1969 की बाढ़ के बाद से नदी तो अब पिपराही, जाफरपुर, चन्दौली, कन्सार, पचनौर और रक्सिया होते हुए रुन्नी सैदपुर के रास्ते बह रही थी। नदी की धारा में एकाएक आये इस परिवर्तन के कारण बागमती नदी परियोजना पर एक बार फिर से विचार करना पड़ा। बदली परिस्थिति में देवापुर में प्रस्तावित बराज की साइट भी बदलनी पड़ी और अब बराज कहाँ बने, इसके लिए बिहार सरकार ने विशेषज्ञों की एक समिति बनायी जिसने भारत-नेपाल सीमा से 4 कि.मी. दक्षिण में गम्हरिया ग्राम के रमनगरा टोले में नये बराज का स्थान निर्धारित किया।
मगर इसके पहले कि राज्य सरकार इस परियोजना को स्वीकृति प्रदान करती, बागमती नदी की धारा 1969 में लहसुनियाँ-देवापुर के पास बदल गयी। देवापुर में ही नदी पर बराज बनाने का प्रस्ताव किया गया था और इस बराज की मदद से सीतामढ़ी/शिवहर की 2.56 लाख एकड़ जमीन की सिंचाई करने की बात थी और जिस धारा पर तटबन्ध का प्रस्ताव किया गया था वह लगभग सूख गयी। 14 मार्च 1970 को पटना में एक संवाददाता सम्मेलन में बिहार के सिंचाई विभाग के राज्यमंत्री नरसिंह बैठा ने सूचना दी कि उत्तर बिहार की बागमती योजना के लिए स्वीकृति मिल गयी है। उन्होंने कहा कि पांच करोड़ अठहत्तर लाख रुपयों की अनुमानित लागत से बनने वाली इस योजना से 2 लाख 56 हजार एकड़ भूमि पर सिंचाई हो सकेगी।मंत्री जी की इस घोषणा के बाद आम लोगों का योजना के प्रति उत्साहवर्धन स्वाभाविक था मगर अब तक जो बातें कही जा रही थीं और योजना का जो स्वरूप था उसमें लोगों को सिर्फ इतना ही पता था कि योजना के निर्माण के बाद क्षेत्र की सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। बागमती परियोजना वास्तव में क्या है, इसके बारे में खास जानकारी, लोगों को नहीं थी। यह घोषणा भी केवल सिंचाई तक सीमित थी और बाढ़ नियंत्रण का क्या होगा उसके बारे में सरकार अब तक खामोश थी। इस संवाददाता सम्मेलन में सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर भी मौजूद थे और एक सवाल के जवाब में उन्होंने इतना ही कहा था कि बाढ़ नियंत्रण वाली योजना की स्वीकृति शीघ्र मिल जायेगी। आर्यावर्त (पटना-17 मार्च 1970) अपने संपादकीय में लिखता है, ‘‘...जब तक बागमती योजना का विस्तृत विवरण प्रकाशित नहीं किया जाता तब तक यह कहना कठिन है कि वह बागमती क्षेत्र के लोगों को स्वीकार होगी अथवा नहीं। बागमती योजना का जो प्रारूप बिहार सरकार ने तैयार किया था उसमें बागमती के दोनों ओर दूर तक तटबन्ध बनाने का सुझाव दिया गया था। किन्तु बागमती क्षेत्र के लोगों का सुझाव था कि इस नदी से अधिक से अधिक नहरें निकाल कर उसकी बाढ़ के प्रकोप को कम कर दिया जाए। किन्तु तटबन्ध बना कर उसके पानी को खेतों में जाने से रोका न जाए। बागमती क्षेत्र की जमीन जो उपजाऊ है वह बागमती की पांक (गाद) के कारण। यदि वहाँ तटबन्ध बना कर खेतों में नदी का पानी जाने नहीं दिया गया और पांक पड़ने नहीं दी गयी तो वैसी योजना से लाभ नहीं, हानि अधिक होगी।’’
बागमती घाटी की उर्वर भूमि के मूल में इसी पांक की चर्चा प्रायः हर किसान करता है जिसकी ओर इस संपादकीय ने इशारा किया है। इस संपादकीय की भाषा स्पष्ट थी कि लोगों की अपेक्षाएं क्या हैं। इसमें किसी तरह की कोई अनिश्चितता नहीं थी जो राजनैतिक बयानों में देखने-सुनने को मिलती है। नदी के इस दुर्लभ गुण की ओर एक इशारा विधायक देवेन्द्र झा ने बिहार विधानसभा में किया था। उनका कहना था, ‘‘...जब मैं प्राक्कलन समिति (सिंचाई विभाग) का सदस्य था तब मैंने सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर से पूछा था कि बागमती के सिल्ट में और सिन्दरी के फर्टिलाइजर में कौन फसल के लिए ज्यादा बढ़िया खाद साबित होती है, तब उन्होंने जवाब दिया था कि बागमती नदी की सिल्ट का मुकाबला सिन्दरी का फर्टिलाइजर नहीं कर सकता है।’’
चीफ इंजीनियर के विचारों की पुष्टि बिहार के जल-संसाधन विभाग की बागमती परियोजना संबंधी प्राक्कलन समिति के 128वें प्रतिवेदन (1988) में भी की गयी है। समिति की रिपोर्ट कहती है, ‘‘...सीतामढ़ी जिला जो बागमती सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण परियोजना आरम्भ किये जाने के पूर्व अन्न के मामले में सरप्लस जिला था, वह इस योजना के शुरू होने के बाद शनैः शनैः डेफिसिट का जिला बन गया। पिछले दो वर्षों से अधिकतम डेफिसिट का जिला बना हुआ है।
कुछ समय बीतने के बाद जून के महीने में बागमती में बाढ़ आ गयी और पूरे बागमती क्षेत्र में फसल और सम्पत्ति को काफी नुकसान पहुँचा। लगभग इसी समय राज्य के सिंचाई मंत्री ललितेश्वर प्रसाद शाही ने पटना में 2 जुलाई 1970 को एक संवाददाता सम्मेलन बुलाकर घोषणा की कि बागमती बाढ़ नियंत्रण योजना की स्वीकृति मिल गयी है और उन्होंने इस मद में चौथी पंचवर्षीय योजना में राज्य में 6 करोड़ 80 लाख रुपये खर्च करने की बात कही। उन्होंने बागमती और महानन्दा बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को शीघ्र प्रारम्भ करने का भी संकेत दिया।
1969 की बाढ़ के बाद से नदी तो अब पिपराही, जाफरपुर, चन्दौली, कन्सार, पचनौर और रक्सिया होते हुए रुन्नी सैदपुर के रास्ते बह रही थी। नदी की धारा में एकाएक आये इस परिवर्तन के कारण बागमती नदी परियोजना पर एक बार फिर से विचार करना पड़ा। बदली परिस्थिति में देवापुर में प्रस्तावित बराज की साइट भी बदलनी पड़ी और अब बराज कहाँ बने, इसके लिए बिहार सरकार ने विशेषज्ञों की एक समिति बनायी जिसने भारत-नेपाल सीमा से 4 कि.मी. दक्षिण में गम्हरिया ग्राम के रमनगरा टोले में नये बराज का स्थान निर्धारित किया। बराज निर्माण के लिए यह स्थान उपयुक्त है या नहीं, इसके लिए एक दूसरी समिति का गठन हुआ जिसमें गंगा फ्लड कंट्रोल कमीशन, सेन्ट्रल वाटर कमीशन तथा राज्य सिंचाई विभाग के वरिष्ठ इंजीनियर शामिल थे। इस समिति ने भी रमनगरा में बराज के निर्माण का अनुमोदन कर दिया। यह 1973 की बात है।
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