मानव सभ्यता का विकास कृषि के तरीके विकसित होने के साथ हुआ, जो पानी के स्रोतों के आस-पास ही फली फूली। एक तरह से नदी घाटियाँ और बाढ़ के मैदान मानव- सभ्यता के केंद्र और सभ्यतागत उथल-पुथल के साक्षी रहे हैं। नदियों का जल और विस्तृत बाढ़ का इलाका सभ्य होते मनुष्य का मूल प्राकृतिक संसाधन और मानव जीवन के लिए बेहद आवश्यक रहा है। सालों भर पानी की सुलभता, उपजाऊ मिट्टी, सालाना बाढ़ से उर्वर मिट्टी की उपलब्धता आदि कारण रहे की आदिम मनुष्य ने नदी घाटी को अपने रहवास के लिए चुना। सिंधु घाटी से लेकर नील नदी घाटी तक प्राचीन सभ्यता का फैलाव नदी और बाढ़ के मैदान के महत्व की पुष्टि करते हैं।
यही बात नदी और बाढ़ को लेकर वैज्ञानिक समझ से भी सामने आती है। एक ताजा अध्ययन के मुताबिक भले बाढ़ का मैदान धरती के कुल क्षेत्र का मात्र 2 प्रतिशत ही है पर इसका महत्व अन्य किसी भी प्राकृतिक संसाधन से बहुत ज्यादा है, मानव संदर्भ में कुल पारिस्थितिकी लाभ का लगभग एक- चौथाई का योगदान नदी और बाढ़ के मैदान से आता है। नदी और बाढ़ के बारे में परम्परागत समझ हाल के आधुनिक विकास तक अनवरत रूप से जारी रही और नदियों के आस-पास वैश्विक स्तर पर मानव सभ्यता नदी की प्रकृति और वातावरण के अनुसार समृद्ध होती रही। भारत में तो नदियां ना सिर्फ महत्वपूर्ण संसाधन रही बल्कि यहां तक मां का दर्जा पाई पूजी जाती रही और लोक संस्कृति में रच बस गईं। भारत में नदी और वर्षा आधारित सिंचाई के आलोक में कृषि भूमि क्रमशः 'नर्दे मातृक' और 'देव मातृक' के रूप में बांटा गया है। पंजाब का नाम ही 'सप्त-सिंधु' रखा गया। गंगा-यमुना के बीच के इलाके को प्रदेशों को अंतर्वेदी (दो-आब) नाम से पुकारा गया।
भारतवर्ष की 'हिन्दुस्तान और 'दक्खन जैसे दो हिस्से करने वाले विन्ध्याचल या सतपुड़ा का नाम लेने के बदले लोग संकल्प बोलते समय 'गोदावयः दक्षिणे तीरे' या 'रेवायाः उत्तर तीरे' बोलने का चलन रहा है।
बरसात के इतर दिनों में दोनों पाटों के बीच फैली सूखी रेत, प्लास्टिक और इस्तेमाल किए कचरों का अंबार, न्यूनतम पानी का बहाव, जल संसाधन विकास के नाम पर नदी के साथ मूर्खता की हद तक का हस्तक्षेप, औद्योगिक कचरे और घरेलू अपशिष्ट का नदी में सीधे प्रवाह आदि भारत की लगभग हर नदियों की कहानी है। इसमें हमारी पवित्रतम माता का दर्जा पाई गंगा-यमुना भी शामिल हैं।
नदियां प्रदूषण के इतर भौतिक स्तर के अवैज्ञानिक और अभियांत्रिकी उठापटक और भू-जल और नदी के बीच खत्म होते संतुलन का भी शिकार है और इसमें बाढ़ नियंत्रण या प्रबंधन को आजादी के बाद के प्रकल्पों को शामिल कर ले तो स्थिति और भी भयावह हो जाती है।
भू-जल के व्यापक दोहन से गंगा-सिन्धु-ब्रह्मपुत्र बड़ी घाटी की अधिकांश सदानीरा नदियां सर्दियों में ही लगभग सूखने लगी हैं और उसी के साथ नदी का समूचा पारिस्थितिकी तंत्र पारिस्थितिकी तंत्र अगले बरसात तक के लिए मर जाता है। यहां तक की गंगा सरीखी नदी में किसी-किसी स्थान पर पानी इतना कम हो जाता है कि लोग आसानी से चल कर भी नदी पार कर लेते हैं। गर्मी के दिनों में प्रमुख नदियों में पानी का घटता जल स्तर के खतरे की घंटी है। बड़े- बड़े बांध से नदियों को बांधने के दुष्परिणाम के कारण वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ी है पर हम अभी भी ऊर्जा स्रोत में बदलाव के लिए पहाड़ी राज्यों कश्मीर से उत्तर पूर्व तक नदी बांध के अनेकों प्रकल्पों का मोह छोड़ नहीं पाए है, जबकि पिछले सालों में धौली गंगा से लेकर तीस्ता नदी में आयी बाढ़ से निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना के तहस नहस हो जाने के बावजूद हमारी नदियों को बांध कर बिजली बनाने के संकल्प में कोई कमी नहीं आयी है।
बाढ़ के बारे में खासकर गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी के इलाकों में जागरूकता अंग्रेजों के जमाने से ही रही है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि बाढ़ नियंत्रण के बहाने कर वसूलने के इरादे से दामोदर नदी पर बांध बना कर और उसकी विफलता से अंग्रेजी शासन आजादी तक नदी पर तटबंध बनाने से खुद को रोके रखा। आजादी के बाद नदी और बाढ़ की पिछली सारी समझ को दरकिनार करते हुए नदियों को तटबंध के बीच समेट कर उसके प्रसार पर नकेल कसते हुए बाढ़ पर नियंत्रण का व्यापक स्तर पर प्रकल्प शुरू हुआ। आजादी के समय बिहार में जहां मात्र 160 किलोमीटर लंबा छिटपुट तटबंध बना था, जिसका प्रसार 2020 आते-आते 3800 किलोमीटर की दीवार खासकर कोसी, बागमती, कमला आदि नदियों के इर्दगिर्द बांध चुका था। आशा थी कि बाढ़ से राहत मिलेगी पर हुआ इसके उलट, 2020 तक बाढ़ प्रभावित इलाकों का दायरा 1952 के 25-25 लाख हेक्टेयर के मुकाबले बढ़कर 69-25 लाख हेक्टेयर तक हो चुका था। इसे समझना कोई राकेट साइंस भी नहीं है कि तटबंध में बांधकर नदी के समूचे तंत्र के साथ व्यापक स्तर पर खिलवाड़ पानी के बहाव को तेज करेगा, बांध टूटेंगे, बाढ़ का दायरा बढ़ेगा, जल जमाव होगा और इसके नतीजे में तटबंध वाले सारे इलाके आज पंजाब हरियाणा आदि प्रदेशों के लिए श्रमिकों के स्रोत प्रदेश बन के रह गए हैं।
लगभग सत्तर साल के बाढ़ नियंत्रण, बाढ़ प्रबंधन, बाढ़ राहत और पुनर्वास सरीके सालाना प्रयोजनों पर अरबों रुपये बहाने के बाद भी ना तो बाढ़ की समस्या में कोई कमी आई और न ही बाढ़ पीड़ितों की पीड़ा ही कम हुई। असल बात है कि हम न नदी को समझना चाहते हैं और ना ही बाढ़ को, नदी और बाढ़ के फायदे को तो भूल ही जाएं। बिहार सहित देश के अन्य भाग में आने वाली बाढ़ को एक सालाना आपदा के रूप में सत्ता और समाज दोनों ने स्वीकार कर लिया है और हम सब इसके आदी हो चुके हैं।
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