उत्तर प्रदेश में अच्छे इरादों का बंटाधार कैसे होता है इसकी ताजा मिसाल है महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना। जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट
सोनभद्र जिले के नगवां ब्लॉक में पड़ने वाले पड़री को सरकारी दस्तावेज नक्सल प्रभावित गांव बताते हैं। लेकिन यहां जाने पर पता चलता है कि गांव पर सरकारी उपेक्षा का प्रभाव भी कम नहीं। जर्जर मकान, कच्ची गलियां और उनमें नंगे बदन दौड़ते बच्चे इसकी गवाही देते हैं। इसी गांव में हमें परमल मिलते हैं। साइकिल पंचर जोड़कर जैसे-तैसे अपना परिवार पालने वाले परमल बताते हैं कि उनके एक बच्चे ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत तब मजदूरी की जब वह पेट में था।
लोगों को काम तो नहीं मिला पर उनके नाम पर मजदूरी के पैसे निकाल लिए गएसुनकर चौंकना लाजमी है। लेकिन 2008 का एक मस्टर रोल बताता है कि परमल के पूरे परिवार, जिसमें उनका बेटा भी शामिल है, ने मनरेगा में काम किया है। उनका बेटा कोमल अब डेढ़ साल का है। उधर, परमल कहते हैं कि उनके परिवार में किसी को भी अब तक इस योजना में काम नहीं मिला। यह अकेले परमल की कहानी नहीं है। मनरेगा की पड़ताल करने जब हम उत्तर प्रदेश के सफर पर निकलते हैं तो हमें ऐसे कई किस्से मिलते हैं।
2005 में अस्तित्व में आई मनरेगा का मकसद ग्रामीण इलाकों के अर्धकुशल या अकुशल लोगों को साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार देना था ताकि उनकी क्रयशक्ति बढ़े, गांवों से शहरों की ओर पलायन पर अंकुश लगे और अमीर-गरीब के बीच की खाई मिटे। योजना सरल और अच्छी थी। पंजीकरण करवाइए, जॉब कार्ड पाइए, काम मांगिए और 15 दिन के भीतर मजदूरी पाइए। लेकिन योजना कागजों से जमीन पर उतरी तो धीरे-धीरे इसका भी वही हाल होने लगा जो इस देश में तमाम दूसरी योजनाओं का होता है। नतीजा यह है कि आज मनरेगा में भ्रष्टाचार और शोषण का जबर्दस्त घुन लग गया है। नाम न छापने की शर्त पर एक कांग्रेसी नेता कहते हैं, 'पहले गांवों में लोग मनरेगा को सराहते थे। लेकिन अब उल्टा होने लगा है। घोटाले सामने आने लगे हैं और लोगों में यह धारणा बनने लगी है कि योजना गरीबों के लिए नहीं बल्कि अधिकारियों व दबंग जनप्रतिनिधियों के खाने-कमाने के लिए बनी है।'
ऐसा सोचने के वाजिब कारण हैं। नक्सल प्रभावित सोनभद्र जिले के पड़री जैसे गांवों में विकास के नाम पर करोड़ों रुपए आए तो लेकिन लोगों को काम नहीं मिला। परमल भी ऐसे लोगों में से एक हैं। ऊपर से उन्हें पता चला कि डेढ़ साल के कोमल, चार साल की बेटी दीना, पत्नी राजकुमारी व पिता सूरज को मनरेगा मजदूर दिखाकर ग्राम प्रधान ने हजारों रुपए निकलवा लिए। मस्टर रोल के मुताबिक परमल के परिवार ने 2008 में नरेगा के तहत मजदूरी की है। लेकिन परमल इससे इनकार करते हैं। वे बताते हैं, 'हमने प्रधान से कई बार काम मांगा लेकिन हर बार उसने यह कहकर टाल दिया कि बाद में काम देंगे।'
कई चेक डैम ऐसी जगहों पर बनाए गए जहां उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं थीलोगों को बिना काम दिए उनके नाम पर पैसा खाने का खेल सिर्फ परमल के साथ नहीं हुआ। गांव के रमाशंकर भी इसका शिकार बने। खेती-बारी कर परिवार का पेट पाल रहे रमाशंकर, उनकी पत्नी सुशील, बेटे बेचन व बेटी नीलू को भी मनरेगा मजदूर दिखाकर रुपए निकाले गए। रमाशंकर बताते हैं कि 2007 और 2008 में जब उनके बेटे बेचन व बेटी नीलू को मनरेगा मजदूर दिखाया गया तो उनकी उम्र क्रमशः सात और 12 साल थी। कागजों पर रमाशंकर के परिवार को 200 दिन का काम दिया गया। 100 रुपए एक दिन के हिसाब से प्रधान ने गरीब रमाशंकर के परिवार के नाम पर 200 दिन के 20,000 रुपए हजम कर लिए। अब वे डरे हुए हैं। वे कहते हैं, 'रुपया सरकारी था। ऐसे में अगर जांच हुई और पता चला कि मैंने काम किया ही नहीं है तो कहीं सरकार मुझी से जबरन वसूली न करे।' ऐसे एक-दो नहीं, सैकड़ों लोग हैं।
और कई लोग ऐसे भी हैं जिन्हें काम तो मिला पर मजदूरी नहीं दी गई। सोनभद्र के ही एक और गांव कड़िया के निवासी सहादुर और दुलेसरी अपना जॉब कार्ड दिखाते हुए बताते हैं कि 2009 में उन्होंने मनरेगा में 20 दिन का काम किया लेकिन मजदूरी का भुगतान अब तक नहीं हुआ है। गांव की ही सिमित्री देवी बताती हैं, '22 दिन चेकडैम में काम करने के बाद भी एक पैसा नहीं मिला। ठेकेदार से पूछा तो जवाब मिला कि कहीं दूसरी जगह काम चलेगा तो मजदूरी करना, वहीं पर इसे भी बराबर कर देंगे।' कड़िया में अधिकांश गरीब किसानों के जॉब कार्ड कोरे ही पड़े हैं। उन पर न तो मजदूरी की तारीख चढ़ाई गई और न ही रुपए का लेन देन। बीडीसी (क्षेत्र पंचायत सदस्य) एसोसिएशन के पूर्व जिला अध्यक्ष श्रीकांत त्रिपाठी कहते हैं, 'मनरेगा का उद्देश्य था कि काम से गरीब ग्रामीणों को लाभ मिले। लेकिन यह बिलकुल भी पूरा नहीं हो रहा। सच्चाई यह है कि मनरेगा के धन से सिर्फ चंद लोगों को ही आर्थिक लाभ पहुंच रहा है।' त्रिपाठी के मुताबिक मनरेगा की जांच के नाम पर हर माह कोई अधिकारी सोनभद्र पहुंचता है और जांच कर वापस चला जाता है। इतने भ्रष्टाचार उजागर हुए लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसलिए जांच के बाद भी भ्रष्टाचार का ग्राफ बढ़ता गया।
सोनभद्र के डीएम पंधारी यादव हर सवाल पर यही कहते हैं कि जांच चल रही है। लेकिन जांच के बावजूद कार्रवाई क्यों नहीं हो रही इसका जवाब वे नहीं दे पाते।
मनरेगा में शारीरिक रूप से अक्षम जॉब कार्ड धारकों को भी काम देने का प्रावधान है। ऐसे लोगों को मेट या फिर मजदूरों के बच्चों की देखभाल का काम दिया जाता है। लेकिन पड़री गांव के निवासी और पैर से विकलांग दलित ऋषि गौतम बताते हैं, 'प्रधान से काम मांगा तो यह कहकर मना कर दिया गया कि विकलांग हो, कुछ कर नहीं पाओगे।' आर्थिक तंगी के चलते बीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़ चुके और अपने परिवार के अकेले सहारे ऋषि का आरोप है कि प्रधान ने मेट का काम अपने एक रिश्तेदार को दे दिया है।
बात सिर्फ गरीबों का हक मारने तक ही सीमित नहीं है। इसका विरोध करने वालों को प्रताड़ित भी किया जा रहा है। अब्दुल कादिर पड़री मेंे रोजगार सेवक हैं। उनका काम है मस्टर रोल पर मजदूरों की हाजिरी और उनके काम का विवरण चढ़ाना। कादिर ने एक बार गलत काम में प्रधान का साथ न देने की बात कही तो जून के अंतिम सप्ताह में उन्हें जमकर पीटा गया। जिला अस्पताल में भर्ती कादिर बताते हैं, 'सुबह करीब साढे़ पांच बजे शौच के लिए निकला था। उसी समय प्रधान चंद्रावती के पति व कुछ अन्य लोगों ने मेरा अपहरण कर लिया और अपने घर ले गए। घर के भीतर मुझ पर कुल्हाड़ी व लाठी से हमला किया गया। मेरे पैर, हाथ और सिर में गंभीर चोटें आईं। परिवार के लोगों ने थाने पर सूचना दी तो पुलिस ने किसी तरह मुझे छुड़ाया और बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया।' लेकिन प्रधान की दबंगई के चलते पुलिस ने इस मामले में कोई खास कार्रवाई नहीं की। कादिर के वकील टीएन द्विवेदी कहते हैं, 'पुलिस ने एफआईआर में प्रधान चंद्रावती, उनके पति लक्ष्मीकांत सहित कुछ लोगों के खिलाफ मामूली धाराओं में ही मामला दर्ज किया। आरोपितों पर न तो अपहरण की धाराएं लगाई गईं न ही प्राणघातक हमले की।' कादिर बताते हैं कि उन्होंने बीडीओ से मिलकर उन्हें प्रधान की पूरी करतूत बताई थी लेकिन उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टे शिकायत का परिणाम यह हुआ कि प्रधान व उसके पति निडर हो गए और उन्होंने कादिर पर हमला कर दिया। खबर लिखे जाने तक कादिर अस्पताल में ही थे। गांव के एक अन्य युवक अंगद पासवान को भी प्रधान व उसके गुर्गों की ओर से धमकी मिली है। अंगद बताते हैं कि उन्होंने पूरे फर्जीवाड़े की शिकायत बीडीओ से लेकर जिलाधिकारी तक से लिखित रूप में की लेकिन कादिर के मामले में पुलिस व प्रशासन के ढुलमुल रवैए से आरोपितों के हौसले बुलंद हैं। वे कहते हैं, 'प्रधान व उसका पति अब मुझे जान से मारने की धमकी दे रहे हैं।' उधर, प्रधान ने कई कोशिशों के बावजूद तहलका से बात करने से इनकार कर दिया।
कई जगह ऐसा भी हुआ कि मनरेगा के तहत जो काम गरीब मजदूरों को करना था, दबंगों ने वह काम जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर से करवा दिया। बुलंदशहर जिले के शिकारपुर ब्लॉक के गांव याकूबपुर में मनरेगा के तहत मई के अंतिम सप्ताह में एक तालाब की खुदाई शुरू हुई। आदर्श जलाशय योजना के तहत तालाब का निर्माण गांव के मजदूरों द्वारा कराया जाना था। लेकिन तालाब की खुदाई में जॉब कार्ड धारक मजदूरों की बजाय जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर लगा दिए गए। ठेकेदार और अधिकारियों का गठजोड़ कितना मजबूत है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मजदूरों के बदले जेसीबी से तालाब की खुदाई उस समय हो रही थी जब केंद्रीय रोजगार गारंटी परिषद के सदस्य जिले में मौजूद थे। तीस बीघा जमीन पर तालाब की खुदाई करीब चार दिनों से चल रही थी। परिषद के सदस्य संजय दीक्षित कहते हैं, 'शिकायत मिलने पर हम जब रात को गांव में पहुंचे तो करीब एक दर्जन हथियारबंद लोग आकर खड़े हो गए। उनका कहना था कि जिस जगह की खुदाई हो रही है वह उनकी निजी संपत्ति है। मौके पर मौजूद बीडीओ व कुछ अन्य अधिकारियों को भी इस बात की जानकारी नहीं थी कि जिस स्थान की खुदाई हो रही है वह कार्य मनरेगा के तहत हो रहा है या निजी कार्य है।' दीक्षित आगे बताते हैं कि मौके पर मौजूद कुछ ग्रामीणों ने हिम्मत कर बताया कि जिसे दबंग अपना निजी कार्य बता रहे हैं वह मनरेगा के तहत हो रहा है। इसके बाद प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अपनी फाइल पलटना शुरू किया तब जाकर पता चला कि सच्चाई क्या है। पोल खुलती देख हथियारबंद दबंग मौके से खिसक गए। पुलिस की मदद से स्थानीय अधिकारियों ने तालाब से मिट्टी निकाल रहे दो ट्रैक्टरों को जब्त किया।
यह तो हुई लोगों की बात। अब काम की बात करें तो उसका हाल यह है कि कई जगहों पर मनरेगा के तहत काम तो हुआ मगर उसका कोई फायदा हुआ, ऐसा नजर नहीं आता। हम सोनभद्र जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ने वाले घोरावल ब्लॉक में पहुंचते हैं। सरकारी दस्तावेजों में नक्सल प्रभावित बताए जाने वाला यह इलाका गरीबी और अशिक्षा का अभिशाप भी झेल रहा है। ऐसे में किसानों के लिए मनरेगा आशा की एक किरण लेकर आई। इसके तहत पूरे क्षेत्र में सिंचाई के लिए चेकडैम का जाल बिछाने की योजना बनी। लेकिन लोगों की मानें तो 25 से 30 लाख रुपए तक की लागत वाले चेकडैम जंगलों व ऐसे स्थानों पर बना दिए गए जहां पर न तो खेत हैं और न ही कोई नाला जिससे बारिश का पानी रुक सके। जो चेकडैम ठीक जगहों पर बने भी उनकी हालत 12-13 महीने में ही इतनी जर्जर हो गई है कि उनमें बारिश का पानी रुकता ही नहीं।
आदिवासी व दलित बहुल पलहवां गांव में पानी की समस्या को दूर करने के लिए मनरेगा के तहत साढ़े पांच लाख रुपए की लागत से कुआं खोदा गया। ग्रामीण बताते हैं कि 20 फीट तक खुदाई हुई। उसके बाद काम बंद कर दिया गया। जहां खुदाई बंद हुई उस स्तर पर कुएं में हल्का-सा पानी का रिसाव दिखने लगा था। गांव की निवासी प्रेमा बताती हैं, 'जब कुएं की खुदाई अधिकारी बंद करवाने लगे तो उनसे कहा गया कि पानी जमीन से रिसने लगा है, यदि थोड़ी और खुदाई हो जाए तो पानी निकल सकता है। लेकिन किसी ने भी गांव वालों की बात नहीं सुनी।' पानी के नाम पर ग्रामीणों के साथ यह छल पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले 2002-03 में भी किसी योजना के तहत गांव में लाखों रुपए खर्च कर एक कुआं खोदा गया था। बेला बताती हैं, 'उसमें भी पानी नहीं निकला। बिना पानी के कुएं में ही दिखाने के लिए एक हैंडपंप लगाकर नल की पाइप कुएं में लटका दी गई जो अभी भी हवा में लटक रही है।' गांव में ही दस बीघे जमीन के काश्तकार अशोक कुमार कहते हैं, 'नक्सलवाद के नाम पर गरीब किसानों के लिए करोड़ों रुपए आए। चेकडैम बने. मगर उनमें पानी नहीं भरा। हां, अधिकारियों की जेबें जरूर भर गईं।' अशोक कहते हैं कि जो घटिया चेकडैम बनाए गए उनका निरीक्षण करने वाला कोई नहीं है क्योंकि बाहर इस बात का हौव्वा बनाया गया है कि यहां के गांव नक्सल प्रभावित है और गांवों में नक्सली रहते हैं। लिहाजा कोई देखने वाला नहीं कि चेकडैम कहां और कैसे बन रहे हैं ।’
हम यहां से कुछ दूरी पर सुअरहवां गांव की सीमा पर पहुंचते हैं जहां एक चेकडैम पिछले ही साल तैयार किया गया था। लेकिन पहली नजर में देखने से लगता है कि डैम काफी पुराना हो गया है। इसकी दीवारें दरकने लगी हैं। किसान रवींद्र प्रताप बताते हैं, 'पिछले साल बारिश से पहले डैम तैयार हुआ लेकिन बारिश का पूरा पानी डैम में रिसाव के कारण बह गया जिससे सिंचाई नहीं हो सकी।' रवींद्र एक और सनसनीखेज बात बताते हैं। वे कहते हैं कि जिस जगह पर डैम बनाया गया है वहां वर्षों पहले एक पुराना डैम था जिसे तोड़कर नया तैयार किया गया है। वे कहते हैं, ' नए डैम को बनाने में पुराने डैम का ही पत्थर आदि प्रयोग किया गया है।' पलहवां गांव से कुछ पहले घुआस ग्राम सभा में घेड़वा नाले के पास जंगल में दो-दो सौ मीटर की दूरी पर करीब आधा दर्जन चेकडैम बनाए गए। नाले के पास दो चेकडैम ऐसी जगह पर हैं जहां दूर-दूर तक कोई खेत नहीं दिखाई देता। ये चेकडैम भी 2009 की गर्मियों में तैयार हुए लेकिन अब ये जर्जर हालत में हैं।
ऐसा नहीं है कि चेकडैम के नाम पर करोड़ों के घोटाले से राजधानी में बैठे अधिकारी अनभिज्ञ हैं लेकिन वे चाहकर दबंग प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के आगे कुछ नहीं कर पा रहे। पिछले वर्ष तत्कालीन ग्राम विकास आयुक्त मनोज कुमार सिंह ने चेकडैमों की शिकायत के बाद सोनभद्र का निरीक्षण किया था। निरीक्षण के दौरान विकास खंड म्योरपुर के ग्राम पंचायत वेलवादह में उन्हें दो ऐसे चेकडैम मिले जिनका कोई औचित्य ही नहीं था। निरीक्षण के बाद आयुक्त ने जो रिपोर्ट बनाई उसमें स्पष्ट लिखा है कि दोनों ही चेकडैम नितांत ही गलत स्थान पर बनाए गए हैं तथा चेकडैम की जो उपयोगिता होती है उसका एक छोटा हिस्सा भी उपर्युक्त निर्माण से पूर्ण नहीं होगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि ब्लॉक प्रमुख व खंड विकास अधिकारी, जिनके संयुक्त हस्ताक्षर से चेकडैम के निर्माण की धनराशि का भुगतान किया गया है, सरकारी धनराशि के दुरुपयोग के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। जांच के बाद आयुक्त ने बीडीओ, म्योरपुर, अवर अभियंता, ग्रामीण अभियंत्रण सेवा तथा अधिशासी अभियंता को निलंबित कर विभागीय कार्रवाई की संस्तुति भी की। लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हुई।
बुलंदशहर जिले के याकूबपुर बैलोट में एक नाले का निर्माण जेसीबी मशीन से हो गया जबकि योजना में मशीनों का प्रयोग प्रतिबंधित है। गरीबों का हक मारा गया सो अलग, निर्माण सामग्री भी घटिया प्रयोग की गई। पूरे मामले में एसडीएम शिकारपुर ने जो रिपोर्ट जिलाधिकारी को भेजी उसमें स्पष्ट लिखा है कि याकूबपुर बैलोट में नाला निर्माण जेसीबी मशीन द्वारा कराया गया है। इसके साथ ही एसडीएम ने नाले की खुदाई कर उसमें प्रयोग किए ईटों को उखाड़ कर देखा तो वे सन्न रह गए। ठेकेदार ने जिन ईंटों का प्रयोग किया था। वे चटकी हुई व घटिया थीं। एसडीएम ने अधिकारियों को बताया कि नाले की चिनाई में जो मसाला प्रयोग किया गया है वह भी घटिया स्तर का है। रिपोर्ट में कहा गया है कि नाले के निर्माण में सरकारी धन का खुलकर दुरुपयोग किया गया है।मनरेगा के तहत बीपीएल श्रेणी के लोगों को साग- सब्जी उगाने में भी मदद दी जा रही है। यानी गरीबी की रेखा से नीचे के किसान अपनी कृषि योग्य भूमि पर बिना किसी खर्च के भिंडी, टमाटर व अन्य सब्जियां उगा सकते हैं। इसके लिए मनरेगा के तहत बीज, खाद, सिंचाई, दवा आदि नि:शुल्क मिलते हैं।
लेकिन कानपुर देहात जिले में कई जगहों पर ऐसा नहीं हुआ। सरवन खेड़ा ब्लॉक के गांव मुसईपुर निवासी शंकर दयाल बताते हैं कि टमाटर का बीज पाने के लिए उन्होंने प्रधान से लेकर ब्लॉक तक कई चक्कर लगाए लेकिन बीज नहीं मिला। किसी तरह रुपए की व्यवस्था कर शंकर ने खेत में टमाटर तो बो दिया। उसके बाद उन्होंने खाद के लिए कई चक्कर लगाए। लेकिन वह भी नहीं मिली। गांव के ही बृजेंद्र बताते हैं, 'परिवार का पेट पालने के लिए मैंने दो बीघा खेत 14 हजार रुपए में बटाई पर लिए थे। ब्लॉक के सेक्रेटरी से पता चला कि मनरेगा के तहत बीज फ्री में मिलेगा। दिसंबर में बीज मिला और बो दिया। लेकिन वह उगा ही नहीं। खेत बटाई का था लिहाजा जिसका खेत था उसे 14 हजार रुपए देने पड़े।'
मुसईपुर के देशराज की कहानी भी ऐसी ही है। उन्हें भी टमाटर का बीज तो मिला लेकिन बोने के बाद वह उगा ही नहीं। एक और गांव राना इटहा के दलित किसान नन्हें राम बाबू, शिव चरण, राजेंद्र कुमार आदि के साथ भी ऐसा ही हुआ। शिवचरण बताते हैं, 'परिवार में सात सदस्य हैं जबकि जमीन आधे बीघे से भी कम है। सोचा था प्याज उगाकर कुछ कमाई हो जाएगी। लेकिन जो बीज मिला था वह उगा ही नहीं।' नन्हें कहते हैं, 'शुरू में इस बात का किसी को पता ही नहीं था कि बीज के साथ मजदूरी व खाद भी मिलना है। इसका फायदा प्रधान व ब्लॉक के अधिकारियों ने उठाते हुए किसी को बीज दिया तो खाद नहीं और किसी को खाद व बीज दिया तो मजदूरी का रुपया हजम कर गए।'
गांव के प्रधान व अधिकारियों को जहां मौका मिला वे गरीबों के साथ खेल करने से बाज नहीं आए। राना इटहा गांव के दलित प्रभुदयाल को कागजों में टमाटर का बीज व मजदूरी लेने वाला किसान दिखा दिया गया। कागजों में दिखाया गया कि उन्हें दस ग्राम टमाटर का बीज व मजदूरी का 2,800 रुपए दिए गए हैं। प्रभुदयाल बताते हैं कि उनकी जिस जमीन पर टमाटर बोना बताया गया उस जमीन पर बेझर व गन्ना उगाया गया था। अनपढ़ प्रभुदयाल को जब से मालूम हुआ है कि उसके नाम पर 2,800 रुपए मजदूरी व बीज निकाला गया है, वे डरे हुए हैं कि सरकारी रुपए की वसूली कहीं उनसे न हो।
मनरेगा के तहत सिर्फ बीज वितरण में ही नहीं बल्कि आदर्श तालाब योजना में भी कई गड़बड़ियां हुई हैं। आदर्श तालाब के किनारे ग्रामीणों को बैठने के लिए सीमेंट की बेंच बनाए जाने का निर्देश है। सीमेंट की यह बेंच भी मनरेगा मजदूरों द्वारा ही बनाई जानी है। हर तालाब पर सात या आठ बेंचें लगनी थीं। इसके बावजूद जिले के कई गांवों में अधिकारियों ने कानपुर की एक कंपनी से लोहे की बेंच सप्लाई कर लगवा दी। सप्लाई हुई एक लोहे की बेंच की कीमत कंपनी ने करीब छह हजार रुपए वसूल की है। क्षेत्र के एक प्रधान बताते हैं कि कंपनी से अधिकारियों ने एक-एक तालाब पर 48-48 हजार की बेंच सप्लाई करवा दी हैं जबकि सीमेंट से बनने वाली आठ बेंचों की कीमत करीब साढ़े छह हजार रुपए बैठ रही है। नाम न छापने की शर्त पर एक प्रधान बताते हैं कि जो प्रधान कुछ सक्षम थे उन्होंने अधिकारियों से विरोध कर लोहे की बेंच की सप्लाई नहीं ली और सीमेंटे की बेंचें ही बनवाईं ताकि भविष्य में कोई जांच हो तो फंसने का डर न रहे। लेकिन अधिकांश प्रधानों को डरा-धमकाकर अधिकारियों ने लोहे की बेंच लगवाने पर मजबूर कर दिया।
मनरेगा की रकम में सेंधमारी का एक और तरीका निकाला गया। मनरेगा का प्रचार-प्रसार नुक्कड़ नाटक के माध्यम से कराने की योजना बनाते हुए पूरा काम सोनभद्र जिले की एक समिति को दिया गया था। अधिकारियों ने समिति को भुगतान के नाम पर प्रत्येक ग्राम प्रधान से 1600-1600 रुपए के चेक लिए। लेकिन काफी इंतजार के बाद भी नुक्कड़ नाटक कुछेक गांव तक ही सीमित रहे। सरवन खेड़ा ब्लॉक के ग्रामीण जितेंद्र, सोहन, रामपाल आदि कहते हैं कि उनके यहां कोई नुक्कड़ नाटक नहीं हुआ।
उधर, महोबा में टेंट के नाम पर ही लाखों का घोटाला हुआ। दरअसल, मनरेगा के तहत काम कर रहे लोगों को काम के दौरान धूप आदि से बचाने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अधिकारी टेंट की खरीद भी कर सकते हैं। अधिकारियों ने जिले की 255 ग्राम पंचायतों के लिए टेंट की खरीद दिखा दी। टेंट के लिए ग्राम प्रधानों से अधिकारियों ने मनरेगा के तहत करीब 19-19 हजार रुपए के चेक भी ले लिए लेकिन अधिकांश ग्राम पंचायतों तक टेंट पहुंचा ही नहीं। नियमों के अनुसार स्थानीय स्तर पर ही टेंट की खरीद-फरोख्त होनी थी लेकिन अधिकारियों ने ऐसा न कर लखनऊ की एक फर्म से टेंट मंगवाकर महोबा में उसकी सप्लाई करवा दी। गरीबों के साथ ऐसा खेल उस बुंदेलखंड में हो रहा है जहां बेरोजगारी और भुखमरी के कारण किसान आत्महत्या या पलायन करने पर मजबूर होते हैं। गोंडा जिले के अधिकारी तो दो कदम और आगे निकले। उन्होंने काम करने वाले मजदूरों के बच्चों के नाम पर लाखों रुपए के खिलौनों की खरीद दिखा दी। मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाली महिलाओं के बच्चों के लिए क्रेच की व्यवस्था करने का नियम है जिसका फायदा अधिकारियों ने उठाया। सुल्तानपुर में अधिकारियों ने बिना काम के ही एक ब्लैक लिस्टेड संस्था के नाम पर लाखों रुपए जारी कर दिए। पहले तो मामले पर लीपापोती होती रही लेकिन जब शोर हुआ तो जांच के आदेश दे दिए गए। ऐसे में कैसे सफल होगी मनरेगा?
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