पाताल पहुंचा पानी, जंगल बन रहे मैदान

पाताल पहुंचा पानी, जंगल बन रहे मैदान
पाताल पहुंचा पानी, जंगल बन रहे मैदान

जैव विविधता में सभी प्रकार के जीव-जंतु और पेड़-पौधे व वनस्पतियां शामिल हैं। जैव विविधता से ही इंसान सहित समस्त जीवों की भोजन, चारा, कपड़ा, लकड़ी, ईंधन आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। ये रोगरोधी और कीटरोधी फसलों की किस्मों का विकास करती है, जिससे कृषि उत्पादकता अधिक होती है। औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति जैव विविधता से आसानी से हो जाती है, तो वहीं पर्यावरणीय प्रदूषण को नियंत्रित करने में जैव विविधता का अहम योगदान है। इसके अलावा कार्बन अवशोषित करना और मृदा गुणवत्ता में सुधार करने में भी इसका अनुकरणीय योगदान है। एक प्रकार से, ‘जैव विविधता’ जीवों के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता है, जो प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनकी पारितंत्रों की विविधता को भी समाहित करती है। यही जैव विविधता पृथ्वी पर जीवनचक्र को बनाए रखती है।

जैव विविधता किसी भी स्थान पर प्राकृतिक परिवेश को बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है। क्षेत्र की विभिन्नता और पर्यावरण की अलौकिकता का अंदाजा स्थान विशेष की जैव विविधता से आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि जैव विविधता न केवल अनुकूल व समृद्ध वातावरण उपलब्ध कराती है, बल्कि जलस्रोतों का विकास भी होता है, जो भविष्य के लिए विभिन्न आयाम खोलता है। एक प्रकार से जैव विविधता और जल एक दूसरे के पूरक हैं। जैव विविधता पर ही जल निर्भर करता है, लेकिन अब जैव विविधता खतरे में है। जैव विविधता के कम होने से जल संकट खड़ा हो रहा है। इसने उन जीव-जंतुओं के लिए पानी की समस्या खड़ी कर दी है, जो प्रत्यक्ष तौर पर विभिन्न स्रोतों पर निर्भर हैं। कई लोगों का मानना है कि मौसम की अनिश्चितता और तापमान में उतार-चढ़ाव के कारण जलवायु परिवर्तन की घटनाएं हो रही हैं, जिससे जैव विविधता घट रही है, लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण लगातार बढ़ता प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग और वनों का कटान है। इन सभी को बढ़ावा दे रही है तेजी से बढ़ती आबादी और शहरीकरण। आबादी बढ़ने से प्राकृतिक स्रोतों पर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है, लेकिन अनियोजित विकास का ढांचा पहले ही अधिकांश प्राकृतिक जल स्रोतों को सुखा चुका है। 

हमारे वन जैव विविधता का भंडार होते हैं। कई नदियों और प्राकृतिक स्रोतों का जन्म भी जंगल से ही होता है। ये जलस्रोत न केवल इंसानों और जीव-जंतुओं की प्यास बुझाते हैं, बल्कि नदियों की धारा में जान भी फूंकते हैं, लेकिन भारत में वनों की दुर्दशा बड़े संकट की तरफ ले जा रही है। स्टेट आफ इंडियाज इनवायरमेंट इन फिगर्स 2020 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में वर्ष 2015 से 2019 के बीच कुल वन क्षेत्र में 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। हालांकि इसके बावजूद कुछ गंभीर चिंताएं सामने आ रही हैं। दरअसल, वन क्षेत्र में अधिकांश वृद्धि ‘खुला जंगल’ (Open Forest) श्रेणी के वनों में हुई है और इसमें व्यवसायिक पौधारोपण भी शामिल है। यह वृद्धि मध्यम घने जंगल की कीमत पर हुई है। चिंता की बात यह भी है कि वातावरण से अधिकांश कार्बन सोखने वाला बहुत घना जंगल कुल वन क्षेत्र का महज 3.02 प्रतिशत ही है। तो वहीं भारत के 28 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 215 जिलों में वन क्षेत्र कम हुआ है। इन जिलों में भारत का 38 प्रतिशत वन क्षेत्र शामिल है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने वृहद स्तर पर जैव विधिवता को नुकसान पहुंच रहा होगा, जो भविष्य में जल संकट का और बढ़ाएगा। नीचे दिए गए दो चार्ट में भारत में वनों की स्थिति को राज्यवार दर्शाया गया है।

फोटो - State of Indias' environment in figures 2020, CSE

वनों की देश में राज्यवार स्थिति। फोटो - स्टेट आफ इंडियाज इनवायरमेंट 2020

जैव विविधता, वन घटने और प्रदूषण बढ़ने के कारण एक तरफ तो तेजी से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तो वहीं स्रोतों में पानी कम होता जा रहा है। इसका प्रभाव नदियों के प्रवाह पर भी पड़ रहा है। केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार 1984-85 और 2014-15 सिंधु नदी, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गंगा सहित देश की तमाम नदियों में पानी की मात्रा मे कमी आई है। वर्ष 1984-85 और 2014-15 के बीच सिंधु नदी में पानी की मात्रा में 27.78 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) की कमी आई है। जितना पानी सिंधु नदी में कम हुआ है, उतना पानी कावेरी नदी में है। यानि कावेरी में पानी की कुल उपलब्धता 27.78 बिलियन क्यूबिक मीटर है। ब्रह्मपुत्र के जल में 95.56 बीसीएम और गंगा में 15.5 बीसीएम की कमी आई है। पानी कम होेने से प्रति व्यक्ति पानी की उलब्धता ही कम नहीं हुई है, बल्कि नदियों का जलग्रहण क्षेत्र भी कम हुआ है। केंद्रीय जल आयोग के 2017 के आंकड़ों के अनुसार 2004-05 और 2014-15 के बीच, सिंधु के जलग्रहण क्षेत्र में 1 प्रतिशत, गंगा में 2.7 प्रतिशत और ब्रह्मपुत्र के जलग्रहण क्षेत्र में 0.6 प्रतिशत की कमी आई है। प्रति व्यक्ति सतही जल की उपलब्धता भी 1951 में 5,200 घन मीटर थी, जो 2010 में घटकर 1,588 रह गई है।

भारत में आबादी तेजी से बढ़ती जा रही है। आबादी बढ़ने के साथ पानी की मांग भी बढ़ रही है, लेकिन आबादी के बोझ के चलते संसाधन सिमटते जा रहे हैं। भूजल के मामले में सबसे बुरा हाल पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और हरियाणा का है। इन राज्यों में भूजल रिचार्ज की वार्षिक दर भूजल दोहन से कम है। यानी हर साल जितना भूजल यहां रिचार्ज होता है, उससे ज्यादा भूजल का दोहन किया जाता है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में पंजाब ने 149 प्रतिशत भूजल दोहन किया था, जो वर्ष 2017 में बढ़कर 165.77 प्रतिशत हो गया। वहीं, राजस्थान का भूजल दोहन वर्ष 2013 के 140 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2017 में 139.88 प्रतिशत, हरियाणा का वर्ष 2013 के 135 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2017 में 136.91 प्रतिशत और दिल्ली का भूजल दोहन वर्ष 2013 के 127 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2017 में 119.61 प्रतिशत हो गया था। 

आंकड़ों के अनुसार हर साल भूजल की मात्रा घटती जा रही है, जबकि दोहन बढ़ रहा है। वर्ष 2004 में वार्षिक भूजल उपलब्धता 399.25 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) थी, लेकिन भूजल दोहन 58 प्रतिशत (230.62 बीएसएम) किया गया, जबकि वर्ष 2009 में भूजल उपलब्धता घटकर 396.06 बीसीएम हो गई और भूजल दोहन 61 प्रतिशत (243.32 बीसीएम) किया गया। 2011 में भूजल उपलब्धता बढ़कर 398.16 बीसीएम हो गई और दोहन 62 प्रतिशत (245.05 बीसीएम) किया गया। भूजल उपलब्धता में 2013 में काफी इजाफा देखा गया है। इस वर्ष भूजल उपलब्धता 411.3 बीसीएम थी, तो वहीं भूजल दोहन का प्रतिशत 62 प्रतिशत ही रहा, किंतु दोहन की मात्रा 253.06 बीसीएम हो गई। 2017 में भूजल उपलब्धता घटकर 392.70 बीसीएम हो गई, लेकिन दोहन 62.33 प्रतिशत (248.69 बीसीएम) किया गया। वर्ष 2004 में भूजल दोहन 58 प्रतिशत था, लेकिन 2017 में हमने कुल उपलब्ध भूजल का 63 प्रतिशत जमीन की कोख से खींचकर निकाल लिया। इसका नतीजा हम देशभर में गहराते जल संकट के रूप में देख रहे हैं, जिससे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे हिमालयी राज्य भी प्रभावित हैं।

घटते घने जंगल, बढ़ते जल संकट और जलवायु परिवर्तन के कारण मरुस्थलीकरण तेजी से बढ़ रहा है। भूमि बंजर होती जा रही है। काॅप-14 में ही बताया गया था कि भारत की 30 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुकी है, जबकि वर्ष 2003 से वर्ष 2013 के भारत का मरुस्थलीकरण क्षेत्र 18.7 लाख हेक्टेयर बढ़ा है। जिसमें से 82 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना राज्यों का है। भारत में सूखा प्रभावित 78 जिलों में से 21 जिलों की 50 प्रतिशत से अधिक जमीन मरुस्थल में बदल चुकी है, लेकिन देश में बंजर होती भूमि के मामले में झारखंड की स्थिति भयावह है। ऐसे में हमें देश में जैव विविधता का गंभीरता से संरक्षण करते हुए घने वन क्षेत्र को बढ़ाना होगा। सरकार को भी इसके प्रति गंभीर होने की जरूरत है। इसके लिए सतत विकास का माॅडल अपनाना बेहद जरूरी है। अन्यथा, जल संकट भारत को गंभीर समस्या में डाल देगा और वनों के घटने से विशाल आबादी के लिए संसाधन जुटाना मुश्किल हो जाएगा।


हिमांशु भट्ट (8057170025)

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Post By: Shivendra
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