नदी संस्कृति में निहित गंगा निर्देश

Ganga river
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नदियों को मां का संवैधानिक दर्जा प्राप्त होते ही नदी जीवन समृद्धि के सारे अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएंगे। नदियों से लेने-देने की सीमा स्वतः परिभाषित हो जाएगी। हम कह सकेंगे कि नदी मां से किसी भी संतान को उतना और तब तक ही लेने का हक है, जितना कि एक शिशु को अपनी मां से दूध। दुनिया के किसी भी संविधान की निगाह में मां बिक्री की वस्तु नहीं हैं। अतः नदियों को बेचना संविधान का उल्लंघन होगा। नदी भूमि-जल आदि की बिक्री पर कानूनी रोक स्वतः लागू हो जाएगी। “मैं आया नहीं हूं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है।’’ “मां गंगा जैसा निर्देश देगी, मैं वैसा करुंगा।’’ क्रमशः अपनी उम्मीदवारी नामांकन से पहले और जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बनारस में दिए उक्त दो बयानों से गंगा की शुभेच्छु संतानों को बहुत उम्मीदें बंधी होगी। नदियों हेतु एक अलग मंत्रालय बनाने की खबर से एक वर्ग की उम्मीदें और बढ़ी हैं, तो दूसरा वर्ग इसे नदी जोड़ के एजेंडे की पूर्ति की हठधर्मिता का कदम मानकर चिंतित भी है। मैं समझता हूं कि ढांचागत व्यवस्था से पहले जरूरत नीतिगत स्पष्टता की है। समग्र नदी नीति बने बगैर योजना, कार्यक्रम, कानून, ढांचे.. सभी कुछ पहले की तरह फिर कर्ज बढ़ाने और संघर्ष लाने वाले साबित होंगे।

शुभ के लिए लाभ ही भारतीयता


अतः जरूरी है कि सरकार पहले नदी पुनर्जीवन नीति, बांध निर्माण नीति और कचरा प्रबंधन नीति पारित करने संबंधी लंबित मांगों की पूर्ति की स्पष्ट पहल करे, तब ढांचागत व्यवस्था के बारे में सोचे।किंतु वह राष्ट्रीय जलनीति जैसी कतई न हो। महज् बाजार की हितपूर्ति करने वाली नीति भारतीय नहीं कही जा सकती। सभी के शुभ को आगे रखकर लाभ कमाना भारतीयता है।

सभी के शुभ को पीछे रखकर अपने लाभ को आगे रखना लूट का बाजारू व्यवहार। गंगा भारतीय संस्कृति की महाधारा भी है, अस्मिता का प्रतीक भी और पर्यावरण की माॅनीटर भी। निस्संदेह उसका निर्देश सर्वोपरि होना ही चाहिए। किंतु क्या नई सरकार सचमुच भारतीय आस्था और संस्कृति के गंगा निर्देश को व्यवहार को बदलने की हिम्मत जुटा पाएगी? हमें प्रतीक्षा है।

सरकारी रूख विपरीत


मैं यह इसलिए कह रहा हूं चूंकि नदियों को लेकर आजाद भारत का सरकारी वैचारिक रुख भारतीयता के उस उभार से कतई मेल नहीं खाता है, जिसके रथ पर सवार होकर भाजपा सत्ता में आई है। भारतीय धार्मिक आस्था पानी को सिर्फ एच2ओ कभी नहीं माना। जल को वह आज भी इन्द्र-वरूण आदि के रूप में ही पूज्य और पवित्र ही मानती है।

यदि पानी सिर्फ ‘एच2ओ’ होता, तो सिंथेटिक रक्त बना लेने वाला आधुनिक विज्ञान कभी का पानी बना चुका होता। फिलहाल आधुनिक विज्ञान ने भी पानी बनाने के मामले में हाथ खड़े कर दिए हैं। उसने बता दिया है कि पानी जीवंत है, महज एक वस्तु नहीं, जिसे निर्मित किया जा सके। नदियां कुदरती जीवंत प्रणाली हैं; इंसान की बनाई निर्जीव सड़क नहीं, जिन्हें जहां चाहे जोड़ लें।

किंतु दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी राष्ट्रीय जलनीति पानी को ‘आर्थिक वस्तु’ के रूप में बिक्री हेतु स्थापित करने की जिद्द ठाने बैठी है। नदी जोड़ परियोजना, नदी की परिभाषा को नकारने की एक अन्य जिद्द के रूप में आती दिखाई दे रही है। नदी की परिभाषा को नकारकर नदियों में पानी लाया जा सकता है, नदी का चरित्र वापस नहीं लौटाया जा सकता। इस चरित्रहीनता के खतरे जैविक और व्यापक हैं। भारतीय आस्था इसकी इजाजत नहीं देती। नदियों को जीवंत मानने वाली गहरी धार्मिक आस्था को अब आधुनिक विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है।

इसी जीवंतता को आधार बनाकर नदियों को ‘नैचुरल पर्सन’ का संवैधानिक दर्जा देने की एक शानदार पहल का श्रेय आज विश्व के जिन दो देशों को जाता है, वे हैं- इक्वाडोर और न्यूजीलैंड। ...तो क्या अब जिस भारत की आस्था व ज्ञानतंत्र ने आधुनिक विज्ञान से पहले यह बात दुनिया को बताई, वहां नदियों को यह संवैधानिक दर्जा नहीं मिलना चाहिए?

मुझे इस छोटे-से सवाल सेे हमारी नदियों की हकदारी हासिल करने की दिशा में एक बड़ी खिड़की खुलती दिखाई दे रही है। इसके बगैर अब आगे भारत की नदियों का नैसर्गिक व जीवंत बचे रहना मुश्किल दिखाई देता है। जरूरी हो गया है कि नदी और उसकी संतानों के रिश्ते के मामले में हम संविधान द्वारा भी निर्देशित किए जाएं।

जीवंतता के संवैधानिक दर्जे की दरकार


भारत को चाहिए कि वह इससे भी आगे जाकर नदियों को सिर्फ ‘नैचुरल पर्सन’ नहीं, बल्कि ‘नैचुरल मदर’ यानी ‘प्राकृतिक मां’ का संवैधानिक दर्जा प्रदान करे। चूंकि भारतीय आस्था में नदियों को सिर्फ एक जीवंत प्रणाली हीे नहीं, बल्कि संतति को जन्म देकर तथा उसे पोषित कर सृष्टि रचना के क्रम को आगे बढ़ाने वाली मां मानती है।

यदि हम नाम बदलकर अमानीशाह या नजफगढ़ नाला बनी दी गई क्रमशः जयपुर की द्रव्यवती व अलवर से बहकर दिल्ली आने वाली साबी जैसी नदियों की बात छोड़ दें, तो आज भी भारत में कोई नदी ऐसी नहीं है कि जिसे मां मानकर पूजा या आराधना न की जाती हो। ब्रह्मपुत्र, नद्य के रूप में पूज्य है ही। यह बात और है कि हम भारतीय नदियों को मानते मां है, लेकिन उनका उपयोग मैला ढोने वाली मालगाड़ी की तरह करते हैं। इसी विरोधाभास के कारण नदियां आज संविधान की ओर निहार रही हैं।

शुभ कदम का प्रत्यक्ष लाभ


नदियों को मां का संवैधानिक दर्जा प्राप्त होते ही नदी जीवन समृद्धि के सारे अधिकार स्वतः प्राप्त हो जाएंगे। नदियों से लेने-देने की सीमा स्वतः परिभाषित हो जाएगी। हम कह सकेंगे कि नदी मां से किसी भी संतान को उतना और तब तक ही लेने का हक है, जितना कि एक शिशु को अपनी मां से दूध।

दुनिया के किसी भी संविधान की निगाह में मां बिक्री की वस्तु नहीं हैं। अतः नदियों को बेचना संविधान का उल्लंघन होगा। नदी भूमि-जल आदि की बिक्री पर कानूनी रोक स्वतः लागू हो जाएगी। मां की कीमत पर कमाई पर रोक होगी। इसके विरोध में रोज-रोज आंदोलन नहीं करने पड़ेंगे। नदी मां को विष पिलाने वाले उसकी हत्या की कोशिश के दोषी होंगे। उन पर दीवानी नहीं, फौजदारी कानूनों के तहत हत्या का मुकदमा चलेगा।

आइए! इस मांग को आवाज दें। ‘नैचुरल मदर’ का संवैधानिक दर्जा देकर भारत की प्रत्येक नदी के जीवन व समृद्धि के अधिकार को वैधानिक बनाया जाए; उन नदियों के भी, जिनका नाम बदलकर हमने नाला बना दिया है। नदी मंत्रालय बनाने से पहले क्या इस नीति और नीयत की पहल का करना अच्छा नहीं होगा?

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