नदियों के किनारे तटबन्धों की शुरुआत

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी जो कि अपने आप नदी में चला जाता वह तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होकर होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में जमीन के लिए उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी तटबन्धों के बीच ही रह जाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है।

बाढ़ नियंत्रण के लिए तटबन्धों के निर्माण और उनकी भूमिका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी है कि मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट/बालू/पत्थर) मौजूद रहती है। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। नदियाँ इसी तरीके से भूमि का निर्माण करती हैं। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाध पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिससे नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊपर उठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊँचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को जितना ज्यादा ऊँचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल-जमाव का खतरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवल तटबन्धों के टूटने का कारण बनते हैं। यह दरारें तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहाव, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव के कारण पड़ती हैं। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है। कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछूंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद हो जाता है और वह टूट जाते हैं। किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धाराओं का पानी मुख्य नदी में न जाकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नए-नए स्थानों को डुबोयेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो।

इस समस्या का जो जाहिर सा समाधान है वह यह कि जहाँ सहायक धारा तटबन्ध पर पहुँचती है वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाय। लेकिन स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवल ज्यादा हुआ तो उसका पानी उलटे सहायक धारा में बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर अक्सर स्लुइस गेट जाम हो जाया करते हैं क्योंकि फाटकों के सामने नदी साइड में बालू जमा हो जाता है। इस तरह से स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और सहायक धारा का पानी कन्ट्रीसाइड के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही है। इस स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब नदी में पानी का स्तर काफी नीचे चला जाय। उस समय तक जो नुकसान होना था वह हो चुकता है।

जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जायें जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबन्ध और सहायक धारा के तटबन्ध के बीच वर्षा का जो पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बन कर ऊपर उड़ सकता है या जमीन में रिस कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुये पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाय। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधान करना था तो मुख्य नदी, सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल-समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के कन्ट्री साइड में बसे लोग जल-जमाव से निजात पाने के लिए तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन भी पायेगा जो कभी टूटे नहीं। यह दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्री साइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं। तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी जो कि अपने आप नदी में चला जाता वह तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होकर होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में जमीन के लिए उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी तटबन्धों के बीच ही रह जाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपाई रासायनिक खाद से की जाने लगी है जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह के खाद की कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है और साथ में उपर्युक्त सारी दिक्कतें तो मौजूद रहती ही हैं। तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है। उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबन्ध बना दिया जाता है तो उसकी पानी के निकासी का रास्ता कम होने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धारा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव करने की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी में पहले से कहीं ज्यादा पानी प्रवाहित होने लगता है जो बाढ़ के प्रभाव को कम कर देता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पाई है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है या कम करता है।

अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है-ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं और अपनी सुविधा और अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तर्कों की व्याख्या किसी योजना को स्वीकार करने या उसे खारिज करने में करते हैं। तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई भी अनजान आदमी उंगली नहीं उठा सकता। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा लेकर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिए किसी नदी पर तटबन्ध बनें या नहीं, यह फैसला अपनी समझ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा लेकर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

सदियों के अनुभव के बाद यह सारी पेचीदगी अब सभी सम्बद्ध पक्षों को मालूम है। राज-सत्ता ने लम्बे समय से नदी की बाढ़ को रोकने के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया है। उसने व्यक्तिगत घरों या इक्का-दुक्का गाँवों को बचाने की जगह नदी को ही बाँध देने के प्रयास किये और इस तरह से ज्ञात इतिहास में सबसे पहले चीन में ह्नांग-हो नदी पर सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व में तटबन्ध बनना शुरू हुये। यह वही ह्नांग-हो नदी है जिसे ‘चीन का शोक‘ कहते हैं। इसके बाद ई. पूर्व पहली शताब्दी में चीन में ही यांग्ट्सी नदी को बांधा गया। इसी तरह बेबीलोन शहर और नदी के बीच तटबन्ध सदियों पुराने हैं। पहली शताब्दी ईसाब्द में इटली की पो नदी को बांधा गया और बारहवीं शताब्दी में मिस्र की नील नदी पर तटबन्ध बने। अमेरिका में जब मिस्सिस्सिपी घाटी में बस्तियाँ बसना शुरू हुईं तब उस नदी पर तटबन्धों का निर्माण 1727 ई. में पूरा कर लिया गया था।

भारतवर्ष में बिहार में कोसी नदी को बांधने का काम 12वीं शताब्दी में किसी राजा लक्ष्मण द्वितीय ने करवाया था और इस काम के लिए उसने प्रजा से ‘बीर‘ की उपाधि पाई और नदी का तटबन्ध ‘बीर बांध’ कहलाया। इस तटबन्ध के अवशेष अभी भी सुपौल जिले में भीम नगर से कोई 5 किलोमीटर दक्षिण में दिखाई पड़ते हैं। डॉ. फ्रांसिस बुकानन (1810-11) का अनुमान था कि यह बांध किसी किले की सुरक्षा के लिए बनी बाहरी दीवार रहा होगा क्योंकि यह बांध धौस नदी के पश्चिमी किनारे पर तिलयुगा से उसके संगम तक 32 किलोमीटर की दूरी में फैला हुआ था। डॉ. डब्लू.डब्लू. हन्टर (1877) बुकानन के इस तर्क के साथ सहमत नहीं थे कि यह बांध किसी किले की सुरक्षा दीवार था। स्थानीय लोगों के हवाले से हन्टर का मानना था कि अधिकांश लोग इसे किले की दीवार नहीं मानते और उनके हिसाब से यह कुछ और ही चीज थी मगर वह निश्चित रूप से कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी जो आम धारणा बनती है वह यह है कि यह कोसी नदी के किनारे बना कोई तटबन्ध रहा होगा जिससे नदी की धारा को पश्चिम की ओर खिसकने से रोका जा सके। लोगों का यह भी कहना था कि ऐसा लगता था कि इस तटबन्ध का निर्माण कार्य एकाएक रोक दिया गया होगा।

लोक कथाओं में यह बीर बांध कुछ इस तरह मशहूर है कि इस इलाके में एक बांका जवान जरूर ऐसा हुआ था जिसने कोसी की शोखी पर काबू पाने की कोशिश की थी। कहते हैं यह दैत्याकार पुरुष कोसी की सुन्दरता को देख कर उस पर लट्टू हो गया और उसने कोसी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। कोसी ने विवाह के लिए मना तो नहीं किया मगर एक शर्त रखी कि अगर वह आदमी एक रात के अन्दर उसे हिमालय से लेकर गंगा में नदी से उसके संगम तक तटबन्धों में बांध दे तो कोसी उसकी हो जायेगी वरना उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। दैत्य ने उसकी शर्त मान ली और अपना काम शुरू कर दिया। जैसे-जैसे तटबन्ध आगे बढ़ता गया वैसे-वैसे कोसी की परेशानियाँ बढ़ती गईं क्योंकि उस दैत्य के काम की रफ्तार ही कुछ ऐसी थी। तब कोसी भागी-भागी अपने पिता, भगवान शंकर के पास गई और मदद के लिए गुहार लगाई। भगवान शंकर मुर्गे के रूप में उस जगह पहुँचे जहाँ दैत्य काम कर रहा था और बांग देने लगे। यद्यपि राक्षस ने अपना ज्यादातर काम खत्म कर लिया था मगर मुर्गे की बांग सुन कर सकते में आ गया कि अब जल्दी ही सुबह होने वाली है। उसने वहीं काम छोड़ दिया और जान बचाने की गरज से भाग खड़ा हुआ और कोसी आजाद रह गई।

इस तटबन्ध के निर्माण की वजह से मुमकिन है कि इसके पश्चिम में बाढ़ से कुछ राहत मिली हो और वहाँ रहने वाले लोगों ने बनाने वाले को ‘बीर‘ की उपाधि दी हो मगर तटबन्ध के पूरब में तो बाढ़ की स्थिति निश्चित रूप से खराब ही रही होगी। शिलिंगफोर्ड (1895) का कहना था कि इस तटबन्ध के पश्चिम में भी हालत कोई खास अच्छी नहीं थी क्योंकि इस विशाल तटबन्ध के कारण धेमुरा और तिलयुगा नदियों के रास्ते बंद हो गये थे और इस तटबन्ध की वजह से तिलयुगा का पूरा पानी बाहर ही रह गया और नदी में नहीं घुस पाता था। बिहार में बाढ़ से निबटने की अगली बड़ी घटना 1756 ई. में गंडक तटबन्धों के निर्माण की हुई जिसे बिहार के तत्कालीन सूबेदार मुहम्मद कासिम खां के नायब धौसी राम ने बनवाया था। यह तटबन्ध 158 किलोमीटर लम्बा था और इस पर एक लाख रुपये की लागत आई थी। इस तटबन्ध का बनना था कि देश की हुकूमत ईस्ट इंडिया कम्पनी के जरिये अंग्रेजों के हाथ में पहुँच गई।

Path Alias

/articles/nadaiyaon-kae-kainaarae-tatabanadhaon-kai-saurauata

Post By: tridmin
×