पानीदार लोग

पानी बचाने का संकल्प भी कैसा है। जैसे खराब परीक्षा परिणाम के बाद अगले सत्र के पहले दिन से हाड़तोड़ पढ़ाई का संकल्प..जैसे बीमारी के बाद संयमित जीवन का संकल्प..दफ्तर में समय पर आने का संकल्प..नशे की लत को छोड़ देने का संकल्प..

जल संकट के दिनों में हर कोई सोचता है कि अब पानी की बर्बादी न होने देंगे। चिंता ऐसी दिखाई जाती है कि जैसे इस बार बारिश की बूँद-बूँद सहेज ली जाएगी। लेकिन गर्मियाँ जाते ही पानी बचाने का संकल्प भी हवा हो जाता है। सहज पानी मिलता है तो संकट के दिनों को बिसरा कर इंसान पानी का दुरुपयोग शुरु कर देता है।

संकल्प की इस कमजोरी के बीच दृढ़ इरादों के धनी भी मौजूद हैं। राजस्थान के भादरा रेलवे स्टेशन पर बाल्टी लेकर यात्रियों को पानी पिला रहे नन्दलाल सिंह राठौड़ हों या एक खुरपी से तालाब खोद लेने का हौसला रखने वाले बिहार के कमलेश्वरी सिंह, समाज में पानीदार लोगों की कमी नहीं है जो अपने संकल्प को निभा लेने की अनूठी मिसाल हैं। श्री राठौड़ बीते 60 सालों से रेलवे स्टेशन पर पानी पिला कर यात्रियों की प्यास बुझा रहे हैं तो कमलेश्वरी सिंह ने बुढ़ापे में सात सालों तक अकेले खुरपी के सहारे तालाब खोद दिया। इटारसी के पास तारमखेड़ा में आदिवासियों ने बहते पानी को रोक कर अपने लिए जलस्रोत तैयार कर लिया। ये गाथाएँ इतिहास के पन्नों से नहीं ली गई हैं, बल्कि ये हमारे आस-पास के लोगों के शौर्य का वृत्तांत है। खामोशी से काम कर रहे ये पानीदार लोग असल में उस संकल्प को जी रहे हैं जिसे हम समस्या से मुक्त होते ही भुला देते हैं।

खुरपी से खोदा तालाब


बूँद-बूँद से सागर कैसे भरता है इसकी मिसाल बिहार के माणिकपुर गाँव में देखी जा सकती है। पटना से करीब सौ किलोमीटर दूर इस गाँव के कमलेश्वरी सिंह ने सात साल तक अकेले ही खुरपी और बाल्टी की मदद से 60 फीट लंबा-चौड़ा और 25 फीट गहरा तालाब खोद डाला। 63 साल के कमलेश्वरी की तुलना दशरथ मांझी से होने लगी है जिन्होंने अकेले ही पहाड़ काटकर सड़क बनाने का असाधारण कारनामा कर दिखाया था।

कमलेश्वरी की उपलब्धि कई मायनों में असाधारण है। तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गाँव हंसता था। 15 साल पहले उनके पास 12 बीघा जमीन हुआ करती थी। लेकिन गैंगवार में उनके बड़े बेटे की हत्या कर दी गई और उसके बाद कमलेश्वरी कानूनी लड़ाई के जाल में कुछ ऐसा उलझे कि इसका खर्च उठाने के लिए उन्हें सात बीघा जमीन बेचनी पड़ी। अदालतों के चक्कर से उकताए कमलेश्वरी ने एक दिन अचानक फैसला किया कि केस रफादफा कर किसी रचनात्मक चीज पर ध्यान लगाया जाए। क्या करना है ये सोचने में देर नहीं लगी और 1996 की गर्मियों में कमलेश्वरी ने घर के पास अपने खेत में तालाब के लिए खुदाई शुरू कर दी। खुदाई के लिए उन्होंने खुरपी इसलिए चुनी क्योंकि फावड़ा भारी होने के कारण उससे काम करना मुश्किल था। खुरपी से मिट्टी खोदी जाती और बाल्टी में बरकर उसे फेंका जाता सुबह छह बजे से शाम के सात बजे तक काम चलता रहता था।

सात साल की मेहनत के बाद आखिरकार तालाब तैयार हो ही गया। आज गर्मियों में भी तालाब में इतना पानी रहता है कि गाँव को नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के लिए पानी का इंतजाम करने की चिंता नहीं होती।

60 सालों से जलसेवा


‘जल पी लो, जल पी लो’ की मनुहार राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के भादरा रेलवे स्टेशन पर हर गाड़ी के आने पर सुनाई देती है। तापती दोपहरी में लू भरे थपेड़े हों या हाड़ कंपा देने वाली सर्दी या फिर बारिश। स्काउट की वेशभूषा में बाल्टी लिए एक बुजुर्ग यहाँ हर मौसम में नजर आ जाएंगे। पड़ोसी गाँव सिकरोड़ी के 83 वर्षीय पूर्व जिला स्काउट मास्टर नन्दलाल सिंह राठौड़ यह जल सेवा पिछले 60 वर्षों से करते आ रहे हैं। उन्होंने कस्बे में सैकड़ों पौधों को पनपाया है। 1957 में सरकारी शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए नंदलालजी के जीवन में जल सेवा प्रारम्भ होने के पीछे की कहानी भी दिलचस्प है। वे बताते हैं वर्ष 1951 में श्रीगंगानगर से वे स्काउटिंग का प्रशिक्षण लेकर लौट रहे थे। स्टेशन पर खाना खाकर जल्दबाजी में गाड़ी पर चढ़े तो पानी भूल गए। अगले छह-सात स्टेशनों पर कहीं भी पानी नहीं मिला। प्यास से बुरा हाल हो गया। उन्होंने उसी दिन प्रण लिया कि जब तक वे स्वस्थ्य और जीवित रहेंगे, भादरा स्टेशन से किसी यात्री को प्यासा नहीं गुजरने देंगे।

शिक्षण कार्य और जल सेवा का जज्बा उनके लिए घरेलू जिम्मेदारियों से कम महत्व का नहीं रहा। इसका अनुपम उदाहरण देखने को मिला उनकी बेटी की शादी के दौरान 22 फरवरी 1979 की शाम को उनकी पुत्री मोहन कंवर की बारात पहुंचने वाली थी। तभी शाम 7 बजे स्टेशन पर ट्रेन पहुंचने का समय भी हो गया। नन्दलाल सिंह तो बेटी की शादी छोड़कर मानव सेवा के निर्वहन के लिए चल पड़े। उनके छोटे भाई नारायण सिंह ने बारात आने की बात कह कर उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन वे यह कर चले गए कि बारात तो कुछ समय इन्तजार कर सकती है लेकिन ट्रेन तो नहीं रुकेगी।

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