उत्तराखण्ड में विष्णु प्रयाग से लेकर देवप्रयाग तक के पंच प्रयागों का निर्माण करने वाली नदियों की मूलधाराओं के मार्ग को अवरुद्ध करने वाली सभी परियोजनाओं को तत्काल प्रभाव से निरस्त/बंद कर दिया जाये। विष्णुगंगा, पिंडर नंदाकिनी, मंदाकिनी और भागीरथी नामक धारायें अलकनंदा की मूलधारा से मिलकर इन पंच प्रयागों का निर्माण करती हैं। मांग यह भी है कि भविष्य में देवप्रयाग से आगे गंगासागर तक गंगा की मूलप्रवाह को रोकने वाली कोई परियोजना न रहे। नरोरा से प्रयाग तक हर बिंदु पर हर समय 100 घनमीटर प्रति सेकेंड का प्रवाह सुनिश्चित हो।
इलाहाबाद। 19 जनवरी 2012। आखिर कोई तो वजह होगी कि गंगा के लिए अपनी जान देने वाले बिहार के सपूत स्वामी निगमानंद की अग्नि अभी शांत भी नहीं हुई है कि पांच और गंगा पुत्रों को अपने बलिदान की जरूरत आन पड़ी है। इन पांचों में एक सदस्य ऐसा भी है, जो राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण का विशेषज्ञ सदस्य है- जलपुरुष राजेंद्र सिंह। सदस्य होने के नाते जो बात वह सीधे प्राधिकरण में कह सकते थे। आखिर कोई तो कारण होगा, जो उन्हें अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिए तप यह रास्ता अख्तियार करना पड़ा है? राजेंद्र सिंह कहते हैं- “प्रधानमंत्री जी, प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं। प्राधिकरण के विशेषज्ञ सदस्यों के प्राधिकरण में बने रहने के औचित्य को लेकर हमने बहुत पहले ही प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा था। लेकिन जब कोई सरकार असंवेदनशील हो जाये। सुनना बंद कर दे।... तो मेरे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता के पास और क्या रास्ता बचता है; सिवाय इसके कि हम तप और आत्मबलिदान के रास्ते पर बढ़ जायें। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है। गंगा, लाखों की आजीविका- आस्था और दुनिया में भारत की राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक भी है। हम यही सोचकर हतप्रभ हैं कि कोई सरकार गंगा जैसी महान धारा के प्रति असंवेदनशील कैसे हो सकती है! समाज और संतों की यह साझा तपस्या ऐसी सरकारों को संवेदनशील बनाने के लिए ही है।’’सच है कि स्वामी निगमानंद के बलिदान के बावजूद सरकारों के रवैये में कोई बदलाव दिखाई नहीं देता; न केंद्र में और न राज्यों में। गठन के चार साल पूरे होने को हैं। इस बीच प्राधिकरण की मात्र दो बैठकें बताती हैं कि प्रधानमंत्री के पास गंगा के लिए समय नहीं है। मायावती किसी बैठक में आई ही नहीं। रमेशचंद्र पोखरियाल निशंक जब तक रहे, उत्तराखण्ड में नदी रोको परियोजनायें कैसे बनें - इसी की जुगत करते रहे। शेष राज्यों के प्रतिनिधियों की प्राथमिकता भी गंगा के लिए आये कर्ज में से अपने राज्य का हिस्सा तय करने से ज्यादा कुछ नहीं रहा। ऐसे राजनैतिक परिवेश वाले देश में स्वामी निगमानंद का बलिदान व्यर्थ न जाने पाये; तपस्या यह सुनिश्चित करने के लिए भी है। उल्लेखनीय है कि मकर संक्रान्ति से एक दिन पूर्व गंगासागर में पांच गंगापुत्रों ने गंगा की अविरलता-निर्मलता की गारंटी होने तक महातपस्या का संकल्प लिया था। इससे पहले प्रधानमंत्री को कई पत्र लिखे गये। मुंबई में प्रेसवार्ता कर मीडिया के जरिये संदेश दिया गया। संकल्प में कहा गया था कि जब तक गंगा की अविरलता- निर्मलता सुनिश्चित करने के लिए जरूरी मांगों को सरकार मंजूर नहीं कर लेती, एक-एक कर अनेक संत क्रमशः अन्न, फल, जल त्याग करते हुए तप करेंगे।
स्वामी ज्ञानस्वरूप ‘सानंद’ (प्रो. जीडी अग्रवाल) ने इलाहाबाद में इस तप का श्रीगणेश कर दिया हैं। मकरसंक्रान्ति से माघ पूर्णिमा (15 जनवरी से 07 फरवरी) तक माघ मेले में अन्न त्याग। पूरे फाल्गुन माह (08 फरवरी से 8 मार्च) मातृसदन, हरिद्वार में फल त्याग। चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (9 मार्च से आगे) श्रीविद्यामठ, वाराणसी में जल त्याग। प्राण जाने पर दूसरा संत इस तप को आगे बढ़ायेंगे। अपने नये नामकरण के साथ गंगा सेवा अभियानम् के भारत प्रमुख की भूमिका में प्रो. अग्रवाल भले ही नये हों, लेकिन अनशन कर सरकार झुकाने का उनका अभ्यास पुराना है। गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच बिजली परियोजनाओं को रद्द कराने में उनके अनशन की भूमिका को भला कौन भूल सकता है? संकल्पित पांच गंगा पुत्रों में प्रो. जी डी. अग्रवाल और गंगा जलबिरादरी प्रमुख राजेंद्र सिंह के अलावा तीन अन्य हैं- स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती, गंगाप्रेमी भिक्षुजी तथा ब्रह्मचारी श्री कृष्णप्रियानंदजी। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी की पहचान शंकराचार्य जी के शिष्य प्रतिनिधि होने के अलावा गंगा सेवा अभियानम् के सार्वभौम प्रमुख के रूप में भी हैं। गंगा सेवा अभियानम् - बद्रिकाश्रम और शारदापीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी की पहल पर गठित संगठन है।
चिंता का मूल कारण: असंवेदनशील व निष्प्रभावी प्राधिकरण
गंगा सेवा अभियानम् ने तीन जनवरी, 2012 को प्रधानमंत्री के नाम खुला पत्र लिखकर संकल्प की सूचना दे दी थी। पत्र में राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन प्राधिकरण के गठन को दोषपूर्ण बताते हुए उसकी कार्यशैली पर भी गंभीर सवाल उठाये गये हैं। लिखा है कि प्राधिकरण का पर्यावरण एवम् वन मंत्रालय के अधीन होना गैरवाजिब है। प्राधिकरण में गैरसरकारी विशेषज्ञ सदस्यों की राय की उपेक्षा इस हद तक है कि वे निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं। अभियानम् ने क्षोभ व्यक्त किया है कि प्राधिकरण पत्रों के उत्तर तक नहीं देता। वह एक निष्प्रभावी संस्था है। गंगा सेवा अभियानम् इसलिए भी खफा है कि तमाम तर्कों, आंदोलनों और प्रतिवेदनों के बावजूद गंगा व उसकी सहायक धाराओं पर परियोजनाओं के काम पर कोई लगाम नजर नहीं आ रही है।
अभियानम् ने पूर्व में बिजनौर में छैया और गजरौला में बागपत नाले के जरिये गंगा में आ रहे विषाक्त औद्योगिक प्रदूषण पर प्राधिकरण का ध्यान इंगित किया था। पर प्राधिकरण को पैसा बांटने से ही फुर्सत नहीं, वह गंगा को प्रदूषित कर रहे अवजल को रोकने के लिए ठोस पहल कैसे करे! अभियानम् ने सूचना के अधिकार के तहत 9 जुलाई, 2011 को पत्र लिखकर नरोरा से प्रयाग के बीच न्यूनतम प्रवाह सुनिश्चित करने की बाबत जानना चाहा था। जवाब में पर्यावरण मंत्रालय तब भी नहीं जागा। उसने कोई संवेदनशीलता नहीं दिखाई। दरअसल, जयराम रमेश के मोबाइल तक तो गंगा कार्यकर्ताओं की पंहुच थी। सीधे संवाद भी बना रहा। किंतु नई पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने तो जैसे सुनना ही बंद कर दिया। बद्रीनाथ धाम के नीचे नियमों व पर्यावरण हितों की अनदेखी कर रही एक परियोजना को जयंती नटराजन द्वारा हाल ही में जिस तरह व्यक्तिगत दखल देकर चालू कराया गया है; संकल्पित संत उससे भी बुरी तरह क्षुब्ध हैं।
पांच मांगे, जिनके पूरी होने पर ही रुकेगी तपस्या
गंगा क्यों बने राष्ट्रीय नदी प्रतीक? गांधी जयंती, वर्ष 2008 को छपी इस पुस्तक में सर्वप्रथम मांग की गई थी कि राष्ट्रीय ध्वज, पक्षी, पशु और पुष्प की भांति गंगा के प्रति संवैधानिक सम्मान व अनुशासन सुनिश्चित करने के लिए उसे राष्ट्रीय नदी प्रतीक के रूप मान्यता दी जाये। किंतु सरकार ने उसे राष्ट्रीय नदी मात्र घोषित कर इतिश्री कर ली। नतीजा यह हुआ कि घोषणा, कोरी ही साबित हुई। आशंकायें सच हुईं। सरकार ने उसका राष्ट्रीय सम्मान सुनिश्चित करने की बाध्यता आज तक नहीं समझी। पत्र इसे लेकर भी चिंतित है। अभियानम् ने अपनी पांचसूत्री मांगपत्र में साफ कहा है कि सरकार गंगा को संवैधानिक रूप राष्ट्रीय नदी घोषित करने, यथोचित सम्मान देने व प्रबंधन की दृष्टि से समुचित, सक्षम और सशक्त बिल संसद में पारित करे। सम्मान व व्यवहार के अनुशासन का मतलब गंगा के अपमान करने, हानि पहुँचाने तथा उसके व्यावसायिक उपयोग करने को दंडित करना है। कहा गया है कि सम्मान व व्यवहार के कायदे बाढ़क्षेत्र के दोनों ओर कम से कम 5 किमी. के दायरे में लागू हों।
उत्तराखण्ड में विष्णु प्रयाग से लेकर देवप्रयाग तक के पंच प्रयागों का निर्माण करने वाली नदियों की मूलधाराओं के मार्ग को अवरुद्ध करने वाली सभी परियोजनाओं को तत्काल प्रभाव से निरस्त/बंद कर दिया जाये। विष्णुगंगा, पिंडर नंदाकिनी, मंदाकिनी और भागीरथी नामक धारायें अलकनंदा की मूलधारा से मिलकर इन पंच प्रयागों का निर्माण करती हैं। मांग यह भी है कि भविष्य में देवप्रयाग से आगे गंगासागर तक गंगा की मूलप्रवाह को रोकने वाली कोई परियोजना न रहे। नरोरा से प्रयाग तक हर बिंदु पर हर समय 100 घनमीटर प्रति सेकेंड का प्रवाह सुनिश्चित हो। कुंभ और माघ मेले के अलावा गंगा दशहरा, मौनी अमावस्या, कार्तिक पूर्णिमा आदि विशेष स्नान के मौकों पर न्यूनतम प्रवाह 200 घनमीटर प्रति सेकेंड की मांग की गई है। गंगा के नाम पर लिए गये कर्ज के पैसे से हो रहे नगर उन्न्यन के काम पर हो रहे खर्च पर एतराज जताया गया है। मांग है कि ऐसी परियोजनाओं को तब तक के लिए तत्काल रोक दिया जाये, जब तक इनकी इस दृष्टि से समीक्षा नहीं हो जाती कि ये गंगा के लिए हितकर हैं या नहीं।
प्रदूषण के निर्णायक हल के लिए जरूरी है कि गंगा व उसमें मिलने वाली नदी व नालों में विषाक्त रसायन वाले अवजल डालने वाले उद्योगों को गंगा से कम से कम 50 किमी दूर खदेड़ा जाये। प्रदूषित अवजल वाला कोई भी नाला प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में गंगा में न जाये। चुनाव सामने है। सरकार की प्राथकिता क्या होगा? गंगा का क्या होगा? पता नहीं। फिलहाल तो प्राधिकरण की आपात बैठक बुलाने के अनुरोध वाले 20 नवंबर, 2011 के पत्र का उत्तर विशेषज्ञ सदस्यों को भेज दिया गया है। गंगा प्राधिकरण 16 फरवरी को बैठेगा। देखना यह है कि गंगा किनारे बैठे तपस्वी और प्राधिकरण के भीतर बैठे विशेषज्ञ सदस्यों की मान मनौव्वल में प्राधिकरण सफल होता है या अगली होली कुछ और ही रंग लेकर आयेगी।
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