नुनथर बांध का संक्षिप्त प्रस्तावित स्वरूप

दोनों देशों के बीच इस तरह की मीटिंग एक लम्बे समय से चल रही है और किसी भी नतीजे पर पहुँचने में बहुत देर लगती है। ऐसा जरूर लगता है कि नेपाल किसी जल्दी में नहीं है। कमला, बागमती, कन्कई जैसी छोटी नदियों के बारे में नेपाल का यह हमेशा से रुख रहा है कि भारत सरकार अपनी अपेक्षाओं से नेपाल को अवगत करवा दे और वह जब कभी इन योजनाओं को हाथ में लेने की सोचेंगे तो योजना बनाते समय वह भारत की जरूरतों को ध्यान में रखेंगे।

बिहार राज्य के दूसरे सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार नेपाल में जिस स्थान पर इस बांध के निर्माण का प्रस्ताव किया गया है वहाँ नदी का कुल जल-ग्रहण क्षेत्र 2706 वर्ग किलोमीटर है। इस प्रस्तावित बांध के जल-ग्रहण क्षेत्र में सर्वाधिक बारिश 3,580 मि.मी. और सर्वनिम्न बारिश 1524 मि.मी. आंकी गयी है जबकि औसत वर्षा का निर्धारण 1880 मि.मी. पर किया गया है। इस बांध से होकर सर्वाधिक 7533 क्यूमेक (लगभग 2,65,160 क्यूसेक) पानी बहाया जा सकेगा। 115.824 मीटर ऊँचे इस बांध की कुल जल-संग्रह क्षमता 26,531 हेक्टेयर मीटर (2,15,000 एकड़ फुट) तथा कार्यकारी जल-संग्रह क्षमता 23,360 हेक्टेयर मीटर (1,89,300 एकड़ फुट) होगी तथा इससे 24 मेगावाट बिजली पैदा की जा सकेगी। इस बांध से सिंचाई के लिए 3,500 क्यूसेक पानी उपलब्ध होगा और इसका लागत खर्च 97.85 करोड़ रुपये (1988 की कीमतों की दर पर) आयेगा। इस बांध में वर्षा के समय बाढ़ के पानी का संचय करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है और इसलिए अभी तक योजना का जो भी प्रारूप बना है उसमें इस बांध से किसी भी प्रकार के बाढ़ नियंत्रण की कोई गुंजाइश नहीं है और अगर थोड़ा बहुत बाढ़ के पानी का प्रबन्धन किया जा सकेगा तो वह स्पिल-वे के फाटकों को नियंत्रित करके ही किया जा सकेगा।

बागमती नदी पर तटबन्धों के दूसरे फेज के निर्माण के बाद 27 फरवरी 1984 को भोगेन्द्र झा ने लोकसभा में नुनथर बांध के बारे में अद्यतन स्थिति जानने के लिए एक प्रश्न किया था जिसके जवाब में सरकार की तरफ से रामनिवास मिर्धा ने कहा, ‘‘...यद्यपि समय-समय पर भारत सरकार नेपाल की शाही सरकार के साथ बागमती घाटी और अन्य दूसरी छोटी नदियों के जल-संसाधनों के विकास पर विभिन्न स्तरों पर वार्ता करती है मगर अभी तक बागमती नदी पर नुनथर में बांध बनाये जाने के प्रस्ताव पर कोई समझौता नहीं हुआ है।’’ यह समझौता 26 साल बाद आज तक (2010) भी नहीं हुआ है। 20 अगस्त 1987 के दिन लोकसभा में गौरी शंकर राजहंस के एक प्रश्न के उत्तर में सरकार की तरफ से जवाब देते हुए बी. शंकरानन्द ने सदन को बताया, ‘‘...बाढ़ नियंत्रण के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि इस समस्या का एक मात्र समाधान है कि (नदियों पर) नेपाल में जलाशयों का निर्माण किया जाए। लगभग सारी नदियाँ नेपाल से आती हैं और भले ही हम इन सारी नदियों पर नेपाल में जलाशय बना डालें तब भी केवल कोसी नदी के बांध को छोड़कर किसी दूसरी नदी पर बना जलाशय बाढ़ के प्रभाव को कम करने में सक्षम नहीं हो पायेगा। जहाँ तक सदस्यों द्वारा दूसरी नदियों पर प्रस्तावित बांधों के बारे में प्रश्न किये जाते हैं तो उन जलाशयों के माध्यम से कोई खास बाढ़ सुरक्षा नहीं मिलने वाली है।’’

जाहिर है कि इन तीन वर्षों में समझौते की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई मगर भारत सरकार को इतना विश्वास जरूर हो गया था कि इस बांध से बाढ़ नियंत्रण की दिशा में कोई खास फायदा नहीं होने वाला है। जहाँ इस तरह के सवाल-जवाब चल ही रहे थे वहीं सीतामढ़ी के भूतपूर्व विधायक रामस्वरूप सिंह ने बिहार विधान परिषद की याचिका समिति को पैंतीस अन्य लोगों के साथ 9 दिसम्बर 1983 के दिन एक आवेदन किया जिसकी अपेक्षाएं कुछ इस प्रकार थीं-

याचिका समिति को किया गया आवेदन


‘‘हम सीतामढ़ी जिले के बागमती क्षेत्र की जनता की ओर से निम्नांकित निवेदन करते हैं-

1. सरकार ने बागमती बाढ़ नियंत्रण सह-सिंचाई योजना 1967-68 में बनायी। इस योजना के तहत रमनगरा (बागमती नगर) में बराज बनाना तथा नहरों का निर्माण करना था।
2. उपर्युक्त योजना के अन्तर्गत बागमती नदी के दोनों किनारे बांध बनाये गए। देवापुर से बागमती नदी की एक उप-धारा पिपराही होती हुई बहती थी। सिंचाई विभाग ने मुख्य धारा को छोड़कर उक्त उप-धारा के किनारे बांध का निर्माण कराया। इस निर्माण के कार्यान्वयन के फलस्वरूप 92 से अधिक गांवों को पुनर्वास के लिये मजबूर किया गया। इस क्षेत्र की जनता ने समाचार पत्रों, आम-सभाओं के माध्यम से इस जन-विरोधी योजना का जोरदार विरोध किया परन्तु सरकार ने जनता की मांगों की पूरी उपेक्षा की।
3. 15 जुलाई, 1983 को पुनः बागमती नदी देवापुर के निकट बांध को तोड़कर मुख्य पुरानी धारा में चली गयी। मुख्य पुरानी धारा में नदी के जाने की वजह से देवापुर से रुन्नी सैदपुर तक करीब 50 किलो मीटर की लंबाई में बना हुआ तटबन्ध बेकार हो गया।
4. इस पूरी योजना पर अभी तक लगभग 25 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं जिसमें अधिक धन का दुरुपयोग हुआ है।
5. बागमती नदी की बाढ़ के पानी से किसान बहुत लाभान्वित होते थे और यह इलाका इस कारण अधिक उपजाऊ गिना जाता था। बांध बंधने के कारण बाढ़ के पानी से किसानों के खेत वंचित हो गए। इसका परिणाम हुआ कि खेतों की उपज बहुत घट गयी। उपजाऊ खेत दिन प्रतिदिन बंजर होते जा रहे हैं, जो इलाका उत्तर बिहार का अन्न भंडार था आज वह कंगाल बन गया। लोग दाने-दाने को मोहताज बन गए हैं।
6. बागमती नदी एक अन्तर्राष्ट्रीय नदी है जो नेपाल से होकर भारत में बहती है। बिहार के सिंचाई विभाग ने रमनगरा में बराज बनाने का निर्णय किया लेकिन इसका कार्यान्वयन अभी तक प्रारम्भ भी नहीं हुआ। इसी बीच नेपाल की सरकार ने नेपाल के अन्तर्गत करमहिया में बराज निर्माण का कार्य करीब-करीब पूरा कर लिया है। इसके अलावा, जैसा पता चला है कि वे नुनथर के निकट 96 कि.मी. ऊपर डैम का भी निर्माण करने जा रहे हैं। यहाँ यदि डैम बन जाता है तो स्थायी तौर पर भारत का इलाका बागमती नदी के जल से वंचित हो जायेगा।
7. इस संबंध में विधान सभा तथा अन्य माध्यमों से सीतामढ़ी जिले की जनता आवाज उठाती रही है कि भारत सरकार नेपाल सरकार से मिल कर नुनथर में डैम बनाये, जिससे दोनों देश की जनता को सिंचाई और बिजली का लाभ मिल सके। ऐसी स्थिति में हम मांग करते हैं कि-

• बागमती पर सिंचाई-सह-बाढ़ नियंत्रण-सह-विद्युत के हेतु नुनथर में डैम का निर्माण भारत-नेपाल सरकार के समझौते के अन्तर्गत किया जाय।
• बागमती पर बनायी गयी त्रुटिपूर्ण योजना से जो अपूरणीय क्षति जनता को हुई-उसकी उच्चस्तरीय जांच की जाए और किसानों को क्षतिपूर्ति दी जाए एवं जन-विरोधी योजना के लिये जिम्मेवार व्यक्तियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाय।
• कनुआनी धार (बागमती की पुरानी धारा) की उड़ाही शीघ्र की जाय।
• बने हुए तटबन्धों में पर्याप्त मात्रा में स्लुइस गेटों का निर्माण शीघ्र किया जाय।

इस याचिका समिति की 6 मई 1988 की एक मीटिंग में राज्य के जल-संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख जी. पी. तिवारी ने समिति को बताया कि नुनथर डैम के लिए बहुत पहले सर्वेक्षण करवाया गया था मगर इस प्रस्तावित बांध की पहली रिपोर्ट और नक्शा बिना सर्वे किये हुए बना था। सर्वे बाद में हुई और फिर एक रिपोर्ट तैयार हुई और जो नक्शा बना उसे 1983 में भारत सरकार को भेजा गया। आगे की कार्यवाही के लिए नेपाल सरकार की अनुमति चाहिये थी जिसके लिए कठमाण्डू में दिसम्बर 1987 में सचिव स्तर की बैठक हुई। इस बैठक की अध्यक्षता वहाँ के जल-संसाधन मंत्री ने की और उसमें दोनों देशों के सचिव स्तर के पदाधिकारी और बिहार सरकार के इंजीनियर भी शामिल थे। इसी तरह की एक बैठक फिर काठमाण्डू में 1988 के प्रारम्भ में हुई जिसमें बहुत सी दूसरी योजनाओं और प्रस्तावों के अलावा नुनथर का मसला भी शामिल था। नेपाल सरकार के प्रतिनिधियों ने अपना मन्तव्य देने के लिए समय मांगा और कहा, ‘‘...सिर्फ डैम बनाने से ही समस्या का समाधान नहीं होगा, उसके लिए सॉयल कन्जरवेशन की बात भी होगी और कुछ करना पड़ेगा और अभी यह मामला भारत सरकार, नेपाल सरकार तथा हम लोगों के बीच विचाराधीन है।’’

दोनों देशों के बीच इस तरह की मीटिंग एक लम्बे समय से चल रही है और किसी भी नतीजे पर पहुँचने में बहुत देर लगती है। ऐसा जरूर लगता है कि नेपाल किसी जल्दी में नहीं है। कमला, बागमती, कन्कई जैसी छोटी नदियों के बारे में नेपाल का यह हमेशा से रुख रहा है कि भारत सरकार अपनी अपेक्षाओं से नेपाल को अवगत करवा दे और वह जब कभी इन योजनाओं को हाथ में लेने की सोचेंगे तो योजना बनाते समय वह भारत की जरूरतों को ध्यान में रखेंगे। भारत-नेपाल की साझा छोटी नदियों पर दिल्ली में सितम्बर 1984 में हुई सचिव स्तर की वार्ता में भी यह बात उठी थी जब भारत के सचिव ने बागमती, कमला, बबाई और कन्कई जैसी छोटी नदियों पर बांधों का सवाल उठाया और कहा कि इन बांधों के निर्माण से दोनों देशों के हितों का साधन होगा। नेपाल के सचिव का तब भी यही उत्तर था कि अगर भारत का इन नदियों से संबंधित कोई विशेष प्रस्ताव हो और भारत द्वारा उन्हें इसकी सूचना दी जाती है तब इन जलाशयों के निर्माण की योजना बनाते समय वे इन सुझावों की जांच करेंगे और यथासंभव भारत के हितों को ध्यान में रखने का प्रयास करेंगे। इस तरह की बातें प्रायः हर वार्ता में उठती हैं और इसी सम्पुट से समाप्त हो जाती है।

एक ओर जहाँ बाढ़ के मौसम में अनियंत्रित जलस्राव के कारण उत्तर बिहार में लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है वहीं दूसरी ओर सूखे के मौसम में नदियों के जलस्राव में कमी के कारण सिंचाई एवं अन्य उपयोगों हेतु कठिनाई भी अनुभव हो रही है। इधर नेपाल द्वारा एकतरफा फैसले के आधार पर कमला, बागमती एवं कन्कई नदियों पर बराज का निर्माण किया गया है जिससे राज्य में उपलब्ध जल में कमी होती जा रही है।

दरअसल नेपाल की इस बेरुखी के बहुत से कारण हैं। भारत-नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र में भारत की बहुत सी योजनाओं के कारण वहाँ की जमीन कटी या डूबी है जिनके उदाहरण लक्ष्मणपुर बराज, डाण्डा बराज, गौर बाजार में बागमती तटबन्धों के कारण हुई बदहाली आदि हैं। सरलाही, सुनसरी तथा सप्तरी जिलों में भारत द्वारा निर्मित योजनाओं से कटाव, जल-जमाव और बाढ़ आदि के दुःष्प्रभाव आदि कितनी ही ऐसी समस्याएं हैं जिनसे नेपाली जन-मानस में कहीं न कहीं यह बात गहरे बैठी हुई है कि इन योजनाओं का सारा लाभ भारत उठाता है जबकि केवल नुकसान ही नेपाल के हिस्से में आता है। कोसी और गंडक परियोजना के साथ भी वही स्थिति है जहाँ उन्हें लगता है कि इन योजनाओं का सारा लाभ भारत को मिला है जबकि उनके यहाँ जीवन पर इन योजनाओं का बुरा असर पड़ा है। इसलिए कम से कम अब से नेपाल ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहेगा जहाँ उसे किसी भी प्रकार की क्षति की आशंका होगी।

दोनों देशों के सचिव स्तर की जो मीटिंग सितम्बर 1984 में नई दिल्ली में हुई थी उसमें नेपाल ने अपने क्षेत्र में भारतीय भाग की योजनाओं से होने वाले नुकसान का सवाल उठाया और आशा की कि आने वाले एक-दो महीने के अन्दर भारत और नेपाल के विशेषज्ञों की एक टीम इन कथित क्षेत्रों का दौरा करके अपनी रिपोर्ट दे और समस्या के निदान का उपाय सुझाये। भारत की तरफ से यह सुझाव दिया गया कि नेपाल ऐसे सभी स्थानों की एक सूची भारत को दे जहाँ उन्हें इस तरह की समस्याएं देखने में आ रही हैं तो उसके दो महीने के अन्दर भारत और नेपाल का एक संयुक्त दल इन क्षेत्रों में जाकर समस्या का अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार करे और उनके समाधान का रास्ता सुझाये। इस पर दोनों देशों ने सहमति जतायी।

20 से 22 दिसम्बर 1987 में जब इसी तरह की मीटिंग काठमाण्डू में आयोजित की गयी तब भारत की तरफ से कहा गया कि नेपाल से उतर कर उत्तर प्रदेश या बिहार में आने वाली नदियों के पानी का इस्तेमाल भारत के किसान सदियों से करते आये हैं और अगर इन नदियों पर नेपाल कोई योजना बनाता है तो उसे भारत में किसानों द्वारा पानी के चालू उपयोग को ध्यान में रखकर ही कोई योजना बनानी चाहिये। इसके जवाब में नेपाली शिष्ट मंडल का कहना था कि पानी का वैसा ही उपयोग नेपाल के किसान भी एक लम्बे समय से करते आये हैं। भारतीय पक्ष का कहना था कि पानी के वर्तमान और प्रस्तावित उपयोग के आंकड़ों का अगर दोनों देशों के बीच आदान-प्रदान हो सके तो विकास योजनाओं का प्रारूप तैयार करने में सहूलियत होगी और दोनों पक्षों में से किसी को भी नुकसान होने से बचाया जा सकेगा। इतना कहने के बाद भारत ने एक बार फिर राप्ती, बबाई, कमला, बागमती जैसी नदियों पर दोनों देशों के सामूहिक हित का हवाला देते हुए इन नदियों पर बांधों के निर्माण की सम्भावना तलाशने की बात उठायी और नेपाल की तरफ से फिर यही कहा गया कि अगर भारत की तरफ से कोई विशेष अनुरोध प्राप्त होगा तो उस पर विचार किया जायेगा और यथा सम्भव उसके सुझावों पर अमल किया जायेगा।

लगभग यही बातें संयुक्त समिति की 30 मई से 2 जून 1988 की मीटिंग में भी दुहरायी गईं। इस बीच बिहार के जल-संसाधन मंत्री लहटन चौधरी ने केन्द्रीय जल-संसाधन मंत्री को एक पत्र (6 अगस्त 1988) लिख कर कहा, ‘‘...बागमती नदी में नुनथर तथा कमला नदी में शीसापानी के निकट तेतरिया में जलाशय निर्माण हेतु योजना प्रतिवेदन भी तैयार कर भारत सरकार को 1983 में ही प्रस्तुत किया गया है। परन्तु हमें यह ज्ञात नहीं है कि प्रतिवेदन अथवा इन क्षेत्रों में सुसंगत उद्धरण नेपाल सरकार को भेजे गए या नहीं और यदि भेजे गए तो उनकी गतिविधि क्या है? इसके अतिरिक्त सन् 1981 में दोनों सरकारों के बांध स्वीकृति प्रपत्र में सभी नदियों से जल की आवश्यकता भारत सरकार को सूचित भी की गयी है और नेपाल सरकार से उनके क्षेत्र के आंकड़ों एवं योजनाओं की सूचना उपलब्ध कराने हेतु अनुरोध किया गया है परन्तु इन योजनाओं के कार्यान्वयन की बात तो दूर रही इसके निर्माण से पूर्व विस्तृत सर्वेक्षण एवं अन्वेक्षण हेतु भी नेपाल सरकार की अनुमति प्राप्त नहीं हो सकी है।

फलस्वरूप एक ओर जहाँ बाढ़ के मौसम में अनियंत्रित जलस्राव के कारण उत्तर बिहार में लगभग प्रतिवर्ष बाढ़ की विभीषिका का सामना करना पड़ता है वहीं दूसरी ओर सूखे के मौसम में नदियों के जलस्राव में कमी के कारण सिंचाई एवं अन्य उपयोगों हेतु कठिनाई भी अनुभव हो रही है। इधर नेपाल द्वारा एकतरफा फैसले के आधार पर कमला, बागमती एवं कन्कई नदियों पर बराज का निर्माण किया गया है जिससे राज्य में उपलब्ध जल में कमी होती जा रही है। नेपाल द्वारा अपने क्षेत्र के आंकड़े उपलब्ध कराने तथा योजनाओं के विवरण उपलब्ध कराने में भी आनाकानी की जा रही है।’’ इस पत्र के जवाब में केंद्रीय मंत्री शंकरानंद का कहना था कि नेपाल ने बाढ़ के पूर्वानुमान तथा जल विभाजक प्रबंध योजनाओं में तो रुचि दिखायी है, लेकिन अन्य प्रस्तावों में उनके उत्तर बहुत उत्साहवर्धक नहीं हैं। यह मामला भारत और नेपाल के बीच सरकारी स्तर की बैठकों में आगे बढ़ाया जायेगा, ऐसी उनकी आशा थी।

लगभग इसी समय बिहार के जल-संसाधन विभाग के सचिव सी. के. बसु ने केन्द्रीय जल-संसाधन सचिव को लिखे पत्र (संख्या 24/N.C.-6-6-4/87-458 दिनांक 23 फरवरी 1988) के माध्यम से कहा, ‘‘...(iv) छोटी नदियाँ-कमला और बागमती जैसी छोटी नदियों के सन्दर्भ में बिहार सरकार का मानना है कि नेपाल इस विषय को टालना चाहता है और शायद उनकी यह कोशिश है कि इन नदियों के पानी पर पहले अपना हक जताया जाए जबकि वर्तमान में ऐसा कुछ भी नहीं है। इसके साथ ही, जैसा कि हमारी कमला नदी के साथ हुआ है, पानी के हमारे वर्तमान उपयोग पर दबाव पड़ा है क्योंकि उस नदी के ऊपरी भाग में पानी बचा ही नहीं है। ...यह ध्यान देने की बात है कि हमने कमला के संबंध में अपनी विस्तृत आवश्यकताएं और तेतरिया में प्रस्तावित बहुद्देशीय योजना का सारा विवरण नेपाल की शाही सरकार को भेज दिया है। लेकिन न तो उन्होंने अपनी तरफ से कोई सूचना ही दी है और न ही अब तक कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की है। एजेन्डा नोट्स में बागमती के साथ भी ऐसा ही हुआ है।’’

इसी क्रम में भोगेन्द्र झा ने लोकसभा में सिंचाई मंत्री से जानना चाहा कि कोसी पर बराहक्षेत्र, नुनथर में बागमती तथा कमला नदी पर शीसापानी बांध की अनुमानित लागत क्या है और उनसे कितनी सिंचाई, कितना बाढ़ नियंत्रण हो पायेगा और कितनी बिजली का उत्पादन होगा? इस पर सिंचाई मंत्री विद्याचरण शुक्ल का संक्षिप्त सा जवाब था कि इस तरह का कोई विवरण अभी उपलब्ध ही नहीं है। भोगेन्द्र झा को मंत्री से इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी और वे जानना चाहते थे कि क्या ऐसा कोई प्रस्ताव 1981 में नेपाल सरकार के पास भेजा गया था जिस पर 1988 तक सचिव स्तर की वार्ताएं चलती रहीं? उनका कहना था कि भारत सरकार ने रमनगरा में बागमती पर एक बराज बनाने का प्रस्ताव किया था पर इसके ठीक ऊपर के इलाके को नेपाल ने अपने राष्ट्रीय राजमार्ग का क्षेत्र घोषित कर दिया और बराज का निर्माण खटाई में पड़ गया। उससे बिहार का नुकसान तो हुआ ही, नेपाल भी योजना के लाभ से वंचित हुआ। फिर भी भोगेन्द्र झा का मानना था कि इस तरह के उत्तर से दोनों देशों के बीच कटुता बढ़ सकती है।

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Post By: tridmin
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