परंपरा से मिला रास्ता
जब कोई व्यक्ति अथवा समुदाय समाज के भले के लिए काम करता है तो भगवान भी उसकी मदद करता है। इसीलिए तो अगले ही वर्ष ‘मोरे वाले ताल’ ने अपने जलागम क्षेत्र से बहकर आई हुई बरसात की हर एक बूंद को अपने आगार में रोक लिया। एक साथ इतना सारा पानी देखकर लोग हर्षातिरेक से आनंद-विभोर हो उठे। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोच कर चिंतित भी हो गए कि इतना बड़ा ताल है, कहीं टूट गया तो…? सब ने मिल कर चिंतन किया, और अंततः समाधान भी खोज लिया। बस! फिर क्या था? सभी स्त्री-पुरुष व बच्चे अपना-अपना फावड़ा-परात लेकर पाल की सुरक्षा के लिए तैनात रहने लगे। डांग में पानी कैसे आया? ‘महेश्वरा नदी’ का पुनर्जन्म कैसे हुआ? डांग के लोगों के चेहरे पर रौनक कैसे आई? यह सब जानने के लिए हमें थोड़ा इस काम की पृष्ठभूमि में जाना होगा। पानी के काम का प्रारम्भ तरुण भारत संघ ने सर्वप्रथम वर्ष 1985-86 ई. में अलवर जिले की तहसील थानागाजी के गांव गोपालपुरा से शुरू किया था और सुखद आश्चर्य की बात है कि पानी को संरक्षित करने की प्रेरणा भी हमें गोपालपुरा गांव के ही एक अनुभवी बुजुर्ग मांगू पटेल से ही मिली थी। मांगू पटेल की प्रेरणा से, सबसे पहले इस गांव में चबूतरे वाली जोहड़ी का काम शुरू हुआ था। इसके बाद तो तरुण भारत संघ व स्थानीय लोगों के सहयोग से इस गांव में भी और आसपास के अन्य गाँवों में भी पानी का काम-जोहड़, बांध, मेड़बंदियों व टांकों आदि के रूप में जगह-जगह फैलता ही चला गया।
इसी दौरान नब्बे के दशक के प्रारंभ में सवाई माधोपुर जिले की बामनवास तहसील के कोचर (अमावरा) गांव का सरपंच रामचंद्र पोसवाल अपने जाति-भाई, बलुवास (अलवर) गांव के मुरली गुर्जर को साथ लेकर, तरुण भारत संघ कार्यालय में मेरे पास आया। उसने शायद कहीं से सुन लिया होगा कि तरुण भारत संघ पानी के काम में लोगों की मदद करता है। उसने मुझसे अपने क्षेत्र (कोचर की डांग) में पानी के काम हेतु मदद करने के लिए आग्रह किया। मैंने कहा कि हम तो सहयोग में तुम्हारे साथ हैं, पर तुम अपनी तैयारी बताओ। उसने पलट कर नेताओं का-सा जवाब दिया कि काम तो मैं ही सारा करवा दूंगा, आप तो अपने हिस्से का पैसा हमें दे दो। मैंने उसमे समझाया कि हम लोग पैसा देने वाले नहीं हैं; हम तो लोगों से सीधी बातचीत कर के उन से ही सारा काम करवाते हैं। संस्था की तरफ से तो हम जो कुछ थोड़ी बहुत मदद बन पाती है, वही करते हैं।
पूरी बात समझ कर अंत में उसने सहमत होते हुए कहा कि ठीक है, आप जैसे भी करेंगे, हम गांव की तरफ से आवश्यक सहयोग करने के लिए तैयार हैं। मैंने तुरंत संस्था के अनुभवी कार्यकर्ता पं. श्रवण शर्मा को उसके साथ वस्तु स्थिति की जानकारी लेने हेतु भेज दिया। 8-9 दिन के भ्रमण के बाद वापस आकर श्रवण शर्मा ने मुझे बताया कि पहाड़ी के ऊपर बसे कोचर गांव तथा कोचर की डांग के अन्य सभी गांव; बरसात के कुछ दिनों बाद, जब जोहड़ों में पानी सूख जाता है, तब नीचे के गाँवों में शरण लेने के लिए चले जाते हैं। केवल वर्षा के दिनों में ही वे ऊपर के गाँवों में रहते हैं अथवा जीवट वाले कुछ लोग दो-तीन किलोमीटर नीचे के गाँवों से ऊपर पहाड़ पर पीने ले जा कर भी किसी तरह से जीवनयापन कर लेते हैं।
कोचर की डांग मं पानी का काम
कुछ समय बाद पहली ही बरसात में मैं श्रवण शर्मा को साथ लेकर कोचर की डांग के सातोलाई गांव में पहुंच गया। 7-8 दिन के भ्रमण व लोगों के सम्पर्क के बाद मैंने वहां पर लोगों के सहयोग से पानी का काम करने का निश्चय कर लिया और श्रवण शर्मा को काम शुरू करवाने के लिए कह कर वापस आ गया। श्रवण शर्मा ने लोगों से सम्पर्क साध कर लोगों के सहयोग से कोचर की डांग में तथा नीचे के गाँवों में काफी-सारे काम करवा दिए। इन सब कामों में अमावरा गांव के श्रवण गुर्जर और मूलचंद गुर्जर का विशेष सहयोग रहा।
मूलचंद गुर्जर तो श्रवण शर्मा के साथ पैदल चल कर कोचर की डांग में पहाड़ के ऊपर भी टांके व जोहड़-बांधों की तैयारी के लिए जाते थे। इन सब के संयुक्त प्रयास से ही इस क्षेत्र में पानी के इतने सारे अच्छे काम हो सके; जिनसे डांग क्षेत्र में पीने का पानी उपलब्ध हुआ और नीचे के गांव में तो पीने के पानी के अलावा कुओं का जलस्तर भी ऊपर आया। फलस्वरूप फसल की पैदावर अच्छी होने लगी।
जिस काम को श्रवण शर्मा ने शुरू किया, उसे आगे बढ़ाने का काम किया चमन सिंह ने। चमन सिंह ने अमावरा के मूलचंद गुर्जर के बेटे कर्ण सिंह गुर्जर के साथ लेकर पानी के काम को और अधिक विस्तार दिया। इस प्रकार सवाई माधोपुर जिले के एक विस्तृत क्षेत्र में पानी के काम की मुहिम फैलती ही चली गई।
सपोटरा की डांग में काम की शुरुआत
उन दिनों वर्तमान करौली जिला भी सवाई माधोपुर जिले में ही आता था। बाद में 19 जुलाई 1997 को राजस्थान सरकार द्वारा करौली को एक स्वतंत्र जिले का दर्जा दे दिया गया। करौली जिले में पूर्व रियासत करौली के साथ पूर्व रियासत जयपुर की गंगापुर निजामत के कुछ गांव तथा हिंडोन निजामत को भी मिला लिया गया। वर्तमान करौली जिले की सपोटरा तहसील का अधिकांश भाग डांग क्षेत्र में आता है। डांग क्षेत्र में वर्ष 1999 से पूर्व पानी के कामों की शुरूआत नहीं हुई थी। तब तक वहां पर संस्था के किसी कार्यकर्ता का आना-जाना भी ज्यादा नहीं हुआ था। इस क्षेत्र को ‘हथियारबंद’ लोगों का क्षेत्र माना जाता था, इसलिए बाहर के लोग वहां जाने से प्रायः बचते ही थे।
संयोग से उन्हीं दिनों अलवर जिले के भांवता गांव का एक नौजवान छोटेलाल गुर्जर, रोजगार की तलाश में इस क्षेत्र में पहुंच गया था। उसने वहां पहले तो कुछ मेहनत-मजदूरी की, फिर सपोटरा के डांग क्षेत्र में बच्चों को पढ़ाने का काम करने लगा। पर किसी कारणवश कुछ समय बाद ही वह अपने गांव वापस लौट आया। उसने डांग क्षेत्र में पानी की कमी के कारण हो रहे पलायन व लोगों की पीड़ा को अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा था। अतः गांव में लौटकर आने के बाद भी उसके जेहन से डांग का दर्द और तकलीफ पूरी तरह से निकले नहीं थे। वह एक संवेदनशील व विचारवान व्यक्ति था। उसने अपने मन में डांग वासियों की समस्याओं को सुलझाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।
छोटेलाल का सम्पर्क तरुण भारत संघ से पहले से ही था। उसने यहां आकर मुझे, डांग का दर्द व वहां की परिस्थितियों का बयान किया। मैंने उसकी बात सुनकर उसके साथ गोवर्धन शर्मा व अमावरा के एक नौजवान कर्ण सिंह को पानी के काम हेतु सपोटरा की डांग में भेज दिया। इनका शुरुआती ठिकाना ‘कुर का मठ’ ‘मोरोची’ और ‘हटियाकी’ गांव बने। कुर का मठ के राधे पुरी जी महाराज ने प्रारम्भ में कर्ण सिंह व अन्य साथियों की काफी मदद की। कुर का मठ के पास रहने वाले प्रभु गुर्जर ने भी उनको शरण दी। लेकिन असलियत में काम की शुरूआत करवाने वाले तो हटियाकी गांव के कमल ‘भगत जी’ थे। संयोग से एक बार कमल भगत जी को ये तीनों साथी कैला देवी से करणपुर जाने वाले रोड पर मिल गए। परिचय के पश्चात् भगत जी ने उनको अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया। बाद में तीनों साथी भगत जी के घर गए और उन्हें विस्तार से संस्था के उद्देश्य समझाए। बात समझ में आई भगत जी ने अपने गांव में पानी का काम शुरू कर दिया। ‘भगत जी’ ने अपने गांव में पानी के भी काम किए और बच्चों के लिए संस्था की मदद से स्कूल का भवन भी बनवाया; जिससे बालक-बालिकाओं को अपने ही गांव में शिक्षा मिलने लगी।
कुछ दिनों बाद श्रवण शर्मा और जगदीश गुर्जर भी इस क्षेत्र में जन-संगठन व जल-संरक्षण के काम हेतु चले गए। इनके बाद तो रामसिंह, छाजूराम, मांगेलाल, समय सिंह, हरभजन, राधाकिशन व जगदीश सिंह आदि कार्यकर्ता भी यहां पर आकर पानी के काम में जी-जान से जुट गए। गांव के लोगों के सहयोग से इस क्षेत्र में पानी का काम होता रहा। पानी का काम अच्छा काम था, इसलिए लोग भी पानी के काम से खुश थे। लेकिन कुछ लोगों के दिमाग के किसी कोने में एक शंका भरा प्रश्न भी था, कि संस्था यह काम किसी स्वार्थ से तो नहीं कर रही है? क्या आज के जमाने में निस्वार्थ भाव से काम करने वाला कोई है? जवाब किसी के पास भी नहीं था। सामान्य किसान इन सब शंकाओं से परे पानी के काम में लगे रहे, लेकिन शंकालु लोगों की शंकाओं के कारण काम में शिथिलता आती जा रही थी। संयोग से इसी दौरान जयपुर जिले के नीमी गांव के लोगों ने अपने गांव में किए जा रहे एक विशाल जल-सम्मेलन में खिजूरा के लोगों को भी आमंत्रित किया। इस सम्मेलन ने उनकी समस्त शंकाओं को दूर करते हुए, उन्हें प्रेरणा की एक नई दिशा प्रदान कर दी।
‘नीमी’ बना प्रेरणा-स्रोत
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001 में डांग क्षेत्र के 50-55 लोगों को तरुण भारत संघ द्वारा आयोजित ‘नीमी’ गांव (जिला-जयपुर) के एक विशाल जल- सम्मेलन में जाने का मौका मिल गया। नीमी जाने वालों में डांग क्षेत्र के वीरमकी गांव का अंगद गुर्जर व खिजूरा गांव का कल्याण गुर्जर भी शामिल थे। सम्मेलन में हुई बातचीत से उन्हें विश्वास हो गया था कि संस्था का काम पूर्ण पारदर्शिता और ईमानदारी से होता है। इसलिए सम्मेलन में उन्होंने एक बात अपने पल्ले गांठ बांध ली कि अब हमें भी अपने गांव में जाकर लोगों के मन में बैठी भ्रांतियों को दूर करना चाहिए और संगठित होकर मेहनत व ईमानदारी से पानी के काम में जुट जाना चाहिए। अपने गांव खजूरा में जा कर कल्याण गुर्जर ने जब गांव के लोगों को सम्मेलन में देखी-सुनी बातों की कहानी सुनाई तो एक बारगी लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ; पर उन्होंने जब नीमी जा कर आने वाले अन्य लोगों से भी वही बात सुनी, तो उन्हें विश्वास हो गया। फिर तो वे बारिश के पानी को बचाने के काम में मेहनत, लगन और ईमानदारी से पूरी तरह से जुट गए।
अगले दो वर्ष तरुण भारत संघ ने समुदाय के साथ मिल कर सपोटरा के डांग क्षेत्र के लगभग 30-35 गाँवों में पानी का काम किया। इनमें से 10-11 गाँवों में तो बहुत ही सघन काम हुआ, जिनमें महेश्वरा क्षेत्र के खिजूरा, वीरमकी, बंधन का पुरा, दयारामपुरा और रायबेली आदि गांव तो बदलाव के प्रतीक ही बन गए। आरम्भ में लोगों की हिस्सेदारी कम से कम एक-चौथाई थी, जो आगे चलकर उनके उत्साह और लगन के कारण बढ़ कर बराबर के हिस्से तक हो गई।
‘मोरेवाला ताल’ बना सिरमौर
यद्यपि ‘मोरे वाले ताल’ का काम 2001 ई.में. नीमी जल-सम्मेलन से कुछ दिन पूर्व ही देव उठनी ग्यारस के अबूझ मुहूर्त के दिन रामसिंह, रमेश, गिरधारी, हरिचरण और प्रभु इन पांच लोगों की निगरानी में शुरू हो गया था; पर बड़ा काम होने के कारण तथा लोगों के मन में शंका हो जाने के कारण इसमें शिथिलता आ गई थी। इसी दौरान संयोग से नीमी गांव (जिला जयपुर) के जल-सम्मेलन से वापस लौटर पर आए हुए लोगों के उत्साह ने इस काम में पुनः जान डाल दी।
खजूरा गांव का कल्याण गुर्जर जब नीमी गांव में हुए जल-सम्मेलन को देखकर वापस आया, तो उसने सबसे पहले अपने गांव में ‘मोरे वाले ताल’ के काम को पूरा करने की बात ही सोची। अपने इस विचार को उसने अपने समधी, हटियाकी गांव के कमल गुर्जर के सामने भी रखा। कमल गुर्जर तरुण भारत संघ के कार्यकर्ताओं के साथ 1998 से ही जुड़े हुए थे। यहां के लोग इन्हें ‘भगत जी’ के नाम से जानते हैं। ‘भगत जी’ और कल्याण गुर्जर के विचारों का आदान-प्रदान हुआ। खिजूरा गांव की बैठक हुई, गांव की ग्राम-सभा बनी और बैठक में ‘मोरे वाला ताल’ को बनाने में आ रही शिथिलता और रुकावट को दूर करने के बारे में चर्चा चली। ‘मोरे वाले ताल’ की जगह पहले एक छोटी सी मेड़बंदी थी, जिसे 1963 में निभैरा ग्राम-पंचायत के तत्कालीन सरपंच शिवनारायण ने 2200 रुपए की एक छोटी-सी मदद से बनवाया था; जो बरसात के पानी को रोकने के लिए अपर्याप्त थी। फिर पिछले 37 वर्षों में वह धीरे-धीरे प्रायः अस्तित्वहीन ही हो गई थी। ‘मोरे वाला ताल’, खिजूरा गांव के पास से गुजर रही ‘धोबी वाली सोत’ के एक सहायक नाले पर स्थित है।
कुछ तो गांव वालों की ललक और कुछ तरुण भारत संघ का प्रोत्साहन; बस! 2002 में ‘मोरेवाला ताल’ बन कर तैयार हो गया। इसमें गांव के सभी 40 परिवारों ने प्रति बीघा जमीन के हिसाब से हिस्सा-राशि तय कर के, अपने-अपने हिस्से का श्रमदान किया था।
जब कोई व्यक्ति अथवा समुदाय समाज के भले के लिए काम करता है तो भगवान भी उसकी मदद करता है। इसीलिए तो अगले ही वर्ष ‘मोरे वाले ताल’ ने अपने जलागम क्षेत्र से बहकर आई हुई बरसात की हर एक बूंद को अपने आगार में रोक लिया। एक साथ इतना सारा पानी देखकर लोग हर्षातिरेक से आनंद-विभोर हो उठे। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोच कर चिंतित भी हो गए कि इतना बड़ा ताल है, कहीं टूट गया तो…? सब ने मिल कर चिंतन किया, और अंततः समाधान भी खोज लिया। बस! फिर क्या था? सभी स्त्री-पुरुष व बच्चे अपना-अपना फावड़ा-परात लेकर पाल की सुरक्षा के लिए तैनात रहने लगे। ताल की पाल में जहां भी कुछ कमजोरी दिखाई देती वे वहीं पर मिट्टी डाल देते और अपने ही परंपरागत साधनों से कॉम्पैक्शन भी करते। अत्यंत लगन, उत्साह और मेहनत से आखिर उन्होंने अपने ताल को बचा भी लिया और मजबूत भी कर लिया।
आज इस ताल से पूरे गांव की जमीन सिंचित होती है। उल्लेखनीय है कि इस ताल के नीचे की डेढ़-दो किलोमीटर तक की जमीन को पहले से ही ‘बाजरे की घेर’ के नाम से बोला जाता रहा है, क्योंकि पहले वहां सिर्फ बरसात के मौसम में, केवल बाजरा ही पैदा होता था। धान और गेहूं आदि की फसल बिल्कुल नहीं होती थी। लेकिन ‘मोरे वाले ताल’ का काम हो जाने के बाद अब इस पूरी जमीन में बाजरे की जगह धान तथा रबी की फसल में गेहूं भी पैदा होने लगा है। निश्चय ही यहां पर केवल एक ताल के बनने से ही अकल्पनीय समृद्धि आ गई।
नतीजा यह हुआ कि ‘मोरे वाला ताल’ गांव के अपने ही साझे-श्रम व ज्ञान से ग्राम-स्वावलंबन की एक मिसाल बन गया। इस ताल में जितनी भी मेहनत लगी थी, रामजी ने उससे भी ज्यादा फल एक ही साल में दे दिया। पहले ही साल में धान की फसल एक बीघा में दस मण तक हो गई थी। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि 140 बीघा जमीन में दस मण प्रति बीघा के हिसाब से कुल धान लगभग 1400 मण पैदा हुआ; जिससे, 400 रुपए प्रति मण के हिसाब से भी लगाएं तो, 5 लाख 60 हजार रुपए की नकद आमदनी हुई। खिजूरा गांव के लोग अपने ही ज्ञान और अपने ही श्रम से एक बार तो खुद ही आश्चर्य चकित हो उठे और उनके काम के नतीजे को देख कर बाद में दूसरे गाँवों के लोग भी। पड़ोसी गाँवों के लोग भी हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठे रहे, वे भी अपने-अपने गाँवों में, अपने-अपने खेतों में अच्छी से अच्छी साइटें तलाश करके पानी का काम करने लगे।
एक दशक बाद वर्ष 2011-12 में खिजूरा व खिजूरा के आसपास के गाँवों में एक बार फिर, उन्हें जहां भी अच्छी साइट मिली, वहीं पर गांव के श्रमदान व तरुण भारत संघ के आंशिक सहयोग से पानी का काम शुरू कर दिया। बरसात से पहले-पहले उन्होंने लगभग 20-22 अच्छी जल-संरचनाएं बना लीं। इस दौरान खासकर के बंधन का पुरा, वीरमकी, खिजूरा, रायबेली, पाटोर, मरम्दा व भोपारा आदि गाँवों में पानी के बहुत अच्छे-अच्छे काम हुए। इन कामों से आज इन गाँवों की तो कायापलट ही हो गई है।
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