नका जाउ बाहेर शौचाला

सेवाग्राम वर्धा। नवविवाहिता प्रियांश श्री लोहकरे ने ससुराल में आकर खुले में शौच जाने से मना कर दिया। इससे पूरे घर में कोहराम मचा है। परिवार के सारे सदस्य सुबह से मुँह फुलाए बैठे हैं। कोई किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा है। इधर लोहकरे ने दुबारा इस बात को पंचायत के सामने उठाने की धामकी दे दी। इस बात से घर का माहौल और खराब हो गया। लेकिन वह अपने जिद पर अड़ी रही। उसके भीतर गुस्सा भरा है और पीड़ा भी। लेकिन वह जानती है कि यदि आज वह झुकती है तो ससुराल वालों की जीत होगी और कभी भी शौचालय नहीं बन पायेगा। इन उलझनों के बीच उसने अपनी पीड़ा को इस कविता में व्यक्त कियाः

नेहमीच राया तुमचीच मरजी, चला जाउ गावात सांगायला
नका जाउ बाहेर शौचाला ।।
गावच पाटील ऋणता, घडीक लागते
तुमय्या नावान गाव दणाणते
बायको तुमची डबा होउन कडेला जाते
लाज कशी वाटत नाही तुम्हाला हो ।।
नका जाउ बाहेर शौचाला
मी आहे लेक गरीबाची, माहेरी आहे घर माझ छोट
त्यान संडास आहे योग्य नीट, ब्रश झाडू ठेवला संडास घसायला हो ।।
नका जाउ बाहेर शौचाला
सान्या गावानं एत्यावर टाकली विष्ठा, गाव तुमचं होईल बिमारिचा अड्डा
विष्ठेवर बससान माशा हजार, लाखान विषाणू माशीच्या पायाला हो ।।
नका जाउ बाहेर शौचाला
पाटील तुम्ही आना घरान बसा, गखानील महिला होनील गोष्ठा
ग्राम पंचायत मध्ये ठेवली सभा, घरोघरी संडास बंधायला
नका जाउ बाहेर शौचाला ।।
ऐण मंडली भणणं माझ ,लोकाचं लग्न नाही सोय
घरान बांधा संडास नीट, सून येईल माप ओलांडायाला
नका जाउ बाहेर शौचाला ।।


वर्धा जिले के कंरजी भोगे गांव की यह कहानी कोई चार साल पहले की है। तब घरों में शौचालय न होना कोई बड़ी बात नहीं थी। आज भी महिला व आदमी दोंनो शौच के लिये खुले में जाते हैं। गावों में स्वच्छता को प्रथम और सबसे बड़ा धर्म मानने वाले संत गाडगे की इस धरती पर पहले की अपेक्षा बदलाव तो देखने को मिल रहा है पर शौचालय बनवाने के मामले में अभी भी लोगों की सोच बहुत पिछड़ी है। भारत निर्मल यात्रा के दौरान जब हम सेवा ग्राम के पास करंजी गांव पहुंचे तो लोग खुले में शौच करने जाते हुए मिले। गांव में प्रवेश करने से पूर्व बदबू के कारण नाक दबानी पड़ी। कई जगहों पर गंदगी राह चलते दिख रही थी। जिससे यह अनुमान लगाने में देर नहीं लगी कि इस मामले में भारत के अन्य गांवों की तरह यह गांव भी भिन्न नहीं है। गांव के बीचों-बीच बने प्राथमिक पाठशाला में आयोजित हैंड वाश कार्यक्रम में जब बच्चों से पूछा गया कि शौच करने कितने बच्चे खुले में जाते हैं, इस सवाल पर करीब अस्सी प्रतिशत बच्चों ने हाथ उठा दिया और बताया कि उनके घरों में शौचालय ही नही हैं। इसके कारण वह बाहर जाने को मजबूर हैं। यहां तक कि स्कूलों में भी शौचालय की ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं है। स्कूली बच्चों को भी शौच के लिये बाहर जाना पड़ता है। राज्य सरकार ने गांवों में स्वच्छता के लिये कई कार्यक्रम तो चला रखे हैं, लेकिन उसका हाल तो और भी बुरा है। अव्वल तो लोगों ने सरकारी सहायता मिलने के बावजूद शौचालय बनवाये ही नहीं, जो जहां पर बने भी हैं उनमें शौच के लिये जाना खतरे से खाली नहीं।

स्कूलों में लड़कियों के लिये शौच व सेनिटेशन पैड आदि के लिये व्यवस्था का बुरा हाल है। हालांकि स्कूलों की दीवारों पर लिखे कुछ सूक्त वाक्यों से तो लगता है कि जैसे लड़कियों के प्रति सम्मान होगा। मीना मुलगी तुमची आमची, शिकवू तिला शाहणी मसलन वह चाहे हमारी लड़की हो चाहे तुम्हारी, उनमें कोई अंतर नहीं है। हम उसे पढ़ायेंगे, आगे बढ़ायेंगे। यह पढ़ने और सुनने में तो अच्छा लगता है पर जब इन्हीं लड़कियों को शौच के लिये घर से बाहर खुले में शौच के लिये जाना पड़ता है तो यह सूक्त वाक्य मुँह चिढ़ाते हैं। प्रियांश लोहकरे ने जो पीड़ा झेली है वह आज भी इन लड़कियों के सामने बरकरार है। यह कहते हैं पेशे से अध्यापक प्रदीप मनोहर राव देशमुख। साईनगर वार्ड 4 के निवासी श्री देशमुख गांव के स्वच्छता अभियान से भी जुड़े हुए हैं। उन्होंने बताया कि हगनदारी मुक्त गांव बनाने के लिये लोगों में व्यवहार परिवर्तन की आवश्यकता है। अन्यथा सरकारें चाहे जितना भी प्रयास करें गावों को खुले में शौच मुक्त बनाना आसान नहीं।

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