इसलिए जब हम व्यवस्था को बदलने की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य उस दासत्व से आजादी भी है। स्वतंत्रता की यह लड़ाई उससे भी बड़ी और कठिन है जो हम ने गांधीजी के नेतृत्व में लड़ी थी। तब जो गलती हुई थी वह अब नहीं होनी चाहिए।
भारत में प्राचीन काल से ही नदियों को पवित्रता का प्रतीक माना जाता रहा है। भारतीय परंपरा के अनुसार नदी में स्नान कर हम अपने को भाग्यशाली मानते हैं। पर आज नदियों का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है। कई नदियों को बांध बनाकर विनाश की ओर धकेला जा रहा है। सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस साजिश से नदियों को बचाने के लिए स्वयंसेवी संस्था तथा लोग एकजुट होकर सामने आ रहे हैं। पर इन मुद्दों पर भी लोग राजनीति करने से बाज नहीं आते हैं। इन आंदोलनों के जरिए भी कई लोग पतित बनकर अपना स्वार्थ साधने लगते हैं। अब इन पूंजीपरस्त ताकतों के निशाने पर गंगा है।
आज विकास के नाम पर गंगा को बांध में कैद करने का प्रयास किया जा रहा है। चिंताजनक मसला यह है कि गंगा को विश्व की लुप्त हो रही दस नदियों में शुमार किया जाने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक मौजूदा हालात को देखते हुए आने वाले बीस सालों में गंगा सूख जाएगी। हिमालय के मध्य भाग में गंगा की दो धाराएं हैं, जो विपरीत दिशाओं में अलकनंदा और भागीरथी के नाम से बहती हुई देवप्रयाग नामक स्थान पर एक दूसरे से मिलती हैं और यहीं से गंगा बनती है। पर अब गंगा पर ग्रहण लगाने की कोशिश कुछ स्वार्थी तत्व कर रहे हैं। गंगा को बचाने और हिंदुस्तानियों की आस्था को संजोने के प्रयास के तहत जाने-माने वैज्ञानिक डा. जी.डी. अग्रवाल बीते तेरह जून से अनशन पर बैठे। बताते चलें कि उत्तराखंउ में यह वर्ष नदी बचाओ साल के रूप में मनाया जा रहा है। यह कैसी विडंबना है कि दूसरी तरफ विकास के नाम पर नदियों की हत्या की कोशिश की जा रही है।
गंगा के अलावा दूसरी नदियों को भी आज विनाश की कगार पर पहुंचाया जा रहा है। देश की राजधानी से होकर गुजरने वाली यमुना की हालत भी बदतर हो गई है। इसे इस कदर प्रदूषित किया जा रहा है कि यह नाले में तब्दील हो चुकी है। पिछले 15 साल से यमुना की सफाई के नाम पर एक हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा बहाया जा चुका है। गौर करने की बात यह है कि यमुना में 70 फीसदी प्रदूषण दिल्ली से होता है। यमुना में 18 बड़े नाले गिरते हैं। आस्था के नाम पर लोग पूजा साम्रगी का यमुना में विसर्जन कर उसकी पवित्रता को समाप्त कर रहे हैं। आज हमारे देश में कुल उपलब्ध पानी में से 90 प्रतिशत प्रदूषित हो चुका है तथा 20 करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। साथ ही साथ हर साल 15 लाख बच्चों की मौत साफ पानी के अभाव में होने वाली बीमारियों से हो जाती है।
यमुना की दुर्दशा से हम सब को सबक लेना चाहिए। आज इस बात को समझना होगा की गंगा के अलावा अन्य नदियां भी संकट में हैं। विकास के जिस माडल को देश के नीति निर्धारक अपना रहे हैं वह हम सब को विनाश की ओर ले जा रही है। विदेशों में इस माडल को ठुकरा दिया गया है। अमेरिका में पर्यावरण संबंधी समस्याओं से पार पाने के लिए तकरीबन पचास बांधों को तोड़ दिया गया है। इसके अलावा कई देशों में विलुप्त होती प्रजातियों की रक्षा के लिए भी बांधों पर रोक लगाने से परहेज नहीं किया गया। तो फिर आखिर जिस माडल को विकसित देशों ने खारिज कर दिया है उसे हम क्यों अपना रहे हैं? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। दरअसल, इसके पीछे एक गहरी साजिश है। जिससे समय रहते चेतना होगा नहीं तो इसका गंभीर परिणाम हम सब को निश्चित तौर पर भुगतना पड़ेगा।यमुना, गंगा, नर्मदा जैसे न जाने कितनी जीवनदायी नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। आज इस बात को समझने की जरूरत है कि इंसान से भी पहले नदियों का अस्तित्व था। इसलिए नदियों को किसी योजना में बांधना खुद को विनाश की ओर धकेलने जैसा है।
भारत में प्राचीन काल से ही नदियों को पवित्रता का प्रतीक माना जाता रहा है। भारतीय परंपरा के अनुसार नदी में स्नान कर हम अपने को भाग्यशाली मानते हैं। पर आज नदियों का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है। कई नदियों को बांध बनाकर विनाश की ओर धकेला जा रहा है। सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इस साजिश से नदियों को बचाने के लिए स्वयंसेवी संस्था तथा लोग एकजुट होकर सामने आ रहे हैं। पर इन मुद्दों पर भी लोग राजनीति करने से बाज नहीं आते हैं। इन आंदोलनों के जरिए भी कई लोग पतित बनकर अपना स्वार्थ साधने लगते हैं। अब इन पूंजीपरस्त ताकतों के निशाने पर गंगा है।
आज विकास के नाम पर गंगा को बांध में कैद करने का प्रयास किया जा रहा है। चिंताजनक मसला यह है कि गंगा को विश्व की लुप्त हो रही दस नदियों में शुमार किया जाने लगा है। एक अनुमान के मुताबिक मौजूदा हालात को देखते हुए आने वाले बीस सालों में गंगा सूख जाएगी। हिमालय के मध्य भाग में गंगा की दो धाराएं हैं, जो विपरीत दिशाओं में अलकनंदा और भागीरथी के नाम से बहती हुई देवप्रयाग नामक स्थान पर एक दूसरे से मिलती हैं और यहीं से गंगा बनती है। पर अब गंगा पर ग्रहण लगाने की कोशिश कुछ स्वार्थी तत्व कर रहे हैं। गंगा को बचाने और हिंदुस्तानियों की आस्था को संजोने के प्रयास के तहत जाने-माने वैज्ञानिक डा. जी.डी. अग्रवाल बीते तेरह जून से अनशन पर बैठे। बताते चलें कि उत्तराखंउ में यह वर्ष नदी बचाओ साल के रूप में मनाया जा रहा है। यह कैसी विडंबना है कि दूसरी तरफ विकास के नाम पर नदियों की हत्या की कोशिश की जा रही है।
गंगा के अलावा दूसरी नदियों को भी आज विनाश की कगार पर पहुंचाया जा रहा है। देश की राजधानी से होकर गुजरने वाली यमुना की हालत भी बदतर हो गई है। इसे इस कदर प्रदूषित किया जा रहा है कि यह नाले में तब्दील हो चुकी है। पिछले 15 साल से यमुना की सफाई के नाम पर एक हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा बहाया जा चुका है। गौर करने की बात यह है कि यमुना में 70 फीसदी प्रदूषण दिल्ली से होता है। यमुना में 18 बड़े नाले गिरते हैं। आस्था के नाम पर लोग पूजा साम्रगी का यमुना में विसर्जन कर उसकी पवित्रता को समाप्त कर रहे हैं। आज हमारे देश में कुल उपलब्ध पानी में से 90 प्रतिशत प्रदूषित हो चुका है तथा 20 करोड़ लोगों को पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। साथ ही साथ हर साल 15 लाख बच्चों की मौत साफ पानी के अभाव में होने वाली बीमारियों से हो जाती है।
यमुना की दुर्दशा से हम सब को सबक लेना चाहिए। आज इस बात को समझना होगा की गंगा के अलावा अन्य नदियां भी संकट में हैं। विकास के जिस माडल को देश के नीति निर्धारक अपना रहे हैं वह हम सब को विनाश की ओर ले जा रही है। विदेशों में इस माडल को ठुकरा दिया गया है। अमेरिका में पर्यावरण संबंधी समस्याओं से पार पाने के लिए तकरीबन पचास बांधों को तोड़ दिया गया है। इसके अलावा कई देशों में विलुप्त होती प्रजातियों की रक्षा के लिए भी बांधों पर रोक लगाने से परहेज नहीं किया गया। तो फिर आखिर जिस माडल को विकसित देशों ने खारिज कर दिया है उसे हम क्यों अपना रहे हैं? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। दरअसल, इसके पीछे एक गहरी साजिश है। जिससे समय रहते चेतना होगा नहीं तो इसका गंभीर परिणाम हम सब को निश्चित तौर पर भुगतना पड़ेगा।यमुना, गंगा, नर्मदा जैसे न जाने कितनी जीवनदायी नदियों को बचाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। आज इस बात को समझने की जरूरत है कि इंसान से भी पहले नदियों का अस्तित्व था। इसलिए नदियों को किसी योजना में बांधना खुद को विनाश की ओर धकेलने जैसा है।
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