जानकारों की राय है कि पंजाब को उच्चतम न्यायालय का आदेश मानना चाहिए। यहाँ देश के संविधान, उच्चतम न्यायालय के मान तथा संघीय ढाँचे में नदी जल विभाजन के सिद्धान्त की रक्षा का प्रश्न है। कोई विधानसभा में कानून पारित कर ले और कहे कि किसी सूरत में हम अपने राज्य से होकर बहने वाली नदियों से पड़ोस को पानी नहीं देंगे, तो ऐसा फैसला अन्याय जैसा प्रतीत हो रहा है। उच्चतम न्यायालय के सतलुज-यमुना लिंक नहर (एसवाईएल) पर दिये गए फैसले के बाद जो स्थिति पैदा हुई है, वह वाकई चिन्ताजनक है। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है तो राज्य में कांग्रेस के विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से।
कांग्रेस का कहना है कि पंजाब की अकाली दल-भाजपा की गठबन्धन सरकार राज्य के हितों की रक्षा करने में नाकाम रही है। अमरिंदर ने अपने इस्तीफे में लिखा है कि केन्द्र और पंजाब सरकार ने पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट में पंजाब के हितों को ठीक से नहीं रखा व इसकी अनदेखी की।
हम किसी भी हालत में राज्य का पानी बाहर नहीं जाने देंगे। दूसरी ओर, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मंत्रिमण्डल की बैठक बुलाकर यह ऐलान कर दिया है कि एक बूँद पानी पंजाब से नहीं दिया जाएगा। हाँ, उन्होंने राष्ट्रपति से अपील अवश्य की है, क्योंकि राष्ट्रपति के सन्दर्भ पर ही मामला उच्चतम न्यायालय में गया था। पंजाब सरकार इस मामले पर 16 नवम्बर को विधानसभा का विशेष सत्र बुलाएगी तथा 8 दिसम्बर को मोगा में रैली करके पानी बचाओ-पंजाब बचाओ अभियान आरम्भ करेगी।
उच्चतम न्यायालय की पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला दिया है जिसमें उसने एसवाईएल समझौता निरस्त करने के पंजाब विधानसभा द्वारा बनाए कानून को असंवैधानिक करार दिया है। जरा सोचिए ये नेता आखिर विरोध किसका कर रहे हैं? उच्चतम न्यायालय का।
अगर शीर्ष न्यायालय तक के फैसले पर राजनेता इस तरह का रवैया अपनाएँगे तो देश कैसे चलेगा। यह स्थिति भयभीत करने वाली है। हालांकि न यह फैसला अप्रत्याशित है और न नेताओं का रवैया। इसके पूर्व भी उच्चतम न्यायालय ने एसवाईएल पर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था, तब भी इन नेताओं ने शालीनता की सारी सीमाएँ लाँघ दी थीं।
पंजाब विधानसभा में स्वयं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने प्रस्ताव रखा कि किसी का भी आदेश हो, हम सतलुज-यमुना लिंक नहर नहीं बनने देंगे और यह सर्वसम्मति से पारित भी हो गया। 14 मार्च 2016 को पंजाब विधानसभा ने सतलुज-यमुना लिंक नहर के निर्माण के खिलाफ विधेयक पारित करने के बाद हरियाणा सरकार ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
न्यायालय ने अपने आदेश में कड़े शब्दों का प्रयोग उसी समय किया था। शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि उसके 2004 के फैसले को निष्क्रिय करने की कोशिश पर वह हाथ-पर-हाथ धरे बैठे नहीं रह सकता। पूर्व स्थिति सुनिश्चित करने के लिये न्यायालय ने केन्द्रीय गृह सचिव और पंजाब के मुख्य सचिव एवं पुलिस महानिदेशक को एसवाईएल नहर के लिये रखी गई जमीन एवं अन्य परिसम्पत्ति का संयुक्त रिसीवर नियुक्त किया।
अदालत ने कहा कि ये अधिकारी नहर की पुरानी स्थिति बनाए रखना सुनिश्चित करें और इस बारे में अदालत को रिपोर्ट दें। न्यायमूर्ति अनिल आर. दवे की अध्यक्षता वाली पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने पूछा था कि जब इस मामले पर सुनवाई चल रही है तो इस तरह के कदम उठाने का क्या मतलब? इस रुख के बाद किसी को भी समझ में आ जाना चाहिए था कि शीर्ष कोर्ट किस दिशा में विचार कर रहा है।
दरअसल, पंजाब विधानसभा ने एसवाईएल नहर के निर्माण के खिलाफ तथा उसके लिये अधिगृहीत जमीनों का मालिकाना हक वापस भूस्वामियों को मुफ्त में हस्तान्तरित करने का विधेयक पारित कर दिया था। पंजाब सरकार का यह कदम ही न्यायालय के 2004 के उस आदेश को निष्प्रभावी कर देता है जिसमें नहर के बेरोकटोक निर्माण की बात कही गई थी। चूँकि इसका निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिये होना है, इसलिये इससे सीधा प्रभावित वही हो रहा था।
पंजाब सरकार ने केवल विधेयक ही पारित नहीं किया, बल्कि जितना भी हिस्सा नहर का पंजाब में पड़ता है, उसे समतल करने का कार्य भी आरम्भ कर दिया। पंजाब का हरियाणा और अन्य पड़ोसी राज्यों के साथ जल बँटवारा विवाद पहले से ही उच्चतम न्यायालय में लम्बित था। 1966 में जब राज्य का विभाजन हुआ तो उसमें यह प्रावधान था कि हरियाणा को सतलुज के जल का हिस्सा मिलेगा। इसके 11 वर्ष बाद 1977 में 214 किलोमीटर नहर के लिये भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इसमें 122 किलोमीटर पंजाब में बनना था और 92 किलोमीटर हरियाणा में।
हरियाणा ने 1980 में ही काम पूरा कर लिया लेकिन पंजाब ने पालन नहीं किया। वह लगातार न्यायालय में जाता रहा। 2004 में उच्चतम न्यायालय ने नहर पूरा करने का आदेश दिया जिसके जवाब में पंजाब विधानसभा ने जल विभाजन समझौते को निरस्त कर दिया। राज्यों के साथ जल बँटवारा समझौता समाप्त करने के पंजाब के 2004 के कानून की वैधानिकता पर ही उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया है।
जब पंजाब सरकार ने यह कानून पारित कर दिया तो राष्ट्रपति ने उच्चतम न्यायालय को रिफरेंस भेजकर किसी राज्य द्वारा एक तरफा कानून पास कर जल बँटवारे के आपसी समझौते रद्द करने के अधिकार पर कानूनी राय माँगी। इसी पर न्यायालय का फैसला आया है। एसवाईएल नहर का निर्माण हरियाणा को पानी देने के लिये हुआ लेकिन न्यायालय के आदेश के बावजूद पंजाब अपने हिस्से में नहर का निर्माण पूरा नहीं करने पर अड़ा रहा है।
पंजाब सरकार ने विधेयक पारित करने के साथ आनन-फानन में हरियाणा को उसके हिस्से के खर्च का 191.75 करोड़ रुपए का चेक भेज दिया जिसे हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने वापस कर दिया। इस रवैये का आखिर अर्थ क्या है? यह तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के उल्लंघन के साथ संघीय ढाँचे को भी धता बताना हुआ। इसमें कांग्रेस, अकाली, आम आदमी पार्टी तथा प्रदेश की भाजपा तीनों शामिल हैं।
इसके पूर्व अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके नहर के निर्माण का विरोध कर दिया था जिसके बाद गुस्से में हरियाणा ने कहा कि केजरीवाल दिल्ली के लिये पानी का इन्तजाम कर लें, हम अपने यहाँ से दिल्ली को पानी नहीं जाने देंगे। राज्यों का व्यवहार इस तरह हो जाये तो देश में अराजकता की स्थिति पैदा जाएगी। हालांकि अब तो उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार केन्द्र सरकार को नहर का कब्जा लेकर निर्माण कार्य पूरा करना है। लेकिन यह कितना कठिन होगा इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है।
पंजाब को उच्चतम न्यायालय का आदेश मानना चाहिए। यहाँ देश के संविधान, उच्चतम न्यायालय के मान तथा संघीय ढाँचे में नदी जल विभाजन के सिद्धान्त की रक्षा का प्रश्न है। कोई विधानसभा में कानून पारित कर ले और कहे कि किसी सूरत में हम अपने यहाँ की नदियों से पड़ोस को पानी देंगे ही नहीं तो इसे जरूरतमन्द राज्य के प्रति अन्याय जैसा रुख कहा जा सकता है। पंजाब को अपने रवैए में बदलाव लाना चाहिए। हालांकि इसके पीछे चुनावी राजनीति की प्रमुख भूमिका है। सभी पार्टियाँ इसका लाभ उठाना चाहती हैं। इसलिये भी कोई किसी से कम दिखना नहीं चाहता।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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