सरदार सरोवर की डूब से प्रभावित सबसे बड़ी आबादी मध्य प्रदेश की है। मध्य प्रदेश के 193 गांवों में अभी भी डेढ़ लाख से बड़ी आबादी निवास कर रही है, फिर एनवीडीए ने विस्थापितों की स्थिति को ‘‘जीरो बैलेन्स’’ क्यों बताया? सत्याग्रह स्थल पर नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक पोस्टर में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण को नर्मदा घाटी ‘‘विस्थापन’’ प्राधिकरण लिखा गया है। पहाड़ के 41 और निमाड़ के 17 सहित डूब में कुल 58 आदिवासी गांव प्रभावित हैं। मध्य प्रदेश के ज्यादातर पहाड़ी गांवों के सड़क संपर्क पथ वर्षों पूर्व डूब में समा गए हैं। कई गांवों की खेती-बाड़ी, घर-बार डूब चुके हैं।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कथा “पूस की रात” के असली नायक 80 साल बाद भी पूस की रात में फसल बचाने के लिये नहीं, फसल उगाने की जमीन के हक के लिये पिछले दो महीनों से “जमीन हक सत्याग्रह” चला रहे हैं। अगर आप 'पूस की रात' का संग्राम जानना चाहते हैं तो मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिला के जोबट में शासकीय कृषि फार्म की 87 एकड़ जमीन को अपने कब्जे में लेकर हल जोत रहे आदिवासियों से मिलिये। सरदार सरोवर की डूब से प्रभावित विस्थापित आदिवासियों ने 24 नवम्बर 2011 को इंदौर से 225 कि.मी. दूर स्थित जोबट में मजबूत कंटीले लौह बेड़ों के घेरे को तोड़कर शासकीय कृषि फार्म हाउस पर अपना कब्जा जमाया और खुले आकाश में “जमीन हक सत्याग्रह” शुरू कर दिया। 25 वर्षों से शांतिपूर्वक अहिंसक आंदोलन कर रहे नर्मदा बचाओ आंदोलन के सैकड़ों आदिवासियों ने फार्म हाउस पर कब्जा कर सरकारी कर्मचारियों को सरकारी खेती करने से रोक दियाऔर फार्म हाउस पर अपना “हक कब्जा’’ घोषित कर दिया। 25 नवम्बर को विस्थापितों ने जोबट शहर में अपने “हक कब्जा’’ के पक्ष में रैली निकाली और जोबट के तहसीलदार को नर्मदा बचाओ आंदोलन की ओर से ज्ञापन दिया।सत्याग्रह पर बैठे विस्थापितों की ओर से मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को फैक्स भेजकर जोबट में जारी “जमीन हक सत्याग्रह’’ की सूचना दी गई। चौथे दिन प्रशासन की चुप्पी और वर्षों से दबाये गये गुस्से का आवेग नए रूप में प्रकट हुआ। फार्म हाउस की जमीन पर विस्थापितों ने अपने बैलों से हल जोतने शुरू किए। 30 नवम्बर को आंदोलनकारियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने अलीराजपुर के जिलाधिकारी से मिलकर फार्म हाउस की जमीन पर अधिकार जमाने और फसल बोने की लिखित सूचना दी।पिछले कई दिनों से नर्मदा घाटी के विस्थापितों द्वारा जारी “जमीन हक सत्याग्रह’’ की सूचना नर्मदा बचाओ आंदोलन की ओर से इंटरनेट द्वारा देश के प्रमुख बुद्धिजीवियों और मीडिया समूह के पास लगातार भेजी जा रही है। पिछले सप्ताह एक कामरेड पत्रकार ने सवाल किया- कम्युनिस्ट पार्टियां जिस तरह जमींदारों-भूपतियों की जमीन का ‘लेंड-ग्रेब’ कर भूमिहीनों के बीच जमीन बांटती रही हैं, क्या नर्मदा बचाओ आंदोलन ने 25 वर्षों के संघर्ष के बाद कम्युनिस्ट पार्टियों से सीख ली है?
नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक प्रमुख कार्यकर्ता ने कहा- यह हमारा ‘लेंड-ग्रेब’ (जमीन कब्जा) नहीं ‘राइट ग्रेब’ (अधिकार कब्जा) है। हम चाहते हैं, आप जोबट में जारी संग्राम की कथा जानने से पहले उन सवालों से जरूर मुठभेड़ कर लें, जिनके आधार पर आप अपना पक्ष तय करते हैं। क्या गांधीवादी मूल्यों और अहिंसात्मक रास्ते पर जारी 25 वर्षों के एक सशक्त जनांदोलन ने अपने धीरज की सीमा खो दी है? क्या नर्मदा बचाओ आंदोलन के सामने गांधीवाद की मेड़ तोड़कर आगे बढ़ने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं बचा था? क्या नर्मदा बचाओ आंदोलन की मुख्य सूत्रधार मेधा पाटकर अपनी गांधीवादी छवि को बचाए रखने के जतन में इतने लंबे समय से जारी सत्याग्रह में शरीक नहीं हो सकीं? क्या विस्थापित आदिवासियों ने अपने मुख्य सूत्रधार से सहमति-मशविरे के बिना सरकारी जमीन पर ‘हल्ला बोल’ कर दिया? क्या विस्थापित आदिवासियों ने विकल्पहीनता की स्थिति में ‘आत्महत्या’ के बजाय ‘आत्म कब्जा’ ‘कब्जा बोल’ जरूरी समझा? नर्मदा बचाओ आंदोलन के आलोचकों के लिये यह नयी खबर है, जो यह कहते नहीं थकते हैं कि “एन.बी.ए. के सारे निर्णय मेधा पाटकर खुद तय करती हैं और मेधा पाटकर के व्यक्तिवाद से आंदोलन का नुकसान हुआ है।’’ जाहिर है कि एक बड़े जनांदोलन को एक व्यक्ति प्रभावित जरूर करता है पर इंसान की मुट्ठियों में बंद होना आंदोलन का स्वभाव नहीं है तो जनांदोलन अपने रास्ते उसी तरह तय करते हैं, जैसे बदलते हुए मौसम के साथ उफान भरती नदियां।
22 दिसम्बर की देर रात जब हम धरना स्थल पर पहुंचे तो सब सो रहे थे। धरनास्थल पर अंधेरा कायम था और जलते हुए अंगारों से जो रोशनी कायम थी, उससे हमने यह देखा कि कुछ सौ लोग गहरी नींद में सो रहे थे। मुझे सुकून मिला कि इस तरह खर्राटों भरी नींद का मतलब है, यहां पुलिस शासन का आतंक नहीं है। हमने जमीन पर अपने सोने की जगह ली और आंखें घुमायी तो सिर के ऊपर चांद-तारों से भरे सुंदर आकाश ने छत के आसरे का भरोसा दिलाया। पूस की शीतलहरी भरी सुबह सूरज उगने से काफी पहले तो नहीं होती है। रात ढलने से पहले ठंड बढ़ने लगी तो धरती पर पड़े अपने हाथ-पांव सुन्न होने लगे। बाहर आग जल रही थी और हमने अपने मानव देह में तापनी यानी घूरे की ताप से गरमाहट महसूस की। पूस की ओस में देह के ऊपर के गर्म कपड़े जल्दी ही शीत हो जाते हैं। सुबह होने से पहले जब ठंड ज्यादा बढ़ती है, उसी समय मुर्गे बोलने लगते हैं और मुर्गे की बाग के बाद बुजुर्ग आदिवासी सोए रहना अपना अहित मानते हैं। धीरे-धीरे कई तापनी जल गये। जीवनशाला के बच्चों की देह पर स्वेटर या चादर कुछ भी नहीं है। बच्चों के पांव में चप्पल भी नहीं हैं। कई जने कंबल के बजाय गुदरी लपेट कर ठिठुर रहे हैं।
सुबह खबर मिली, निमाड़ के मशहूर कथावाचक सीताराम काका बुढ़ापे में 6 रात सत्याग्रह का साथ देकर बीमार होकर घर लौट गये हैं। आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता देवराम कनेरा पर्यावरणीय वजहों से रेत खनन का विरोध करते हुए रेत ठेकेदारों के धक्के से दुर्घटनाग्रस्त होकर इंदौर के अस्पताल में भर्ती है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता कैलाश अवास्या, लुहारिया, सुरभान, खुमान बाबा, मंगलिया, जानकीबाई, कमला यादव, श्रीकांत सब निडर-निर्भीक होकर अपना पक्ष बता रहे हैं कि किन परिस्थितियों में सरकारी फार्म हाउस की जमीन पर कब्जे के लिये हम मजबूर हुए। जीवनशाला के बच्चे गुड़ की चाय पीकर ज्यादा जोश से नारे लगाते हैं- “जो जमीन सरकारी है, वह जमीन हमारी है”, “जोबट कृषि फार्म हाउस कुनीन छे, हमरी छे, हमरी छे,” सत्याग्रह में शामिल विस्थापित आंदोलन और खेती साथ-साथ कर रहे हैं। कुछ बुजुर्ग सत्याग्रह स्थल पर बैठे हैं और आगतों को अपने सत्याग्रह की वजह बता रहे हैं। कुछ लोग खेती के काम में लगे हैं तो कुछ लोग भोजन व्यवस्था में।
15 एकड़ में सोयाबीन की बुआई की है। 5 एकड़ में मक्के की फसल लगाई है। सोयाबीन और मक्के के पौध मुट्ठी भर से ऊपर खडे़ हो गये हैं। सोयाबीन और मक्के के बीज दो-दो डेग पर कई तरह की सब्जियों के बीज बोए हैं। जब जुताई के बाद बुआई होने लगी तो कृषि फार्म हाउस के अधिकारियों ने सरकारी मोटर पंप खोलकर हटा लिये और बिजली कनेक्शन काट दिये गये। जिन खेतों की बुआई नही हो पाई है, उसमें तत्काल सिंचाई की दरकार है। जुते हुए खेत में बुआई के लिए पटवन की जरूरत है क्योंकि खेत की नमी मर चुकी है। मक्के और सोयाबीन के खेत में सब्जी के बीजों से निकलते अंकुरण को पौध बनने के लिये पानी चाहिए। यहां आदिवासियों कृषकों ने कम से कम पानी से पौधों को सिंचित करने के लिए जुगाड़ टेक्नोलाजी से ‘टपक प्रणाली’ विकसित की है। सब्जी के बीज वाले गड्ढे के पास एक सूखे डंठल में पॉलीथीन की थैली टांग दी है। इस थैली में हर तीसरे दिन पानी भरते रहते हैं। सुबह-सुबह इस खेत में उजले-उजले बगुले इस तरह सजे हुए दिखे जैसे किसी तालाब में मछलियां ढूंढ रहे हों। बगुले खुद भी पानी पीते हैं और पानी पीते हुए उनकी चोंच की मार से जो पानी टपकता है, उससे उभरते हुए नम हो जाते हैं। बगुले, आदिवासी कृषक और खेती का ऐसा साहचर्य आप किस नगर में ढूंढ़ेंगे!
‘जमीन हक सत्याग्रह’ में पहाड़ के उन आदिवासी गांवों के विस्थापित आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे हैं, जिनकी जमीन और खेती-बाड़ी वर्षों पहले सरदार सरोवर की डूब में खत्म हो चुकी है। नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण द्वारा 1979 में सुनाए गये फैसले को नर्मदा पंचाट कहते हैं। नर्मदा पंचाट के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय सरदार सरोवर के विस्थापितों की याचिका पर फैसले सुनाता है। नर्मदा पंचाट की सख्त हिदायत है कि डूब लाने से पहले विस्थापितों की सहमति से उनका पुनर्वास जरूरी है। अगर विस्थापित नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एन.वी.डी.ए.) द्वारा सुझाए गये पुनर्वास स्थल को अपने लिए हितकर और सुरक्षित नहीं मानते हैं तो क्या कागज पर विस्थापितों का पुनर्वास दिखाकर विस्थापितों के गाँवों में सरकारी डूब लाना मानवाधिकार हनन और अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण 1989 के तहत अत्याचार का मामला नहीं बनता है? मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के बीच सरदार सरोवर से सिंचाई के पानी व बिजली के बंटवारे के साथ-साथ विस्थापितों को बेहतर पुनर्वास की गारंटी नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के द्वारा जारी नर्मदा पंचाट के नीति-मानदंडों में शामिल हैं।
कैलाश आवास्या कहते हैं- “नर्मदा के विस्थापितों के लिये नर्मदा पंचाट महाभारत-रामायण से ज्यादा महत्व रखता है। पंचाट के सारे निर्देश विस्थापितों के हक में है और पंचाट की शर्तों का अनुपालन करते हुए पुनर्वास के हक की मांग पर ही आंदोलन खड़ा है।” अलग-अलग राज्यों में पुनर्वास की गांरटी राज्य सरकारों की जिम्मेवारी है। सरदार सरोवर से डूब प्रभावित विस्थापितों की सबसे बड़ी आबादी मध्य प्रदेश में है। एनवीडीए मध्य प्रदेश विस्थापितों के पुनर्वास में धोखाधड़ी के लिए लगातार सुर्खियों में रहा है। कभी विस्थापितों को बहलाकर पुनर्वास पैकेज पर हस्ताक्षर कराने, कभी जबरन मध्य प्रदेश छोड़कर गुजरात सरकार का पुनर्वास पैकेज लुभाते हुए मध्य प्रदेश से धक्के मारकर गुजरात की राह दिखाने तो कभी पुनर्वास पैकेज में ऐतिहासिक लूट के लिए एनवीडीए चर्चों में रहा है। राज्य सरकारों द्वारा पुनर्वास प्रक्रिया में त्रुटियों पर नजर रखने वाली भारत सरकार की निगरानी एजेंसी नर्मदा कंट्रोल ऑथिरिटी यानी एनसीए ने एनवीडीए के विरुद्ध किसी तरह की टिप्पणी को जैसे अनुचित मान लिया है।
एनवीडीए ने मध्य प्रदेश में सरदार सरोवर से डूब प्रभावित विस्थापितों का आंकड़ा 2009 से ही अपने वेबसाइट पर ‘‘जीरो बैलेन्स’’ बताना शुरू कर दिया। एनसीए ने भी एनवीडीए के आंकड़ों पर किसी पड़ताल के बिना स्वीकृति की मुहर लगा दी। सरदार सरोवर की डूब से प्रभावित सबसे बड़ी आबादी मध्य प्रदेश की है। मध्य प्रदेश के 193 गांवों में अभी भी डेढ़ लाख से बड़ी आबादी निवास कर रही है, फिर एनवीडीए ने विस्थापितों की स्थिति को ‘‘जीरो बैलेन्स’’ क्यों बताया? सत्याग्रह स्थल पर नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक पोस्टर में नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण को नर्मदा घाटी ‘‘विस्थापन’’ प्राधिकरण लिखा गया है। पहाड़ के 41 और निमाड़ के 17 सहित डूब में कुल 58 आदिवासी गांव प्रभावित हैं। मध्य प्रदेश के ज्यादातर पहाड़ी गांवों के सड़क संपर्क पथ वर्षों पूर्व डूब में समा गए हैं। कई गांवों की खेती-बाड़ी, घर-बार डूब चुके हैं। जलसिन्धी, भादल ऐसे गांव हैं, जहां एक दशक से आदिवासी समूह नाव को रेल की तरह इस्तेमाल करते हैं। सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल वर्षों पहले इन गांवों में बंद कर दी गई है।
पहाड़ के आदिवासी गांवों में सरकार ने शुरू में राशन भी बंद कर दिये थे लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन ने लड़कर इन गांवों में राशन सुविधा मुहैया कराए। आप आई.सी.यू. से ऑक्सीजन हटा लीजिए और बिजली कनेक्शन भी कटवा दीजिए तो मरीज कितने भी लाचार हों, अस्पताल छोड़कर भाग जायेंगे। मध्य प्रदेश सरकार की चाल कुछ ऐसी ही थी। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने पहाड़ के गांवों में निवास कर रहे आदिवासियों को शहर तक आने-जाने के लिए आंदोलन के सहयोग से नावें उपलब्ध करायी हैं। पहाड़ के गांवों में आंदोलन ने ‘‘लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ’’ के सूत्रवाक्य के साथ 12 जीवनशाला स्थापित किए हैं। इन जीवनशालाओं में कुल 1 हजार से ज्यादा बच्चे आंदोलन द्वारा नियुक्त विस्थापित शिक्षकों से पहली से पांचवी तक की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। पहाड़ के गांवों में वैकल्पिक चिकित्सा के लिए आंदोलन ने चलित चिकित्सालय यानी नाव पर अस्पताल की व्यवस्था की है। पहाड़ के गांवों में सप्ताह में एक दिन चलित चिकित्सालय से निःशुल्क चिकित्सा व दवा उपलब्ध है।
जलसिंधी के लुहारिया का घर पहली बार 1995 की डूब में डूब गया। पहाड़ पर चढ़कर लुहारिया ने फिर हिम्मत से दूसरा घर बनाया। 1996 में यह दूसरा घर और खेती की 7 एकड़ जमीन डूब गयी। अब लुहारिया ने पहाड़ पर चढ़कर तीसरी बार घर बनाया है। अपनी जमीन डूबने के बाद अब लुहारिया वन विभाग की जमीन अतिक्रमण कर खेती कर रहा है। हर साल डूब आने से डूब जनित बीमारियों में गाय-गोरू, बकरे एक-एक कर मरते गये। 40-50 गाय-बैल, 70-80 बकरे पालने वाले लुहारिया के पास अब 2-4 गाय-बकरे बचे हैं। जलसिंधी में इस तरह पहाड़ पर चढ़कर खड़े 160 विस्थापित परिवार जमीन के बदले जमीन की प्रत्याशा में पहाड़ और नाव पर जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है।
आप जानते हैं कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने तब भारत सरकार और सर्वोच्च न्यायालय को राज्य की तरफ से स्पष्ट कहा था कि मध्य प्रदेश सरकार सरदार सरोवर की डूब से हो रहे विस्थापन का पुनर्वास करने में सक्षम नहीं है, इसलिए कि मध्य प्रदेश सरकार के पास अपने विस्थापितों के पुनर्वास के लिए जमीन ही उपलब्ध नहीं है। कालान्तर में सरकारें बदलीं तो कांग्रेस और भाजपा का फर्क भी खत्म होता गया। अब मध्य प्रदेश की संघपोषित सरकार न ही कारखाने में जमीन तैयार कर सकती है, न ही 45 हजार विस्थापितों के परिवार को चुन-चुनकर समंदर में फेंक सकती है। मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार के लिए अपने नागरिक समूह की रक्षा से ज्यादा जरूरी नरेन्द्र मोदी की शान सरदार सरोवर की ऊंचाई को बढ़ाने में सहयोग करना है। एनवीडीए शिवराज सिंह चौहान के निर्देश से फर्जी आंकड़े तैयार करता है और हर मोड़ पर राज्य प्रायोजित झूठ उजागर हो जाता है। अब देखिए सरकार ‘‘जमीन हक सत्याग्रह’’ के ‘‘जमीन-कब्जा’’ के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई क्यों नही कर पा रही है? एनवीडीए की सूची में जब सबका पुनर्वास हो चुका है तो पहाड़ के 7 गांवों के 150 विस्थापित परिवारों ने सरकार की जमीन पर अधिकार जमाने का साहस कैसे जुटाया?24 दिसंबर को ‘‘जमीन हक सत्याग्रह’’ का एक माह पूरा हुआ तो अखबारों के संवाददाता सत्याग्रह स्थल पर आये। पत्रकारों ने पूछा-आज आंदोलन के एक माह पूरे होने पर खास खबर क्या है? आज निमाड़ के कुछ किसान जो जमीन के नाप-जोख का हिसाब जानते हैं, वे आज पहाड़ के 7 गांवों के 150 घोषित विस्थापितों के बीच जमीन का बंटवारा करेंगे। पत्रकारों को सब कुछ अचरज की तरह लग रहा है कि जो जमीन आपकी है नहीं, उसे आप किस तरह बांट लेंगे। जमीन के नाप-जोख के बाद 87 एकड़ में 80 एकड़ जमीन पहाड़ के 7 गांव ककराना, झंडाना, भिताड़ा, अंजनवारा, सुगट, जलसिंधी और भादल के 150 परिवारों के बीच बांट दिया गया। बंटवारे का मतलब ग्राम एकता से श्रमशक्ति में सामूहिक हिस्सेदारी से है। खेती किसी व्यक्ति विशेष के हाथ में न जाकर सामूहिक नेतृत्व से संचालित होगी। सामूहिक-सहकारी खेती का संपूर्ण नियंत्रण आंदोलन के पास होगा। शेष बचे 7 एकड़ को विस्थापितों के आवास और विस्थापितों के बच्चों के जीवनशाला व खेलने के मैदान के लिए सुरक्षित रखा गया है। सरकार की जमीन पर पहले कब्जा, फिर खेती और अब आपस में बंटवारा-सारी सूचना मीडिया से सार्वजनिक हो रही है। आज जमीन की नापी-बंटवारे के समय मेड़ों पर गांवों की नामपट्टी टांगते हुए कुछ लोग सशंकित थे, क्या मीडिया वालों के पीछे-पीछे पुलिस वाले भी आ धमकेंगे?
जलसिंधी की जानकी बाई ने कहा-‘‘पुलिस-कचहरी-जेल से डर गये तो मर गये। खटमल के डर से आदमी खाट को छोड़ दे तो तमाम खाटों पर खटमलों का कब्जा हो जायेगा।’’ आप समझ गये, पहाड़ के आदिवासियों के लिए खटमल कौन है? सुनील जोशी नामक एक स्थानीय पत्रकार ने जानकी बाई की हाजिर-जवाबी का साथ देते हुए कहा- “हमारी मजबूरी है कि हम विस्थापित आदिवासियों के आंदोलन का समर्थन करें। अलीराजपुर में 70 फीसदी से ज्यादा आदिवासी हैं। अगर मध्य प्रदेश सरकार के दबाव में विस्थापित आदिवासी मध्य प्रदेश छोड़कर गुजरात चले जाते हैं तो हम गैर आदिवासी भी इनकी पीठ धरे अलीराजपुर छोड़ देंगे।” इस संवाददाता को आप विस्थापन का हकदार नहीं मानेंगे लेकिन विस्थापित आदिवासियों के हक में सोचते हुए अपनी जिंदगी और भविष्य के खतरों से सशंकित होना क्या जोशी का सिर्फ भावनात्मक पक्ष है? पत्रकार जोशी की बात सुनकर मेरी आंखें भर गयीं। क्या इन्हीं खबरनवीशों ने लड़ाकूओं की पीठ पर खड़े होकर लड़ाई और पत्रकारिता को बिखरने से बचाये रखा है? जीवनशाला के बच्चे साथ होकर नारे लगाते हैं तो नारों का स्वर संगीतमय कोरस की तरह कर्णप्रिय हो जाता है। आप बाल प्रतिरोध के कोरस को सुन रहे हैं तो आप भी साथ होकर नारे लगाइये-‘‘आमु अक्खा एक हैं, एक हैं ’’ यानी हम सब एक हैं।
इस ‘जमीन हक सत्याग्रह’ में नुक्का-चोरी कुछ भी नहीं है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अलीराजपुर में 10 दिसम्बर को पत्रकारों से ‘‘जमीन हक सत्याग्रह’’ के बावत सवाल पूछने पर कहा- ‘‘लोगों को शांतिप्रिय आंदोलन का लोकतांत्रिक हक प्राप्त है, लेकिन विस्थापितों को उचित मुआवजा दे दिया गया है।” मुख्यमंत्री ने सरदार सरोवर के विस्थापितों के संदर्भ में सवाल-जवाब से बचते हुए पत्रकारों को स्वस्थ व सकारात्मक पत्रकारिता का उपदेश सुनाया। जाहिर है कि विस्थापितों के आंदोलन और उनकी समस्याओं से जुड़ी खबरों का प्रकाशन मुख्यमंत्री नकारात्मक और अस्वस्थ पत्रकारिता मानते हैं। लेकिन यह भी सच है कि मुख्यमंत्री अपने बयानों से देर तक जनमानस को भरमा कर नहीं रख सकते। सर्वोच्च न्यायालय, पुनर्वास नीति और नर्मदा पंचाट का सख्त निर्देश है कि विस्थापित को जमीन के बदले जमीन दिया जाये। मुआवजा पैकेज या जमीन के बदले जमीन का विकल्प विस्थापित अपनी स्वेच्छा से स्वीकार करेगा। लेकिन मध्य प्रदेश में जमीन के बदले जमीन ना देकर, जबरन या धोखे में मुआवजा पैकेज थमाकर निमाड़ के हजारों विस्थापितों के साथ धोखाधड़ी की गयी।
आंदोलन के दिवंगत कार्यकर्ता आशीष मंडलोई ने इस धोखाधड़ी की पड़ताल की थी। नियमतः मुआवजा पैकेज प्राप्त विस्थापितों ने एनवीडीए के पास मुआवजे से खरीदी गई जमीन का दस्तावेज पेश किया था। शासकीय महकमे के मेलजोल से एक ही जमीन के खाते-खसरे की 20-20 बार बिक्री की गई। सब कुछ कागज पर होता गया। इस लूट का पर्दाफाश सूचना का अधिकार के तहत मंगाये गये साक्ष्यों से हुआ तो हाईकोर्ट ने तथ्यों के आधार पर लूट को सही मानकर आंदोलन की मांग पर घोटाले की जांच के लिए न्यायिक आयोग गठित कर दी। अदालत ने झा कमीशन के जांच के दायरे में पुनर्वास पैकेज के साथ-साथ पुनर्वास स्थलों के निर्माण में राजकीय अराजकता को भी शामिल कर दिया। भूख से हो रही मौत के संदर्भ में पीयूसीएल बनाम भारत सरकार की रिट याचिका 196/2001 के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि देश के किसी भी हिस्से में किसी आदमी को भूखा नहीं रहना चाहिए। इस निर्देश के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त खाद्य सुरक्षा एवं भूख मामलों के आयुक्त मध्य प्रदेश राज्य सलाहकार ने 2004 में सरदार सरोवर के डूब प्रभावित पहाड़ के 15 गाँवों का सर्वे कर मध्य प्रदेश सरकार को निर्देश दिया था कि इन गाँवों में जीविका के आधार समाप्त हो चुके हैं और सरकारी योजनाओं से विस्थापितों को आंशिक सहायता ही उपलब्ध हो रही है।
राज्य सलाहकार की रिपोर्ट पर सुप्रीम कोर्ट के भूख मामलों के आयुक्त ने मध्य प्रदेश सरकार को डूब के इन गाँवों में मुफ्त में अनाज वितरण जैसी योजनाएं चलाने का निर्देश दिया था ताकि कोई आदमी भूखा ना रह पाये। 2011 में सुप्रीम कोर्ट के भूख मामलों के राज्य सलाहकार ने सरदार सरोवर की डूब से प्रभावित पहाड़ के 26 गाँवों का अध्ययन कर स्पष्ट कहा है कि 17 गाँवों की जमीन डूब चुकी है। इन गाँवों में खाद्य एवं जीवन सुरक्षा के लिए तत्काल विशेष योजनाएं संचालित होनी चाहिए। बड़वानी से 70 कि.मी. दूर अलीराजपुर जिला के ककराना के सुरभान सोलंकी बताते हैं- “ककराना में विस्थापितों की सूची में 100 परिवार पुनर्वास के लिए बचे हैं, जिन्होंने जमीन के बदले जमीन की शर्त पर पुनर्वास का पैकेज ठुकरा दिया हैं। ककराना के 300 विस्थापित परिवार एनवीडीए के अधिकारियों के बहकावे में ककराना से अपना घर-बार तोड़कर 1995 में गुजरात चले गये। ये 100 परिवार तत्काल गुजरात लौटकर ककराना चले आए। जो 200 परिवार गुजरात में बस गये, वे खेती की जमीन के लिए गुजरात में दर-दर भटक रहे हैं और उनकी हालत भिखारियों वाली हो गई हैं। ककराना के विस्थापितों के घर-बार, खेती-बाड़ी 2006 में पूरी तरह डूब गए।
सुरभान सरकारी स्कूल में आसरा लेकर रहते हैं। गुजरात से लौटकर आए, मुआवजा पैकेज नहीं छूने वाले और विस्थापन के बावजूद अपात्रता वाले ककराना के कुल 300 परिवार पहाड़ पर चढ़कर टिके हुए हैं। नर्मदा की मछली इनकी जिंदगी का एक मात्र सहारा है। पूरे गाँव में मात्र 20-25 लोगों को अंत्योदय की पात्रता प्राप्त है। सुरभान की मानें तो पिछले साल लकड़ी बेचकर परिवार चलाने वाले अमास्या नायक की मौत भूख से हो गई। बरसात में लकड़ी नहीं मिलने से उसके घर में भूखमरी आ गई थी। सुरभान 2005 तक 8 एकड़ जमीन के स्वामी थे। 2006 की डूब में सुरभान की खुशहाली कंगाली में बदल गई। सुरभान आंदोलन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं। इसलिए सुरभान की बात में दम है कि भूखमरी ककराना का स्वभाव हो चुका है। ककराना जैसे पहाड़ के गाँवों में रह रहे मनुष्यों के लिए तत्काल मानवीय सुविधाओं के साथ आपातकालीन राहत शिविर के बंदोबस्त होने चाहिए। अलीराजपुर की जिलाधिकारी पुष्पलता सिंह ने भी फोन पर बातचीत में स्वीकार किया है कि डूब प्रभावित कुछ आदिवासी गाँवों में लोगों के पास जीविका के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं।
एनवीडीए के एक शीर्ष अधिकारी ने मुझे बताया कि उन्हीं लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया हैं, जो एनवीडीए द्वारा सुझाई गई जमीन को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। पथरीली और अतिक्रमित जमीन विस्थापित क्यों लें? ककराना के आदिवासी विस्थापितों को एनवीडीए के अधिकारियों ने 2010 में धार जिला के रिंगनोद में जमीन दिखाई। उस जमीन पर पीढ़ियों से बसे आदिवासियों ने नव आगंतुकों पर पत्थर चलाए, इस संदर्भ में सरदारपुर थाने में प्राथमिकी भी दर्ज हुई। भूस्वामित्व का अधिकार पत्र ना होने के बावजूद किसी अतिक्रमित को पुनर्वासित कराए बिना दूसरे विस्थापित को बसाने की कोशिश में पूर्व निवास कर रहे नागरिक का विस्थापन, मानवाधिकार का हनन है। एक को विस्थापित कर दूसरे विस्थापित को बंदूक की ताकत पर पुनर्वासित करने की कोशिश न्यायोचित नहीं है। अलीराजपुर जिला का जलसिंधी एक ऐसा पहाड़ी गाँव है, जो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समाचारों में खूब चर्चित हुआ। लेकिन जलसिंधी के विस्थापितों को न्याय नहीं मिला।
जलसिंधी के लुहारिया का घर पहली बार 1995 की डूब में डूब गया। पहाड़ पर चढ़कर लुहारिया ने फिर हिम्मत से दूसरा घर बनाया। 1996 में यह दूसरा घर और खेती की 7 एकड़ जमीन डूब गयी। अब लुहारिया ने पहाड़ पर चढ़कर तीसरी बार घर बनाया है। अपनी जमीन डूबने के बाद अब लुहारिया वन विभाग की जमीन अतिक्रमण कर खेती कर रहा है। हर साल डूब आने से डूब जनित बीमारियों में गाय-गोरू, बकरे एक-एक कर मरते गये। 40-50 गाय-बैल, 70-80 बकरे पालने वाले लुहारिया के पास अब 2-4 गाय-बकरे बचे हैं। जलसिंधी में इस तरह पहाड़ पर चढ़कर खड़े 160 विस्थापित परिवार जमीन के बदले जमीन की प्रत्याशा में पहाड़ और नाव पर जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है। जलसिंधी, सुगट, भादल के आदिवासियों के नायक रहे भीमा नायक, छित्तू किराड़ पहाड़ पर, बामनीया नायक, मोतिया भील, टंट्या मामा के वंशज हैं। सुगट के रतन दलसिंह बामनीया नायक के परपोते हैं। रतन दलसिंह अपनी खेती- बाड़ी, जमीन-जायदाद डूबने के बाद भी पहाड़ पर चढ़कर डटे हैं। रतन ने दो बार अपना घर डूबने के बाद तीसरी बार घर बनाने का साहस जुटाया है। रतन दलसिंह के साथ सुगट के 50 ऐसे आदिवासी परिवार हैं, जिन्हें एनवीडीए ने विस्थापित मानने से इनकार कर दिया है।
अब तक विस्थापन और पुनर्वास के झमेले में सरकारी महकमे के चाल-ढाल को देखकर अगर आपका दिमाग नरभसा रहा हो तो आप मुझे माफ कर देंगे। मानव समूह पर सरकार प्रायोजित आपदा की त्रासदी को दर्ज करना मेरे लिए भी सुखकर नहीं है लेकिन शायद अपने पास इस समय कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है। आज सुबह अलीराजपुर के कलेक्टर से जानकारी मिली है कि जोबट कृषि फार्म हाउस के प्रबंधक ने जोबट थाने में सत्याग्रहियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कराया है। जिलाधिकारी ने फार्म हाउस की जमीन पर कब्जादारी को गैरकानूनी बताते हुए कहा है कि प्रशासन राज्य सरकार के आदेश से कानूनी कार्रवाई करेगा। राज्य सरकार कार्रवाई के लिए कानूनी पेंच ढूंढ रही है। 2007 में बड़वानी के बजट्टा कृषि फार्म हाउस की 100 एकड़ जमीन पर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने इसी तरह जमीन हक सत्याग्रह कर सरकारी जमीन पर कब्जा जमा लिया था। 13 दिनों तक चले सत्याग्रह में विस्थापितों ने 100 एकड़ सरकारी जमीन पर मक्का बो दिया था। राज्य सरकार के निर्देश पर पुलिस ने बेरहमी से लाठियां चलाईं और सत्याग्रहियों को जेल भेज दिया था। तब मेधा पाटकर ने इन्दौर जेल में उपवास किया था और जबलपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को शांतिपूर्ण आंदोलन पर पुलिसिया हमले के विरुद्ध पत्र लिखकर न्याय की मांग की थी।
उच्च न्यायालय ने विस्थापितों के “जमीन हक सत्याग्रह” को लोकतांत्रिक अधिकार बताते हुए कानूनी अधिकार के लिए संगठित संघर्ष को जायज करार दिया था। न्यायालय ने पुलिसिया दमन को मानवाधिकार हनन का मामला मानते हुए एक-एक सत्याग्रही को 10-10 हजार रुपए का नुकसान भरपाई भुगतान का निर्देश राज्य शासन को दिया था। इस फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी जेल भेजे गए 92 सत्याग्रहियों को अंतिम फैसले से पूर्व तत्काल पाँच-पाँच हजार रुपए नुकसान भरपाई भुगतान का निर्देश दिया। अपने दमन के लिए जुर्माना अदा कर चुकी सरकार इस बार जोबट में विस्थापितों के “जमीन हक सत्याग्रह“ के विरुद्ध जल्दबाजी में किसी तरह की कार्रवाई नहीं करेगी। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सत्याग्रह का जोबट बांध से विस्थापितों के संगठन “जोबट बांध संघर्ष समिति” ने समर्थन किया है। जोबट बांध परियोजना नर्मदा की सहायक नदी हथनी पर निर्मित है। यह परियोजना वर्ष 2000 में पूरी हो गई। इस परियोजना में पास के 13 गाँवों के 1500 परिवारों के 10 हजार ज्यादा लोग विस्थापित हुए।
माछलिया से विस्थापित नवलसिंह बघेल के पास 5 एकड़ जमीन थी। बघेल को घर-जमीन सहित मात्र एक लाख 80 हजार रुपए का मुआवजा प्राप्त हुआ। जोबट बांध संघर्ष समिति से उजड़े विस्थापितों को पहली बार नर्मदा बचाओ आंदोलन के इस सत्याग्रह से यह जानकारी मिली है कि किसी विकास परियोजना में विस्थापितों को पुनर्वास उनका कानूनी हक है। हमने जोबट बांध परियोजना को समझने की कोशिश की तो हमारा दिमाग जलने लगा। दरअसल इस बांध परियोजना का नाम शहीद चंन्द्रशेखर आजाद जोबट परियोजना है। हथिनी नदी क्रांतिकारी शहीद के जन्म ग्राम अलीराजपुर के भाबरा ग्राम से निकलती है, इसलिए अमर शहीद क्रांतिकारी के साथ जुड़ी जन आस्था को वोट बैंक में बदलने के लिए मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने इस परियोजना को आजाद के नाम सुपुर्द कर दिया। देश के प्रगतिशील संचेतन बुद्धिजीवियों के लिये यह सूचना आघात करने वाली है कि 10 हजार आदिवासियों को पुनर्वास के बिना धक्का देकर उजाड़ने वाली किसी बांध परियोजना का नामकरण देश के अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद के नाम से क्यों? मैंने लौटते हुए जोबट के आजाद चौक पर खड़े शहीद चन्द्रशेखर आजाद को सलाम कर लिया। जोबट से छूटते हुए यह बात सुकून दिला रही है कि शहीद चन्द्रशेखर आजाद को जन्म देने वाली धरती आदिवासियों के जमीन कब्जा, अधिकार कब्जा हल्ला बोल का साक्षी बनी है।
-साभार - रविवार.कॉम
/articles/naramadaa-maen-jamaina-haka-kaa-halalaa-baola