मलदर्शन


व्हेल के गोबर में भारी मात्रा में लोहा पाया जाता है। मलत्याग करने व्हेल सतह के पास आते हैं, क्योंकि समुद्र की गहराई में पानी का दबाव बहुत अधिक होता है और हर चीज भीतर धँसती है। सतह पर सूरज का उजाला रहता है। फिर भूमध्य रेखा से दूर, दक्षिण ध्रुव के पास के ठंडे पानी में ऑक्सीजन भी खूब घुली रहती है। प्लवकों के लिये यही जीवन है। वे फूट पड़ते हैं, फलने-फूलने लगते हैं। उन्हें खाने वाला क्रिल भी जी उठता है और व्हेल को पर्याप्त भोजन मिल जाता है, उसके विशाल आकार के अनुरूप।मल के सुगम प्रबन्ध की यह कहानी हमने सबसे छोटे जीव बैक्टीरिया से शुरू की थी। इस कथा के समापन के लिये हम शुचिता के सबसे विशाल उदाहरण तक जाएँगे, हमारी सृष्टि के सबसे विशाल जीव तक। पर उसके लिये हमें डूबकी लगानी होगी समंदर में। यह सागर ही है जो पृथ्वी के 72 प्रतिशत हिस्से पर फैला हुआ है। इसी में दुनिया के सबसे विशाल प्राणी व्हेल तैरते पाये जाते हैं। स्तनपायी व्हेल को साँस लेने के लिये पानी की सतह तक आना पड़ता है। सतह पर आकर छोड़ी फुहार ही व्हेल की मौजूदगी का संकेत देती है।

मनुष्य की आँख में व्हेल के प्रति विस्मय आदिकाल से रहा है। समुद्र के किनारे बसी सभ्यताओं ने व्हेल का वर्णन पौराणिक साहित्य और उत्पत्ति कथाओं में किया है। मछुआरे समाजों ने उसी समय से व्हेल का शिकार भी किया है। व्हेल के शरीर के कई इस्तेमाल रहे हैं। खाने के लिये मांस, कई तरह के औजारों के लिये हड्डी, लेकिन व्हेल से निकलने वाली सबसे काम की चीज थी तेल। समंदर की गहराई में ठंड से बचने के लिये व्हेल की चमड़ी के नीचे चरबी की एक मोटी परत होती है। इसे निकालकर तेल बनाया जाता था चिराग जलाने के लिये।

यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति के बाद बड़े-बड़े पानी के जहाज बनने लगे, जिनसे व्हेल का शिकार आसान हो गया। सन 1900 के आसपास इतने विशाल जहाज भी बनने लगे जो असल में कारखाने थे। इनके आने के बाद व्हेल के शिकार में विस्फोटक तेजी आ गई। यूरोप और अमेरिका के बीच के अंध महासागर से व्हेल गायब होने लगे। तब इन जहाजों ने रुख किया अंटार्कटिका के इर्दगिर्द फैले दक्षिणी महासागर का, जहाँ इतने व्हेल विचरते थे कि समंदर में चारों तरफ उनकी फुहारों की झड़ी दिखती थी। सन 1930 में यहाँ 50,000 व्हेलों का शिकार हुआ। कई व्हेल प्रजातियों का विध्वंस हुआ। इस नृशंसता की वजह से शिकारियों को भी व्हेल के निर्मूलन की चिन्ता हो चली। व्हेल के संहार पर नियंत्रण करने के लिये सन 1946 में एक अन्तरराष्ट्रीय संधि हुई। सन 1986 में व्हेल के शिकार पर प्रतिबन्ध लग गया।

अंटार्कटिका के आसपास ही व्हेल की सबसे बड़ी प्रजातियाँ पाई जाती हैं। यहाँ के समुद्र में भला ऐसा क्या है जो उन्हें ऐसा भीमकाय बनाता है? जवाब है ‘क्रिल’, उंगली बराबर झींगे जैसा जीव। दक्षिणी महासागर में क्रिल के जितने विशाल झुंड पाए जाते हैं उतने किसी और समुद्र में नहीं देखे गए हैं। व्हेल की सबसे बड़ी प्रजातियाँ क्रिल खाती हैं। व्हेल क्रिल के झुंड के पास आकर अपना विशाल जबड़ा खोलते हैं। क्रिल समेत ढेर सारा पानी इसके भीतर समा जाता है। फिर ये किसी छोटी गाड़ी के आकार की अपनी जीभ को आगे दबाते हैं, कंघी जैसे अपने दाँतों की ओर। पानी बाहर निकल जाता है, क्रिल मुँह में रह जाते हैं।

मनुष्य ने 20वीं सदी में व्हेल का जो महासंहार किया है उसका क्रिल को फायदा होना चाहिए था। मनुष्य ने क्रिल के शिकारी का शिकार किया था। अब तो क्रिल की आबादी बढ़नी चाहिए थी। समुद्र के जीवशास्त्रियों ने क्रिल की आबादी में आये बदलाव को नापना पिछले कुछ सालों में शुरू किया। उन्होंने इसका नतीजा ठीक उल्टा पाया। व्हेल के साथ-साथ क्रिल भी मिट रहे थे, उनकी आबादी 80 फीसदी तक घट गई थी। ऐसा कैसे हो सकता है कि शिकारी के लोप से शिकार का भी लोप हो जाये?

इस पहेली का जवाब हाल ही में मिला, और यह मिला है प्लवकों में, जिन्हें प्लैंकटन भी कहा जाता है। क्रिल का आहार प्लवक ही होते हैं। समुद्री पानी की सतह पर सूरज के प्रकाश में प्लवक पलते हैं। क्रिल ही नहीं, सागर के समस्त जीव प्लवकों पर निर्भर होते हैं। दक्षिणी महासागर में अगर क्रिल इतनी संख्या में पाये जाते थे तो स्वाभाविक है, प्लवक भी प्रचुरता से पलते होंगे। क्रिल की आबादी घटने का कारण प्लवकों की कमी थी। पर प्लवकों की आबादी क्यों घट रही थी?

वैज्ञानिकों को पता लगा कि समुद्र के पानी में दूसरे उर्वरक तो मिल जाते हैं, पर लोहा नहीं मिलता। जीवन के हर प्रकार को सूक्ष्म मात्रा में लोहा चाहिए। हमारे शरीर में लोहे की मात्रा घटने पर एनेमिया रोग हो जाता है। धरती पर लोहा सहज ही मिट्टी में मिल जाता है। पर समुद्री पानी में लोहे के अंश कतई घुलते नहीं हैं। सागर में इसका कोई स्रोत नहीं होता, जमीन से उड़ने वाली आँधी की धूल से ही लोहा वहाँ पहुँचता है। परन्तु इन प्लवकों के लिये लोहा पहुँचाने वाली धूल दक्षिणी महासागर में भला कहाँ से आती? पूरा-का-पूरा अंटार्कटिका महाद्वीप तो बर्फ से ढँका रहता है।

यहाँ लोहे का स्रोत व्हेल का मल है। व्हेल के गोबर में भारी मात्रा में लोहा पाया जाता है। मलत्याग करने व्हेल सतह के पास आते हैं, क्योंकि समुद्र की गहराई में पानी का दबाव बहुत अधिक होता है और हर चीज भीतर धँसती है। सतह पर सूरज का उजाला रहता है। फिर भूमध्य रेखा से दूर, दक्षिण ध्रुव के पास के ठंडे पानी में ऑक्सीजन भी खूब घुली रहती है। प्लवकों के लिये यही जीवन है। वे फूट पड़ते हैं, फलने-फूलने लगते हैं। उन्हें खाने वाला क्रिल भी जी उठता है और व्हेल को पर्याप्त भोजन मिल जाता है, उसके विशाल आकार के अनुरूप।

केवल व्हेल की अपनी ही नहीं, प्लवक और क्रिल की खाद्य सुरक्षा भी व्हेल के मल पर टिकी है। सागर में महाकाय व्हेल लोहे का भिलाई-रूपी कारखाना तो है ही, रेलगाड़ी भी है जो लोहे को वहाँ पहुँचाती है जहाँ उसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। कोई आश्चर्य नहीं कि प्रकृति ने ऐसे कर्मठ प्राणी को इतना बड़ा आकार क्यों दिया है। व्हेलों का पनपना, आबाद होना उन प्राणियों को भी लाभ देता है जिनका वे शिकार करते हैं। व्हेल की हिंसा में एक झलक अहिंसा और सहयोग की भी है। उसके जीवन के सहज रूप में शुचिता निहित है। व्हेल की भव्यता और प्लवकों की सूक्ष्मता की नातेदारी में एक अंश दिव्यता का भी है।

कुदरत के शेयर बाजार में मल-मूत्र नायाब माल है। इस बाजार में साँस लेने वाला और मलत्याग करने वाला हर एक प्राणी मालधारी है, जिसका लेन-देन कई तरह के जीवों से रहता है। प्राणियों को अपने कचरे का प्रबन्धन नहीं करना पड़ता, वह दूसरे प्राणियों का साधन बन जाता है। मनुष्य भी हर रोज इस सम्बन्ध का सामना करता है, भोजन और मलत्याग के समय। भोजन में पवित्रता, स्वच्छता और कृतज्ञता का भाव लगभग हर सभ्यता में रहा है, पर इस सम्बन्ध के दूसरे छोर पर, मल-मूत्र की तरफ भाव कृतघ्नता और घृणा का ही रहा है।

जब मनुष्य की आबादी कम थी तब मल-मूत्र चिन्ता का विषय नहीं था। आज हमारी आबादी साढ़े सात अरब होने को आ रही है। इतने लोगों को पालने में तरह-तरह के संसाधन लगते हैं। अमोनिया कारखानों से यूरिया, मोरक्को जैसे देशों का फास्फेट, न जाने कितनी नदियों और ट्यूबवेलों का पानी, खनिजों से निकले भिन्न-भिन्न प्रकार के बनावटी उर्वरक, इस सबकी ढुलाई के लिये ट्रक और रेल और पानी के जहाज, इन सबको चलाने के लिये बिजली और डीजल, बिजली बनाने के कारखाने और कोयले से उनका पेट भरने के लिये खदानें… इतने जतन से साढ़े सात करोड़ लोग भोजन पाते हैं। कुछ घंटों में ही यह भोजन मल-मूत्र बन जाता है।

व्हेल की तरह मनुष्य का मल-मूत्र निर्दोष नहीं होता, उसकी उर्वरता कई रोगाणुओं के साथ मिलकर आती है। हमारे देश की आधी से अधिक आबादी इस मल-मूत्र को त्यागने के लिये खुले में बैठती है, उस जगह जहाँ दूसरे लोगों का मल पास ही पड़ा होता है। इस तरह से फैलने वाली बीमारियों बच्चों के कमजोर और अविकसित शरीरों का खास कारण हैं। इतने लोगों के लिये शौचालय बनाना आसान नहीं है, जैसा कि सरकारी स्वच्छता अभियानों से दिख ही रहा है। शहरों और घनी बस्तियों में अपनी गरिमा ताक पर रखकर खुले में मलत्याग करने की विवशता बताती है कि लोगों का आपस में सम्बन्ध ठीक नहीं है। साधन-सम्पन्न लोग साधनहीन लोगों से सस्ती मेहनत-मजदूरी तो चाहते हैं, लेकिन उनके हालात से उनका कोई वास्ता नहीं है।

व्हेलों का पनपना, आबाद होना उन प्राणियों को भी लाभ देता है जिनका वे शिकार करते हैं। व्हेल की हिंसा में एक झलक अहिंसा और सहयोग की भी है। उसके जीवन के सहज रूप में शुचिता निहित है। व्हेल की भव्यता और प्लवकों की सूक्ष्मता की नातेदारी में एक अंश दिव्यता का भी है। कुदरत के शेयर बाजार में मल-मूत्र नायाब माल है। इस बाजार में साँस लेने वाला और मलत्याग करने वाला हर एक प्राणी मालधारी है, जिसका लेन-देन कई तरह के जीवों से रहता है।फ्लश की ढेकली घुमाकर अपना मल-मूत्र बहाने वाले लोगों का अपने जलस्रोतों से सम्बन्ध तो खराब है ही। इसके पीछे सीवर में गोता लगाने वाले सफाई कर्मचारियों के साथ होने वाला अन्याय भी है। जिसे हम स्वच्छता मान बैठे हैं उसमें घोर अनैतिकता का मैला मिला हुआ है। हमारे देश में आज भी हजारों-लाखों लोग मल-मूत्र उठाने का काम करने के लिये बाध्य हैं, अपनी जाति की वजह से। इस अपमान की जिम्मेदारी उन लोगों पर तो है ही जो सूखे शौचालय इस्तेमाल करते हैं और उन्हें सफाई कर्मचारियों से खाली करवाते हैं। लेकिन राजनीतिक दल और सामाजिक संस्थाएँ भी इस पाप की भागी हैं क्योंकि सफाई कर्मचारियों की मुक्ति का काम उन्हीं की जातियों के कुछ इने-गिने लोगों पर छोड़ दिया गया है। स्वच्छता के नाम पर तो बहुत से लोग इकट्ठे हो जाते हैं लेकिन सफाई कर्मचारियों की मुक्ति के काम में साथ बँटाने वाले कम ही हैं।

शहरों की सफाई का बोझा कई नदी-तालाब ढो रहे हैं। मैले पानी से अटे जल स्रोतों में दुर्गन्ध है ऐसे समाज की, जो अपनी सुविधा के लिये किसी भी हद तक जा सकता है। ऐसा शिक्षित वर्ग जो पानी का बिल कम करवाने के लिये संघर्ष और राजनीतिक आन्दोलन कर सकता है, लेकिन दूर की नदियों का पानी छीन लेना अपना जन्मजात अधिकार मानता है। जो अपने मैले को साफ करने की कीमत चुकाने को तैयार नहीं है। जिसका सम्बन्ध अपने जलस्रोतों से केवल दोहन का है।

चाहे हमारे पेट में हो या खेती की मिट्टी में, संरक्षक जीवाणुओं के प्रति हम लापरवाह हैं। इस सम्बन्ध की बारीकी हमें तब समझ आ रही है जब हम अपना स्वास्थ्य और अपनी खेती की जमीन व्यापारी कम्पनियों को सौंपे जा रहे हैं। जमीन का उपजाऊ तत्व पानी में बहाने की व्यवस्था बहुत पुरानी नहीं है। यह कितने समय चल पाएगी, यह कहना कठिन है। खाद्यान्न में हमारे देश की आत्मनिर्भरता असल में बनावटी उर्वरकों के आयात पर निर्भर है।

चाहे जो भी दल सत्ता में हो, हमारी सरकारें अपने ही विभागों के जाल में फँसी हुई हैं। नदी साफ करने वालों का शौचालय बनाने वालों से कोई नाता नहीं है। उर्वरक नालियों में बहाने वाली नगरपालिकाओं का कृषि और उर्वरक मंत्रालयों से लेना-देना नहीं है, जो बनावटी खाद की सब्सिडी में अटके हुए हैं। इन सबका कोई सम्बन्ध सफाई कर्मचारियों की मुक्ति के लिये कानून बनाने वाले सामाजिक न्याय मंत्रालय से भी नहीं। एक विभाग उस समस्या का समाधान ढूँढता है जिसे बनाने का काम दूसरे विभाग निरन्तर करते रहते हैं। सरकारी प्रणाली में शुचिता के विचार के बहने की जगह नहीं होती है।

चमचमाते शौचालयों के पीछे मैली नदी का होना स्वच्छता नहीं दिखलाता। कोई व्यक्ति कितना भी साफ-सुथरा हो, उसका स्वास्थ्य दूसरे लोगों के शरीर और स्वास्थ्य से हमेशा जुड़ा रहता है। चाहे हमारे शहर साधनों और सुविधाओं के हिसाब से बँटे हों, लेकिन यह तय है कि गरीब बस्ती के रोगाणु, अमीर बस्ती के रोगाणुओं से किसी-न-किसी जीवाणु सम्मेलन में आपस में मिलते होंगे। वे एक दूसरे से गुर सीखते होंगे, क्योंकि जीवाणुओं की दुनिया में वर्ग विभाजन शायद ही हो।

शुचिता की परख असल में हमारे सामाजिक सम्बन्धों की पड़ताल है। शुचिता के आधार पर मल-मूत्र का प्रबन्ध करने वालों लोगों के काम में सामाजिकता की खुश्बू मिलती है। इकोसैन के शौचालय मनुष्य के शरीर को खेत से जोड़कर देखते हैं। किसी भवन का मैला पानी वहीं पर ‘डीवॉट्स’ पद्धति से साफ करने वाले, जलस्रोतों के विनाश के अधर्म से बचते हैं। ये आधुनिक तरीके हैं, जिन्हें बचाने वालों के पास तरह-तरह की जानकारी है। उनके पास हिसाब है उन उर्वरकों का जो हमारे मल-मूत्र में और मिट्टी में भी मौजूद है। मैले पानी को निर्दोष बनाकर उसकी गुणवत्ता नापने के तरीके भी हैं उनके पास।

पूर्वी कोलकाता और मुदिअली के मछुआरों के तरीके ये बताते हैं कि पारम्परिक कारीगरी कैसे किसी नई समस्या का नया, मौलिक समाधान निकाल सकती है। लद्दाख के पारम्परिक ‘छागरे’ भी वही करते हैं जो तमिलनाडु के आधुनिक इकोसैन शौचालयों में होता है। शुचिता का काम आधुनिकता और परम्परा की मुठभेड़ की थकी हुई बहस नहीं है। इसमें आधुनिकता और परम्परा को साथ रख कर, उनका परस्पर सम्बन्ध भी देखा जा सकता है।

इस दृष्टि में व्हेल का वृहद आकार भी समा सकता है और उसके मल से पैदा होने वाले प्लवकों की सूक्ष्मता भी। कोलकाता की भेरियों में मैले पानी से छोटी-छोटी मछली पालने वाले मछुआरों का सामाजिक आकार व्हेल जैसा ही है, फिर चाहे खुद कोलकाता शहर में रहने वालों को यह आकार और यह नाता दिखे या न दिखे।

हर व्यक्ति की दुनिया भर से नाते-रिश्तेदारी उसके नीचे मल-मूत्र के रूप में हर रोज प्रकट होती है। उस मल और मूत्र में वायुमण्डल की नाइट्रोजन होती है, भूगर्भ और पर्वतों का फास्फोरस होता है, जीवाणुओं की अपार लीला भी होती है। कुछ पलों के लिये ही सही, लेकिन जल, थल और मल का निराकार प्रतीत होने वाला सम्बन्ध हर व्यक्ति के नीचे एकदम साकार हो जाता है।

मलदर्शन की इस दैनिक कसौटी पर हर व्यक्ति के सामाजिक मूल्य आजमाए जाते हैं। मलत्याग करना नितान्त ही निजी कर्म हो सकता है। लेकिन उससे जुड़ी शुचिता एक खालिस सामाजिक प्रसंग है।

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Post By: RuralWater
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