नगर नियोजन की चुनौतियां

river and city
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हरियाली की कमी ने सांस, सेहत और वैश्विक तापमान के संकट को कई गुना बढ़ा दिया है। किसी भी नगर के नियोजन में सावधानी के लिए क्या इतनी चेतावनी काफी नहीं? अनिश्चित होते वर्षा चक्र, बढ़ते तापमान, बढ़ा ली गईं जरूरतों, गांवों से नगर की ओर होते बेलगाम पलायन और घटते भूजल स्तर, सूखती-प्रदूषित होती नदियों के मद्देनजर नगर नियोजकों के लिए चेतावनियां आगे और भी कईं हैं। कभी नगर दो नदियों के दोआब में बसाए जाते थे; आज नदियां दो आबादियों के पाट में फंसा दी गई हैं।

किसी भी नियोजित श्रेष्ठ नगर में अपेक्षित बुनियादी सुविधाओं की संख्या न्यूनतम 13 हैं : बिजली, सड़क, यातायात, पार्किंग, मनोरंजन, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, संचार, रोजगार, आवास, बाजार और सुरक्षा। नियोजन को प्रभावित करने वाले बुनियादी तत्व चार हैं : कचरा, पानी, हरियाली और भूमि।

आधुनिक नगर नियोजन के समक्ष पेश आ रही प्रमुख चुनौतियां पांच हैं: पानी, बिजली, भीड़, कचरा और पार्किंग। यदि आप श्रेष्ठ नियोजित नगरों की सूची उठाकर देखें तो पाएंगे कि इस सूची में वही शामिल हो पाएं हैं, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ नियोजन किया; फिर चाहे वह नगर न्यूयार्क हो, चंडीगढ़ अथवा कोलकोता के नजदीक नवस्थापित बिधान नगर ( साल्ट लेक सिटी)।

प्राथमिकता भूले का नतीजा


नगर आधुनिकता और आर्थिक प्रगति के प्रतीक हैं। किंतु यदि उक्त कचरा, पानी, हरियाली और भूमि का उचित नियोजन न किया जाए तो नगर क्या, दुनिया की बड़ी से बड़ी आर्थिकी टिक नहीं सकती। यह बात नगर और आर्थिकी.. दोनों के नियोजकों के लिए सदैव याद रखने की है। कचरे ने कई नगरों का कचरा कर दिया है।

पानी की कमी से कई बसावटें उजड़ने को विवश हुईं। बाजार, बीमारी, बेरोजगारी और वैमनस्य खतरा बनकर सिर पर सवार हुए। कचरे के अनियोजित निष्पादन ने धरती के नीचे का प्रवाह रोका तो धरती ने पानी सोखने से इंकार कर दिया।

हमने जलनिकासी के परंपरागत मार्गों में कब्जे किए; अवरोध खड़े किए तो बाढ़ ने उन्हें भी अपनी चपेट में लिया, जहां पहले कभी बाढ़ नहीं आती थी; दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद से लेकर श्रीनगर गढ़वाल तक।

हरियाली की कमी ने सांस, सेहत और वैश्विक तापमान के संकट को कई गुना बढ़ा दिया है। भूमि की कमी से बढ़ी कीमतों के कारण सदाचार, व्यवहार और सुविधाओं को कई तरह के वर्ग संघर्ष, भ्रष्टाचार व अनाचारों ने जन्म लिया।

किसी भी नगर के नियोजन में सावधानी के लिए क्या इतनी चेतावनी काफी नहीं? अनिश्चित होते वर्षा चक्र, बढ़ते तापमान, बढ़ा ली गईं जरूरतों, गांवों से नगर की ओर होते बेलगाम पलायन और घटते भूजल स्तर, सूखती-प्रदूषित होती नदियों के मद्देनजर नगर नियोजकों के लिए चेतावनियां आगे और भी कईं हैं। कभी नगर दो नदियों के दोआब में बसाए जाते थे; आज नदियां दो आबादियों के पाट में फंसा दी गई हैं।

एकरूपता की भेड़चाल


आज भारत में 5161 नगर, 35 महानगर, 393 प्रथम श्रेणी और 401 द्वितीय श्रेणी दर्जा प्राप्त नगर हैं। 20,000 से 50,000 तक की आबादी वाले छोटे नगर कई हैं। इनमें से 3,894 नगर न नियोजित हैं और न ही यहां नियोजन करने वाली नगरपालिकाएं हैं।

दिलचस्प है कि स्थानीय संसाधन, जनजरूरत और आबोहवा की अनुकूलता देखे बगैर आज लगभग सभी नगर एक ही तर्ज पर नियोजित और विकसित किए जा रहे हैं; आकाश छूती इमारतें, स्टील फ्रेम, चमचमाते शीशे वाले शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मॉल, ऑफिस, बहुमंजिला आवास और इन सब के बीच उग आए स्लम।

दो शहरों के बीच में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा है; जीवनशैली और रेस्तरां के मीनू में भी यह फर्क मिटता दिखाई दे रहा है। हर छोटा शहर अपने से बड़े शहर की नकल करने में लगा है। महानगर ‘वर्ल्ड क्लास सिटी’ की होड़ में व्यस्त हैं। सारा जोर ठोस ढांचों के निर्माण पर है।

ढांचागत एकरूपता की इस होड़ के कारण नगरों की चुनौतियां बढ़ रही हैं; आबोहवा, सेहत और संसाधनों के संकट गहरा रहे हैं और नियोजन पर सवाल उठ रहे हैं। सौ नए नगर नई सरकार के एजेंडे में हैं। शायद इसीलिए इनके नियोजन के लिए भारत सरकार बजाय भारतीय नगर नियोजकों के दुनिया के मशहूर फ्रांसीसी नगर नियोजकों के संपर्क में है।

मांग-आपूर्ति की चुनौती


गौरतलब है कि आज भारत की 31.16 प्रतिशत यानी 37 करोड़, 30 लाख लोग नगरों में रहते हैं और 68 करोड़, 84 लाख आबादी गांवों में। पैतृक निवास और नगरीय निवास.. दोनों जगह राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र बनवाने की प्रवृति के कारण हो सकता है कि जनगणना के ये आंकड़े वास्तविक न हों; लेकिन यह सत्य है कि कृषि प्रधान माने जाने वाले भारत का चित्र उलट गया है।

इस उलटे चित्र का सकल घरेलू उत्पाद और पलायन से गहरा रिश्ता है। कहा जा रहा है कि आज भारत के सकल घरेलू उत्पाद में नगरों का योगदान बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया है और खेती का 15 प्रतिशत। विश्व बैंक अगले दस वर्षों में नगरीय योगदान के बढ़कर 70 प्रतिशत हो जाने का आकलन पेश कर रहा है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार गांवों से नगरों की ओर पलायन की रफ्तार बढ़ी है।

यदि गांवों से नगरों की ओर पलायन इसी तरह जारी रहा, आने वाले कल में गांव खाली होंगे और नगरों में भीड़, कचरा, स्लम तथा प्राकृतिक संसाधनों की मांग-आपूर्ति के मसले और बड़ी चुनौती बनकर पेश होंगे।बावजूद इस सभी के जरूरत नियोजन की कमी पर शोक मनाने की बजाय, दूरदृष्टि नियोजन की है; अनुभवों से सीखने की है। क्या हम सीखने को तैयार हैं?

संपर्क
अरुण तिवारी
फोन : 011-22043335
मो. : 9868793799
ईमेल : amethiarun@gmail.com


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