मलेरिया को इस समय दुनिया की महामारियों में से एक माना जाता है और इसमें हर साल करीब 10 लाख लोगों की मौत हो जाती है। अफ्रिकी महादेश इससे सर्वाधिक प्रभावित है। दुनियाभर के वैज्ञानिक इसके उन्मूलन में जुटे हुए हैं तथा अब वह दिन दूर नहीं जबकि मलेरिया का नामोनिशान नहीं होगा।
मलेरिया का मूल वानर प्रजाति
इंसानी इतिहास में सबसे ज्यादा मौत का कारण बनने वाली बीमारी मलेरिया चिम्पांजी नहीं गोरिल्ला के जरिये दुनिया में फैली। एक ताजा वैज्ञानिक अध्ययन में यह बात सामने आई है। मध्य अफ्रीका के कांगो में 57 इलाकों में 3000 गोरिल्ला पर किए गए अध्ययन का निष्कर्ष यह रहा कि मलेरिया की तमाम किस्मों में सबसे घातक प्लाजमोडियम फेल्सिपेरम का स्रोत गोरिल्ला ही हैं। यह निष्कर्ष पूर्व की उस सोच से अलग है जिसमें चिम्पांजी को बीमारी का स्रोत माना जाता था। वैज्ञानिकों के मुताबिक मलेरिया के परजीवी ने तकरीबन 12 हजार साल पहले गोरिल्ला से इंसान में प्रवेश किया। रिसर्च टीम का नेतृत्व करने वाले अमेरिका के बर्मिंघम की यूनिवर्सिटी आॅफ अलाबामा के बीट्रिस हान के अनुसार मलेरिया के स्रोत को जान लेने से इसे रोकना और इसका इलाज करना भी आसान होने की उम्मीद है। एड्स की ही तरह मलेरिया का मूल भी वानर प्रजाति ही है।
मलेरिया परजीवी
मलेरिया की विज्ञान की विधा के जरिए पहचान वर्ष 1898 में तब हुई जब कलकत्ता के प्रेसीडेंसी जनरल अस्पताल में काम करने वाले सर रोनाल्ड रास ने यह सिद्ध कर दिया कि मलेरिया मच्छर के काटने से होता है। उन्हें इस काम के लिये वर्ष 1902 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया।
मलेरिया एक परजीवी रोगाणु द्वारा होता है जिसे प्लाजमोडियम कहते हैं। मादा एनाफलीज मच्छर के पेट में ये रोगाणु पलते हैं। पेट का संबंध एनाफलीज के मुँह की लार ग्रंथियों से रहता है। अर्थात प्लाजमोडियम रोगाणु एनाफलीज के मुँह में आते-जाते रहते हैं। जब कभी मादा एनाफलीज किसी मनुष्य को काटती है, तो ये रोगाणु उसके खून में प्रवेश कर जाते हैं।
मलेरिया चार प्रकार के परजीवियों द्वारा होता है। ये परजीवी हैं- प्लाजमोडियम वाइवेक्स, प्लाजमोडियम, फल्सिपैरम, प्लाजमोडियम ओवेल तथा प्लाजमोडियम मलेरिया। विश्व में प्लाजमोडियम वाइवेक्स का ही प्रचलन अधिक है।
मच्छरों का मनोविज्ञान
देखने की शक्ति नहीं होने के बाद भी मच्छर मानव की उपस्थिति का पता कैसे लगा लेते हैं? यह प्रश्न कई दशकों से वैज्ञानिकों के लिये जिज्ञासा का कारण बना हुआ था। अब अमेरिका के वैज्ञानिकों ने मच्छरों के उन जीनों का पता लगा लिया है जो खून के प्यासे मच्छरों को मानव गंध के जरिए अपने शिकार तक पहुँचाते हैं।
नेशविल अमेरिका स्थित वेंडरविल्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मलेरिया फैलाने वाले एनाफिलिस मच्छरों के परिवार में पाए जाने वाले चार जीनों की पहचान कर ली है, जो इन मच्छरों को मानव का पता देते हैं। इन जीनों को एनाफिलिस गैबी आडरेंट रिसेप्टर (एजीओआर) नाम दिया गया है। दल के प्रमुख वैज्ञानिक लारिस जाबेल के अनुसार चारों एजी.ओ.आर. जीन गंध रसायनों से सक्रिय होते हैं और इसके प्रति संवेदनशीलता बढ़ा देते हैं। चूँकि मच्छरों में किसी तरह की चैतन्यता नहीं होती हैं, इसलिये वे वातावरण से मिलने वाले रासायनिक संकेतों के आधार पर ही आगे बढ़ते हैं। वैज्ञानिकों ने एनाफिलिस गैबी जिनोस प्रोजेक्ट डाटा का उपयोग कर यह पता लगाया है कि जब मच्छर के एंटीना के ऊपर से कोई गंध गुजरती है, तो उसका छिद्र युक्त अंग खुलकर गंध को अंदर प्रवेश कराता है। जब गंध के ये रसायन अंदर स्थित एक झिल्ली से मिलते हैं तो यहाँ स्थित जीन प्रोटीन इन रासायनिक संकेतों को विद्युत संकेतों में परिवर्तित कर देती है।
काफी रिसर्च और अध्ययन के बाद सामने आया कि शरीर के पसीने में पाए जाने वाले रसायनों के कारण ऐसा होता है। पसीने में कुछ इस प्रकार के रसायन पाए जाते हैं जिनकी गंध से मच्छर व्यक्ति के नजदीक जाता है कुछ लोगों में बॉडी केमिकल्स या लैक्टिक एसिड जैसे केमिकल्स ज्यादा होते हैं, जिससे मच्छर उनकी तरफ ज्यादा आकर्षित होकर काटते हैं।
जबकि कुछ लोगों के शरीर के रसायन, उतने स्ट्रांग नहीं होते हैं जिसके कारण मच्छर उनकी पहचान नहीं कर पाते। ऐसे लोगों को मच्छर नहीं काटते हैं। मानव शरीर से लैक्टिक अम्ल स्रावित होता है जो मच्छरों को आकर्षित करता है। इसके अलावा त्वचा की खूशबू भी मच्छरों को हमारे नजदीक आने का निमंत्रण देती है। इसी प्रकार त्वचा का रंग भी मच्छरों के लिये काफी मायने रखता है। गौर वर्ण की तुलना में श्याम वर्ण के लोगों को मच्छर अधिक काटते हैं। यदि पसीना लवणयुक्त हो और उसमें जीवाणु उत्पन्न हो जाएं, तो वह दूर से मच्छरों को लुभाता है इसके अलावा बदन पर छिड़का जाने वाला टेलकम पाउडर, बालों का तेल तथा क्रीम भी मच्छरों को आकर्षित करती है।
क्या आपको मच्छर बहुत अधिक काटते हैं? अगर ऐसा है, तो आप दुखी होने के बजाए यह जानकर खुश हो जाएंगे कि अन्य लोगों की अपेक्षा मच्छरों का दिल आप पर आया है। इसका मतलब है कि आपके रक्त में मच्छरों की पसंद का जायका मौजूद है। अमेरिका में हाल में किए गए अनुसंधान में पता चला है कि मच्छर ऐरे-गैरे और बदसूरत लोगों का खून चूसकर अपना जायका एवं हाजमा खराब नहीं करते। आमतौर पर वे उसी व्यक्ति का रक्त चूसना पसंद करते हैं, जिनका रक्त विटामिन और कोलेस्ट्राल से भरपूर हो। मच्छरों को जिंदा रहने के लिये इन दोनों पौष्टिक तत्वों की जरूरत होती है। अध्ययन के अनुसार मच्छरों को अपने मनपसंद और सुस्वादु भोजन का आभास कई किलोमीटर दूर से ही हो जाता है।
दवाएँ होती बेअसर
मलेरिया के मच्छर और वे जिन कीटाणुओं को फैलाते हैं, दोनों आज इस लायक हो गये हैं कि उनको खत्म करने के लिये तैयार की गयी किसी भी कीटनाशक दवा का उन पर कोई असर नहीं होता। मलेरिया फैलाने वाले एनाफिलिस मच्छरों की 60 प्रजातियों में से 51 प्रजातियों के मच्छरों में विभिन्न कीटनाशकों का प्रतिरोध करके शक्ति आ गई है। परिणामत: अब तक की कीटनाशक दवाएं बेअसर हो गयी। डी.डी.टी. का उन पर कोई असर नहीं हो रहा, नयी रसायन की दवाएं काफी महँगी हैं जिनका इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर संभव नहीं है।
बायो-एनवायरनमेंटल कंट्रोल
मलेरिया अनुसंधान केंद्र ने एक नजीवन पद्धति का विकास किया है जिसे जैव पर्यावरण नियंत्रण पद्धति (बायो-एनवायरनमेंटल कंट्रोल) कहते हैं।
इस पद्धति में विषैले कीटनाशियों के प्रयोग को कोई स्थान नहीं दिया गया है अपितु परिस्थितिकी (इकोलॉजी) और पर्यावरण (एनवायरनमेंट) में ऐसे निर्दोष और समाज द्वारा स्वीकार्य परिवर्तन किए जाते हैं, जिससे मलेरिया की समस्या का स्थायी समाधान हो जाता है। यह मलेरिया के वाहक मच्छरों की वृद्धि रोकने की एक नयी पद्धति है।
आर्थिक दृष्टि से यह पद्धति सबसे सस्ते कीटनाशी (डी.डी.टी.) के छिड़काव पर होने वाले खर्च के समान है। मच्छरों के विनाश के लिये उनके प्राकृतिक शत्रुओं का उपयोग किया जाता है, विशेष प्रकार की मछलियों, कृमि, फफूंदी और बंग मच्छरों की संख्या में कमी लाते हैं। गप्पी और गम्बूजिया जाति की मछलियाँ बड़ी तीव्रता से मच्छरों के लार्वा का भक्षण करती हैं।
मच्छर की आबादी रोकने के प्रयास
ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने शोध करके पता लगाया है कि मलेरिया फैलाने वाला मच्छर एनोफिलीस अपने जीवनकाल में केवल एक बार ही यौन क्रिया करता है और अगर उस वक्त इसमें हस्तक्षेप किया जाए तो इस मच्छर की प्रजनन क्रिया पूरी नहीं हो पाएगी इसका परिणाम यह होगा कि मलेरिया खुद व खुद थम जाएगा। मतलब न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि एनोफिलीस नर मच्छर एक खास तरह के अंग जिसे मेटिंग प्लग कहते हैं के जरिए यह सुनिश्चित करता है कि मादा मच्छर तक उसके शुक्राणु सही तरह से पहुँच सकें ताकि मादा अंडो को जन्म को दे सके। वैज्ञानिकों के अनुसार इस मेटिंग प्लग के न होने पर शुक्राणु भंडारित नहीं हो सकेंगे और निषेचन की प्रक्रिया रुक जाएगी।
नर मच्छर के इस मेटिंग प्लग की खासियत यही है कि वह मादा मच्छर में शुक्राणु भंडारण को सही दिशा दिखाए। इस तरह से एनोफिलीस मच्छर के प्रजनन क्रिया में मेटिंग प्लग की अनिवार्य भूमिका होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर यह प्लग किसी तरह हटा दिया जाए या उसमें कोई हस्तक्षेप किया जाए तो निषेचन संभव नहीं होगा और इस खतरनाक मच्छर की आजादी पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। उन्होंने मेटिंग प्लग का विश्लेषण करके पाया कि जब एक विशेष प्रकार का एंजाइम ट्रासस्लूटमीनेस एक विशिष्ट प्रोटीन से क्रिया करता है तो एक क्लॉट बन जाता है जिससे यह प्लग बनता है। शोधकर्ताओं ने जब प्रयोगशाला में नर मच्छर से इस एंजाइम को हटा दिया तो पाया कि उसमें मेटिंग प्लग नहीं बना और वह प्रजनन क्रिया संपन्न नहीं कर सका। अगर ऐसा हो सका तो पिछले सैकड़ों सालों से मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये चुनौती बना मलेरिया का नामोनिशान मिट जाएगा।
जानलेवा बीमारी मलेरिया पर काबू पाने के लिये वैज्ञानिकों ने कहा है कि इस रोग की जिम्मेदार मच्छर की प्रजाति एनोफिलीस गैम्बिया की यौन क्रिया में बाधा उत्पन्न करके इसके प्रसार पर रोक लगाई जा सकती है।
मलेरिया न फैलाने वाले मच्छर
अमेरिकी वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने मच्छर की एक ऐसी प्रजाति विकसित की जिसके काटने से मलेरिया नहीं होता। एरिजोना विश्वविद्यालय में शोधकर्ताओं ने अनुवांशिक रूप से सवंर्धित जो प्रजाति विकसित की है, उसमें इस बीमारी को फैलाने की क्षमता ही नहीं है। इस मच्छर को अभी वातावरण में छोड़ने में काफी देर है, लेकिन यह तय है कि इससे एक नई बहस शुरू हो जाएगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि अनुवांशिक रूप से संवर्धित मच्छर की प्रजाति मलेरिया से निपटने के लिये लंबी लड़ाई का एक छोटा हिस्सा है। इससे पहले भी इस तरह के प्रयास हुए, लेकिन वे सफल नहीं हो सके थे। शोधकर्ताओं का कहना है कि पहली बार उन्होंने मच्छर के भीतर मलेरिया के परजीवी पनपने से रोकने में सफलता पाई है।
वैज्ञानिकों का अंतिम लक्ष्य इस तरह के मच्छर को खुले वातावरण में छोड़ने का है। इससे पहले वैज्ञानिकों के सामने यह चुनौती है कि वे मच्छर की इस प्रजाति को बीमारी फैलाने वाले मच्छरों की तुलना में ज्यादा ताकतवर बनाएँ। इस बीच वैज्ञानिकों को यह आंकलन भी करना पड़ेगा कि अनुवांशिक रूप से सवंर्धित इन मच्छरों को वातावरण में छोड़ने का पर्यावरण पर कैसा असर पड़ेगा।
मलेरिया रोकने वाले मच्छर
अब आपको मच्छरों से डरने की जरूरत नहीं है। कम से कम इस जेनेटिकली मॉडिफाइड (जीएम) मच्छर से तो नहीं। इसके बारे में यह दावा किया जा रहा है कि उड़ने वाले इंजेक्शन के तौर पर काम करेगा और मलेरिया की वैक्सीन इंसानों में फैलाएगा। जापान की जिकी मेडिकल यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च में बताया गया है कि पिछले दशक में हुए अध्ययन के बदौलत इस तरह की उम्मीद बची है कि ऐसे जीएम मच्छर इंसानों को काटने के दौरान उनमें मलेरिया से लड़ने की क्षमता विकसित करेंगे। इससे पहले डॉ. योशिदा की टीम ने ऐसा मच्छर तैयार किया था जिसकी लार में लेशमेनिया रोग की वैक्सीन बनती थी।
मलेरिया का सस्ता इलाज
ब्रिटिश वैज्ञानिकों की टीम ने जैविक अणुओं की मदद से मलेरिया की एक नई दवा तैयार की है। यह बाजार में बिक रही अन्य दवाओं की तुलना में काफी सस्ती है। आमतौर पर मलेरिया की दवा बनाने में आर्टेमाइसिनिन नाम का तत्व इस्तेमाल होता है। लेकिन शरीर में इसकी स्थिरता कम रहती है। नई दवा शरीर में स्थिर रहेगी, क्योंकि इसके अणु जैविक रूप से प्राप्त किए गए हैं। चीन की एक खास जड़ी से प्राप्त किए गए इसके अणुओं को शरीर आसानी से सोखेगा। मलेरिया फैलाने वाले परजीवियों के खिलाफ इसकी मारक क्षमता के चलते यह दवा कारगर हो सकती है। दवा के खोजकर्ता लिवरपूल यूनिवर्सिटी के प्रो. पॉल ओ नील ने कहा कि सस्ती होने के कारण गरीब और विकासशील देशों में लोगों को इससे फायदा होगा।
मच्छर की भिनभिनाहट और उनके दंश की चिंता छोड़िए। ग्वालियर स्थित डीआरडीओ के वैज्ञानिकों ने एक रामबाण दवा खोजी है जो बाजार में भी आ गई है। इससे बने एक टिश्यू पेपर को शरीर पर फेरने के बाद मच्छर फटकेंगे भी नहीं। अच्छी बात यह है कि इसकी कीमत है मात्र तीन रुपए साथ ही 36 रुपये की जेल पैकिंग में भी आसानी से मिल जाएगी। इस रामबाण दवा का नाम है डेथल पेनिल एसिटामाइड (डीईपीए) विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इसे मंजूरी दे दी है। मच्छरों से मुक्ति का यह उपाय रक्षा शोध एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने खोजा है। भारतीय सेना पिछले छह साल से इसका उपयोग कर रही है। यह जहरीला नहीं है और इसका उपयोग सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों में भी किया जा सकता है।
बस एक गोली और मलेरिया की छुट्टी
वैज्ञानिकों का दावा है कि शीघ्र ही वे ऐसी दवा विकसित कर लेंगे जिसकी एक गोली के सेवन मात्र से ही मलेरिया की छुट्टी हो जाएगी। शोधकर्ताओं ने प्रयोग के तौर पर चूहों को इस दवा की एक खुराक दी और संक्रमित चूहों का रोग दूर हो गया।वैज्ञानिकों के अन्तरराष्ट्रीय दल ने दावा किया है कि एनआईटीडी 609 नाम की नई दवा मलेरिया के लिये जिम्मेदार प्लाजमोडियम फैल्सीपेरम और पी. विवक्स के खिलाफ काफी प्रभावी है। यह दवा प्रतिरोधी कारकों के लिये भी जिम्मेदार है वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि एनआईटीडी 609 की एक खुराक अन्य मलेरियारोधी दवाओं के पैरासाइट्स और उष्णकटिबंधीय रोगों के मामलों में भी काफी प्रभावी है।
मलेरिया का टीका
फिलहाल मलेरिया के लिये कोई प्रभावशाली टीका दुनिया भर में कहीं मौजूद नहीं है। हाल में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा टीका विकसित किया है जो अब तक बने टीकों से एकदम अलग है। एड्रिएन हिल और उनके सहयोगियों द्वारा विकसित यह टीका शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली के एक अलग हिस्से को सक्रिय बना रहा है। जिसमें एंटीबॉडी के बजाय बॉडीसेल्स शामिल होंगे। इस समय प्रतिरोध विज्ञान इतना उन्नत हो गया है कि अब वैज्ञानिकों द्वारा श्वेत रक्त कोशिकाओं का निर्माण संभव हो गया है। मलेरिया को नियंत्रित करने में यह युक्ति नई होने के साथ-साथ कारगर भी साबित होगी। वैज्ञानिकों ने जाम्बिया, केन्या और ब्रिटेन में इस टीके का परीक्षण कर यह पता लगाने के लिये अभियान छेड़ दिया है। वैसे इसके आरंभिक परीक्षणों से वैज्ञानिक आशान्वित हैं क्योंकि इसने कुछ लोगों को मलेरिया के प्रति पूर्ण सुरक्षा प्रदान की है।
माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स मलेरिया के उन्मूलन के लिये कार्य करने वाले अग्रणी लोगों में से रहे हैं। बिल गेट्स फाउंडेशन ने स्थापना के बाद से मलेरिया से निबटने के लिये अरबों डॉलर खर्च किए हैं। वे मानते हैं कि स्मॉलपॉक्स यानी छोटी माता की तरह मलेरिया को भी खत्म किया जा सकता है।
बिल गेट्स के अनुसार हमने एक टीका विकसित कर लिया है, जिसका परीक्षण अंतिम दौर में है। जिसे हम तीसरा दौर कहते हैं। आंशिक रूप से प्रभावी टीका तीन साल के भीतर उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन, पूरी तरह से टीका बाजार में आने में दस वर्ष लग सकते हैं।
नई दवा की खोज
यह दवा उन क्षेत्रों में कारगर सिद्ध होगी, जहाँ पर परंपरागत दवाएँ बेअसर साबित हो रही हैं। चिकित्सा विज्ञान की पत्रिका ‘द लांसेट’ में प्रकाशित शोध के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने इस समस्या को सुलझा लिया है। मलेरिया रोधी इस दवा फोसमिडो माइसिन का सर्वप्रथम मानवीय परीक्षण अफ्रीका देश गैबोन में किया गया। दवा का प्रभाव ठीक रहा और दो सप्ताह के भीतर 60 से 89 प्रतिशत लोग ठीक हो गए। लोगों को ठीक होने में 3-4 और 5 दिन का समय लगा। इस दवा के प्रयोग से मलेरिया पैदा करने वाले परजीवी शीघ्रता से नष्ट होते हैं और बुखार उतर जाता है इस परीक्षण से साबित हुआ है कि मलेरिया के इलाज के लिये सुरक्षित और प्रभावी दवा है।
रोग के उपचार की बजाय रोग से बचाव अधिक बेहतर है। अत: मलेरिया की रोकथाम पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। इसकी रोकथाम तभी संभव है जबकि एनाफ्लीज मच्छरों का खात्मा किया जाय।
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