ तक कि उन्होंने पेयजल के लिये आरओ लगवाया। इस पहल ने मील के पत्थर का काम किया। इस प्रयोग पर हमारा भरोसा भी बना और साथ ही दूसरे बिल्डर के सामने भी एक उदाहरण आ गया। आज भोपाल में इस संस्था के माध्यम से प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिये 15 केन्द्र संचालित किये जा रहे हैं। इन केन्द्रों में से 2 केंद्र ईंट भट्टों में भी संचालित किये जा रहे हैं।

इन केन्द्रों में 3 से 6 वर्ष की उम्र के लगभग 300 बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं। जब इन बच्चों के लिये केंद्र खुला तो नवजात (दूध पीने वाले) बच्चों की मजदूर माताओं ने भी मांग की, उनके बच्चों के लिये भी केंद्र खोले जाएं। संस्था ने फिर इस तरह के बच्चों के लिये 5 पालनाघरों का संचालन शुरू किया। इन पालनाघरों में भी लगभग 60 बच्चों को लाभ मिलना शुरू हुआ। इन घरों में बच्चों के लिये अलग से एक देखभालकर्ता की व्यवस्था की गई। जब यह केन्द्र बना तो मजदूर माताएँ बेफिक्र होकर काम करने लगीं, और एक निश्चित समय के बाद आकर बच्चों को दूध पिलाकर जाने लगीं। इससे बच्चे भी सुरक्षित और साफ जगह पर थे, साथ ही ठेकेदार का काम भी बेहतर होने लगा।

इन केन्द्रों से 2 तरह की सुविधाएँ बच्चों को दी जानी शुरू हुई। अव्वल तो बच्चों की पढ़ाई, उसके बाद बच्चों को पोषणाहार की व्यवस्था भी कराना शुरू किया। कुछ केन्द्रों पर स्वयं बिल्डर ने पोषण आहार उपलब्ध कराना शुरू किया और कुछ जगहों पर महिला एवं बाल विकास विभाग ने उपलब्ध कराया। श्री भोपे कहते हैं कि प्रवासी मजदूरों के बच्चों के लिये उनके कार्यस्थल पर ही आंगनवाड़ी केन्द्रों के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा और पोषणाहार की व्यवस्था करने का आदेश बहुत पहले से ही है। हमने केवल उस आदेश का परिपालन कराने के लिये सेतु का काम किया है। वे फिर दोहराते हैं कि इस प्रयोग में हमने प्रवासी मजदूरों के संबंध में अलग-अलग विभागों की जवाबदेहिता को समझा और उनकी योजनाओं को परिपालन के स्तर पर धरातल पर लाने की कोशिश की। संस्था ने बच्चों के मनोरंजन के लिये खेल-खिलौने भी रखे।

पलायन, हमारे समय की एक कड़वी सच्चाई है। यह सोचने का विषय है कि एक परिवार कितनी ही मजबूरी में अपना घर-बार, अपने जीविकोपार्जन के साधन, अपने पारम्परिक ताने-बाने को तोड़कर अनजान शहर, जिले, राज्य में आजीविका की तलाश में पहुँचता है। न काम करने की अपनी शर्त, न मजदूरी दर की सुनिश्चितता और यदि परिवार साथ में हो तो रहने के सुरक्षित ठिकाने तलाशना भी एक चुनौती है।

इन केन्द्रों के पर्यवेक्षण का भार संभाल रहे नरेन्द्र कहते हैं कि इन बच्चों के साथ दिन भर काम करने के लिये कार्यकर्ताओं को ढूंढना और उन्हें तैयार करना एक बड़ी चुनौती है। बच्चे तो आते जाते रहते हैं, उनकी भाषा अलग होती है पर उनके साथ तादात्मय बिठा पाना भी कम चुनौती भरा नहीं है। नरेन्द्र कहते हैं कि भोपाल में मध्य प्रदेश के अन्य जिलों के अलावा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा आदि के मजदूर काम करने आते हैं। ये मजदूर अक्सर शीतकाल शुरू होने के बाद आते हैं और फरवरी माह तक वापस जाना शुरू कर देते हैं, लेकिन कुछ मजदूर ऐसे भी हैं जोकि लंबे समय के लिये यहाँ रहते हैं, केवल तीज-त्यौहार में ही यहाँ से जाते हैं। श्री नरेन्द्र कहते हैं कि हमने शुरूआत तो बच्चों के साथ की लेकिन हमने समुदाय को भी बच्चों की स्थिति के संबंध में गतिशील करना शुरू किया। इसके लिये हमने किशोरी समूह, युवा समूह के साथ-साथ दूध पिलाने वाली माताओं का समूह बनाया और उनके साथ बातचीत शुरू की।

बच्चों को 6 वर्ष में पास के ही शासकीय स्कूल में दाखिला कराना भी हमारी एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि है, क्योंकि इससे बच्चे मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं। दाखिले के लिये लगने वाले प्रमाण पत्र यथा आधार कार्ड आदि बनवाने के लिये भी शिविर लगवाए। इसके अलावा समुदाय के लोगों की स्वास्थ्य जाँच, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) व मिसरोद के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र की मदद से कराई जाती है। बच्चों के लिये जाँच कराना अनिवार्य है। इसके अलावा महिला मजदूरों की स्वास्थ्य जाँच, उन्हें आकस्मिक चिकित्सा के लिये 108 की उपलब्धता भी कार्यकर्ता कराती हैं। नरेन्द्र यह भी कहते हैं कि संस्थागत प्रसव को बढ़ावा देने संबंधी भी जागरूक किया जाता है। बच्चों और गर्भवती महिलाओं के टीकाकरण के माध्यम से कुपोषण आदि को भी चिन्हित करने के प्रयास किये जा रहे हैं।

पलायन, हमारे समय की एक कड़वी सच्चाई है। यह सोचने का विषय है कि एक परिवार कितनी ही मजबूरी में अपना घर-बार, अपने जीविकोपार्जन के साधन, अपने पारम्परिक ताने-बाने को तोड़कर अनजान शहर, जिले, राज्य में आजीविका की तलाश में पहुँचता है। न काम करने की अपनी शर्त, न मजदूरी दर की सुनिश्चितता और यदि परिवार साथ में हो तो रहने के सुरक्षित ठिकाने तलाशना भी एक चुनौती है। ऐसे में इस तरह के केन्द्र लू के थपेड़ों के बीच एक शीतल बयार की तरह ही हैं।

यहाँ एक सवाल मौजूद है कि अभी तो ‘एड एट एक्शन’ कुछ केन्द्रों के माध्यम से कुछ सैकड़ा बच्चों तक पहुँच बना रही है लेकिन जरूरत कई हजार बच्चों तक पहुँचने की है और इस प्रयोग से सीखकर भी सरकार के कदम अभी उस ओर बढ़ते तो नहीं दिखाई देते हैं।

हेमराज ने इन्हीं केन्द्र से पढ़ाई की, उसके बाद आज वह मुख्यधारा स्कूल में कक्षा चौथी में पढ़ रहा है तथा वह अपनी कक्षा में अपने विभिन्न तरह के प्रयोगों, जैसे कि इस उम्र में कूलर बनाने, नाव में सेल लगाकर उसे पानी पर चलाने के लिये जाना जाता है। वह कहता है कि यह केन्द्र नहीं होता तो आज मुझ जैसे सैकड़ों बच्चे कभी पढ़ नहीं पाते।

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