नेपाल द्वारा पानी छोड़ा जाना

यहाँ याद दिलाना सामयिक होगा कि जब 1955 में कोसी योजना पर काम शुरू हुआ था तब ‘नेपाल को धन-हरियो वन’ के नारे के साथ कोसी के जल-ग्रहण क्षेत्र में वनीकरण का काम भारत के सहयोग से शुरू हुआ था मगर दो साल के अंदर ही अधिकारियों की अरुचि की वजह से जंगल लगाने और बचाने वालों के खेमें उजड़ गए थे।

उत्तर बिहार में एक आम आदमी और कभी-कभी प्रबुद्ध वर्ग की भी बाढ़ के बारे में समझदारी इतनी गलत बनी है कि यहाँ बाढ़ नेपाल द्वारा अपनी संरचनाओं से पानी छोड़े जाने के कारण आती है। यह मानसिकता एक लंबे समय से सुव्यस्थित ढंग से राजनीतिज्ञों द्वारा गलत प्रचार-प्रसार के कारण बनी है। ऐसा करके व्यवस्था अपनी जिम्मेवारी से बच निकलती है। राजनीतिज्ञ जरूर जानते हैं कि नेपाल से उतरने वाली प्रायः सभी नदियों पर पानी को नियंत्रित करने की नेपाल की अपनी कोई व्यवस्था नहीं है। ले-दे कर कोसी और गंडक नदियों पर क्रमशः भीमनगर और वाल्मीकि नगर में बराज बने हुए हैं जिनका नियंत्रण पूरी तरह से बिहार सरकार के जल-संसाधन विभाग के हाथ में है। इन बराजों से पानी छोड़ने का काम बिहार सरकार के इंजीनियर जल-संसाधन विभाग की पूरी जानकारी और सहमति के बाद ही करते हैं। इन इंजीनियरों का वेतन भी बिहार सरकार देती है इसलिए यह इंजीनियर बिहार सरकार के कहने पर ही कुछ करेंगे। इन दो बराजों के अतिरिक्त नेपाल में कमला नदी पर गोडार में और बागमती नदी पर करमहिया में छोटे-छोटे बराज हैं जो कि नेपाल द्वारा निर्मित है तथा उनके नियंत्रण में हैं पर इनसे बाढ़ की कोई संभावना नहीं बनती क्योंकि यह संरचनाएं सीमा से काफी दूर हैं। दुःख इस बात का है कि इस अनर्गल प्रचार में अज्ञानवश अखबार, रेडियो और टी.वी. जैसे संचार माध्यम भी मदद करते हैं जिससे यह लगता है कि नेपाल शरारतवश पानी छोड़ता है अतः उत्तर बिहार में बाढ़ की जिम्मेवारी नेपाल की है जबकि राज्य में बाढ़ की बढ़ती विभीषिका का असली दोषी सिंचाई भवन में स्थित यहाँ का जल-संसाधन विभाग है जो नेपाल पर दोष मढ़ने से पहले बाढ़ आने और तटबंध टूटने का जिम्मा कभी चूहों पर या कभी असामाजिक तत्वों पर मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बच निकलता है।

13.11 जलवायु परिवर्तन और बाढ़


इस विषय पर कोई विवाद नहीं है कि जलवायु में परिवर्तन हो रहा है और इसे सभी महसूस करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमारा परिवेश गर्म हो रहा है। तापक्रम की इस वृद्धि का सीधा असर हिमनद (ग्लेशियर) पर पड़ता है जिससे उनके पिघलने की दर बढ़ती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि वैश्विक तापक्रम बढ़ने की गति पर अगर नियंत्रण नहीं लगेगा तो ग्लेशियर पिघलेंगे और वर्षा का पानी ग्लेशियर के पिघलते पानी से मिल कर नदियों में पानी की मात्रा को बढ़ायेगा इससे बाढ़ की तबाही पहले से ज्यादा होगी और बाढ़ खत्म होने के साथ-साथ नदियों में पानी की कमी हो जायेगी और तब सूखे की स्थिति पैदा होगी। जलवायु परिवर्तन की घटना को सत्य मानते हुए भी बहुत से वैज्ञानिक उसके परिणामों पर एकमत नहीं हैं। पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में बाढ़ और सूखे की स्थिति को जलवायु परिवर्तन से जोड़ने के इस दौर ने फिलहाल इंजीनियरों को अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड़ने का एक और जरिया मुहय्या कर दिया है। अब अगर बाढ़ आये या तटबंध जैसी कोई संरचना टूट जाए तो इसे बड़ी आसानी से जलवायु में हुए परिवर्तन की झोली में डाल देने का रिवाज सा चल पड़ा है। बहुत से विद्वानों और क्रियाशील समूहों ने 2008 में कोसी नदी के एफ्लक्स बांध की घटना को जलवायु परिवर्तन का परिणाम बताने की कुचेष्टा की थी। सच यह था कि कोसी नदी के तटबंध 9,50,000 क्यूसेक प्रवाह के लिए डिजाइन किये गए थे जब कि तटबंध टूटने के समय नदी में प्रवाह मात्र 1,44,000 क्यूसेक ही था। प्रशासनिक और तकनीकी लापरवाही की घटना को जलवायु परिवर्तन का जामा पहनाने की कोशिशें बड़े पैमाने पर की गईं और सम्बंद्ध पक्षों को अपना बचाव करने का एक सहज मौका मिल गया।

13.12 गाद-प्रबंधन का यक्ष प्रश्न


सच यह है कि राज्य सरकार के पास बाढ़ की समस्या से निपटने के बहुत ज्यादा विकल्प नहीं है। वह केवल तटबंधों का निर्माण कर सकती है और उन्हें ऊँचा और मजबूत बना सकती है। जाहिर है नुनथर या ऐसे किसी भी बांध का निर्णय नेपाल के हाथ में है जिसकी अपनी जरूरतें और प्राथमिकताएं हैं। इस पर हमारा कोई वश नहीं चलता। प्रस्तावित नदी जोड़ योजना भी कहीं न कहीं घूम फिर कर नेपाल पर ही आश्रित हो जाती है। कुल मिला कर हमारे पास दो ही रास्ते बचते हैं। पहला रास्ता नदी के पानी में आने वाली गाद का प्रबंधन है जो कि उतना ही महत्वपूर्ण है जितना जल-प्रबंधन और इसकी तरफ व्यवस्था का ध्यान नहीं जाता। अब तक इस दिशा में जो भी प्रयास हुआ है वह गाद विहीन पानी के प्रबंधन के रूप में हुआ है। विभाग अगर बहुत खुश होता है तो वह वनीकरण की बात करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। थोड़ा बहुत काम तटबंधों में स्लुइस गेट के निर्माण का हुआ है मगर उससे जिस उद्देश्य की पूर्ति होनी थी वह हुई या नहीं उसके मूल्यांकन में विभाग की कोई दिलचस्पी नहीं है। इधर किसान स्लुइस गेट की मांग रखते हैं। स्थानीय नेतृत्व उसका समर्थन करने के साथ-साथ कभी-कभी संसाधनों की व्यवस्था भी करवा देता है। एक दफा यह काम पूरा हो गया तो सब का दायित्व समाप्त।

गाद से निबटने के दो ही तरीके हैं। एक तो भूमि क्षरण रोक कर नदी के पानी में गाद की मात्रा को नियंत्रित किया जाए जिसके लिए नदी के जल-ग्रहण क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जंगल लगाये जाएं और कटे हुए जंगलों का पुनर्स्थापन किया जाय। भूमि क्षरण रोकने का यह आंशिक उपाय ही है। आंशिक इसलिए कि यह काम हमें नेपाल में भी करना पड़ेगा। यहाँ याद दिलाना सामयिक होगा कि जब 1955 में कोसी योजना पर काम शुरू हुआ था तब ‘नेपाल को धन-हरियो वन’ के नारे के साथ कोसी के जल-ग्रहण क्षेत्र में वनीकरण का काम भारत के सहयोग से शुरू हुआ था मगर दो साल के अंदर ही अधिकारियों की अरुचि की वजह से जंगल लगाने और बचाने वालों के खेमें उजड़ गए थे। इसके अलावा भी दूसरे कारण हैं। हिमालय अपने विकास की नवजात अवस्था में हैं और अभी भुरभुरी मिट्टी का ढेर भर है। भारी भूकम्प प्रवण क्षेत्र होने के कारण वहाँ भूमि-क्षरण के साथ-साथ भूकम्पों की वजह से जमीन के धंसने की प्रक्रिया भी चलती रहती है। पहाड़ों में चलने वाले निर्माण कार्य इस प्रक्रिया को तेज करते हैं। अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं कि भूगर्भीय प्रक्रियाओं के सामने भूमि क्षरण रोकने वाले प्रयास बहुत कारगर नहीं हो पाते क्योंकि वहाँ प्रश्न जमीन की ऊपरी सतह को बचाने का नहीं, पूरी जमीन की खिसकने से रक्षा का हो जाता है। बाढ़ के साथ जंगलों के सम्बंध पर वैज्ञानिकों की राय एकमत नहीं है। इनमें से बहुतों का मानना है कि इस क्षेत्र में बाढ़ तब भी आती थी और नदियों की धाराएं तब भी बदलती रहती थीं जब इन जंगलों पर किसी की कुल्हाड़ी नहीं लगी थी।

गाद से निपटने का दूसरा तरीका यह हो सकता है कि उसे पानी के साथ अपने क्षेत्र तक आने दिया जाए और यथा संभव ज्यादा से ज्यादा इलाके पर फैलने दिया जाय। परम्परागत रूप से किसान यही करता आया है और नदी भी अपने भूमि निर्माण का कर्तव्य इसी तरह निभाती है। यह काम हम अपनी जमीन पर बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप या मदद के कर सकते हैं। स्लुइस गेट की मांग के पीछे भी यही सोच काम करता है कि बाढ़ के पानी के साथ नदी में आने वाली सिल्ट का भी लाभ किसानों को मिलता रहे। इस पूरी विधा पर ठंडे मन से विचार करने की जरूरत है। जहाँ तक किसानों का सम्बंध है वह सामान्य बाढ़ से कभी नहीं डरते। ऐसी बाढ़ से उसकी सिंचाई और खाद दोनों जरूरतें पूरी होती हैं। समस्या अप्राकृतिक बाढ़ से आती है जिसमें उसे तटबंधों के टूटने से प्रलयंकारी बाढ़ों का सामना करना पड़ता है जब उर्वरक गाद के बदले बालू मिलता है।

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Post By: tridmin
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