मंडला से प्रसिद्ध कान्हा-किसली राष्ट्रीय उद्यान के कुछ आगे का नैनपुर असल में उमरिया, निवारी और नैनपुर गाँवों की जमीनों पर 19 वीं शताब्दी में बसा था। पहले अंग्रेजों ने यहाँ के पायली, पारेदा, डेहला, अलीपुर आदि 84 गाँवों को मालगुजारों को बेच दिया था जिनमें से चौधरियों ने 400 रुपए में घुघरी गाँव खरीदा था। और कमला ने 900 रुपए में नैनपुर। उस जमाने में ब्राह्मण बहुल इस इलाके को ‘चौरासी इलाका’ इसीलिए कहा जाता था। गोंडवाने के ज्यादातर शहरों की तरह यहाँ भी देशभर से लोग रेल्वे और दूसरे काम-धंधों की खातिर आए और फिर इसे ही अपना घर बना लिया।
1899 तक यहाँ कुल दो-ढाई सौ की आबादी थी और चकोर नाले की दूसरी दरफ बस्ती निवारी मुख्य गाँव तथा बाजार हुआ करता था। तब बस्ती में न तो स्कूल थे और न ही पुलिस थाना। 1903 में गोंदिया से नैनपुर तक की छोटी लाइन डाली गई और तब नैनपुर बस्ती का भी विकास होना शुरू हुआ।
उस जमाने में नैनपुर में दो तरह की आबादी रहा करती थी, एक रेल्वे के पक्के और विशाल मकानों-बंगलों में रहने वाले अंग्रेज अधिकारी-कर्मचारी और दूसरे मजदूरी तथा छोटे-मोटे रोजगार धंधों के कारण यहाँ आकर बसे हिन्दुस्तानी। शुरुआत में बने रेल्वे के तीन बंगलों के पत्थर के काम के लिए आगरा से मिस्त्री बुलवाए गए थे, बाद में ऐसे ही छह और बंगले बने थे। कस्बे के बुजुर्ग बताते हैं कि बचपन में किस तरह वे छिप-छिपकर अंग्रेज साहबों-मेमों का रहन-सहन, बंगले, नाच आदि देखा करते थे। लेकिन इन्हीं लोगों ने 1929-30 में समाज सेवा के लिए ‘सेवा समिति’ बनाई और फिर आजादी की लड़ाई के लिए ‘युवा मंडल’ का गठन किया। तब ये लोग चौराहे पर देशभर की संघर्ष की खबरें ब्लैकबोर्डों पर लिखा करते थे और गुप्त बैठकें करके आजादी की लड़ाई में मंसूबे बनाया करते थे।
कहते हैं कि बंगाल-नागपुर रेल्वे कम्पनी की यह छोटी लाइन इलाके के एक ठंडे और प्रसिद्ध वन क्षेत्र शिकारा और कान्हा-किसली में छुट्टियाँ बिताने के लिए आने वाले अंग्रेज पर्यटकों के लिए डाली गई थी। यहाँ घने और कीमती जंगल थे और अंग्रेजों के फर्नीचर, विश्वयुद्ध के लिए जहाजों तथा रेल्वे के स्लीपर बनाने के लिए लकड़ी की ढुलाई करके इलाहाबाद ले जाने की खातिर भी रेल लाइन बिछाने का काम किया गया था। इसके अलावा नैनपुर से लगे हुए ‘हवेली’ क्षेत्र में होने वाली धान, मटर, गेहूँ आदि फसलों को ले जाने के लिए भी रेल्वे की जरूरत पैदा हुई थी। कहते हैं कि रामगढ़ की लोधी रानी अवंतीबाई के विद्रोह, गोंडों के संभावित विद्रोह से निपटने तथा पिंडारियों को दबाने-रोकने के लिए फौजों की आवाजाही आसान करने के लिए भी रेलगाड़ियाँ चली थीं। रेल्वे लाइन, स्टेशन, कर्मचारियों का कॉलोनी आदि के लिए नैनपुर, उमरिया, निवारी आदि गाँवों की जमीनों को मालगुजारों से खरीदा गया था।
रेलवे के पहले सड़क का ही आवागमन का एक मात्र तरीका था। यह सड़क घने जंगलों से होकर गुजरती थी और कहावत मशहूर थी कि ‘घाट पिपरिया, रायचूर धूमा, इनसे बचकर आओ तो महतारी ले चूमा।’ हालाँकि पिंडारियों के बारे में इतिहास की राय पक्की नहीं है कि वे सत्ताधारियों को चुनौती देने वाले बहादुर थे या फिर मामुली ठग। लेकिन कहते हैं कि घाट पिपरिया, रायचूर और धूमा जमाने के घने जंगलों और पिंडारियों के डर वाले इलाके हुआ करते थे। इनके बीच से भी बंजारों की व्यापारिक यात्राएँ हुआ करती थीं और झूरपुर गाँव में बंजारों ने एक बावड़ी भी बनवाई थी जो बाद में थॉवर बाँध में डूब गई थी। जबलपुर-नागपुर मार्ग पर इन्हीं पिंडारियों ने पिंडारिया गाँव बसाया था और वहीं से होकर आम लोग इन बंजारों की टोलियों के साथ यात्रा करते थे। बाद में मंडला से ताँगा करके आने का भी चलन शुरू हुआ।
पेयजल के लिए नैनपुर, चकोर नदी के किनारों पर हर साल बनने वाली सैकड़ों झिरियों से काम चलाता था। इन झिरियों को जामुन की लकड़ी या बाँस की टटिया से पाटा जाता था। कहते हैं कि जामुन की लकड़ी ढाई-तीन सौ साल तक पानी में बनी रहती है। बाद में तो प्लास्टिक की टंकी की तली को काटकर उससे पाटने का चलन शुरू हो गया था। हर गर्मी में बनने वाली इन झिरियों को बीच-बीच में साफ किया जाता था। ये झिरियें ब्राह्मण, साहू आदि हर जाति की अलग-अलग हुआ करती थीं। यहाँ का पठारी इलाका आमतौर पर मुरम का ही है और इसमें मिट्टी की परत कम ही मिलती है। इस वजह से भू-गर्भीय जल को हमेशा कमी बनी रहती थी और नतीजे में खेती भी कमजोर होती थी। इस क्षेत्र में नदियाँ, नाले और कुएँ ही पानी के साधन थे। कुओं को भी जामुन की लकड़ी से ही पाटा जाता था। उस जमाने से ही पानी के कुछ कुएँ बनने लगे थे, जिनका आज भी उपयोग किया जाता है। रेल्वे परिसर में बना खैरमाई का कुआँ, गेस्ट हाउस का कुआँ, धर्मशाला का कुआँ, टॉकीज के अंदर का कुआँ और 1922-24 के आसपास खोदा गया गहरा पातालतोड़ कुआँ पेयजल के स्रोत थे।
तालाब बनने के पहले हनुमान मंदिर और ट्रॉफिक का कुआँ रेल्वे कॉलोनी के अलावा अन्य को भी पानी दिया करते थे। हनुमान मंदिर और गायत्री मंदिर के कुएँ अब सूख गए हैं। इसी तरह ठेकेदार मोहल्ले में तीन-चार कुएँ हैं जिनमें पानी भी है। नैनपुर के वार्ड दो में एक पुरानी बावड़ी भी थी जो अब खत्म हो गई है। बस्ती में जैसे-जैसे घर बनते गए वैसे-वैसे कुएँ भी खोदे जाने लगे। लगभग हर घर में मौजूद लबालब भरे कुओं से किफायत से एक-एक गिलास करके पानी निकाला जाता था लेकिन आजकल फ्लश के शौचालय बनने और पानी के दुरुपयोग से इन कुओं के जलस्तर में कमी आयी है।
1899 तक यहाँ कुल दो-ढाई सौ की आबादी थी और चकोर नाले की दूसरी दरफ बस्ती निवारी मुख्य गाँव तथा बाजार हुआ करता था। तब बस्ती में न तो स्कूल थे और न ही पुलिस थाना। 1903 में गोंदिया से नैनपुर तक की छोटी लाइन डाली गई और तब नैनपुर बस्ती का भी विकास होना शुरू हुआ।
उस जमाने में नैनपुर में दो तरह की आबादी रहा करती थी, एक रेल्वे के पक्के और विशाल मकानों-बंगलों में रहने वाले अंग्रेज अधिकारी-कर्मचारी और दूसरे मजदूरी तथा छोटे-मोटे रोजगार धंधों के कारण यहाँ आकर बसे हिन्दुस्तानी। शुरुआत में बने रेल्वे के तीन बंगलों के पत्थर के काम के लिए आगरा से मिस्त्री बुलवाए गए थे, बाद में ऐसे ही छह और बंगले बने थे। कस्बे के बुजुर्ग बताते हैं कि बचपन में किस तरह वे छिप-छिपकर अंग्रेज साहबों-मेमों का रहन-सहन, बंगले, नाच आदि देखा करते थे। लेकिन इन्हीं लोगों ने 1929-30 में समाज सेवा के लिए ‘सेवा समिति’ बनाई और फिर आजादी की लड़ाई के लिए ‘युवा मंडल’ का गठन किया। तब ये लोग चौराहे पर देशभर की संघर्ष की खबरें ब्लैकबोर्डों पर लिखा करते थे और गुप्त बैठकें करके आजादी की लड़ाई में मंसूबे बनाया करते थे।
कहते हैं कि बंगाल-नागपुर रेल्वे कम्पनी की यह छोटी लाइन इलाके के एक ठंडे और प्रसिद्ध वन क्षेत्र शिकारा और कान्हा-किसली में छुट्टियाँ बिताने के लिए आने वाले अंग्रेज पर्यटकों के लिए डाली गई थी। यहाँ घने और कीमती जंगल थे और अंग्रेजों के फर्नीचर, विश्वयुद्ध के लिए जहाजों तथा रेल्वे के स्लीपर बनाने के लिए लकड़ी की ढुलाई करके इलाहाबाद ले जाने की खातिर भी रेल लाइन बिछाने का काम किया गया था। इसके अलावा नैनपुर से लगे हुए ‘हवेली’ क्षेत्र में होने वाली धान, मटर, गेहूँ आदि फसलों को ले जाने के लिए भी रेल्वे की जरूरत पैदा हुई थी। कहते हैं कि रामगढ़ की लोधी रानी अवंतीबाई के विद्रोह, गोंडों के संभावित विद्रोह से निपटने तथा पिंडारियों को दबाने-रोकने के लिए फौजों की आवाजाही आसान करने के लिए भी रेलगाड़ियाँ चली थीं। रेल्वे लाइन, स्टेशन, कर्मचारियों का कॉलोनी आदि के लिए नैनपुर, उमरिया, निवारी आदि गाँवों की जमीनों को मालगुजारों से खरीदा गया था।
रेलवे के पहले सड़क का ही आवागमन का एक मात्र तरीका था। यह सड़क घने जंगलों से होकर गुजरती थी और कहावत मशहूर थी कि ‘घाट पिपरिया, रायचूर धूमा, इनसे बचकर आओ तो महतारी ले चूमा।’ हालाँकि पिंडारियों के बारे में इतिहास की राय पक्की नहीं है कि वे सत्ताधारियों को चुनौती देने वाले बहादुर थे या फिर मामुली ठग। लेकिन कहते हैं कि घाट पिपरिया, रायचूर और धूमा जमाने के घने जंगलों और पिंडारियों के डर वाले इलाके हुआ करते थे। इनके बीच से भी बंजारों की व्यापारिक यात्राएँ हुआ करती थीं और झूरपुर गाँव में बंजारों ने एक बावड़ी भी बनवाई थी जो बाद में थॉवर बाँध में डूब गई थी। जबलपुर-नागपुर मार्ग पर इन्हीं पिंडारियों ने पिंडारिया गाँव बसाया था और वहीं से होकर आम लोग इन बंजारों की टोलियों के साथ यात्रा करते थे। बाद में मंडला से ताँगा करके आने का भी चलन शुरू हुआ।
पेयजल के लिए नैनपुर, चकोर नदी के किनारों पर हर साल बनने वाली सैकड़ों झिरियों से काम चलाता था। इन झिरियों को जामुन की लकड़ी या बाँस की टटिया से पाटा जाता था। कहते हैं कि जामुन की लकड़ी ढाई-तीन सौ साल तक पानी में बनी रहती है। बाद में तो प्लास्टिक की टंकी की तली को काटकर उससे पाटने का चलन शुरू हो गया था। हर गर्मी में बनने वाली इन झिरियों को बीच-बीच में साफ किया जाता था। ये झिरियें ब्राह्मण, साहू आदि हर जाति की अलग-अलग हुआ करती थीं। यहाँ का पठारी इलाका आमतौर पर मुरम का ही है और इसमें मिट्टी की परत कम ही मिलती है। इस वजह से भू-गर्भीय जल को हमेशा कमी बनी रहती थी और नतीजे में खेती भी कमजोर होती थी। इस क्षेत्र में नदियाँ, नाले और कुएँ ही पानी के साधन थे। कुओं को भी जामुन की लकड़ी से ही पाटा जाता था। उस जमाने से ही पानी के कुछ कुएँ बनने लगे थे, जिनका आज भी उपयोग किया जाता है। रेल्वे परिसर में बना खैरमाई का कुआँ, गेस्ट हाउस का कुआँ, धर्मशाला का कुआँ, टॉकीज के अंदर का कुआँ और 1922-24 के आसपास खोदा गया गहरा पातालतोड़ कुआँ पेयजल के स्रोत थे।
तालाब बनने के पहले हनुमान मंदिर और ट्रॉफिक का कुआँ रेल्वे कॉलोनी के अलावा अन्य को भी पानी दिया करते थे। हनुमान मंदिर और गायत्री मंदिर के कुएँ अब सूख गए हैं। इसी तरह ठेकेदार मोहल्ले में तीन-चार कुएँ हैं जिनमें पानी भी है। नैनपुर के वार्ड दो में एक पुरानी बावड़ी भी थी जो अब खत्म हो गई है। बस्ती में जैसे-जैसे घर बनते गए वैसे-वैसे कुएँ भी खोदे जाने लगे। लगभग हर घर में मौजूद लबालब भरे कुओं से किफायत से एक-एक गिलास करके पानी निकाला जाता था लेकिन आजकल फ्लश के शौचालय बनने और पानी के दुरुपयोग से इन कुओं के जलस्तर में कमी आयी है।
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