जैसे-जैसे बांस की कमी बढ़ती जा रही है, बांसखोर मिलें छटपटाने लगी हैं, समस्याएं बढ़ रही हैं। वर्तमान वनों का अतिदोहन हो रहा है और सुदूरवर्ती जंगलों का शोषण बढ़ रहा है। भारतीय कागज निर्माता संघ के अध्यक्ष के अनुसार, “गिरे हुए वर्तमान उत्पादन के बावजूद वन-उपजों की मात्रा सीमित होती जाने के कारण कागज के कारखानों में आये दिन हड़बड़ देखने में आती है। मुख्य समस्या कच्चे माल के सूखते जा रहे स्रोत हैं। रायल्टी की दरों में जल्दी-जल्दी परिवर्तन करके सरकार हालत को और भी बिगाड़ रही हैं।”
बांस का सालाना उत्पादन 25 लाख और 30 लाख टन के बीच है। उसमें से लगभग 16 लाख टन बांस कागज और लुगदी उद्योग को और बाकी गांवों और शहरों के बसोड़ों को उनके घरेलू उद्योगों के लिए दिया जाता है। आज खास कहने लायक बांस के स्रोत रह नहीं गए हैं जिनके आधार पर वर्तमान कागज व गत्ता उद्योग टिके रह सकें या उन्हें बढ़ाया जा सके। शेषशायी पेपर बोर्ड के वरिष्ठ प्रबंधक श्री एसजी रंगन की शिकायत है कि “बांस के मामले में सरकार के साथ हुई दीर्घकालिक समझौतों के ही बल पर बड़ी-बड़ी पेपर मिलों ने भारी पूंजी लगाई है, इसलिए सरकारों का फर्ज है कि जो करार उन्होंने किया, उसका वे अक्षरशः पालन करें। जब तक वर्तमान कारखानों की जरूरतें पूरी नहीं होतीं। तब तक, वह सारा क्षेत्र कागज की मिलों को ही देते हुए वचन निभाना चाहिए।” श्री रंगन आगे कहते हैं कि “असम से बांस लाने का काम अभी हाल के पांचेक सालों से शुरू हुआ है, इसलिए वहां जरूर कुछ बांस अभी बचा हुआ दिखाई देता है। असम से काफी दूर लगी हमारी कई बड़ी मिलों ने, असम से बांस लाना शुरू किया है। नये जंगल लगाने का कोई उपाय न करके, बस केवल प्राकृतिक बांस पर ही निर्भर रहेंगे तो अगले कुछ सालों में असम के जंगलों में भी बांस खत्म हो जाएगा।”
टीटागिर पेपर मिल्स के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक भी इसी तर्ज में कहते हैं “हाल के वर्षों में हमारे कुल कच्चे माल की आवक तो धीरे-धीरे बढ़ी है, लेकिन स्रोत और मिल के बीच की दूरी भी लगातार बढ़ती जा रही है। सारे स्रोत उत्तर-पूर्व के सुदूर इलाकों में सिमट गए हैं उड़ीसा के स्रोत भी खत्म होने को हैं। उड़ीसा सरकार की औद्योगीकरण की नीति के कारण वहां ज्यादा कारखाने खड़े होंगे तब हमें उड़ीसा से भी कच्चा माल मिलना मुश्किल हो जाएगा। आज लगभग 10 प्रतिशत बांस पश्चिम बंगाल से आता है ओर वह भी घर-आंगनों में लगे बांस के झुरमुटों से।”
भारतीय कागज निर्माता संघ के एक अधिकारी कहते हैं, “कागज के कारखानों को जो बांस के इलाके पट्टे पर दिए गए थे, उनकी देखभाल ठीक से न होने के कारण उनकी पैदावार क्षमता बराबर घटती जा रही है” अनेक पट्टों में अनुमानित कम से कम पैदावार के हिसाब से न्यूनतम रायल्टी देने की बात तय हुई थी। लेकिन रायल्टी तय करते वक्त जो कम से कम पैदावार का हिसाब किया गया था, कई बार उतनी भी पैदावर हो नहीं पाती। इसलिए पेपर मिलों को पट्टे में लिखी दर से कहीं ज्यादा रकम प्रति टन रायल्टी के रूप में चुकानी पड़ती है। इसका कारण यह है कि पैदावार का अंदाज कोरा अंदाज ही होता है या ऊपर-ऊपर से कूट लिया जाता है।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के डॉ माधव गाडगिल और श्री. एस नरेंद्र प्रसाद ने कर्नाटक के तीन पेपर मिलों का अध्ययन करके बताया कि इन मिलों ने शायद कारखाने की मंजूरी हासिल करने के लिए या अपनी क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से हमेशा राज्य के बांस की स्थायी पैदावार का हिसाब बढ़ा-चढ़ाकर लगाया था। अपनी जरूरत पूरी करते समय उन्होंने वन-संवर्धन के नियमों का उल्लंघन किया और बांस के सारे जंगल उजाड़ दिए। जब 1937 में भद्रावती में मैसूर पेपर मिल्स की स्थापना हुई, तब अनुमान लगाया गया था कि भद्रावती वन प्रभाग में बांस की निरंतर पैदावार 1,00,000 टन होती रहेगी। पर बांस के फूलने के क्रम को, विकास-चक्र को ध्यान में नहीं रखा गया (बांस एक बार फूल देता है तो बीज गिराकर सूख जाता है। उन बीजों से नया बांस पैदा हो जाता है।) फिर कंपनी ने अपने आपूर्ति क्षेत्र से बाहर दूसरे वन प्रभागों के बांस पर भी हाथ साफ करना शुरू किया। उत्तर कन्नड़ जिले में वेस्टकोस्ट पेपर मिल्स को जो क्षेत्र रियायती शर्तों पर दिया गया था, वहां बांस की 1,50,000 टन सालाना पैदावार का अनुमान था। वहां भी यही हुआ फूलने और नए बांस के फूटने की अवधि का ख्याल नहीं रखा गया। सालाना औसत पैदावार केवल 40,000 टन ही हुई। कंपनी को मजबूरन केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और दूर मेघालय से भी बांस मंगाना पड़ा।
मंड़या नेशनल पेपर मिल कच्चे माल के लिए छोई (गन्ने के छिलके) को काम में लेती थी, बांस नहीं। 1965 में मिल का राष्ट्रीयकरण हुआ। उस वक्त उसे सालाना 140,000 टन बांस उन्हीं तीन जंगलों से देने का आश्वासन दिया था, जहां से मैसूर पेपर मिल को सालाना 55,000 टन बांस दिया जाता था। लेकिन मंड्या नेशनल पेपर मिल को साल भर में 25,000 टन भी बांस मिलना मुश्किल हो गया।
तमिलनाडु की शेषशायी पेपर मिल 1962 में शुरू हुई और तब उसका 90 प्रतिशत कच्चा बांस था, बाकी छोई था। मिल ने रोजाना 60 टन से अपनी क्षमता 160 टन तक बढ़ाई। धीरे-धीरे बांस मिलना कठिन होता गया। इस वक्त वहां 165 टन कागज बनता है और कुल कच्चे माल का केवल 30 प्रतिशत बांस है, बाकी सब सफेदा (20 प्रतिशत), कीकर (20 प्रतिशत), बाटल नामक आस्ट्रेलियाई बबूल की जाति का पेड़ (10 प्रतिशत), काजू और रबड़ (7 प्रतिशत) और फुटकर पेड़ों (तीन प्रतिशत) से जुटाया जाता है। आसपास के जंगलों का बेहद दोहन हो गया है और बसोड़ों के लिए भारी संकट खड़ा हो गया, है क्योंकि बांस के दाम के दाम आसमान छूने लगे हैं।
इसी प्रकार अमलाई (मध्य प्रदेश) की ओरियंट पेपर मिल ने भी शहडोल जिले के पूरे बांस भंडार को खाली कर दिया है और आज वह मध्य प्रदेश के पूर्वी जिलों- बालाघाट, होशंगाबाद और बैतूल-से बांस खींच रही है। कुछ जगहें तो 500 किलोमीटर की दूरी पर हैं। ज्यादातर पेपर मिलें आज आसपास से ही कच्चा माल जुटाने के लिए प्रति टन 300 से 400 रुपये तक चुका रही हैं।
बांस का सालाना उत्पादन 25 लाख और 30 लाख टन के बीच है। उसमें से लगभग 16 लाख टन बांस कागज और लुगदी उद्योग को और बाकी गांवों और शहरों के बसोड़ों को उनके घरेलू उद्योगों के लिए दिया जाता है। आज खास कहने लायक बांस के स्रोत रह नहीं गए हैं जिनके आधार पर वर्तमान कागज व गत्ता उद्योग टिके रह सकें या उन्हें बढ़ाया जा सके। शेषशायी पेपर बोर्ड के वरिष्ठ प्रबंधक श्री एसजी रंगन की शिकायत है कि “बांस के मामले में सरकार के साथ हुई दीर्घकालिक समझौतों के ही बल पर बड़ी-बड़ी पेपर मिलों ने भारी पूंजी लगाई है, इसलिए सरकारों का फर्ज है कि जो करार उन्होंने किया, उसका वे अक्षरशः पालन करें। जब तक वर्तमान कारखानों की जरूरतें पूरी नहीं होतीं। तब तक, वह सारा क्षेत्र कागज की मिलों को ही देते हुए वचन निभाना चाहिए।” श्री रंगन आगे कहते हैं कि “असम से बांस लाने का काम अभी हाल के पांचेक सालों से शुरू हुआ है, इसलिए वहां जरूर कुछ बांस अभी बचा हुआ दिखाई देता है। असम से काफी दूर लगी हमारी कई बड़ी मिलों ने, असम से बांस लाना शुरू किया है। नये जंगल लगाने का कोई उपाय न करके, बस केवल प्राकृतिक बांस पर ही निर्भर रहेंगे तो अगले कुछ सालों में असम के जंगलों में भी बांस खत्म हो जाएगा।”
टीटागिर पेपर मिल्स के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक भी इसी तर्ज में कहते हैं “हाल के वर्षों में हमारे कुल कच्चे माल की आवक तो धीरे-धीरे बढ़ी है, लेकिन स्रोत और मिल के बीच की दूरी भी लगातार बढ़ती जा रही है। सारे स्रोत उत्तर-पूर्व के सुदूर इलाकों में सिमट गए हैं उड़ीसा के स्रोत भी खत्म होने को हैं। उड़ीसा सरकार की औद्योगीकरण की नीति के कारण वहां ज्यादा कारखाने खड़े होंगे तब हमें उड़ीसा से भी कच्चा माल मिलना मुश्किल हो जाएगा। आज लगभग 10 प्रतिशत बांस पश्चिम बंगाल से आता है ओर वह भी घर-आंगनों में लगे बांस के झुरमुटों से।”
भारतीय कागज निर्माता संघ के एक अधिकारी कहते हैं, “कागज के कारखानों को जो बांस के इलाके पट्टे पर दिए गए थे, उनकी देखभाल ठीक से न होने के कारण उनकी पैदावार क्षमता बराबर घटती जा रही है” अनेक पट्टों में अनुमानित कम से कम पैदावार के हिसाब से न्यूनतम रायल्टी देने की बात तय हुई थी। लेकिन रायल्टी तय करते वक्त जो कम से कम पैदावार का हिसाब किया गया था, कई बार उतनी भी पैदावर हो नहीं पाती। इसलिए पेपर मिलों को पट्टे में लिखी दर से कहीं ज्यादा रकम प्रति टन रायल्टी के रूप में चुकानी पड़ती है। इसका कारण यह है कि पैदावार का अंदाज कोरा अंदाज ही होता है या ऊपर-ऊपर से कूट लिया जाता है।
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के डॉ माधव गाडगिल और श्री. एस नरेंद्र प्रसाद ने कर्नाटक के तीन पेपर मिलों का अध्ययन करके बताया कि इन मिलों ने शायद कारखाने की मंजूरी हासिल करने के लिए या अपनी क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से हमेशा राज्य के बांस की स्थायी पैदावार का हिसाब बढ़ा-चढ़ाकर लगाया था। अपनी जरूरत पूरी करते समय उन्होंने वन-संवर्धन के नियमों का उल्लंघन किया और बांस के सारे जंगल उजाड़ दिए। जब 1937 में भद्रावती में मैसूर पेपर मिल्स की स्थापना हुई, तब अनुमान लगाया गया था कि भद्रावती वन प्रभाग में बांस की निरंतर पैदावार 1,00,000 टन होती रहेगी। पर बांस के फूलने के क्रम को, विकास-चक्र को ध्यान में नहीं रखा गया (बांस एक बार फूल देता है तो बीज गिराकर सूख जाता है। उन बीजों से नया बांस पैदा हो जाता है।) फिर कंपनी ने अपने आपूर्ति क्षेत्र से बाहर दूसरे वन प्रभागों के बांस पर भी हाथ साफ करना शुरू किया। उत्तर कन्नड़ जिले में वेस्टकोस्ट पेपर मिल्स को जो क्षेत्र रियायती शर्तों पर दिया गया था, वहां बांस की 1,50,000 टन सालाना पैदावार का अनुमान था। वहां भी यही हुआ फूलने और नए बांस के फूटने की अवधि का ख्याल नहीं रखा गया। सालाना औसत पैदावार केवल 40,000 टन ही हुई। कंपनी को मजबूरन केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और दूर मेघालय से भी बांस मंगाना पड़ा।
मंड़या नेशनल पेपर मिल कच्चे माल के लिए छोई (गन्ने के छिलके) को काम में लेती थी, बांस नहीं। 1965 में मिल का राष्ट्रीयकरण हुआ। उस वक्त उसे सालाना 140,000 टन बांस उन्हीं तीन जंगलों से देने का आश्वासन दिया था, जहां से मैसूर पेपर मिल को सालाना 55,000 टन बांस दिया जाता था। लेकिन मंड्या नेशनल पेपर मिल को साल भर में 25,000 टन भी बांस मिलना मुश्किल हो गया।
तमिलनाडु की शेषशायी पेपर मिल 1962 में शुरू हुई और तब उसका 90 प्रतिशत कच्चा बांस था, बाकी छोई था। मिल ने रोजाना 60 टन से अपनी क्षमता 160 टन तक बढ़ाई। धीरे-धीरे बांस मिलना कठिन होता गया। इस वक्त वहां 165 टन कागज बनता है और कुल कच्चे माल का केवल 30 प्रतिशत बांस है, बाकी सब सफेदा (20 प्रतिशत), कीकर (20 प्रतिशत), बाटल नामक आस्ट्रेलियाई बबूल की जाति का पेड़ (10 प्रतिशत), काजू और रबड़ (7 प्रतिशत) और फुटकर पेड़ों (तीन प्रतिशत) से जुटाया जाता है। आसपास के जंगलों का बेहद दोहन हो गया है और बसोड़ों के लिए भारी संकट खड़ा हो गया, है क्योंकि बांस के दाम के दाम आसमान छूने लगे हैं।
इसी प्रकार अमलाई (मध्य प्रदेश) की ओरियंट पेपर मिल ने भी शहडोल जिले के पूरे बांस भंडार को खाली कर दिया है और आज वह मध्य प्रदेश के पूर्वी जिलों- बालाघाट, होशंगाबाद और बैतूल-से बांस खींच रही है। कुछ जगहें तो 500 किलोमीटर की दूरी पर हैं। ज्यादातर पेपर मिलें आज आसपास से ही कच्चा माल जुटाने के लिए प्रति टन 300 से 400 रुपये तक चुका रही हैं।
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