पानी की कमी से एशिया के सबसे बड़े फाइबर संयंत्र के चक्के थमे


पानी का संकट अपने साथ कई दूसरी तरह के संकट भी लेकर आता है। अमूमन हमारा ध्यान इनकी ओर नहीं जाता लेकिन ये अंततः पानी की किल्लत से ही जुड़े हुए हैं। भूजल के लगातार दोहन और बारिश के पानी को यथोचित ढंग से नहीं सहेजे जाने से हमें जिन आसन्न संकटों का सामना करना पड़ता है, उनमें खेती के साथ ही उद्योग- धंधों से जुड़े रोजगारों पर संकट भी शामिल हैं। कुछ उद्योग ऐसे हैं, जो पानी पर ही आश्रित हैं। पानी नहीं मिले तो ये कुछ घंटे भी चल नहीं सकते। ऐसे में इनसे जुड़े लाखों मजदूरों और कर्मचारियों के रोजगार का क्या होगा और उनके परिवारों का क्या होगा। हमें पानी पर बात करते हुए इन्हें भी याद करना होगा ताकि हम पानी की अहमियत से बावस्ता हो सकें।

मध्यप्रदेश में उज्जैन जिले के नागदा में स्थित एशिया के सबसे बड़े फाइबर संयंत्र ग्रेसिम उद्योग को बंद करना पडा है। यहाँ पानी का संकट गहरा गया है। ग्रेसिम उद्योग को चलाने के लिये पानी का बड़ा जरिया चम्बल नदी पर बने बाँध का है। लेकिन इसमें अब बहुत कम पानी बचा है और इसका उपयोग यहाँ के लोगों को पीने के लिये भी किया जाना है, लिहाजा उद्योग को बंद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बीते साल यहाँ बहुत कम बारिश हुई है। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि बीते साल यहाँ मात्र 619.9 मिमी औसत बारिश ही दर्ज की गई है।

ग्रेसिम के लिये हर दिन करीब आधा एमसीएफटी पानी की जरूरत होती है। आम दिनों में यहाँ हर दिन सवा चार सौ टन कृत्रिम फाइबर का उत्पादन होता है। पूरे संयंत्र के चक्के थम चुके हैं। इससे तीन हजार श्रमिकों को आधी तनख्वाह तो बाकी के श्रमिक पूरी तरह बेरोजगार हो चुके हैं। इसका असर इससे जुड़े डेढ़ सौ सहायक अन्य उद्योगों और इसमें काम कर रहे श्रमिकों पर भी पड़ रहा है। मानसून जितनी देरी से आएगा, मजदूरों की दिक्कत उतनी ही बढती जाएगी।

कभी मध्यप्रदेश का मालवा अंचल कदम–कदम पर पानी के लिये पहचाना जाता रहा है। यहाँ नर्मदा, चम्बल, क्षिप्रा, ताप्ती जैसी दर्जनों सदानीरा नदियाँ साफ़ पानी समेटे बहती रहती थी। आबादी के पास बड़ी तादाद में ताल–तलैया थे। हाथ भर की रस्सी से कुओं का पानी उलीचा जा सकता था। खेतों में बरसाती पानी रस जाया करता था। यहाँ खेती तो बहुत थी पर रोजगार नहीं था। सरकार ने इसी वजह से यहाँ के लोगों को रोजगार से जोड़ने के लिये सत्तर के दशक में इलाके के देवास, पीथमपुर, उज्जैन, इंदौर और नागदा में बड़ी तादाद में उद्योग लगाए गए।

उन्हीं दिनों मालवा में एशिया का सबसे बड़ा फाइबर संयंत्र भी उज्जैन जिले के नागदा में लगाया गया था। इस संयंत्र को चलाने के लिये बड़ी तादाद में पानी की जरूरत होती है। इसीलिए इसे चम्बल नदी के किनारे यहाँ लगाया गया था ताकि चम्बल की अथाह जलराशि से इसे निर्बाध पानी की आपूर्ति होती रह सके। लेकिन आज हालात दूसरे हैं। अब न तो चम्बल नदी बारहों महीने बहती है और न ही गर्मियों में चम्बल पर बनाए बाँध में पानी बचता है। इसी कारण बीते दो–तीन सालों से मानसून आने से पहले संयंत्र को महीने–डेढ़ महीने के लिये हर साल बंद करना पड रहा है। इसी बाँध पर शहर की प्यास बुझाने और रेलवे के लिये पानी दिए जाने की भी जिम्मेदारी है।

आज हालात यह है कि बीते करीब महीने भर से पानी के संकट के कारण एशिया के सबसे बड़े इस फाइबर संयंत्र ग्रेसिम उद्योग के चक्के थम गए हैं। अब तक ग्यारह मशीनें बंद की जा चुकी है। इसका सबसे बड़ा खामियाजा चुकाना पड़ रहा है, यहाँ के कर्मचारियों और मजदूरों को। उनकी तो रोजी–रोटी ही खतरे में पड़ जाती है। बीते साल भी उन्हें करीब डेढ़–दो महीने तक इसी तरह की समस्या का सामना करना पडा था। इस बार फिर यही परेशानी है। अचानक संयंत्र बंद हो जाने से उनके और परिवार की माली हालत पर बुरा असर पड़ता है। कई बार तो दो जून की रोटी ही मुश्किल हो जाती है। फिलहाल इससे यहाँ के दस हजार से ज्यादा मजदूर परिवारों की रोजी– रोटी पर सीधा असर पड़ा है।

लगभग तीन हजार स्थाई श्रमिकों को ले–ऑफ़ (छुट्टी) पर भेजा जा चुका है। सवाल सिर्फ ले ऑफ का ही नहीं है, जो यहाँ के स्थाई कर्मचारी नहीं है उनके परिवारों में तो फाके की नौबत है। दरअसल वे यहाँ ठेके पर मजदूरी करते हैं और काम बंद हो जाने पर इन्हें बिना किसी खाना पूर्ति के हटा दिया जाता है और इस अवधि का कोई वेतन या फौरी राहत राशि भी नहीं ही दी जाती है। इतना ही नहीं यहाँ नागदा में ग्रेसिम उद्योग से जुड़े कुछ छोटे–छोटे सहायक उद्योग भी हैं, जो जरूरत के मुताबिक संयंत्र के लिये कुछ सामग्री बनाकर देते रहते हैं-जैसे छोटे पुर्जे आदि। संयंत्र के अचानक लम्बे समय के लिये बंद होने का खामियाजा इनको और इनके परिवारों को भी उठाना पड़ता है। इस तरह देखें तो संयंत्र के बंद होने से करीब 25 हजार से ज्यादा परिवारों के चौके–चूल्हे पर इसका असर होता है यानी करीब एक लाख से ज्यादा लोग इससे प्रभावित होते हैं।

इससे लोगों की रोजी–रोटी ही प्रभावित नहीं होती बल्कि सरकारी खजाने को भी इसका नुकसान उठाना पड़ता है। सरकार को इससे हर दिन मिलने वाले करीब एक करोड़ रूपए के कर का भी नुकसान उठाना पड़ेगा। ऐसे में यदि संयंत्र डेढ़ महीने बंद रहता है सीधे तौर पर करीब पचास करोड़ रूपए का नुकसान होता है।

बीते सालों में लगातार कम बारिश से यह संकट और बढ़ गया है। नागदा के जलस्तर में बीते 5 सालों में हर साल औसत 15 फीट तक गिरावट आई है। फिलहाल यहाँ का जलस्तर साढ़े तीन सौ फीट तक पहुँच गया है। यहाँ 150 नलकूपों में से 80 दम तोड़ चुके हैं तो 30 साँसें भर रहे हैं। नगर पालिका को हर दिन करीब 90 से ज्यादा टैंकर बस्तियों में पानी वितरण करने के लिये भेजना पड़ रहे हैं। 90 लाख रूपए का बजट केवल शहर के लोगों को पानी के लिये खर्च किया जा रहा है। इलाके के लोग बताते हैं कि बिगड़ते पर्यावरण, बारिश के पानी को जमीन में नहीं रिसा पाने, जंगल कटने और लगातार बोरिंग की वजह से उनके यह स्थिति बनी है। नगर पालिका के दस्तावेज बताते हैं कि 2010 में जल स्तर में गिरावट 80 से 90 फीट तक हुई, 2011 में यह बढ़कर 100 से 110 फीट रिकॉर्ड की गई। 2012 में यह गिरावट 110 से 120 तथा 2013 में 120 से 130 तक पहुँच गई। इसी तरह 2014 में 130 से 140 तथा 2015 में यह गिरावट 150 से 160 फीट तक रिकॉर्ड दर्ज की गई है।

अभी चम्बल नदी और तालाबों में उपलब्ध 31 एमसीएफटी पानी के इस्तेमाल के बाद अब बाक़ी बचा पानी लोगों की प्यास बुझाने और रेलवे के लिये आरक्षित कर दिया गया है। ग्रेसिम के लिये हर दिन करीब आधा एमसीएफटी पानी की जरूरत होती है। आम दिनों में यहाँ हर दिन सवा चार सौ टन कृत्रिम फाइबर का उत्पादन होता है।

हालाँकि लोग यह भी बताते हैं कि चम्बल नदी पर ही आश्रित होने के बाद भी यही संयंत्र चम्बल को प्रदूषित करने से भी नहीं चूक रहा। नदी के लगातार प्रदूषित होने से ही यहाँ पानी की किल्लत हो रही है। ग्रेसिम का प्रदूषित पानी इसमें बहाया जाता है। जब इसका खुलासा हुआ तो जिला प्रशासन और मप्र प्रदूषण नियन्त्रण मंडल ने नदी में छोड़े जाने वाले पानी को उपचारित करने की हिदायत देते हुए औपचारिक्ता पूरी कर ली। यहाँ से करीब 3 किमी दूर गिदगढ़ में तो चम्बल का पानी प्रदूषण के लिहाज से सबसे घटिया ई श्रेणी का पाया गया है। इसकी मुख्य वजह इसी संयंत्र से छोड़ा जाने वाला दूषित जल बताया जाता है।

भारतीय मानकों के मुताबिक इसे प्रदूषित माना गया है। दुखद यह है कि गिदगढ़ और उसके आस-पास के लोग नदी के पानी का इस्तेमाल पीने, मवेशियों को पिलाने सहित अन्य कार्यों में भी करते हैं। ऐसे में उनके स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है। कर्मचारी यूनियन नेता बताते हैं कि ग्रेसिम में उपचार संयंत्र तो है लेकिन जानकार बताते हैं कि यह महज दिखावे के लिये है, जबकि इसका इस्तेमाल कम ही किया जाता है। इसे चलाने के लिये बड़ी मात्रा में बिजली की जरूरत होती है।

ग्रेसिम उद्योग के प्रबंधक राजेश शर्मा ने बताया कि पानी की कमी के चलते प्रबन्धन को यह फैसला लेना पड़ा है। बीते साल भी ऐसा करना पड़ा था। नदी–तालाबों में पर्याप्त पानी आते ही उत्पादन फिर शुरु करेंगे।
 

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