![नदी संरक्षण एवं विकास सीमाओं का महत्व,Pc-conservationgateway](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/2023-06/River%20conservation.jpg?itok=pZMM5QuO)
प्रज्ञाम्बु के प्रथम संस्करण में हमने नदी घाटी प्रबंधन, नदी पुनरुद्धार एवं संरक्षण, प्राथमिकता एवं हितधारकों की भूमिका के बारे में समझने ज्ञान के आधार पर ही सक्षम स्तर पर वार्ता एवं समझौते वाले निर्णयों का एक प्रयास किया। इस क्रम मे हमने यह जाना कि नदी घाटी का निर्धारण किया जा सकता है। प्रथम संस्करण में चर्चा किये गए प्रबंधन एवं नदी संरक्षण के कार्यों में घाटी क्षेत्र की सम्पूर्ण जानकारी जो किसी भी प्रकार से नदी से जुड़ी हो, का होना आवश्यक है। इसके की जानकारी होना आवश्यक है। लिए इसके लिए हेमे विभिन्न घटक एवं अवयवों का ज्ञान होना आवश्यक है, इस ज्ञान के आधार पर ही सक्षम स्तर पर वार्ता एवं समझौते वाले निर्णय का निर्धारण किया जा सकता है। प्रथम संस्करण मे चर्चा किये गए इस चक्र के प्रारंभ, अर्थात घाटी के ज्ञान में सर्वप्रथम उसकी सीमाओं की जानकारी होना आवश्यक है।
नदी एवं घाटी क्षेत्र में घटने वाली विभिन्न प्राकृतिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए उसकी प्राकृतिक सीमा तथा घाटी क्षेत्र में प्राकृतिक के साथ ही कृत्रिम प्रभावों को समझने एवं विपरीत प्रभावों को गौण करने के लिए छोटी-छोटी अनेक सीमाओं में विभाजित किया जा सकता है सीमाओं को दर्शाने के साथ ही जहाँ इनके संरक्षण एवं विकास में प्रशासनिक रूप से निर्णय कर कार्य करने में सुगमता हो। इन कृत्रिम एवं छोटे भागों को प्रशासनिक सीमा ही कहा जा सकता है। इस प्रकार एक नदी कई प्रशासनिक सीमाओं में अथवा एक प्रशासनिक सीमा में कई नदियाँ हो सकती हैं। चित्र 1 में गंगा नदी के घाटी क्षेत्र की प्राकृतिक सीमा एवं कुछ प्रशासनिक सीमाओं को दर्शाने के साथ ही प्रशासनिक सीमा मे एक से अधिक नदी या सहायक नदियों को उदाहरण के रूप में दर्शाने का प्रयास किया गया है।
![चित्र 1 नदियों की प्राकृतिक एवं प्रशासनिक सीमाओं की पहचान एवं निर्धारण](/sites/default/files/inline-images/pic-1.png)
चित्र 1 नदियों की प्राकृतिक एवं प्रशासनिक सीमाओं की पहचान एवं निर्धारण
नदियों और जल संसाधन संबंधित तथ्यों एवं जानकारी की वर्तमान स्थिति
भारत में गंगा जैसी विशाल नदी के घाटी प्रबंधन की योजना निर्माण का प्रथम सफल प्रयास आईआईटी संघ के द्वारा किया गया, आईआईटी संघ ने नदी के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर विस्तृत चर्चा कर अनेक विशेष रिपोर्ट के माध्यम से सरकार एवं अन्य हितधारकों को इसके बारे में जानकारियाँ संकलित कर प्रस्तुत की। GRBMP के समय भारत की आवश्यकता गंगा नदी के संरक्षण हेतु यथाशीघ्र एक योजना तैयार करनी थी जिसमें टॉप-टू-बॉटम दृष्टिकोण अपनाया गया, जोकि उस समय गंगा घाटी में प्रमुख मुद्दों की सम्पूर्ण जानकारी के लिए आवश्यक भी था। इस प्रयास में विभिन्न मुद्दों पर चर्चाओं के माध्यम से यह समझ बनी कि विभिन्न मुद्दों के समाधान के लिए उचित प्रबंध करने हेतु दृष्टिकोण को परिवर्तित कर बॉटम-अप को अपनाने की आवश्यकता होगी। इस प्रकार दोनों ही दृष्टिकोणों की अपनी उपयोगिता है एवं आवश्यकतानुसार उचित का चयन करना चाहिए। प्रशासनिक रूप से सुगमता एवं प्रभाविकता को ध्यान में रखते हुए यह महसूस किया गया कि छोटी एवं सहायक नदियों तथा बड़ी नदियों को प्रशासनिक भागों में बाँट कर ही उचित रूप से प्रबंधन एवं संरक्षण का कार्य किया जा सकता है। इसके लिए जरूरी है कि इन स्थानीय स्तरों पर भी योजनाएं बनाई जाये जिसमे स्थानीय हितधारकों की भागीदारी भी महत्वपूर्ण हिस्सा होनी चाहिए। इस प्रयास में जो मुख्य समस्या महसूस हुई वह थी उचित एवं उत्कृष्ट जानकारी का अभाव। वर्तमान में नदियों एवं जल संसाधनों और उनको प्रभावित करने वाले कारकों से संबंधित जानकारी किसी भी एक स्थान पर उपलब्ध नहीं है। यह अभाव न केवल संबंधित विषय में तथ्यात्मक विवेचना एवं बाधाओं की पहचान के कार्य को अवरुद्ध करता है बल्कि भविष्य की योजनाओं के निर्माण एवं निष्पादन में भी समस्याएं उत्पन्न करता है। इसलिए आवश्यक है कि विभिन्न प्रकार की जानकारियों को संकलित कर उनमें त्रुटि दूर करके यथासंभव उपयोग हेतु तैयार रखा जावे cGanga, अपने इस कार्य को आगे बढ़ाने हेतु प्रयत्नशील है। चित्र 2 में स्थानीय स्तर पर नदियों के संरक्षण के लिए योजना बनाने हेतु आवश्यक जानकारियों के प्रकार दर्शाने का प्रयास किया गया है. हालांकि आवश्यक जानकारियों की संख्या एवं प्रकार स्थानीय स्थितियों पर निर्भर करती है।
![चित्र 2 स्थानीय स्तर पर जल संसाधनों के संरक्षण एवं विकास के लिए आवश्यक जानकारियाँ](/sites/default/files/inline-images/pic%20-2.jpg)
अपने जल स्रोतों को जानना क्यों आवश्यक है?
जैसा की चित्र 3 में दिखाया गया है कि एक क्षेत्र में लगभग सभी विभिन्न प्रकार के जल संसाधन आपस में किसी ना किसी माध्यम से जुड़े होते हैं। यह जुड़ाव वर्ष के कुछ समय अथवा वर्षभर के लिए हो सकता है जैसा कि हमने इस पत्र में पहले भी चर्चा की है कि नदी एवं जल संसाधन के सरक्षण एवं विकास तथा इनके अधिकतम एवं सतत उपयोग के लिए स्थानीय स्तर पर योजना बनाई जानी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि प्रशासनिक रूप से निर्धारित किसी क्षेत्र की भौगोलिक सीमाओं में जल बजट का निर्धारण किया जाये, जिसमें जल की विभिन्न माध्यमों से उपलब्धता एवं उस जल का प्राथमिकता के आधार पर अधिकतम उचित उपयोग निर्धारित किया जा सके । हाल ही मे cGanga द्वारा अर्थ गंगा की रूपरेखा के निर्धारण हेतु प्रकाशित एक पत्र मे इस पर विस्तार से चर्चा की गई है। उन चीजों का प्रबंधन करना असंभव है जिन्हे आप जानते या समझते नहीं हैं। अतः प्रथम आवश्यकता है किसी क्षेत्र मे सभी जल संसाधनों की जल भराव क्षमता, उनके वर्तमान उपयोग जल की गुणवत्ता इत्यादि जानकारियाँ एकत्रित कर उनके आधार पर निर्णय लिया जाये।
![चित्र 3 एक भौगोलिक सीमा में विभिन्न जल स्रोत उनका आपस में जुड़ाव एवं संभावित उपयोग](/sites/default/files/inline-images/pic-3.png)
जल उपयोग एवं उपलब्धता, वास्तविक जल की मांग !
जल चक्र एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जोकि एक सीमा तक कृत्रिम कारणों से प्रभावित भी हो सकती है। जैसा कि हमने पूर्व में चर्चा की किसी भी भौतिक सीमा में आपक एवं जावक जल का पूर्ण अनुमान एवं अध्ययन के पश्चात उस सीमा मे विभिन्न कार्यों के लिए आवश्यकतानुसार जल की उपलब्धता एवं उपयोग के बारे मे उचित प्रकार से निर्धारण किया जा सकता है। चित्र 4 मे किसी भौगोलिक सीमा मे आवक एवं जावक जल के विभिन्न माध्यमों को दर्शाया गया है।
वर्तमान में किसी भी क्षेत्र में जल की कमी को परिभाषित करने के लिए क्षेत्र की जनसंख्या, वहाँ के उद्योग, इत्यादि के आधार पर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता एवंजल के स्रोतों की स्थिति के आधार पर की जाती है। परंतु क्या ऐसा करते समयउ पयोगित जल के शोधन पश्चात उसकेविभिन्न उपयोग को गणना में शामिल किया जाता है? क्या जल की उपलब्धता के आधार पर क्षेत्र में लगाए जाने वाले उद्योग व धंधों का निर्धारण किया जाना चाहिए? जितना जल प्रतिदिन उपयोग किया जाता है क्या उसको जल की वास्तविक मांग के माना जाना चाहिए, अथवा स्थानीय जल या चक्र से बाहर चले जाने वाले जल को ही वास्तविक मांग माना जाना चाहिए ! ऐसे कई प्रश्न है जिनका जवाब उचित प्रकार से तर्कसम्मत होना जल एवं जल स्रोतों की सतत उपयोगिता के लिए अत्यंत आवश्यक है। इन सभी मुद्दों पर चर्चा के पश्चात ही किसी क्षेत्र, राज्य अथवा देश को जल की कमी अथवा अधिकता वाला माना जाना चाहिए ।
![चित्र 4 किसी भौगोलिक सीमा मे आवक एवं जावक जल के विभिन्न माध्यम](/sites/default/files/inline-images/pic-4.png)
प्राकृतिक एवं प्रशासनिक सीमाओं में नदी प्रबंधन
जैसा की हमने पहले ही बताया कि नदी संरक्षण एवं प्रबंधन हेतु उसकी प्राकृतिक एवं प्रशासनिक सीमाओं एवं उन सीमाओं मे जल संसाधनों के बारे में सम्पूर्ण जानकारी एकत्रित करना किसी भी नदी घाटी के प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण हैं। नदियों के प्राकृतिक बहाव क्षेत्र मे ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही प्रकार की मानव बसावट हो सकती है. अत: ऐसे क्षेत्रों के लिए वह नदियों के उपयोग, उनके प्राकृतिक रूप में आए परिवर्तन इत्यादि के आधार पर योजनाएं बनाई जानी चाहिए।
- सभी प्राकृतिक नालों जिनमें बारिश के मौसम में पानी रहता और बाकी समय या तो वे सूखे रहते हैं या उनमें अपशिष्ट बहता है का जीर्णोद्धार करना।बारिश के पानी को ले जाने वाली नालियों और अपशिष्ट ले जाने वाली नालियों को अलग-अलग रखना चाहिये क्योंकि इनके मिलने से बारिश के पानी की गुणवत्ता तो खराब होती ही है साथ मे कुल पानी की मात्रा एवं उनके शोधन का व्यय भी बढ़ जाता है।
- शोधित अपशिष्ट जल को प्राकृतिक नालियों और तालाबों / जल निकायों में संग्रहित करना चाहिये जिसका पुनः उपयोग पानी की आपूर्ति में कमी को पूरा करने के लिए किया जा सकता है। पुनः उपयोग के लिए पानी तुलनात्मक रूप से कम कीमतों पर उपलब्ध होने से पानी के लिए बाजार भी विकसित होगा ।
- प्राकृतिक नालों व तालाबों / जल निकायों को आपस में जोड़ना होगा जिससे जल निकायों मे लंबी अवधि के लिए पानी की उपलब्धता रहेगी और भूजल पुनर्भरण, बाढ़ के पानी के प्रबंधन में भी सहायता मिलेगी ।
![प्राकृतिक एवं प्रशासनिक सीमाओं में नदी प्रबंधन](/sites/default/files/inline-images/Pic-5_0.png)
घर घर नल - हर घर जल' हेतु जल स्रोतों की उपलब्धता, एवं जल की खेती
भारत में प्रत्येक घर के लिए जल जैसी मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सरकार की ओर से प्रयास किये जा रहे है। देश के अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहां आज भी जलापूर्ति के लिए स्थानीय स्रोत नहीं है व उपयोग हेतु जल लाने के लिए दूर जाना पड़ता है। हर घर जल योजना के माध्यम से ऐसे क्षेत्रों को अन्य क्षेत्रों से जन आपूर्ति की जायेगी एवं इस कार्य हेतु लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपए बजट में निर्धारित किये गए हैं। इस हेतु आधारिक संरचना (infrastructure) का विकास किया जायेगा। यह योजना अत्यंत महत्वपूर्ण है. परंतु क्या हमने इस योजना के माध्यम से जल पहुंचाने के कार्य को सतत जारी रखने के लिए जल स्रोतों की उपलब्धता सुनिश्चित की है? क्या इन सभी जगहों में इस प्रकार बहुत दूर से जल लाने हेतु आधारिक संरचना पर व्यय करना तर्कसंगत है? परंतु जल पहुंचाना भी आवश्यक है, ऐसे मे क्या हम स्थानीय स्तर पर जल प्रबंधन का कुछ कार्य कर सकते हैं? अथवा इन दोनों के समावेश से कोई समाधान किया जा सकता है जिससे भविष्य में भी जलापूर्ति की जा सके एवं यह योजना केवल आधारिक संरचना निर्माण की योजना बन कर न रह जाये। इसलिए यह आवश्यक है कि स्थानीय प्रशासन के साथ ही विषय विशेषज्ञ भी इस पर मंथन कर उचित मार्ग सुझाएं।
इस दिशा में, cGanga द्वारा सुझाया गया जल की खेती एक विकल्प हो सकता है जो क्षेत्र दूरगामी है तथा जहॉं तक जल ले जाने मे बहुत अधिक आधारभूत संरचनाओं का निर्माण करना आवश्यक होगा. अथवा जल क्षय ( लाने ले जाने में) की मात्रा बहुत अधिक हो सकती है. ऐसे स्थानों पर स्थानीय लोगों को वर्षा जल संरक्षण एवं आपूर्ति का जिम्मा दिया जा सकता है इसके अलावा ऐसी भूमि के स्वामित्व वाले किसान जिसमे जल भराव प्राकृतिक रूप से अधिक होता हो एवं भूमि वर्ष पर्यंत अथवा अधिकाश समय उपयोग लायक न रहती हो उनको भी यह अवसर दिया जा सकता है। इससे जो धन जल लाने में व्यय किया जाना था उसको स्थानीय जल विकास एवं रोजगार विकास में उपयोग किया जा सकता है।
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