विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक नर्मदा घाटी आज भी समृद्ध प्रकृति के लिए मशहूर है। घाटी में नदी किनारे पीढ़ियों से बसे हुए आदिवासी तथा किसान, मजदूर, मछुआरे, कुम्हार और कारीगर समाज प्राकृतिक संसाधनों के साथ मेहनत पर जीते आए हैं। इन्हीं पर सरदार सरोवर के साथ 30 बड़े बांधों के जरिये हो रहे आक्रमण के खिलाफ शुरू हुआ जन संगठन नर्मदा बचाओ आंदोलन के रूप में पिछले 25 वर्षों से चल रहा है। विश्व बैंक को चुनौती देते हुए उसकी पोल इस आंदोलन ने खोली है। तीन राज्यों और केंद्र के साथ इसका संघर्ष आज भी जारी है। सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में दो लाख लोग बसे हैं। ये लोग वर्ष 1994 से डूबी जमीन के बदले जमीन के लिए लड़ रहे हैं। हजारों आदिवासी, बड़े-बड़े गांव और शहर, लाखों पेड़, मंदिर-मसजिद, दुकान-बाजार डूबे नहीं हैं, पर 122 मीटर की डूब में धकेले गए हैं। बड़े बांधों से समूचे घाटी के पर्यावरण को नुकसान के साथ लाखों लोगों का विस्थापन तो हुआ ही है, यह इस देश की धरोहर नर्मदा, वहां की उपजाऊ जमीन, जंगल और नदी के साथ भी खिलवाड़ है। सरदार सरोवर की लागत 4,200 करोड़ से बढ़कर 70,000 करोड़ रुपये हो गई। इसके बावजूद सिंचाई के लिए पानी और बिजली की बहुत कम उपलब्धता है, कच्छ-सौराष्ट्र को पानी का अपेक्षित हिस्सा भी नहीं मिलता, तो फिर विनाश क्यों?
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने अपने 25 वर्षों के अनुभव से देश बचाओ आंदोलन तक का संकल्प लिया है। नर्मदा घाटी आदिमानव का जन्म स्थान है। सतपुड़ा-विंध्य की पहाड़ी में बसे आदिवासी और निमाड़ के मैदानी गांव के लोग नर्मदा को मां मानकर उसी के सहारे उपजाऊ खेती या विविध पहाड़ी पैदावार और वनोपज के साथ जी रहे हैं। निमाड़ की धरती को पूंजी के चपेट से बचाने की तमन्ना वहां के किसानों में आज भी है। यहां के आंदोलनकारियों ने आज भी कुछ पहाड़ियों पर जंगल बचा रखे हैं। इन लोगों ने 25 वर्षों के इस संघर्ष में पत्थर भी हाथ में नहीं लिया, वे सत्याग्रह को ही हथियार मानते रहे।
नर्मदा घाटी की लड़ाई विकास-विरोधी नहीं, बल्कि सही विकास के लिए है। यहां बन रहे या कुछ बन चुके 30 बड़े बांधों में से एक बांध में 248 छोटे ओर बड़े आदिवासी और किसानी गांवों की आहुति देकर, लाखों पेड़, जंगल, पक्के मकान, स्कूल, बाजार आदि खोकर भी किसे लाभ हो रहा है और कितना, यह सवाल इस आंदोलन के जरिये खड़ा किया गया। तब जाकर जापान, जर्मनी, कनाडा अमेरिका की कुछ संस्थाओं और विश्व बैंक को पुनर्विचार करते हुए अपना हाथ और साथ वापस खींचना पड़ा। वर्ष 1993 में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जनशक्ति के साथ, हर मोरचे पर खड़ा हुआ यह आंदोलन पुनर्वास तथा पर्यावरण को होने वाले नुकसान को सही साबित करता गया। लेकिन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों, ठेकेदारों और नौकरशाहों ने बांध नहीं रोका। आखिर सर्वोच्च न्यायालय को उसे 1995 से 1999 तक रोकना पड़ा। फिर वर्ष 2000 से आगे बढ़ा महाकाय बांध आज भी रुका है। आज 40,000 से अधिक परिवार डूब क्षेत्र में रह रहे हैं। वर्ष 1993 से 1997 तक डूब चुकी आदिवासियों की जमीनें और गांव सुबूत हैं कि विनाश कितना भयावह होता है। लड़ते-झगड़ते और लाठी-गोली खाते महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 10,500 आदिवासी परिवारों को तो जमीनें मिल गईं, लेकिन तीन राज्यों में आज भी हजारों परिवारों के पास रहने के लिए जमीन नहीं है।
नर्मदा घाटी की एक ऐसी प्राचीन संस्कृति को बरबाद करने की साजिश है, जो अपने आप में अनूठी है। यहां इतनी ईमानदारी है कि लकड़ी चाहे कटी हुई क्यों न पड़ी हो, उसकी चोरी नहीं होती थी। यहां के एक भी प्रतिशत लोग बाहर मजदूरी करने नहीं गए और नर्मदा किनारे के जल, जंगल, जमीन, मछली से ही अपनी जरूरतों की पूर्ति करते रहे। आज भी नर्मदा तट के आदिवासी घरों में 90 प्रतिशत चीजें बाजार से नहीं, जंगल से आती हैं। अपना हल खुद बनाने वाले यहां के किसान खेती के औजारों में लोहे का इस्तेमाल शायद ही करते रहे हों।
आजादी के बाद दशकों तक यहां के गांवों में शायद ही सरकारी स्कूल ढंग से चले हों। तब ग्रामीणों ने अपनी पाठशालाएं शुरू कीं। आज क्षेत्र में असंख्य पढ़े-लिखे बच्चे हैं, हालांकि इन्हें बाजार, शासन-प्रशासन तथा साहूकारों की लूट से पूरा छुटकारा नहीं मिला है। अपने वनोपज पर अधिकार होने के बावजूद उन्हें इसके सही दाम नहीं मिल पाए। दूसरी तरफ निमाड़ का मैदानी क्षेत्र फलोद्यान और समृद्ध खेती से पहचाना जाने वाला किसानी इलाका है। पिछले 20 वर्षों से भी अधिक समय से नर्मदा की जल संपदा से यहां के खेतों को उर्वर बनाते हुए अब अनेक किसान जैविक खेती पर भी उतर आए हैं, क्योंकि यह समय की मांग है।
यहां के आदिवासी-पहाड़ी पट्टी के हजारों परिवारों ने अपनी जमीन बेचने के बारे में कभी सोचा नहीं, लाखों का लालच भी उन्हें डिगा नहीं सका। निमाड़ के कृषि बाजार से जुड़े कुछ लोगों को दलालों ने फंसाया, तो उसमें भी करोड़ों के भ्रष्टाचार की पोल खोली गई। विस्थापित परिवारों के अनेक युवा नर्मदा बचाओ आंदोलन में लगातार सक्रिय हैं और कभी गले तक पानी में, कभी पुलिस के हमले के सामने और कभी अन्य आंदोलनों को समर्थन देने के लिए सदा तैयार रहते हैं। तमाम बाधाओं के बीच भी नर्मदा घाटी के लोगों ने हिम्मत और प्रतिबद्धता के साथ अपने गांव और खेती बचाकर रखी है। अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर चल रहा यह जनांदोलन यहां के लोगों के लिए जीवन का हिस्सा ही बन गया है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने अपने 25 वर्षों के अनुभव से देश बचाओ आंदोलन तक का संकल्प लिया है। नर्मदा घाटी आदिमानव का जन्म स्थान है। सतपुड़ा-विंध्य की पहाड़ी में बसे आदिवासी और निमाड़ के मैदानी गांव के लोग नर्मदा को मां मानकर उसी के सहारे उपजाऊ खेती या विविध पहाड़ी पैदावार और वनोपज के साथ जी रहे हैं। निमाड़ की धरती को पूंजी के चपेट से बचाने की तमन्ना वहां के किसानों में आज भी है। यहां के आंदोलनकारियों ने आज भी कुछ पहाड़ियों पर जंगल बचा रखे हैं। इन लोगों ने 25 वर्षों के इस संघर्ष में पत्थर भी हाथ में नहीं लिया, वे सत्याग्रह को ही हथियार मानते रहे।
नर्मदा घाटी की लड़ाई विकास-विरोधी नहीं, बल्कि सही विकास के लिए है। यहां बन रहे या कुछ बन चुके 30 बड़े बांधों में से एक बांध में 248 छोटे ओर बड़े आदिवासी और किसानी गांवों की आहुति देकर, लाखों पेड़, जंगल, पक्के मकान, स्कूल, बाजार आदि खोकर भी किसे लाभ हो रहा है और कितना, यह सवाल इस आंदोलन के जरिये खड़ा किया गया। तब जाकर जापान, जर्मनी, कनाडा अमेरिका की कुछ संस्थाओं और विश्व बैंक को पुनर्विचार करते हुए अपना हाथ और साथ वापस खींचना पड़ा। वर्ष 1993 में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, जनशक्ति के साथ, हर मोरचे पर खड़ा हुआ यह आंदोलन पुनर्वास तथा पर्यावरण को होने वाले नुकसान को सही साबित करता गया। लेकिन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात की सरकारों, ठेकेदारों और नौकरशाहों ने बांध नहीं रोका। आखिर सर्वोच्च न्यायालय को उसे 1995 से 1999 तक रोकना पड़ा। फिर वर्ष 2000 से आगे बढ़ा महाकाय बांध आज भी रुका है। आज 40,000 से अधिक परिवार डूब क्षेत्र में रह रहे हैं। वर्ष 1993 से 1997 तक डूब चुकी आदिवासियों की जमीनें और गांव सुबूत हैं कि विनाश कितना भयावह होता है। लड़ते-झगड़ते और लाठी-गोली खाते महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 10,500 आदिवासी परिवारों को तो जमीनें मिल गईं, लेकिन तीन राज्यों में आज भी हजारों परिवारों के पास रहने के लिए जमीन नहीं है।
नर्मदा घाटी की एक ऐसी प्राचीन संस्कृति को बरबाद करने की साजिश है, जो अपने आप में अनूठी है। यहां इतनी ईमानदारी है कि लकड़ी चाहे कटी हुई क्यों न पड़ी हो, उसकी चोरी नहीं होती थी। यहां के एक भी प्रतिशत लोग बाहर मजदूरी करने नहीं गए और नर्मदा किनारे के जल, जंगल, जमीन, मछली से ही अपनी जरूरतों की पूर्ति करते रहे। आज भी नर्मदा तट के आदिवासी घरों में 90 प्रतिशत चीजें बाजार से नहीं, जंगल से आती हैं। अपना हल खुद बनाने वाले यहां के किसान खेती के औजारों में लोहे का इस्तेमाल शायद ही करते रहे हों।
आजादी के बाद दशकों तक यहां के गांवों में शायद ही सरकारी स्कूल ढंग से चले हों। तब ग्रामीणों ने अपनी पाठशालाएं शुरू कीं। आज क्षेत्र में असंख्य पढ़े-लिखे बच्चे हैं, हालांकि इन्हें बाजार, शासन-प्रशासन तथा साहूकारों की लूट से पूरा छुटकारा नहीं मिला है। अपने वनोपज पर अधिकार होने के बावजूद उन्हें इसके सही दाम नहीं मिल पाए। दूसरी तरफ निमाड़ का मैदानी क्षेत्र फलोद्यान और समृद्ध खेती से पहचाना जाने वाला किसानी इलाका है। पिछले 20 वर्षों से भी अधिक समय से नर्मदा की जल संपदा से यहां के खेतों को उर्वर बनाते हुए अब अनेक किसान जैविक खेती पर भी उतर आए हैं, क्योंकि यह समय की मांग है।
यहां के आदिवासी-पहाड़ी पट्टी के हजारों परिवारों ने अपनी जमीन बेचने के बारे में कभी सोचा नहीं, लाखों का लालच भी उन्हें डिगा नहीं सका। निमाड़ के कृषि बाजार से जुड़े कुछ लोगों को दलालों ने फंसाया, तो उसमें भी करोड़ों के भ्रष्टाचार की पोल खोली गई। विस्थापित परिवारों के अनेक युवा नर्मदा बचाओ आंदोलन में लगातार सक्रिय हैं और कभी गले तक पानी में, कभी पुलिस के हमले के सामने और कभी अन्य आंदोलनों को समर्थन देने के लिए सदा तैयार रहते हैं। तमाम बाधाओं के बीच भी नर्मदा घाटी के लोगों ने हिम्मत और प्रतिबद्धता के साथ अपने गांव और खेती बचाकर रखी है। अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर चल रहा यह जनांदोलन यहां के लोगों के लिए जीवन का हिस्सा ही बन गया है।
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