वाहित मल जल को कृत्रिम जलाशयों में रोककर उसमें शैवालों और जलकुम्भी जैसे जलीय पौधों को उगाया जाय तो इस वाहित मल जल का कुछ हद तक शुद्धीकरण हो सकता है। कारखानों द्वारा निकलने वाले वाहित मल जल में कैडमियम, पारा, निकिल जैसी भारी धातुओं को जलकुंभी अवशोषित कर लेती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगायी गयी जलकुंभी 240,000 लीटर दूषित जल से 24 घंटे में लगभग 300 ग्राम निकिल तथा कैडमियम अवशोषित कर लेती है।
वर्तमान में मृदा का धात्विक प्रदूषण एक ज्वलंत पर्यावरणीय समस्या का रूप ले चुका है। बढ़ते औद्योगीकरण एवं आधुनिक कृषि संबंधी क्रियाकलापों के द्वारा मृदा निरंतर प्रदूषित हो रही है। आजकल शहरों के निकटवर्ती भू-भाग पर सब्जियों की खेती बहुतायत से की जा रही है। इन सब्जियों की फसलों की सिंचाई हेतु प्राय: शहरों की नालियों में बहने वाले गंदे जल (मलजल/सीवेज) का ही प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त खाद्य के स्रोत के रूप में अवमल (स्लज) का उपयोग भी बहुत लंबे समय से हो रहा है। प्रयोगों द्वारा अब यह सिद्ध हो चुका है इस वाहित मल जल (सीवेज) एवं अवमल (स्लज) में अनेक विषैली भारी धातुयें पायी जाती हैं।भारी धातुओं कें अंतर्गत वे तत्व आते हैं जिनका घनत्व 5 से अधिक होता है। मुख्य भारी धातुयें हैं- कैडमियम, क्रोमियम, कोबाल्ट, कॉपर, आयरन, मरकरी, मैग्नीज, मोलिब्डेनम, निकिल, लेड, टिन तथा जिंक। कुछ भारी धातुयें जैसे- कॉपर, आयरन, मैग्नीज, जिंक, मोलिब्डेनम तथा कोबाल्ट की सूक्ष्म मात्रा जानवरों के लिये आवश्यक होती है, किंतु कैडमियम, मरकरी तथा लैड न तो पौधों के लिये आवश्यक है और न ही जानवरों के लिये अर्थात पर्यावरण में इनकी उपस्थिति वनस्पतियों, जीवों एवं स्वयं मनुष्य के लिये हानिकारक होती हैं। ये विषैली भारी धातुयें अनुमत सांद्रण सीमा से अधिक होने पर मृदा के धात्विक प्रदूषण का कारण बनती हैं। इन धातुओं को औद्योगिक महत्त्व होने के नाते रोज नये-नये कारखानों की स्थापना हो रही है। फलत: प्रतिदिन अपशिष्ट के रूप में इन धातुओं का ढेर सा लग जाता है और पर्यावरण में इन धातुओं का प्रचुर अंश विष रूप में मिलता रहता है। इन अपशिष्टों के हवा, नदी-नाले तथा मिट्टी आदि में पहुँचने से जल तथा मिट्टी के धात्विक प्रदूषण की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। जल, वायु, मिट्टी ही नहीं अपितु इससे अब खाद्य सामग्री भी प्रदूषित होने लगी है।
शहरी गंदे जल (सीवेज-स्लज) से खींची गयी मिट्टियों में उपजने वाली फसलों में कैडमियम की उच्च मात्रायें पायी जा सकती हैं। अतएव पौधे तथा फसलें कम से कम कैडमियम ग्रहण करें, इस दिशा में शोध की आवश्यकता बनी हुई है।
यहाँ प्रस्तुत भारी धातुओं के अतिरिक्त अन्य और भी भारी धातुयें हैं जो पर्यावरण प्रदूषण के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्यत: भारी धातुयें वे हैं जिनका घनत्व 5 से अधिक हो किंतु आजकल इस मूल संकल्पना में परिवर्तन हो चुका है अब भारी धातुयें उन्हें माना जाता है जिनमें इलेक्ट्रॉन स्थानान्तरण का गुण-धर्म पाया जाता है। पीने योग्य पानी में भारी धातुओं की इष्टतम सीमा इस प्रकार है-
भारी धातु | इष्टतम सीमा (मिग्रा/लीटर) |
कैडमियम | 0.01 |
कॉपर | 0.04 |
जिंक | 0.5 |
क्रोमियम | 0.05 |
लेड | 0.01 |
पौधों में धातु संचय करने तथा प्रतिरोध करने की क्षमता होती है। पौधों द्वारा प्रदूषकों का अवशोषण या निस्तारण पादप उपचार (फाइटोरेमिडियेशन) कहलाता है। विभिन्न भारी धातुओं के उपचार के लिये यह एक विश्वसनीय तकनीक है। कुछ पौधे विभिन्न प्रदूषकों तथा धातुओं को अवशोषित करने की क्षमता रखते हैं। अधिक मात्रा में प्रदूषकों को अवशोषित करने वाले पौधों को मेटेलोफाइट या हाइपर एकुमुलेटर कहते हैं। ये पौधे भारी धातुओं को जड़ों द्वारा अवशोषित करके अपने अनुपयोगी ऊतकों में संचयित करते हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि पौधों की जड़ें मिट्टी में कार्बनिक प्रदूषकों की जैविक अपघटन प्रक्रिया को तेज कर देती हैं। मिट्टी तथा पानी में भारी धातुओं की मात्रा के मॉनीटरन और प्रदूषण निवारण के लिये ऐसे अनेक प्रकार के पौधों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है।
पौधों विभिन्न धातुओं को घुलनशील ऑक्सीकरण (Soluble oxidation) अवस्था से अघुलनशील ऑक्सीकरण (Insoluble oxidation state) में परिवर्तित करके धातु निक्षालन को रोकते हैं। साथ ही उन्हें उद्ग्रहण अवक्षेपण और अपचयन के माध्यम से निश्चल किया जा सकता है।
पौधे अपनी जड़ों की सतह में उपस्थित सूक्ष्म जीवों की विघटनकारी प्रक्रिया के द्वारा कार्बनिक यौगिकों को तोड़कर सरलीकृत कर देते हैं और इसे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। इन उपचारित पौधों को प्रदूषित स्थल से दूर ले जाकर विभिन्न विधियों द्वारा संचयित तत्वों को इनसे अलग कर लिया जाता है। जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से इस समय ऐसी विधियाँ विकसित कर ली गई है जिनके द्वारा चुने हुए तथा विशेष रूप से निर्मित सूक्ष्म जीवों के प्रयोग से पौधों द्वारा धातुओं का अवशोषण बढ़ाकर मृदा पुन: कृषि योग्य बनाई जा सकती है। दूसरी ओर पारंपरिक विधियों की अपेक्षा कम लागत से अधिक धातु प्राप्त करने के प्रयास जारी हैं। सर्वप्रथम अमेरिका के सूक्ष्मजीवी वैज्ञानिकों ने सन 1947 में थायोबैसिलस फैरोआॅक्सीडेन्स नामक जीवाणु की सहायता से तांबे को कच्ची धातु से प्राप्त किया था। ये जीवाणु पूरी तरह से सल्फाइड पर जीवन-यापन करते हैं और अम्लीय वातावरण में तेजी से बढ़ते हैं।
सूक्ष्म जैव-उपचार उत्प्रेरक (Biocatalyst) की तरह कार्य करते हैं तथा प्रदूषकों के सहारे बढ़ते हैं इसलिये जैव-उपचार की गति स्वाभाविक रूप से तेज होती है। सूक्ष्म जीवों में जैविक यौगिकों के अपघटन की स्वाभाविक क्षमता अधिक होती है। आनुवंशिक अभियांत्रिकी द्वारा सूक्ष्मजीवों की इस क्षमता में और भी वृद्धि की जा सकती है।
पौधे प्रदूषित पदार्थों के लिये एक जैविक छनन-यंत्र का कार्य करते हैं। पौधे प्रदूषणकारी पदार्थों सांद्रता को अपनी बाहरी या भीतरी सतह पर सोखकर इनको कम विषैले पदार्थों में परिवर्तित कर, स्वयं में एकत्रित कर व चयापचय द्वारा उनकी मात्रा को कम कर देते हैं।
पादपोचार आधारित निस्तारण के लिये सबसे पहले आवश्यकता प्रदूषणकारी भारी धातुओं को पहचानने की है। इसके लिये जैव-सूचकों का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणार्थ फेस्चुका रूब्रा तथा लिगुस्टम वुलगेरी की पत्तियाँ कैडमियम, जिंक, लेड और निकिल के लिये, डाइव्क्रेनम पॉलीसेटम तथा स्फैगनम प्रजातियाँ कैडमियम, कॉपर, ऑयरन, मरकरी, निकिल, लेड तथा जिंक के लिये प्रयुक्त होती हैं। सूचक पौधे भारी धातुओं की अधिक मात्रा अवशोषित करते हैं लेकिन इनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होती है जिसके कारण रंध्र, क्यूटिकिल, ट्राइकोम आदि में परिलक्षित होने वाले परिवर्तन बाहर से स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। कुछ शैवाल जैसे क्लेडोफोरा और स्टीमिआलोनियम का प्रयोग जल में भारी धातु प्रदूषण के सूचक के रूप में होता है। भारी धातु प्रदूषण की उपस्थिति में क्लेडोफोरा पूर्णतया उस स्थान से समाप्त होने लगता है।
प्रदूषण की पहचान हो जाने के पश्चात ऐसे पौधों का चुनाव किया जाता है जो इनके निस्तारण की क्षमता रखते हैं। निस्तारण की यह सफलता पौधों के जाति तथा मृदा सुधार की विधि पर काफी सीमा तक निर्भर करती है। कुछ पौधों के ऊतकों में काफी अधिक मात्रा में भारी धातुओं को संचित करने की शक्ति होती है और इन्हीं पौधों का उपयोग मृदा धातुओं का अवशोषण करने में किया जाता है। यह निस्तारण कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है, जैसे- पौधों की अधिक से अधिक मात्रा में भारी धातुओं को संचित करने की शक्ति होती है और इन्हीं पौधों का उपयोग मृदा धातुओं का अवशोषण करने में किया जाता है। यह निस्तारण कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है, जैसे- भार का उत्पादन, रोपाई तथा कटाई की सरलता इत्यादि।
जड़ों द्वारा अवशोषित होकर ये धातुएं पौधों में उपस्थित आवश्यक रसायनों से संकुलित होकर उसके विभिन्न भागों में स्थिर हो जाते हैं तथा कुछ अंतत: अवक्षेपित हो जाते हैं। कुछ अन्य मुख्य रूप से पत्तियों में जाकर एकत्रित हो जाते हैं।
एल्पाइन पेनीक्रेस (थ्लास्पी सेरूलेसेन्स) अन्य पौधों की अपेक्षा 10 से 100 गुना अधिक जिंक अवशोषित कर सकता है। वस्तुत: सूखे पौधे के प्रति किलोग्राम भार के अनुपात में यह 25 ग्राम जिंक का अवशोषण कर सकता है और इसीलिये इसकी सहायता से अमेरिका में पामरटन नामक स्थान में बंद हो गए जिंक स्मेलटरों के आस-पास की भूमि को उर्वरा बनाने में आशातीत सफलता मिली है। इतना ही नहीं, यह पौधा इसी अनुपात में लगभग 16 ग्राम निकिल तथा अच्छी मात्रा में कैडमियम का भी अवशोषण कर सकता है। ये दोनों ही प्रदूषण तत्व भी जिंक स्मेलटरों की ही देन हैं।
सेबोर्टिया अकुमिनाटा एवं एलियम लेस्बिएकम नामक पौधे भी निकिल की भारी मात्रा को अवशोषित करने में सक्षम हैं। ब्रेसिका नेपस, सेलीनियम के आधिक्य वाली मिट्टी को सामान्य बना सकता है। यह कैडमियम और बोरॉन को भी भारी मात्रा में अवशोषित करने की क्षमता रखता है।
लेड आधारित उद्योगों एवं आटोमोबाइल्स से लेड मृदा में इतनी अधिक मात्रा में संचित हो जाता है कि यह विषाक्त बन जाता है। लेखक द्वारा शीलाधर मृदा विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में किए गए शोध कार्य से पता चला है कि लेड प्रदूषित मृदा को कृषि योग्य बनाने में भारतीय पीली सरसों ब्रेसिका जन्सिया तथा कैडमियम प्रदूषित मृदा में सूरजमुखी (हैलियेन्थस एन्नस) बहुत लाभकारी हैं। इसके शुष्क जैव भार के प्रति किलोग्राम में चार ग्राम तक लेड संग्रहीत पाया गया है।
धातुओं को जड़ से तने में लाने के लिये वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया भी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। लेड के लिये सबसे प्रमुख वनस्पतीय निस्तारक थ्लास्पी रोटंडीफोलियम है। इसके अतिरिक्त ब्रेसिका जन्सिया भी इसका उत्कृष्ट उदाहरण है जिसमें लेड, कैडमियम को अवशोषित करने की आनुवंशिक शक्ति पाई जाती है। जई और जौ में भी कॉपर, कैडमियम और जिंक के निस्तारण की क्षमता पाई जाती है। इसके अतिरिक्त कार्न, राई-घास, थिलकस तथा डेस्चैम्पसिया आदि पौधों में भी भारी धातुओं के निस्तारण की प्रचुर क्षमता का पता चला है। इतना ही नहीं, पापलर (पापुलर स्पीशीज) के पौधों की जिंक, अवशोषण क्षमता के कारण पेट्रोलियम कुँओं से निकले लवणीय अपशिष्ट जल को शोधित करने का प्रयास किया जा रहा है। इन पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषण आंका जा चुका है। जब जड़ों को खोदकर निस्तारण करने की विधि का विकास किया जा रहा है ताकि एकत्रित जिंक को वहाँ से हटाया जा सके।
मृदा में सीसे की अवशोषण क्षमता को सरसों के पौधों में बढ़ाने के लिये ‘कीलेटर’ यौगिकों का भी परीक्षण किया जा रहा है। इतना ही नहीं, इन ‘कीलेटर’ यौगिकों के मृदा में प्रयोग से अन्य धातुएँ जैसे कैडमियम, कॉपर, निकिल तथा जस्ता जैसी धातुओं की सरसों के तनों में एकत्रित करने की क्षमता को बढ़ते भी पाया गया है।
आजकल आनुवंशिक अभियांत्रिकी की सहायता से ऐसे ट्रांसजेनिक पौधों का निर्माण किया जा रहा है, जो विशिष्ट रूप से प्रदूषित मृदा का उपचार करने में सक्षम हों। परम्परागत फसलों में अत्यधिक संचय की प्रवृत्ति उत्पन्न करने के प्रयास किये जा रहे हैं। ये प्रयोग ब्रैसिका के पौधों पर किए जा रहे हैं जिनकी जड़ों में भारी धातुओं के संचयन की क्षमता पायी गई है। पाइसम सटाइवम (Pisum sativum) की एक उत्परिवर्तित प्रजाति तैयार की गई है जो पाइसम की जंगली जाति की तुलना में 10-100 गुना अधिक आयरन का संचय करती है।
जैव प्रौद्योगिकी की सहायता से पौधों की ऐसी प्रजातियाँ विकसित करने की आवश्यकता है जो अधिक से अधिक मात्रा में भारी धातुओं का संचय कर सकें। इसके लिये मृदा रसायनज्ञ जैव प्रौद्योगिकीविद पारिस्थितिकीविद, पर्यावरणविद, जल-अभियांत्रिकी विशेषज्ञ, कृषि वैज्ञानिकों सभी को एक साथ मिल बैठकर ऐसी रणनीतियाँ तैयार करने की आवश्यकता है जिससे इस तकनीक का सफल कार्यान्वयन हो सके और पर्यावरण के विभिन्न घटकों यथा-मृदा, जल तथा वायु से प्रदूषकों की मात्रा को कम किया जा सके। इस दिशा में धातु-उद्ग्रहण, स्थानान्तरण, कीलेटीकरण एवं जड़ अवक्षेपण पर शोधकार्य की आवश्यकता है। पर्यावरण अभियांत्रिकी, मृदा सूक्ष्म जीवविज्ञान, जैसे क्षेत्रों का एक संयुक्त अनुसंधान इस विधा को अधिक कारगर बनाने के लिये आवश्यक है।
यह देखा गया है कि शैवालों तथा प्लवकों (प्लैंक्टन) में इन धातुओं का बहुत अधिक संचय होता है। अत: इन धातुओं के अस्थायी छुटकारे के लिये शैवालों तथा प्लवकों की खेती पर बल देने की आवश्यकता है। शोधों से पता चला है कि चीड़ का पेड़ मिट्टी से बेरीलियम अवशोषित कर उसे धातु प्रदूषण से मुक्त कर देने की सामर्थ्य रखता है। हैयुमैनिएस्ट्रम नामक वनस्पति जमीन से तांबे एवं कोबाल्ट का अवशोषण करती है। क्रूसीफेरी परिवार की एक वनस्पति थ्लास्पी रोटण्डीफोलिया जस्ते और सीस को वातावरण से अवशोषित करती है। इनमें इनकी मात्राएं 1-2 प्रतिशत तक हो सकती हैं। इसी प्रकार सेम, मटर आदि के पौधे जमीन से मॉलिब्डिनम धातु को अवशोषित कर लेते हैं।
वाहित मल जल को कृत्रिम जलाशयों में रोककर उसमें शैवालों और जलकुम्भी जैसे जलीय पौधों को उगाया जाय तो इस वाहित मल जल का कुछ हद तक शुद्धीकरण हो सकता है। कारखानों द्वारा निकलने वाले वाहित मल जल में कैडमियम, पारा, निकिल जैसी भारी धातुओं को जलकुंभी अवशोषित कर लेती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगायी गयी जलकुंभी 240,000 लीटर दूषित जल से 24 घंटे में लगभग 300 ग्राम निकिल तथा कैडमियम अवशोषित कर लेती है। जलकुम्भी द्वारा परिशोधित जल का पी एच मान 6.8 से 9.8 तक हो जाता है। इसी प्रकार यदि मल युक्त ठोस पदार्थ (स्लज) को चूर्ण शैल फास्फेट के साथ प्रयोग किया जाये तो भूमि तथा पौधे में इन विषैली धातुओं को एकत्रित होने से रोका जा सकता है।
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