मनरेगा : अनुभव से सीखने की ज़रूरत


महात्मा गांधी नेशनल रूरल इंप्लायमेंट गारंटी प्रोग्राम (मनरेगा) की शुरुआत हुए चार साल से ज़्यादा व़क्त बीत चुका है और अब यह देश के हर ज़िले में लागू है। अपनी सफलता से तमाम तरह की उम्मीदें पैदा करने वाले मनरेगा को सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी एवं आकर्षक योजनाओं में गिना जा रहा है। हालांकि इसके क्रियान्वयन में कई मुश्किलें हैं और इसके कुछ पहलुओं की काफी आलोचना भी की गई है, फिर भी यह मानना चाहिए कि मनरेगा आज देश के बेरोज़गार लोगों तक सरकारी सहायता पहुंचाने का सबसे प्रमुख ज़रिया बन चुका है। इसकी मदद से देश के ग्रामीण इलाक़ों में लोगों के जीवन स्तर में आए सुधार को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। साथ ही इसके माध्यम से आधारभूत संरचनाओं के विकास को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लोगों की क्रय शक्ति में इज़ा़फा हुआ है और इसका मल्टीप्लायर इफेक्ट देश की अर्थव्यवस्था को भी गति प्रदान कर रहा है।

योजना के लिए जारी किए गए फंड के इस्तेमाल में भी राज्यों के बीच अंतर दिखाई पड़ता है। इस मामले में कुछ राज्यों का प्रदर्शन अच्छा है तो कई राज्य पिछड़े हुए हैं। फंडों की उपादेयता और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिहाज़ से राजस्थान, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे राज्यों ने काफी अच्छा काम किया है। इसी का परिणाम है कि इन राज्यों में लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है।

पिछले चार सालों के अनुभव के आधार पर इसमें कोई संदेह नहीं कि इस कार्यक्रम की संरचना और परिकल्पना के स्तर पर कुछ सुधार किए जाएं तो यह अपने उद्देश्यों को हासिल करने में और भी ज़्यादा कामयाब हो सकता है। यह सर्वविदित है कि देश का हर ज़िला इस योजना का एक समान रूप से फायदा नहीं उठा पाया है। यह तथ्य अलग-अलग राज्यों के प्रदर्शन में अंतर से और भी स्पष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, पूरे देश का कोई एक ज़िला भी सभी कार्डधारियों को सौ दिन का सुनिश्चित रोज़गार देने में कामयाब नहीं हुआ है। इसके लिए वित्तीय संसाधनों की कमी को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि सरकार ने अपनी ओर से इसमें कोई कमी नहीं छोड़ी है। अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि मनरेगा एक मांग आधारित योजना है और जोर रोज़गार की मांग करने वाले लोगों को रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने पर होना चाहिए, न कि योजना में व्यय के लिए जारी की गई रकम को ख़र्च करने पर। लेकिन सच्चाई यही है कि इस देश में अभी भी करोड़ों ऐसे लोग हैं, जिन्हें रोज़गार की ज़रूरत है। यह महसूस किया गया है कि योजना के क्रियान्वयन के लिए ज़िम्मेदार एजेंसियों अर्थात ज़िला प्रशासन एवं अन्य सूत्र अभिकरणों को और ज़्यादा सक्रिय होना चाहिए। उन्हें सूचना, शिक्षा एवं जागरूकता कार्यक्रमों की मदद से ज़्यादा लोगों तक पहुंचना चाहिए, ताकि रोज़गार की आवश्यकता वाले लोग इसके प्रति और ज़्यादा जागरूक हो सकें। कई लोगों को अब तक यह नहीं पता कि मनरेगा के अंतर्गत वे रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने की मांग कर सकते हैं और अगर उक्त अवसर पंद्रह दिनों के अंदर उपलब्ध नहीं कराए गए तो वे बेरोज़गारी भत्ता पाने के हक़दार हैं।

योजना के लिए जारी किए गए फंड के इस्तेमाल में भी राज्यों के बीच अंतर दिखाई पड़ता है। इस मामले में कुछ राज्यों का प्रदर्शन अच्छा है तो कई राज्य पिछड़े हुए हैं। फंडों की उपादेयता और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिहाज़ से राजस्थान, आंध्र प्रदेश और केरल जैसे राज्यों ने काफी अच्छा काम किया है। इसी का परिणाम है कि इन राज्यों में लोगों की क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है। पश्चिम बंगाल और अन्य कुछ राज्य शुरुआत में पिछड़ने के बाद अब अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार की ओर अग्रसर हैं। यह माना जाता है मनरेगा के अंतर्गत रोज़गार की मांग करने वाले लोगों की कमी है, क्योंकि निजी क्षेत्र में काम करने पर उन्हें ज़्यादा मेहनताना मिलता है। यही वजह है कि राज्य अपने हिस्से की रकम का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाते। यह तर्क अपेक्षाकृत विकसित राज्यों एवं कम विकसित राज्यों के शहरी इलाक़ों के लिए सही हो सकता है, लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश या झारखंड जैसे पिछड़े राज्यों के लिहाज़ से देखें तो इसमें कोई दम नहीं है। फंडों के इस्तेमाल और रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराए जाने के मामले में निश्चित रूप से इनका प्रदर्शन और अच्छा हो सकता था। यह भी महसूस किया जाता है कि यदि भारतीय अर्थव्यवस्था इसी तरह सात प्रतिशत से ज़्यादा की दर से विकास करती रही तो अधिकतर लोग मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाले 75 से 140 रुपये प्रतिदिन की मज़दूरी के बजाय बाज़ार में उपलब्ध ज़्यादा आकर्षक मज़दूरी वाले रोज़गार के अवसरों की ओर उन्मुख होंगे। अब तक कोई भी राज्य सभी ज़रूरतमंदों को सौ दिन का सुनिश्चित रोज़गार उपलब्ध कराने में सफल नहीं हुआ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए योजना में सुधार की पर्याप्त गुंजाइश है।

योजना के अब तक के परिणामों को देखें तो थोड़ा और साहस दिखाने में कोई बुराई नहीं है। योजना में सौ दिनों की सीलिंग को हटाकर इसे पूरी तरह से मांग आधारित रोज़गार गारंटी योजना में तब्दील किया जा सकता है, ताकि ज़रूरतमंदों की मांग के अनुरूप यह पूरे साल उपलब्ध रहे। हर घर के लिए सौ दिनों के रोज़गार की सीमा को तो निश्चित रूप से ख़त्म किया जाना चाहिए। इससे ज़िले में क्रियान्वयन के लिए ज़िम्मेदार अभिकरणों को हर घर को सौ दिनों से ज़्यादा का रोज़गार उपलब्ध कराने की छूट मिल जाएगी। इसकी मदद से ज़िला अभिकरण ख़ुद अपने द्वारा तय किए जाने वाले रोज़गार दिवस के लक्ष्य का ज़िले में मौजूद घरों की संख्या के साथ बेहतर ढंग से तालमेल बैठा पाएंगे। चूंकि राज्य सौ रोज़गार दिवस का लक्ष्य पाने में नाकामयाब रहे हैं तो योजना को वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने के लिए सरकारी कोष पर पड़ने वाला भार भी उम्मीद से कम ही है। देश की अर्थव्यवस्था जिस तेज़ी से आगे बढ़ रही है, उसे देखकर यही लगता है कि आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र में बेहतर मज़दूरी वाले रोज़गार के अवसरों में और वृद्धि होगी। जनसंख्या के लिहाज़ से भारत एक जवान देश है और आने वाले दिनों में रोज़गार की ज़रूरत वाले लोगों की संख्या में इज़ा़फा ही होगा। इस बढ़ी हुई संख्या के मद्देनज़र सौ दिनों के रोज़गार दिवस की सीमा में बदलाव करने की और भी ज़्यादा ज़रूरत है।

(लेखक पश्चिम बंगाल में आईएएस अधिकारी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इनका सरकार के विचारों से कोई संबंध नहीं है।)
 

 

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