नेपाल में प्रस्तावित बांधों का नया दौर

पहले बार-बार बाढ़ आती थी और स्वतः निकल जाती थी। अब बाढ़ एक बार आती है, तटबन्धों के बीच नदी है-एक बार वेग से पानी आता है, तटबन्ध टूटते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। बाढ़ आती थी और पानी कम समय के लिए ठहरता था और पानी निकल जाता था। अब तटबन्ध फेल होता है तो पानी की मात्रा भी बढ़ती है और उसकी अवधि भी बढ़ जाती है। राज्य में जितने भी तटबन्ध बने हैं वे इस मायने में असुरक्षित हैं कि नदी के पानी के फैलाव को रोक सकते हैं कटाव को नहीं।

विद्याचरण शुक्ल का कहना था कि भारत लम्बे समय से नेपाल से बिहार आने वाली नदियों पर योजनाओं के लिए वार्ता कर रहा है और इस दिशा में 1962 के पहले के समझौते अभी तक कार्यकारी हैं। इसके बाद समस्याएं पैदा होने लगीं। कभी यह समस्याएं राजनैतिक थीं तो कभी तकनीकी। नेताओं और शिष्ट मंडलों की आवा-जाही के बावजूद कहीं न कहीं जाकर बात अटक जाती है और उन्हें लगता था कि ऐसा जानबूझ कर किया जाता था ताकि नेपाल और भारत दोनों ही असुविधा भोग करें। 1980 से 1988 के बीच कितने ही आयोग और उप-आयोग बने जो किसी नतीजे पर नहीं पहुँचे। उन्होंने भोगेन्द्र झा को याद दिलाया कि यह सारे बांध नेपाल में प्रस्तावित हैं जहाँ हम अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर सकते। यह वह समय था जब बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार को बने हुए एक साल का समय बीत चुका था और बिहार सरकार में जल-संसाधन मंत्री ने तटबन्धों के समुचित रख-रखाव करने और उन्हें कभी टूटने न देने की प्रतिज्ञा करते हुए विधान सभा में एक असंभव सा दावा कर दिया था। उन्होंने 5 जुलाई 1991 को बिहार विधान सभा में बयान दिया, ‘‘...नहरों की सफाई हम करेंगे, हर खेत को पानी देने का इन्तजाम करेंगे। किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है। टाइम फैक्टर एक चीज होती है।

चूहा बांध को काट जाता था उसको हमने खत्म कर दिया है। अब बांध टूटने वाला नहीं है। अगर बिहार का बांध टूटेगा तो हमसे इस्तीफा ले लीजिये ।’’ मंत्री जी द्वारा विधान सभा में दिये गए इस बयान को एक पखवाड़ा भी नहीं बीता था कि 17 जुलाई 1991 के दिन कोसी का पश्चिमी तटबन्ध नेपाल में जोगिनियाँ के पास कट गया जिसे लेकर विधान सभा में अच्छी खासी बहस हो गयी और मंत्री जी को उनके कथन और बिहार विधान सभा की मर्यादा का ध्यान रखते हुए इस्तीफा देना पड़ गया। यह बात अलग है कि उनका यह इस्तीफा स्वीकार नहीं हुआ। इस तरह का बयान देकर मंत्री जी अव्यावहारिकता की सीमा में काफी अन्दर तक घुस चुके थे। निश्चित रूप से उनके मन में यह बात रही होगी कि अपने प्रयासों से वे प्रान्त के सारे तटबन्धों की सुरक्षा सुनिश्चित कर लेंगे और उन्हें किसी ने विश्वासपूर्वक यह समझा दिया था कि तटबन्ध केवल भ्रष्टाचार के कारण ही टूटते हैं जबकि सच यह है कि तटबन्ध तकनीकी कारणों से भी टूटते हैं और ऐसे हालात बन जाते हैं जब पूरी निष्ठा, मेहनत और ईमानदारी से बनाये गए तटबन्ध को भी ध्वस्त होते देर नहीं लगती।

भ्रष्टाचार तटबन्ध टूटने की घटनाओं को बढ़ाता जरूर है और उनकी बारम्बारता सुनिश्चित करता है मगर वह तटबन्ध टूटने का अकेला कारण नहीं हो सकता है। यही वजह है कि इंजीनियरों का एक अच्छा खासा तबका सैद्धान्तिक रूप से तटबन्धों के माध्यम से बाढ़ नियंत्रण किये जाने का विरोध करता है। यह बात उनको शायद किसी ने समझायी नहीं और न ही एक अतिवादी बयान देने से उन्हें रोका। तटबन्ध का टूटना मृत्यु की ही तरह एक शाश्वत सत्य है जिसे औषधि-उपचार कर के टाला तो जा सकता है मगर रोका नहीं जा सकता। किसी की मृत्यु कब और कहाँ होगी यह कोई नहीं जानता और ठीक उसी तरह कोई तटबन्ध कब और कहाँ टूटेगा, यह भी निश्चित नहीं है। तटबन्ध मिट्टी की जगह अगर लोहे का भी बना दिया जाए तो भी 1954, 1955, 1968, 1971, 1984, 1987, 1998, 2000, 2004 या 2007 जैसा प्रवाह नदी में आने पर पानी तटबन्ध के ऊपर से बह निकलेगा और उतना ही नुकसान पहुँचायेगा जितना कि मिट्टी का तटबन्ध टूटने से पहुँचाता है। हाँ, लोहे का तटबन्ध जरूर अपनी जगह पर खड़ा रहेगा। तटबन्ध टूटने की यह अनिश्चितता तब और ज्यादा बढ़ जाती है जब मुकाबले में कोसी जैसी उच्छृंखल स्वभाव वाली नदी हो। खुद बिहार में जून से लेकर नवम्बर तक और घाघरा से लेकर महानन्दा तक तटबन्ध टूटने का एक लम्बा इतिहास उपलब्ध है और यह सारी दरारें केवल भ्रष्टाचार या लापरवाही के कारण नहीं पड़ी होंगी।

यहां बिहार में जल-संसाधन मंत्री को जो त्यागपत्र देना पड़ गया वह भी अपने आप में अभूतपूर्व था। यह एक अलग बात है कि दो साल के अनुभव ने 1993 में तटबंधों के प्रति उनकी मान्यता बदल दी। एक समाचार पत्र को दिये गए साक्षात्कार में उनका कहना था, ‘‘...अगर 3,700 किलोमीटर लम्बे तटबंधों में दो एक जगह दरार पड़ जाती है तो आप इसे यह तो नहीं कह सकते कि हम तटबंधों की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं। आखिरकार, हम हर खतरे से निपट लेने की व्यवस्था तो नहीं बना पाये हैं। अगर ऐसा करना है तो जो खर्च आयेगा उसे संभालना मुश्किल होगा।’’ सच यह है कि यह दरारें कभी भी इक्का-दुक्का न पड़ कर थोक में पड़ती हैं और यह भी गलत नहीं है कि इनमें से अधिकांश घटनाएं विभागीय लापरवाही और अकर्मण्यता के कारण पड़ती हैं।

यहाँ पर यह याद दिलाना सामयिक होगा कि जब मंत्री जी ने समाचार पत्र को यह साक्षात्कार दिया तब बागमती क्षेत्र के लोग 1993 वाली बाढ़ झेल चुके थे और वह अब इस बात को स्वीकार करने लगे थे कि तटबन्ध टूट भी सकते हैं। यह बात अलग है कि बांधों में पड़ी दरार की जिम्मेवारी अपने ऊपर लेने में वह और उनका विभाग बहुत देर करता था। कमला नदी के दायें किनारे पर झंझारपुर रेल-सह-सड़क पुल के नीचे 1993 में सोहराय गाँव के पास जो दरार पड़ी थी वहाँ ग्रामीणों को सरकार से थोड़ी बहुत राहत सामग्री पाने के लिए यह सिद्ध करना पड़ गया था कि नदी का तटबन्ध सचमुच वहाँ टूटा था।

1995 आते-आते मंत्री जी इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि, ‘‘...पहले बार-बार बाढ़ आती थी और स्वतः निकल जाती थी। अब बाढ़ एक बार आती है, तटबन्धों के बीच नदी है-एक बार वेग से पानी आता है, तटबन्ध टूटते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। बाढ़ आती थी और पानी कम समय के लिए ठहरता था और पानी निकल जाता था। अब तटबन्ध फेल होता है तो पानी की मात्रा भी बढ़ती है और उसकी अवधि भी बढ़ जाती है। ...राज्य में जितने भी तटबन्ध बने हैं वे इस मायने में असुरक्षित हैं कि नदी के पानी के फैलाव को रोक सकते हैं कटाव को नहीं।’’ इस समस्या के समाधान के बारे में उनका सुझाव था कि, ‘‘...बाढ़ की समस्या का समाधान है जलाशय। तटबन्धों के साथ जलाशय की व्यवस्था नहीं की गयी। राज्य के दूसरे हिस्से में जहाँ जलाशयों का निर्माण हुआ है वहाँ इस तरह की बाढ़ से हानि नहीं होती है। मध्य बिहार के बडुआ, चानन में जलाशय बने हैं। बिना जलाशय तटबन्ध खतरे की घंटी हैं।’’

इस तरह से अब ध्यान जलाशयों की ओर मोड़ा जाने लगा कि उनके निर्माण के बिना बाढ़ की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। उन्होंने आगे यह भी कहा, ‘‘... (उत्तर बिहार की) ...नदियाँ अब हमारी नहीं हैं। नेपाल की हैं। केवल उसका पानी ही तटबन्धों के भीतर स्थित नदियों से समुद्र में जा रहा है। लेकिन हमारे क्षेत्र में जो जल-निकासी का साधन था वह खत्म हो रहा है। गाँव से पानी निकलता नहीं। पर्वत से महासागर तक पानी निकल जाता है और बिहार के जिम्में सिर्फ विभीषिका।’’ इस तरह से बिहार के सत्ताधारियों सहित अन्य राजनीतिक समूह को यहाँ की बाढ़ समस्या का समाधान नेपाल में दिखायी पड़ने लगा। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि मंत्री जी के इस साक्षात्कार दिये जाने के कुछ दिनों बाद चान्दन और बडुआ जलाशयों में दरार पड़ गयी जिससे बांका जिले में बाढ़ से भीषण तबाही हुई थी।

रिवाज यह है कि बिहार सरकार आमतौर पर केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाती है कि मामला अंतर्राष्ट्रीय है जिस पर केन्द्र सरकार ही पहल कर सकती है। 1995 वाले अपने साक्षात्कार में जब मंत्री जी ने नेपाल का नाम लिया था तब केन्द्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी जिससे बिहार सरकार का उन दिनों छत्तीस का रिश्ता था। इसलिए एक बार के लिए माना जा सकता है कि केन्द्र सरकार से राज्य सरकार की नाराजगी जायज थी।

इसके साथ एक दूसरा इशारा यह भी था कि बाढ़ नियंत्रण के मोर्चे पर राज्य सरकार निर्दोष है और वह केन्द्र सरकार से कह भर सकती है कि वह नेपाल से बात-चीत कर के मामले को सुलझाये क्योंकि नेपाल की रजामन्दी के बिना इन बांधों का निर्माण संभव नहीं है। वहीं 1997 में दैनिक हिन्दुस्तान-पटना को दिये गए एक साक्षात्कार में मंत्री महोदय ने फिर दुहराया, ‘‘...अधिकांश नदियों का उद्गम क्षेत्र बिहार में नहीं है, उनका प्रसार क्षेत्र है यहाँ। इसलिए हम उन्हें चाहें तो भी बांध नहीं सकते, उनके विस्तार को सीमित कर सकते हैं। बांधने का काम उद्गम के पास हो सकता है। लेकिन यहाँ मामला अंतर्राष्ट्रीय हो जाता है। नेपाल के साथ भारत सरकार बात कर सकती है, बिहार सरकार नहीं।’’ रिवाज यह है कि बिहार सरकार आमतौर पर केन्द्र सरकार पर यह आरोप लगाती है कि मामला अंतर्राष्ट्रीय है जिस पर केन्द्र सरकार ही पहल कर सकती है। 1995 वाले अपने साक्षात्कार में जब मंत्री जी ने नेपाल का नाम लिया था तब केन्द्र में नरसिम्हा राव की सरकार थी जिससे बिहार सरकार का उन दिनों छत्तीस का रिश्ता था। इसलिए एक बार के लिए माना जा सकता है कि केन्द्र सरकार से राज्य सरकार की नाराजगी जायज थी मगर जब मंत्री महोदय 1997 में भी यही बात कह रहे थे तो बात जरा आसानी से गले नहीं उतरती।

उस समय केन्द्र में इन्द्र कुमार गुजराल की सरकार थी और उसके पहले देश के प्रधानमंत्री पद पर एच. डी. देवेगौड़ा आसीन थे और यह दोनों सरकारें अपना वजूद बनाये रखने के लिए बिहार की शासक पार्टी पर आश्रित थीं। उस समय राज्य सरकार को किस बात का इन्तजार था कि वह केन्द्र सरकार पर नेपाल से बात-चीत के लिए दबाव नहीं डाल पायी और राज्य के हित का अवसर आसानी से गँवा दिया? मंत्री जी आगे कहते हैं, ‘‘...दरअसल सिंचाई विभाग खाने-कमाने वालों के लिए सर्वोत्तम रहा है। कुछ नेताओं, ठेकेदारों और अफसरों का कॉकस था जो मिल कर राज्य को लूट रहा था। हर वर्ष बाढ़ रोकने के नाम पर लाखों रुपये खर्च होते रहे और काम कुछ नहीं होता रहा। मैंने इस पर रोक लगायी। बांधों, तटबन्धों का परीक्षण करा कर उनकी मरम्मत करायी तो कॉकस को नागवार गुजरा। फिर उन्होंने हल्ला मचाना शुरू किया कि फलां तटबन्ध टूट रहा है, फलां बांध टूट रहा है और सरकार उसकी मरम्मत के लिए पैसा नहीं दे रही है। ...सच्चाई यह है कि कोई बांध नहीं टूटा है। कोई हमें किसी एक बांध का नाम बता दे जो टूटा हो सिवाय अधवारा के जिसमें दरार पड़ी है और वह भी इसलिए कि उस पर बिना सोचे समझे वृक्षारोपण किया गया। बड़े पेड़ों की जड़ें बहुत गहराई में उतरती गयीं। बांध कम ऊँचा था, फलतः दरार पड़नी ही थी।’’

अब सवाल उठता है कि किसी मंत्रालय का मुखिया जो 1991 में इस बात का दावा करे कि उसने सारे चूहों को खत्म कर दिया है वह 1997 में भी यही शिकायत करता है कि उसका विभाग ‘खाने-पकाने वालों के लिए सर्वोत्तम रहा है’ और लोगों में बांध टूटने की शिकायत नाजायज है। नागेन्द्र प्रसाद सिंह को सूचना के अधिकार के अधीन जल-संसाधन विभाग, बिहार ने एक सूचना उपलब्ध करवायी है जिसके अनुसार बिहार में 1997 में गंडक नदी का तटबन्ध एक स्थान पर, बूढ़ी गंडक का तटबन्ध तीन स्थानों पर, कमला बलान एक स्थान पर, बागमती/करेह का तटबन्ध दो स्थानों पर तथा अन्य तटबन्ध एक स्थान पर, कुल मिलाकर आठ स्थानों पर तटबन्ध टूटे थे (नागेन्द्र प्रसाद सिंह को सूचना के अधिकार के तहत याचिका पर जल-संसाधन विभाग का पत्रांक-बाढ़ (मो.) सि.वि. 14/2007/2255 बिहार सरकार जल संसाधन विभाग दिनांक 3.10.2007)। तब यह कह पाना मुश्किल है कि सच कौन नहीं बोल रहा है, जल-संसाधन विभाग या उसके मंत्री? 15 अगस्त 2002 को एक बार फिर पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान को दिये गए साक्षात्कार में मंत्री महोदय ने कहा, ‘‘...हम यह नहीं कहते कि केन्द्र दोषी है। बिहार की बाढ़ समस्या दो देशों के बीच का मामला है। हाँ! यह जरूर है कि बिहार में बाढ़ की जितनी बड़ी समस्या है उस स्तर तक दिल्ली के लोग नहीं मानते।’’ मंत्री महोदय का इसी आशय का साक्षात्कार एक बार फिर 17 जून 2004 के दैनिक हिन्दुस्तान के पटना संस्करण में छपा था।

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Post By: tridmin
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