कभी ईंधन के नाम पर, कभी इमारतों के नाम पर, कभी खेती के नाम पर तो कभी आबादी के नाम पर, हमारे बहुमूल्य जंगलों का लगातार सफाया होता जा रहा है। कितनी गम्भीर है जंगलों की यह समस्या ? प्रस्तुत है एक विचारोत्तेजक सर्वेक्षण ।
कुछ वर्ष पूर्व मैंने कहीं एक व्यंग्य चित्र देखा था, जिसमें एक बौना आदमी गमले में लगे विशाल वृक्ष को बगल में दबाए भागा जा रहा था। किसी ने उससे पूछा, "कहां भागे जा रहे हो ?" "इस पेड़ को किसी सुरक्षित स्थान में छिपाने के लिए जा रहा हूं”, उसने उत्तर दिया। भागते-भागते वह पीछे भी मुड़कर देखता जा रहा था।
प्रश्नकर्त्ता ने फिर पूछा, "पीछे क्या देख रहे हो ?"
"मुझे डर है, कहीं सीमेन्ट की सड़क मेरा पीछा तो नहीं कर रही !" बौने ने अपना भय व्यक्त किया।
सचमुच सीमेंट की सड़क और बढ़ती आबादी के अन्धे स्वार्थ ने पेड़ों का बेहतर पीछा किया है, बेचारे पेड़ अपनी जगह खड़े-खड़े सारे अत्याचार सहते रहते हैं। प्राचीन लोक कथाओं में जिक्र आता है उन दिनों का, जब पेड़ भी चलते-बोलते थे। फिर किसी के अभिशाप से ग्रस्त वे जमीन में अचल हो गये, शब्द खो गये; लेकिन जीवन तो उनमें बना रहा। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जगदीशचन्द्र बसु ने यह सिद्ध किया कि पेड़-पौधों में भी जीवन है। उसके बाद के शोधों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पेड़-पौधों में न सिर्फ जीवन है बल्कि वे मनुष्य की तरह ही सारी जैविक क्रियाएं भी सम्पन्न करते हैं। यही नहीं उनमें संवेदना भी है; भय, पीड़ा और खुशी की अनुभूतियां भी महसूस करते हैं; हां इन अनुभूतियों को वे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते। कल्पना कीजिए, यदि पेड़ भी कह पाते, वह सब अत्याचार, जो मनुष्यों ने उन पर किया है, तो सारा विश्व उनके चीत्कारों से भर जाता।
अधिकांश लोग वन को पेड़ों का समूह मात्र समझते हैं। वास्तव में वन, पेड़-पौधों, झाड़ियों, जड़ी-बूटियों तथा अन्य सजीव वनस्पतियों का समुदाय है, जो धरती के समस्त प्राणियों को जीवन प्रदान करता है। मनुष्य से लकर पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़ों तक का जीवन वनस्पतियों के जीवन से ही सम्भव है। इसीलिए भारतीय परम्परा में वृक्ष और जंगल को देवता मानकर, उनकी पूजा की जाती रही है। वृक्षों की सुरक्षा और संवर्धन को महानतम पुण्य कहकर बढ़ावा दिया गया, क्योंकि वे लोग जानते थे कि पृथ्वी के समस्त प्राणी जीवन को वनस्पति ही अपना जीवन रस देकर सम्भाले हुए हैं।
स्रोत-आल इण्डिया पिंगलवाड़ा चैरीटेबल सोसाइटी
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