नदी सूखी तो सपने भी हो गये रेत

Narmada
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योजना-परियोजनायें बनी, तो बात बड़ी-बड़ी नदी, तालाब, झील या वर्षा व भूजल तक सीमित होकर रह गई। अत्यंत छोटी नदियों का पुर्नउद्धार कभी राष्ट्रीय तो क्या राज्य स्तरीय एजेंडा नहीं बन सका। जबकि सच यह है कि छोटी धाराओं को समृद्ध बनाये बगैर बड़ी धारायें अविरल-निर्मल हो ही नहीं सकती। सतपुड़ा की उक्त सभी धारायें नर्मदा की सहायक धारायें हैं। नर्मदा को मध्य भारत का अमृत प्रवाह कहा जाता है। दुधी-मछवासा-कोरनी-आंजन-ओल जैसी धारायें मरीं, तो क्या नर्मदा बच पायेगी?

मध्य प्रदेश के पूर्वी पड़ाव में स्थित हैं सतपुड़ा पर्वतमाला। सतपुड़ा के घने जंगल वाली कविता गुनगुनाते ही आज भी मेरा मन एक पवित्र शीतलता से भर उठता है। उसे पढ़कर किसी का भी मन सतपुड़ा की सैर करना चाहेगा। किंतु कविता वाला सतपुड़ा तो अब सिर्फ किताबों में ही बचा है। दिन में भी रात का आभास देने वाली काली-घनी हरीतिमा जाने कैसे छिनती जा रही है। हरीतिमा ही नहीं, तो नदियों की नीलिमा कैसी? नीलिमा चाहे आकाश की हो या नदियों की, नीलिमा का हरीतिमा से बहुत गहरा रिश्ता होता है। यह हरीतिमा व फैली भुजाओं वाली पहाड़ियां ही लंबे अरसे से सतपुड़ा की छोटी-बड़ी जलधाराओं की उद्गम स्थली रही हैं। पहाड़ियों पर बरसा पानी सिमट-सिमट कर दरख्तों की जड़ों मे संचित होता है।

यह संचित जल ही नदी बनकर अठखेलियां करता हुआ सतपुड़ा की वादियों को एक नैसर्गिक संगीत से भरता रहा है। किंतु लगता है कि सतपुड़ा का वह संगीत कहीं खो गया है। हरीतिमा खो रही है। बादल भी यहां आने से इंकार करने लगे हैं। धीरे-धीरे सूखा यहां अपना ठिकाना बना रहा है। तिस पर बेसमझी यह कि ज्यादा पानी पीने वाली फसलों और उद्योगों का लालच बढ़ता ही जा रहा है। डीजल पंप से नदियों का पानी खींचकर सिंचाई पर कोई रोक नहीं है। नदी तटों पर ट्यूबवेलों की संख्या बढ़ती जा रही है। नदी मार्ग में बाधायें खड़ी कर दी गईं हैं। इसके लिए नदी से इजाजत लेना अब कोई जरूरी नहीं समझता। न राज और न ही समाज। नतीजा यह कि बारहमासी नदियां बरसाती नाले बनकर रह गईं हैं।

कोरनी, पलकमती, दुधी, मछवासा, आंजन, ओल आदि नदियों में नीले पानी की जगह चांदी की चमकीली आंखों को चुभने लगी है। दूध जैसे श्वेत व स्वच्छ जल के कारण छिंदवाडा, होशंगाबाद और नरसिंहपुर के लोग जिस दुधी धारा का गुणगान करते नहीं थकते थे, बरसात के दिन छोड़कर अब उसमें जलदर्शन भी दुर्लभ होता है। मछवासा नदी तो सूख ही चुकी है। जो सोहागपुर जल रहने पर पलकमती की धारा को अपनी पलकों की आन कहता था, उसी के रंगाई उद्योगों ने इसे कचरा ढोनेवाली मालगाड़ी बना दिया है। तवा और देनवा जैसी नदियां अभी भले ही सूखने से बची दिखाई दे रही हों, लेकिन पानी उनका भी लगातार घट ही रहा है। इस गिरावट का नतीजा यह है कि सतपुड़ा का आनंद समाप्त हो रहा है। खासकर उस समुदाय की जिंदगी का आनंद, जिसकी भलाई की दुहाई हर नेता देता है। बरौआ-कहांर-मछुआरे-केवट-मजदूर। नदी जाने से केवट की नाव गई, जूट की रस्सी का काम गया। मछलियां ही नहीं, तो मछुआरों का नामकरण लेकर क्या करें?

नदी तट तरबूज-खरबूज की डंगरवारी कर मिठास बांटने वाले बरौआ-कहांरों को कोई बताये कि वे अपनी जिंदगी में पैठ गई कड़वाहट का इलाज तलाशनें कहां जायें। सोहागपुर का प्रसिद्ध रंगाई उद्योग इस बात का प्रमाण है कि यदि जिसने भी पानी जैसे जीवनाधार को खत्म किया, एक दिन वह स्वयं खत्म हो गया। कभी सोहागपुर का मातापुरा इलाके रंगाई उद्योग की शोहरत मुंबई, कोलकाता से लेकर अंग्रेजी हुक्मरान तक थी। पलकमती के मृतप्राय होने के साथ ही आज सोहागपुर के रंगरेज और पान की मशहूरियत... दोनों बेदम हो चुके हैं। सोहागपुर जैसे उदाहरण भारत के वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को बता सकते हैं कि औद्योगिक विकास दर क्यों नहीं बढ़ रही। दुनिया में आर्थिक भूकंप के हालात में भी भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिरता की वजह कृषि है। यह समझने में प्रणव दा को बहुत समय लगा।

यदि कृषि क्षेत्र में सुधार करना है, तो पानी की हर छोटी-बड़ी इकाई को पानीदार बनाये रखना होगा। दिक्कत यह है कि सरकारी स्तर पर भी जब कभी जलसंसाधनों की समृद्धि की बात हुईं... योजना-परियोजनायें बनी, तो बात बड़ी-बड़ी नदी, तालाब, झील या वर्षा व भूजल तक सीमित होकर रह गई। अत्यंत छोटी नदियों का पुर्नउद्धार कभी राष्ट्रीय तो क्या राज्य स्तरीय एजेंडा नहीं बन सका। जबकि सच यह है कि छोटी धाराओं को समृद्ध बनाये बगैर बड़ी धारायें अविरल-निर्मल हो ही नहीं सकती। सतपुड़ा की उक्त सभी धारायें नर्मदा की सहायक धारायें हैं। नर्मदा को मध्य भारत का अमृत प्रवाह कहा जाता है। दुधी-मछवासा-कोरनी-आंजन-ओल जैसी धारायें मरीं, तो क्या नर्मदा बच पायेगी?

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