पारे की चपेट में सोनभद्र

पूरे देश में रोशनी के लिए विद्युत ऊर्जा का उत्पादन करने वाला ऊर्जांचल के नाम से मशहूर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले का भविष्य मौत के अंधेर में डूब रहा है। यहां के लोग गंभीर बीमारियों के घेरे में हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) ने अपने अध्ययन में सोनभद्र के पानी, मिट्टी, अनाज और मछलियों के साथ-साथ यहां के रहवासियों के खून, नाखून और बाल के नमूने लेकर पर्यावरण और स्थानीय लोगों के शरीर में पारे की अत्यधिक मात्रा होने का दावा किया है। अगर सरकार ने सोनभद्र जिले की समस्या को अनदेखी किया तो जापान के मिनमाटा शहर में पारे से होने वाले घटना की पुनरावृत्ति सोनभद्र में होने से कोई नहीं रोक पाएगा, बता रहे हैं डॉ. पुनीत अग्रवाल।

यदि इंसान के शरीर में पारे की मात्रा बढ़ जाए तो वह मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है और कई केसेज में इंसान आत्महत्या कर लेता है। सोनभद्र में हाल फिलहाल में आत्महत्या के मामलों में वृद्धि देखी गई है। सीएसई के अनुसंधानकर्ताओं ने सोनभद्र के निवासियों में चर्म रोग अथवा चमड़ी का रंग बदलना, बुखार, श्वसन संबंधी विकार, जोड़ों और पेट में दर्द दृष्टि क्षीणता, पैरों में जलन एवं वाणी विकार जैसी बीमारियां अत्यधिक संख्या में पाई। ये सभी पारे के संपर्क में आने के लक्षण हैं। जापान के कुमामोटो राज्य के मिनमाटा को भारत के लिहाज से देखें तो कायदे से शहर भी नहीं कहा जा सकता। आज भी इस शहर की आबादी छब्बीस हजार से ज्यादा नहीं है। लेकिन 1956 में इस शहर में ऐसा कुछ हुआ कि जापान के नक्शे का यह छोटा सा कस्बा दुनिया के लिए दर्द भरा संदर्भ बन गया। 1956 में यहां की एक रसायन फैक्टरी में पारे के रिसाव के कारण बड़ी संख्या में लोग बीमार हुए थे। 2007 तक के आंकड़े हैं कि पारे के कारण होने वाले मिनमाटा रोग की चपेट में आने वालों की संख्या 2668 चिन्हित की गई थी। आज का मिनमाटा अपने अतीत से उबरकर जापान का सबसे पर्यावरण अनुकूल शहर का दर्जा पा चुका है लेकिन भारत में एक शहर ऐसा है जो मिनमाटा बनकर तिल तिल मर रहा है।

चिराग तले अंधेरा की कहावत को सही साबित करती सेटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की ताजा रिपोर्ट बताती है कि पूरे देश में रोशनी के लिए विद्युत ऊर्जा का उत्पादन करने वाला ऊर्जांचल के नाम से मशहूर जिला सोनभद्र का भविष्य मौत के अंधेरे में डूब रहा है। यहां के लोग गंभीर बीमारियों के खतरे पर बैठे हैं। यह सनसनीखेज किंतु तथ्यपूर्ण खुलासा किया सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की डायरेक्टर सुनीता नारायण ने। कोल्ड ड्रिंक में कीट नाशकों की अधिक मात्रा होने का खुलासा करके सुखिर्यों में आये सेंटर फॉर साइंस एण्ड एन्वायरमेंट ने अपने अध्ययन में उत्तर प्रदेश के जिला सोनभद्र के पर्यावरण और स्थानीय बाशिन्दों के शरीर में पारे की अत्यधिक मात्रा मौजूद होने का दावा किया है।

सोनभद्र जिला जो कि पूरे देश में थर्मल पॉवर जनरेशन में 12 प्रतिशत और कोयले के उत्पादन में 17 प्रतिशत का योगदान देता है लेकिन इस योगदान के बदले इस जिले के निवासियों को मौत की सौगात दी जा रही है। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने यह रिपोर्ट जारी करते हुए बताया कि सोनभद्र जिले में सीएसई की टीम ने इलाके के पानी, मिट्टी, अनाज और मछलियों के साथ-साथ यहां के निवासियों के खून, नाखून और बाल के नमूने लेकर अध्ययन किया है। सुनीता नारायण और सीएसई के उप महानिदेशक चंद्रभूषण ने बताया कि इस अध्ययन में जो बात सामने निकल कर आई है वह इस इलाके के लोगों के लिए खतरनाक भविष्य की तरफ इशारा कर रही है। इस इलाके के लोगों के शरीर में मानक स्तर से पारे की मात्रा 6 गुना अधिक तक पाई गई है। उन्होंने सोनभद्र की तुलना जापान के मिनामाटा शहर से की जहां 1956 में पारे से फैले जहर के चलते सैकड़ों की संख्या में लोग काल के गाल में समा गए। सुनीत नारायण ने कहा कि अगर सरकार ने अब अनदेखी की तो मिनमाटा की पुनरावृत्ति सोनभद्र में होने से कोई नहीं रोक पाएगा। सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने यहां इस अध्ययन को जारी करते हुए बताया कि सोनभद्र जिले का सिंगरौली क्षेत्र संसाधनों से पूरित है और यहां वृहद कोल भंडार और अधिसंख्य विद्युत संयंत्र होने के कारण यह क्षेत्र देश का औद्योगिक विद्युत गृह है। इस हिसाब से इस क्षेत्र के लोगों को समृद्ध, संपन्न और खुशहाल होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। हमारा अध्ययन यहां की गरीबी, प्रदूषण, पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी, विभागीय उदासीनता और बीमारियों की कहानी बयां करता है।

उन्होंने बताया कि गोविंद वल्लभ पंत जलाशय का पानी भी पारे के कारण विषाक्त हो चुका है। क्षेत्र की मछलियों मंष मिथाइल मरकरी की विषाक्तता पायी गयी है। सीएसई के उपमहानिदेशक तथा निगरानी प्रयोगशाला के हेड चंद्रभूषण ने इस मौके पर सोनभद्र में पारे से उत्पन्न खतरे से निपटने के लिये राज्य सरकार को एक कार्ययोजना बनाने का सुझाव देते हुए कहा कि सरकार को क्षेत्र में एक संचयी प्रभाव आकलन करना चाहिये। उन्होंने सोनभद्र के विद्युत संयंत्रों, कोयला खदानों और कोयला प्रक्षालन इकाइयों के लिये स्थापित मानकों को बेहतर बनाने की मांग भी की और कहा कि इन मानकों का पालन नहीं करने वाले संस्थानों को तब तक बंद कर देना चाहिये जब तक वे इन मानकों पर अमल नहीं करते। इलाके में बढ़ता प्रदूषण लोगों को बीमार कर रहा है इसके कई अध्ययन और संकेत भी मौजूद हैं एक अध्ययन के मुताबिक सोनभद्र-सिंगरौली इलाके में हवा, पानी और मिट्टी ही नहीं बल्कि यहां रहने वालों के खून के नमूनों में भी पारा यानि मर्करी पाया गया है।

चंद्रभूषण ने कहा कि दो वर्ष पूर्व सोनभद्र को बेहद प्रदूषित क्षेत्र घोषित किया गया था। यह आज भी वैसा ही बना हुआ है। एक कार्ययोजना के तहत जिले में नई परियोजनाओं की स्थापना पर से स्थगन हटा लिया गया, जिसने भी पारे को समस्या के रूप में नहीं पहचाना। सीएसई ने विद्युत संयंत्रों, कोयला खदानों और कोल वाशरीज के पारा मानकों को विकसित करने की मांग करता है। इसके लिए आवश्यक है कि गैर अनुपालन औद्योगिक संस्थान तब तक के लिए बंद कर दिए जाएं, जब तक कि वे मानदंडों को पूरा नहीं करते। सोनभद्र में सभी लोगों को उपचारित जल की आपूर्ति प्रदूषण फैलाने वाले औद्योगिक संस्थानों के खर्चे पर करना सुनिश्चित किया जाए। क्षेत्र का परिशोधन कंपनी के खर्चे पर किया जाना चाहिए। जैसे कि आदित्य बिरला केमिकल्स लिमिटेड का अपशिष्ट जहां से बहता है, उस क्षेत्र का परिशोधन उसी कंपनी के खर्चे पर किया जाए। सुनीता नारायण ने कहा कि सरकार को पारा प्रदूषण की समस्या की गंभीरता को न सिर्फ पहचानना बल्कि स्वीकार भी करना चाहिए। साथ ही इसके निराकरण के लिए उचित और पर्याप्त कदम उठाने चाहिए। चुप्पी की साजिश का अंत अवश्य होना चाहिए।

पारे का इंसानों पर असर


यदि इंसान के शरीर में पारे की मात्रा बढ़ जाए तो वह मानसिक संतुलन बिगाड़ देता है और कई केसेज में इंसान आत्महत्या कर लेता है। सोनभद्र में हाल फिलहाल में आत्महत्या के मामलों में वृद्धि देखी गई है। सोनभद्र जिले के विह्ंडमगंज इलाके में मानसिक रूप से बीमार और कमजोर लोगों की संख्या में इजाफा हुआ है। सीएसई के अनुसंधानकर्ताओं ने सोनभद्र के निवासियों में चर्म रोग अथवा चमड़ी का रंग बदलना, बुखार, श्वसन संबंधी विकार, जोड़ों और पेट में दर्द दृष्टि क्षीणता, पैरों में जलन एवं वाणी विकार जैसी बीमारियां अत्यधिक संख्या में पाई। ये सभी पारे के संपर्क में आने के लक्षण हैं।

सरकार ने दबा दी रिपोर्ट


सीएसई के इस अध्ययन से पहले वर्ष 1998 में भारतीय विषाक्तता अनुसंधान संस्थान (आईआईटीआर) लखनऊ ने सिंगरौली क्षेत्र में पर्यावरणीय महामारी का अध्ययन किया था। जिसमें 1200 से अधिक लोगों की जांच की गई। इनमें से 66 प्रतिशत लोगों के रक्त में 5 पीपीबी से अधिक मात्रा में पारा पाया गया। इस अध्ययन में क्षेत्र की सब्जियों, पेयजल और मछलियों का भी परीक्षण किया गया। 23 प्रतिशत सब्जियों में पारा का स्तर स्वीकृत मात्रा से कहीं अधिक था, जबकि 15 प्रतिशत पेयजल में पारे का स्तर स्वीकृत मात्रा 1 पीपीबी से अधिक पाया गया। मछलियों में पारे का स्तर औसत से काफी अधिक था। अध्ययन के अनुसार, यहां की महिलाएं सिरदर्द, अनियमित मासिक धर्म, बांझपन, सुन्नता, मृत प्रसव और पैरों में झुनझुनी से पीड़ित हैं। कहीं कहीं त्वचा पर अत्यधिक धब्बे, रक्ताल्पता और उच्च रक्तचाप के मामले भी पाए गए। आईआईटीआर का यह अध्ययन कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। अब सीएसई के अध्ययन ने क्षेत्र में पाया गया कि पिछले 14 वर्षों में पारे का स्तर अपेक्षाकृत अधिक हो चुका है। सूत्रों के मुताबिक आईआईटीआर ने यह अध्ययन एनटीपीसी के लिए बतौर कंसल्टेंट की थी और इसकी आड़ लेकर इस रिपोर्ट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। यह बात सामने तब आई जब अध्ययन करने वाली टीम के एक वैज्ञानिक ने सेवानिवृत्त होने के बाद अपना रिसर्च पेपर प्रकाशित किया।

भयावह भविष्य की ओर इशारा करते नतीजे


1.84 प्रतिशत रक्त के नमूनों में पारा अत्यधिक मात्रा में पाया गया जो कि औसत सुरक्षित पारा स्तर से छह गुना ज्यादा है। पारे की सर्वाधिक मात्रा 113.48 पीपीबी पाई गई जोकि सुरक्षित स्तर से 20 गुना ज्यादा है। यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी के मानक के अनुसार पारे का सुरक्षित स्तर 5.8 पीपीबी है। बाल के नमूनों में से 58 प्रतिशत में पारा पाया गया जिसका औसत स्तर 7.39 पीपीएम था। हेल्थ कनाडा के अनुसार, बाल में पारे की 6 पीपीएम मौजूदगी सुरक्षित माना जाता है। वहीं, 6-30 पीपीएम की मौजूदगी बढ़ते खतरे की श्रेणी को इंगित करता है। अध्ययन के दौरान बाल में पारे की सर्वाधिक मात्रा 31.3 पीपीएम पाया गया, जो कि सुरक्षित स्तर से पांच गुना ज्यादा है। अध्ययन में नाखूनों में भी पारे की मौजूदगी पाई गई।

पारे की मौजूदगी ने सोनभद्र के भूजल को भी विषाक्त कर दिया है। पारे की सर्वाधिक सांद्रता दिबुलगंज के हैंडपंप से लिए गए नमूने में पाई गई जो कि 0.026 पीपीएम थी। यह भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा स्थापित मानक 0.001 पीपीएम से 26 गुना ज्यादा है। गोविंद वल्लभ पंत जलाशय भी पारे से विषाक्त हो चुका है। आदित्य बिरला लिमिटेड की कास्टिक सोडा उत्पादन इकाई का अपशिष्ट डोंगिया नाला में गिरता है, वहां पारे का स्तर 0.01 पीपीएम पाया गया। क्षेत्र की मछलियों में मिथाइल मरकरी की विषाक्तता पाई गई। डोंगिया नाला के निकट की मछलियों में मिथाइल मरकरी का स्तर 0.447 पीपीएम पाया गया जो कि भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण द्वारा निर्धारित मानक से दोगुना ज्यादा है।

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