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फ्लोराइड से बुरी तरह प्रभावित नलगोंडा में सरकार सुरक्षित पेयजल मुहैया कराने में सफल रही है, लेकिन स्थानीय भूजल में फ्लोराइड का स्तर इतना अधिक है कि उससे पूरी निजात सम्भव नहीं। खेती के लिये भी यह चिन्ता का विषय बना हुआ है।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक नव-निर्मित राज्य तेलंगाना की करीब 1200 बस्तियाँ फ्लोरोसिस की समस्या से ग्रस्त हैं। इसमें भी सबसे बुरी स्थिति नलगोंडा जिले की है।
जिले के 17 मण्डल फ्लोराइड की अधिकता के कारण फ्लोरोसिस से बुरी तरह जूझ रहे हैं। फ्लोरोसिस वह स्थिति है जो शरीर में फ्लोराइड की अधिकता से उत्पन्न होती है। यह फ्लोराइड पेयजल तथा अन्य माध्यमों से हमारे शरीर में जाता है। इसकी वजह से लोगों के शरीर में अस्थि विकृतियाँ तथा अन्य समस्याएँ उत्पन्न होने लगती हैं।
नलगोंडा में अब तक फ्लोरोसिस से निपटने के नाम पर सैंकड़ों करोड़ रुपए फूँके जा चुके हैं लेकिन यह समस्या इतनी विकराल है कि यह राशि भी ऊँट के मुँह में जीरा के समान ही साबित हुई है। बीते एक दशक में यहाँ 800 करोड़ रुपए की राशि खर्च की गई।
एक स्थानीय व्यक्ति राजन्ना आरोप लगाते हैं कि इस राशि का अधिकांश हिस्सा उन ठेकेदारों की जेब में चला जाता है जिनको यहाँ फिल्टर आदि लगाने के ठेके मिलते हैं। असली काम अधूरा रह जाता है। गौरतलब है कि क्षेत्रीय फ्लोराइड मिटिगेशन एवं रिसर्च सेंटर भी अभी यहाँ पूरी तरह तैयार नहीं हो सका है। हालांकि सरकारी आँकड़ों एवं अधिकारियों का कहना है कि जिले में पेयजल की पूरी तरह फ्लोराइड मुक्त आपूर्ति सुनिश्चित की जा चुकी है।विशेषज्ञों का कहना है कि इस क्षेत्र में समस्या निदान का एक ही तरीका है कि पानी की आपूर्ति पूरी तरह सतह पर मौजूद जलस्रोतों से की जाये क्योंकि भूजल स्रोत फ्लोराइड से बुरी तरह प्रभावित हैं।
तेलंगाना के भूजल महानिदेशालय के निदेशक जी सम्बैया कहते हैं कि इलाके में बोरवेल की अधिकता इस समस्या के लिये उत्तरदायी है। बीते दो दशक में जबसे लोगों ने बोरवेल की खुदाई ज्यादा करना शुरू किया है तबसे यह समस्या बहुत बढ़ गई है। एक अनुमान के मुताबिक पूरे जिले में 5 लाख से अधिक बोरवेल हैं।
देश के तमाम हिस्सों में नलगोंडा की पहचान की एक वजह फ्लोराइड और इसके कारण स्थानीय लोगों की मुश्किलें भी हैं। यहाँ के पानी में 1.50 पीपीएम से लेकर 14.75 पीपीएम तक फ्लोराइड दर्ज किया गया है। स्थितियों की भयावहता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नलगोंडा जिले के 59 मण्डलों में से 48 मण्डल इस समस्या से दो चार हैं। इनमें से 17 मण्डल गम्भीर रूप से प्रभावित हैं जहाँ पानी में फ्लोराइड की मात्रा 2.5 पीपीएम से अधिक है। जबकि शेष 31 मण्डलों में यह 1.5 पीपीएम से 2.5 पीपीएम के बीच है।
राष्ट्रीय स्वच्छता एवं पेयजल मंत्रालय की वेबसाइट पर दिये गए आँकड़ों के मुताबिक मारीगुडा मण्डल के सभी नमूनों में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई। ग्रामीण पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक इन गाँवों के पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.6 पीपीएम से 5.5 पीपीएम के बीच मिली।मारीगुडा मण्डल में फ्लोराइड मिटिगेशन से जुड़े एक व्यक्ति ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बताया कि आधिकारिक तौर पर भले ही यह स्तर कम बताया जाता हो लेकिन अनाधिकारिक तौर यह 9 से 16 पीपीएम तक है। बीते दिनों हमने नलगोंडा के मारीगुडा मण्डल के कुछ फ्लोराइड प्रभावित इलाकों का दौरा करके हकीकत का पता लगाने की कोशिश की।
शिवन्नगुड़ा
हमारा पहला ठिकाना बना नलगोंडा जिला मुख्यालय से करीब 65 किमी दूर स्थित गाँव शिवन्नगुड़ा। गाँव में घुसते ही हमारी मुलाकात हुई अमशला स्वामी से। 34 साल का स्वामी देखने में बमुश्किल 5 साल के बच्चे जैसा नजर आता है। कहना नहीं होगा कि उसकी यह हालत फ्लोरोसिस की वजह से हुई है। स्वामी के पिता 63 वर्षीय सत्यनारायण बताते हैं कि 8 साल की उम्र में उसका इलाज हैदराबाद निम्स में शुरू हुआ लेकिन कोई चिकित्सा प्रणाली उसकी मदद नहीं कर पाई। स्वामी की माँ और सत्यनारायण की पत्नी वेंकटअम्मा भी फ्लोरोसिस की शिकार हैं। सत्यनारायण बताते हैं कि विवाह के करीब 10 वर्ष बाद वेंकटअम्मा में फ्लोरोसिस के लक्षण नजर आने शुरू हुए थे।
स्वामी फ्लोरोसिस की विकरालता का स्थानीय चेहरा हैं। वह इस पूरे इलाके में फ्लोराइड और फ्लोरोसिस की भयावह समस्या से पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव, अटल बिहारी वाजपेयी, एचडी देवगौड़ा और पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम तक को अवगत करा चुके हैं। अब उनकी इच्छा मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने की है। स्वामी को औरों से निराशा हाथ लगी है लेकिन उनके मन में यह विश्वास है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अवश्य उनकी मदद करेंगे।
इस बीच एक राहत भरी खबर यह आई कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जयप्रकाश नड्डा ने मरीगुडा मण्डल में 100 बिस्तरों वाला एक फ्लोरोसिस वार्ड बनाए जाने की बात कही है। नलगोंडा में पानी की समस्या को दूर करने के लिये सरकार ने 600 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की थी लेकिन उसका उतना ही हिस्सा जमीन पर पहुँचा जितना कि ऐसी योजनाओं में आमतौर पर पहुँचता है। आसपास के गाँवों में 90 प्रतिशत आपूर्ति सप्लाई के नलकों से होती है लेकिन दिक्कत यह है कि ये नलके सप्ताह में दो बार ही चलते हैं।गाँव के ही एक अन्य फ्लोरोसिस प्रभावित व्यक्ति सेल्लम (25 वर्ष) कहते हैं कि सरकार की ओर से फ्लोरोसिस प्रभावितों को 1500 रुपए की पेंशन अवश्य मिलती है लेकिन मौजूदा महंगाई के दौर में यह राशि पूरी तरह नाकाफी है। करीब 1000 की आबादी वाले इस गाँव में 10 से अधिक लोग ऐसे हैं जिन पर फ्लोरोसिस ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है।
फ्लोरोसिस की समस्या और भीषण जल संकट के चलते गाँव की 20 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। जो बचे हैं वे भी आत्महत्या के बारे में इतनी सहजता से बात करते हैं कि सुनकर डर लगता है। गाँव छोड़ चुके लोगों के बाद बचे लोगों के इरादे और बुरे हैं। वे सीधे जीवन ही छोड़ देना चाहते हैं।
खुदाबख्श पल्ली
खुदाबख्श पल्ली गाँव की आबादी करीब 3300 है। इस गाँव में 10 से अधिक फ्लोरोसिस पीड़ित व्यक्तियों से हमारी मुलाकात होती है। इनमें याद रह जाने वाला नाम रचिता का है। कड़ी धूप में जब हम रचिता के घर पहुँचे तो उसे देखकर अवाक रह गए। करीब 22 साल की रचिता को देखकर कोई भी कह देगा कि इसकी उम्र बमुश्किल चार-पाँच बरस की है।
रचिता के परिवार में उसके अलावा कोई भी फ्लोरोसिस से प्रभावित नहीं है। एक छोटी सी परचून की दुकान चलाने वाली रचिता आत्मनिर्भर है और ऐसे लोगों के लिये सबक भी जो बीमारियों को बहाना बनाकर अपने आपको एकदम सीमित कर लेते हैं।
वट्टीपल्ली
वट्टीपल्ली की 3000 की आबादी में 98 प्रतिशत हिन्दू और करीब दो प्रतिशत मुस्लिम हैं। 35 वर्षीय तिरुपतिअम्मा इसी गाँव में रहती हैं। आबादी के हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का उल्लेख करने की एक ठोस वजह है। तिरुपतिअम्मा के माता-पिता दोनों का देहान्त हो चुका है। अकेले रहने वाली तिरुपतिअम्मा किसी तरह अपना गुजर-बसर चलाती हैं।गाँव के हिन्दू परिवारों ने उनका बायकॉट कर रखा है। इसकी वजह भी बहुत अजीब है। गाँव के अधिकांश हिन्दू परिवारों को लगता है कि तिरुपतिअम्मा शापित महिला हैं। यही वजह है कि केवल मुस्लिम परिवार ही उनके काम आते हैं।
सरकार की ओर से 1500 रुपए पेंशन और 35 किलो चावल पाने वाली तिरुपतिअम्मा का समय टीवी देखने और कुरान पढ़ने में बीतता है। गाँव के लोग उन्हें शापित और छुआछूत का शिकार मानते हैं। नतीजा वह किसी काम में न तो कोई सहयोग ले पाती हैं और न सहयोग दे पाती हैं।
नलगोंडा की भौगोलिक परिस्थिति
नलगोंडा में फ्लोराइड की समस्या के लिये वहाँ की भूगर्भीय परिस्थितियाँ जिम्मेदार हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक फ्लोराइड वहाँ के क्रस्ट यानी धरती की सतह में ही बहुत बड़ी मात्रा में विद्यमान है ऐसे में उसे दूर करना कतई आसान नहीं है।
नलगोंडा जिला प्रशासन लगातार यह कोशिश कर रहा है कि विभिन्न सरकारी विभागों के आपसी तालमेल के साथ ऐसा तरीका खोज निकाला जाये जिसकी मदद से फ्लोराइड निवारण या कहें इसके प्रभाव को कम करने सम्बन्धी उपाय किये जा सकें।
नलगोंडा के ग्रामीण जलापूर्ति विभाग के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर बी रमन्ना बताते हैं कि मारीगुडा फ्लोराइड से प्रभावित होने वाली शुरुआती जगहों में से है। वह कहते हैं कि नलगोंडा जिले में फ्लोराइड मुख्यतया दो प्रकार का है। एक है कृषि आधारित फ्लोराइड तथा दूसरा पानी से होने वाला फ्लोराइड। कृषि आधारित फ्लोराइड में जमीन में मौजूद रासायनिक तत्व फसलों की मदद से लोगों के भोजन तक पहुँचते रहे हैं।रमन्ना कहते हैं कि वह खुद नलगोंडा में सन 1997 से हैं। उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में स्वयंसेवी संगठनों ने भी बहुत काम किया है। उन्होंने बताया कि इस पूरे इलाके को फ्लोराइड रहित करने का काम दो दशक पहले बहुत जोरशोर से शुरू हुआ। इस कोशिश में सबसे पहले लोगों को फ्लोराइड मुक्त पानी उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई। इसके अलावा वर्षाजल संरक्षण एवं पानी को फ्लोराइड मुक्त बनाने की विभिन्न तकनीकें भी अपनाई गईं।
क्या है समस्या की जड़?
आँकड़ों के मुताबिक नलगोंडा में अब कोई भी फ्लोराइड युक्त पानी नहीं पीता है। पीने के लिये पूरे नलगोंडा में उपचारित जल की आपूर्ति की जाती है। लेकिन सरकारी अधिकारी यह बात स्वीकार करते हैं कि अन्य कामों के लिये अभी भी फ्लोराइड युक्त पानी का प्रयोग किया जाता है।खतरनाक बात यह है कि कृषि कार्यों में भी पूरी तरह फ्लोराइड युक्त पानी का प्रयोग किया जाता है। इसलिये इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि फसलों के माध्यम से अभी भी फ्लोराइड लोगों के शरीर में पहुँच रहा हो। आँकड़े बताते हैं कि संयुक्त आन्ध्र प्रदेश के सभी जिलों का अध्ययन किया जाये तो सर्वाधिक बोरवेल तेलंगाना में हैं।
गौरतलब है कि भूजल का प्रयोग फ्लोराइड की समस्या की सबसे अहम वजह रही है। रमन्ना बताते हैं कि मारीगुडा मण्डल में 20,000 से अधिक बोरवेल तो सरकार ने ही खुदवाए हैं। जबकि अनुमान है कि करीब इतने ही बोरवेल लोगों ने निजी तौर पर भी अपनी जरूरतें पूरी करने के लिये खुदवा रखे हैं।बोरवेल का एक असर भूजल स्तर पर भी हुआ है। सन 1997 में जहाँ 50 से 70 फीट पर आसानी से पानी मिल जाया करता था वहीं अब 200 फीट की खुदाई के बाद भी बहुत मुश्किल से पानी मिलता है।
पर्याप्त कर्मचारियों की कमी भी सरकारी विभागों की राह रोकती है। स्थानीय लोग तथा सरकारी अमला दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्वयंसेवी संगठन इस पूरे इलाके में फ्लोराइड को लेकर जागरुकता बढ़ाने तथा आम लोगों को इसके दुष्प्रभावों के बारे में शिक्षित करने का काम पूरी शिद्दत से कर रहे हैं। वे अपने लक्ष्य में काफी हद तक सफल भी हैं।
सरकार ने मानसून के आगमन से पहले व बाद में पानी की गुणवत्ता की जाँच करने तथा लोगों को खुद फ्लोराइड की जाँच में सक्षम बनाने के लिये फील्ड किट जारी करने का काम भी किया है। जाँच में फ्लोराइड पाये जाने पर सम्बन्धित ग्राम पंचायत को इसके बारे में सूचित कर दिया जाता है कि फलां बोरवेल या कुएँ का पानी इस्तेमाल न करें।रमन्ना ने बताया कि लोगों के पेयजल की समस्या का निवारण करने के लिये ग्रामीण जलापूर्ति विभाग ने बकायदा एक टोल फ्री नम्बर जारी किया जो सुबह छ बजे से रात 10 बजे तक लोगों की समस्याएँ दर्ज करता है। इनका समय से निवारण भी किया जाता है। पानी की आपूर्ति नागार्जुन सागर, उदय समुद्रम एवं अन्य जलस्रोतों से मिशन भगीरथ के अधीन की जाती है।
मारीगुडा के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र के असिस्टेंट सिविल सर्जन डा. पी सोलोमन कहते हैं कि बीते 10 सालों में स्केलेटल फ्लोरोसिस के मामले नहीं के बराबर देखने को मिले हैं। डेंटल फ्लोरोसिस के कुछ मामले जरूर देखने को मिले हैं। आधिकारिक तौर पर पानी में फ्लोराइड का स्तर 4 से 6 पीपीएम है। जबसे इलाके में फ्लोराइड मुक्त पेयजल उपलब्ध कराया गया है तब से यह समस्या काफी हद तक नियंत्रण में है।
वनीकरण की भूमिका
वनीकरण जमीन में फ्लोराइड की मात्रा को सीमित करने में अहम भूमिका निभा सकता है। नलगोंडा जिला प्रशासन ने जिले के वन क्षेत्र को मौजूदा 5.8 प्रतिशत से बढ़ाकर 33 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस दिशा में जोर-शोर से काम चल रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में वन, शिक्षा, कल्याण, उद्योग आदि विभागों के साथ-साथ निजी संस्थानों और स्वयंसेवी संगठनों को भी जोड़ा गया है।
नलगोंडा में इनरेम
इनरेम फाउंडेशन के नलगोंडा प्रोजेक्ट फ्लोराइड नालेज एंड एक्शन नेटवर्क के रीजनल डायरेक्टर श्रीनिवास चेकुरी बताते हैं कि उनका संगठन पिछले तकरीबन दो वर्षों से नलगोंडा में सक्रिय है। डीएफएमसी को टेक्निकल मदद मुहैया करा रहा है। मेडिकल रिहैबिलिटेशन को लेकर काम कर रहा है। कुछ फेलोशिप भी अवार्ड की गई हैं। इनरेम के फेलोशिप धारक सद्गुरु प्रसाद पिछले दिनों झाबुआ के दौरे पर गए थे जहाँ उन्होंने इनरेम की झाबुआ टीम के पोषण बगीचे का अध्ययन किया जिसे अब नलगोंडा में अपनाया जाएगा। पोषण बगीचे में इनरेम की टीम वे सभी खाद्य पदार्थ उगा रही है जो फ्लोराइड की समस्या से निपटने में मददगार हो सकते हैं। उदाहरण के लिये सहजन, आँवला, चकौड़ा पत्ता आदि।
फ्लोराइड निवारण की नलगोंडा तकनीक
पानी से फ्लोराइड कम करने की सबसे पुरानी तकनीकों में से एक है नलगोंडा तकनीक। इसके तहत पानी में एल्युमिना एवं चूने का घनत्व बढ़ाकर उसमें फ्लोराइड कम करने में सफलता पाई गई। इस प्रक्रिया में जहाँ पानी में फ्लोराइड मान्य स्तर तक लाने में सफलता मिली वहीं पानी के अन्य गुणधर्म अप्रभावित रहे।
नलगोंडा एक दृष्टि में |
|
आबादी |
39 लाख |
भौगोलिक क्षेत्र |
14,322 वर्ग किमी |
कृषि पर निर्भरता |
81 प्रतिशत |
वन क्षेत्र |
5.8 प्रतिशत |
आबादी में अनुसूचित जाति |
18 प्रतिशत |
आबादी में अनुसूचित जनजाति |
11 प्रतिशत |
बोरवेल |
5 लाख से अधिक |
भूजल में फ्लोराइड |
14.75 पीपीएम तक |
स्रोत: डीएफएमसी यानी जिला फ्लोराइड निगरानी केन्द्र |
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