आज भी कई पुराने लद्दाखी घरों के बाहर एक कमरे का दो-तला ढाँचा दिखता है। इसे लद्दाखी, में ‘छागरा’ कहते हैं। भूतल एक बन्द कोठार सा होता, पीछे की तरफ एक किवाड़ रहता है। आगे की तरफ से सीढ़ियाँ ऊपरी तल तक जाती हैं। ऊपर के कमरे के ठीक बीच में एक छेद होता है, जिसके चारों ओर सूखी मिट्टी और राख पड़ी रहती है। इसके ऊपर बैठकर मलत्याग किया जाता है। मल-मूत्र नीचे के कोठार में गिरता है। शौच के बाद मल पर मिट्टी फेंकी जाती है, जिससे बदबू चली जाती है। कालान्तर में मल-मूत्र गल कर मिट्टी जैसी खाद बन जाता है।
लद्दाख को दुनिया की छत कहते हैं। तिब्बत के पठार का यह दक्षिण-पूर्वी हिस्सा जम्मू-कश्मीर राज्य में आता है। समुद्र तल से यहाँ की ऊँचाई औसतन तीन किलोमीटर से ज्यादा है, यानी 10,000 फुट से अधिक। दो किलोमीटर या करीब 7,000 फुट की ऊँचाई पर हवा का दबाव घटने लगता है, जिसकी वजह से ऑक्सीजन फेफड़ों में आसानी से घुलती नहीं है। लद्दाख जाने पर नए लोगों को अमूमन साँस लेने में तकलीफ होती है, क्योंकि उनके शरीर को यह मुश्किल सहने की आदत नहीं होती। कुछ लोग तो बीमार ही पड़ जाते हैं।हिमालय के उस पार होने के कारण चौमासे के बादल यहाँ तक पहुँचते ही नहीं हैं। बारिश बहुत कम होती है, उसका भी बड़ा हिस्सा पहाड़ों पर बर्फ के रूप में गिरता है। यहाँ की जलवायु किसी गर्म रेगिस्तान से भी कठिन है। यहाँ पेड़-पौधे और पशु-पक्षी बहुत कम मिलते हैं। जीवन की इस कमी का सीधा असर लद्दाख की मिट्टी पर पड़ता है। अगर मिट्टी में प्राकृतिक उर्वरक हों तो भी उन्हें बाँधने वाला जैविक तत्व नहीं होता।
इस ठंडे रेगिस्तान में केवल वे विलक्षण प्राणी ही रह सकते हैं, जिनमें ऑक्सीजन की कमी में रहने की शक्ति हो। विलक्षण गुण कठिन परिस्थिति में ही निखरते हैं। न जाने कितनी औषधीय जड़ी-बूटियाँ हिमालय की कठिन ऊँचाई पर ही पाई जाती हैं। थार के गरम रेगिस्तान में खेजड़ी जैसा पेड़ और ऊँट जैसा प्राणी मिलता है। दोनों ही बहुत कम पानी-भोजन में जी लेते हैं।
लद्दाख ऐसी ही जमीन है। यहाँ के लोगों में भी कुछ विशेष गुण रहे हैं, तभी उन्होंने न जाने कितनी पीढ़ियों पहले यहाँ रहना तय किया। वरना उनके व्यापार सम्बन्ध तो कई ऐसी जगहों से थे जहाँ जीवन यहाँ की तुलना में कहीं आसान है। वे वहीं जाकर बस जाते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने इस जमीन को अपनाया, इससे सहज प्यार किया, इस कठिन प्रान्त में रहने के सरल तरीके खोजे।
साल भर में यहाँ केवल एक फसल ही उगाई जा सकती है, गर्मी के मौसम में। लेकिन खाद मिलना हमेशा ही मुश्किल होता है। ऊपरी मिट्टी बिना खाद के पानी नहीं पकड़ती और पानी की कमी तो इस ठंडे रेगिस्तान में सदा ही रहती है। इसलिये पानी या किसी भी तरह के जैविक माल की बर्बादी लद्दाखी के किफायती स्वभाव में रही ही नहीं है। लद्दाखी लोग अपने मल-मूत्र को इकट्ठा कर उससे खाद बनाते आ रहे हैं।
आज भी कई पुराने लद्दाखी घरों के बाहर एक कमरे का दो-तला ढाँचा दिखता है। इसे लद्दाखी, में ‘छागरा’ कहते हैं। भूतल एक बन्द कोठार सा होता, पीछे की तरफ एक किवाड़ रहता है। आगे की तरफ से सीढ़ियाँ ऊपरी तल तक जाती हैं। ऊपर के कमरे के ठीक बीच में एक छेद होता है, जिसके चारों ओर सूखी मिट्टी और राख पड़ी रहती है। इसके ऊपर बैठकर मलत्याग किया जाता है। मल-मूत्र नीचे के कोठार में गिरता है। शौच के बाद मल पर मिट्टी फेंकी जाती है, जिससे बदबू चली जाती है। कालान्तर में मल-मूत्र गल कर मिट्टी जैसी खाद बन जाता है। गर्मी आते ही इस खाद को निकाल कर खेत में डाला जाता है। इस सबमें काफी मेहनत लगती है। वैसे भी लद्दाख में खेती कड़े परिश्रम का काम है। इसीलिये यहाँ किसानी सब मिलजुल कर करते रहे हैं, एक-दूसरे के खेत पर हाथ बँटा कर, सामाजिक उल्लास और उत्सव के साथ।
लद्दाखियों को अपने मल से खाद बनाना खेती का स्वाभाविक अंग लगता है। यहाँ के किसान खाद पाने के लिये आने-जाने वालों से अपना छागरा इस्तेमाल करने की मनुहार करते रहे हैं। यह रवैया वैसी जगहों से एकदम भिन्न है जहाँ फ्लश से चलने वाले शौचालय पर ताला लगाया जाता है, ताकि उसे कोई अनजान व्यक्ति इस्तेमाल न कर सके। इस दूसरी दृष्टि में शौचालय व्यक्तिगत अधिकार बन जाता है, उसके पीछे भावना उपभोग और होड़ की होती है। इसके ठीक विपरीत छागरा पद्धति में दूसरे लोग भी साधन बन जाते हैं। मलत्याग करना अधिकार का विषय नहीं, एक सामाजिक प्रयोजन बन जाता है।
जिन लोगों को छागरा की ही आदत होती है, उन्हें नए किस्म के पानी वाले कमोड से घिन आती है। उन्हें यह समझ ही नहीं आता कि लोग कैसे पीने लायक पानी और खेती लायक खाद को यूँ ही मिलाकर बहा देते हैं। छागरा समय-सिद्ध व्यवस्था है। स्वच्छ भारत अभियान वालों को यह इलाका बहुत कुछ सिखा सकता है। लद्दाख के लोगों ने शुचिता का काम किसी सरकारी प्रचार के दबाव में आकर नहीं किया है।
लेकिन बदलाव की हवाएँ हिमालय पार कर लद्दाख की ऊँचाई तक पहुँच चुकी हैं। जिला मुख्यालय लेह पर्यटन का गढ़ बन चुका है। पैसे से सुविधा खरीदने वाले पर्यटक लद्दाख की सुन्दरता का भोग तो करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें मलत्याग करने की सुविधा बिल्कुल वैसी ही चाहिए जैसी उनके घर पर होती है। इसके असर में लेह की शौचालय व्यवस्था भारत के दूसरे शहरों की तरह ही चौपट होती जा रही है। अब होटलों और अतिथिघरों में फ्लश वाले कमोड लगते हैं। इनकी नाली जाती है हर कहीं खोद कर बने हुए सेप्टिक टैंक में। इससे वे भूमिगत झरने दूषित हो रहे हैं जिनसे रेगिस्तान में बसे इस शहर को पानी मिलता है। फिर पर्यटन से नया धन भी आया है, खासकर लेह शहर में। पर्यटकों की देखादेखी नई पीढ़ी के लोगों को भी फ्लश कमोड की ही आदत पड़ रही है। उसे छागरा पिछड़ेपन का प्रतीक लगने लगा है।
नए लोग वैसे भी खेती से उखड़ रहे हैं। यहाँ खेती करने में जितना जतन और खर्च लगता है, उससे कहीं सस्ते में सरकारी राशन मिल जाता है। जो लोग इसके बावजूद खेती करते हैं, उन्हें सरकारी अनुदान से सस्ते बनावटी उर्वरक मिल जाते हैं। ऐसे उर्वरक से यहाँ की रेतीली मिट्टी और खराब हो चली है। पर मिट्टी की उर्वरता की चिन्ता अब लोगों में कम है। मजबूत युवकों को गाँव में रहने की बजाय फौज में भर्ती होना बेहतर लगता है। सेना की भर्ती की वजह से लद्दाखी गाँवों में युवक कम ही दिखते हैं। काम करने वालों की कमी से यहाँ दिहाड़ी मजदूरी इतनी महंगी हो गई है कि मजदूरी करने लोग दूर बिहार से आने लगे हैं। खेती नागवार हो गई है। खाद्य सुरक्षा की नई व्यवस्था लद्दाख से खेती मिटा रही है।
लेह शहर की तरह ये हर जगह सम्भव नहीं है कि सेप्टिक टैंक लगा कर मल-मूत्र को भुला दिया जाये। इतनी जमीन हर कहीं नहीं होती है। हिमालय के इस पार, लेह शहर से 3,700 किलोमीटर दक्षिण में एक शहर है तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु राज्य के ठीक बीच में। समुद्रतल से यहाँ की ऊँचाई केवल 85 मीटर है, यानी लेह से कोई 3,500 मीटर नीचे। यहाँ के मूसिरी ब्लॉक के कुछ गाँवों में पिछले दस साल में ऐसे कई शौचालय बने हैं, जिनके पीछे सिद्धान्त ठीक वहीं है जिससे लद्दाख का छागरा बनता है।
लेह शहर के पुराने इलाकों में छागरा पद्धति के शौचालय आज भी हैं। उनमें कुछ तो आसपास के किसानों को बुलाकर खाद दे देते हैं और बदले में शौचालय की पहली मंजिल पर मिट्टी डलवाते हैं। पर कुछ जगह ऐसे भी छागरे हैं जो साफ नहीं होते। इन जगहों का पता दूर से ही चल जाता है, सड़ते मल की बदबू से। इसकी वजह से छागरों को हटाने का माहौल बनने लगा है। लेकिन आधुनिक सुविधाएँ नई दुविधाएँ भी खड़ी कर रही हैं। एक निर्मल और आत्मनिर्भर समाज अब हर किसी बात पर सरकार और बाजार को मुँह ताकने लगा है। शुचिता को व्यवहार में उतारने वाला एक समाज आज अपने मल-मूत्र को अंधेरे कुओं में डालने लगा है।लेह शहर की तरह ये हर जगह सम्भव नहीं है कि सेप्टिक टैंक लगा कर मल-मूत्र को भुला दिया जाये। इतनी जमीन हर कहीं नहीं होती है। हिमालय के इस पार, लेह शहर से 3,700 किलोमीटर दक्षिण में एक शहर है तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु राज्य के ठीक बीच में। समुद्रतल से यहाँ की ऊँचाई केवल 85 मीटर है, यानी लेह से कोई 3,500 मीटर नीचे। यहाँ के मूसिरी ब्लॉक के कुछ गाँवों में पिछले दस साल में ऐसे कई शौचालय बने हैं, जिनके पीछे सिद्धान्त ठीक वहीं है जिससे लद्दाख का छागरा बनता है। मूसिरी को भारत में शुचिता का आदर्श कहा जाने लगा है और यहाँ की पंचायत को कई तरह के पुरस्कार मिले हैं। लद्दाख से यहाँ बड़ा अन्तर यह है कि इस तरह के शौचालय बनाने की यहाँ कोई परम्परा नहीं रही है। लेकिन लद्दाख की ही तरह यहाँ ऐसे शौचालय बनाने की एक बड़ी मजबूरी रही है, जिसे समझने के पहले हमारी कहानी को थोड़ा पीछे जाना होगा।
1980 के दशक में तिरुचिरापल्ली नगर में ‘स्कोप’ नाम की एक सामाजिक संस्था आसपास के गाँवों में कुछ विकास परियोजनाएँ चला रही थीं। संस्था के निदेशक माराची सुब्बूरामन को गाँवों में घूमते हुए यह पता लगा कि लोग कमाई का खासा हिस्सा बीमारियों के इलाज में खर्च कर रहे थे। सबसे भीषण प्रकोप उन बीमारियों का था जिनको फैलाने वाले रोगाणु मनुष्य के मल से पीने के पानी में पहुँच जाते हैं। श्री सुब्बूरामन को सस्ते घर बनाने का अनुभव तो था ही। उन्होंने सस्ते शौचालय बनाने की कोशिश शुरू कर दी। सन 1990 में केन्द्रीय ग्रामीण शुचिता कार्यक्रम यहाँ पहुँचा और जिला प्रशासन को 50 ‘लाभार्थियों’ के लिये शौचालय बनाने का लक्ष्य मिला। श्री सुब्बूरामन ने प्रशासन को मनाया कि इसका असर देखना हो तो सारे शौचालय एक ही गाँव में बनाए जाएँ।
स्कोप का काम प्रशासन की नजर में आ गया था। सन 1997 में जब कार्यक्रम की मरम्मत करने के लिये एक समिति बनी तो उसमें इस संस्था को बुलाया गया। दो साल बाद ‘टोटल सेनिटेशन कैम्पेन’ शुरू हुआ तो उसमें सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं ने स्कोप को शौचालय बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी। मूसिरी ब्लॉक में स्कोप कई सालों से काम कर रही थी और यहाँ रहने वालों से उसके सम्बन्ध भी थे। तो यहीं पर काम शुरू हुआ। अगले चार साल में तिरुचिरापल्ली के गाँवों में 20,000 शौचालय बने और 14 गाँवों को निर्मल ग्राम पुरस्कार मिला।
इन शौचालयों के नीचे सेप्टिक टैंक थे जिन्हें बनाने की पद्धति स्कोप ने ठीक समझ ली थी। पर कुछ गाँवों में ऐसे टैंक बनाना। भारी पड़ रहा था। ये गाँव कावेरी नदी या उसकी सिंचाई नहरों के किनारे बसे हुए थे। रिसकर आने वाले पानी से यहाँ का भूजल स्तर बहुत ऊँचा था। सेप्टिक टैंक में पानी भर आता था और मल उसमें ऊपर तैरने लगता था। खासकर बारिश के बाद के छह महीने तो शौचालय का इस्तेमाल मुश्किल हो जाता था। इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था ‘यूनिसेफ’ के एक अधिकारी ने श्री सुब्बूरामन को शौचालय बनाने के एक नए तरीके के बारे में बताया। इस पद्धति को अंग्रेजी में ‘इकोलॉजिकल सेनिटेशन’ कहा जाता है। संक्षिप्त में ‘इकोसैन’।
इस पद्धति के मूल में है शरीर से निकले मल-मूत्र को पानी की बजाय जमीन में वापस पहुँचाना, प्रकृति के उर्वरक चक्र के अनुसार। वैसे तो यह विचार बहुत पुराना है और कई सभ्यताओं ने आदिकाल से इसका पालन किया है, पर पिछले 100-150 साल में सीवर की नालियाँ ही शुचिता का एकमात्र तरीका मान ली गई हैं। इस पुराने विचार का सही आकलन कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसे आधुनिक सीवर व्यवस्था की कमजोरियाँ पता हों।
ऊनो विनब्लाड ऐसे ही व्यक्ति हैं। स्वीडन में सन 1932 में जन्में श्री ऊनो वास्तुकार और शहरों के योजनाकार हैं। उनकी विशेष समझ उनके जन्म के ठंडे, ध्रुवीय इलाके की नहीं है। उन्होंने उष्णकटिबन्ध के देशों के वास्तु की पढ़ाई की थी। सन 1970 में अफ्रीका के इथियोपिया देश में उन्हें शहरी बस्तियों की रूपरेखा बनाने का काम मिला। उन्हें समझ में आने लगा था कि शहर के आधुनिक, यूरोपीय ढाँचे में कुछ मूल कमियाँ हैं जिनकी वजह से वह हर तरह की बस्ती और भूगोल में आदर्श नहीं है। सीवर की नालियों की तरफ उनका ध्यान गया। सन 1978 में उन्होंने एक किताब लिखी जिसका शीर्षक था ‘सेनिटेशन विदाउट वॉटर’, या बिना पानी के स्वच्छता। इसके बाद श्री ऊनो शौचालयों के विशेषज्ञ बनते गए।
उनके साथ काम कर चुके एक अंग्रेज समुद्री इंजीनियर हैं पॉल कैलवर्ट। वे हर साल सर्दी के मौसम में केरल की राजधानी तिरुअनन्तपुरम के पास मछुआरों के साथ काम करते हैं। गाँव के लोग तट पर खुले में मलत्याग करने के लिये विवश थे। मछुआरों के घरों में शौचालय थे लेकिन भूजल स्तर ऊपर होने से वे उनका इस्तेमाल नहीं करते थे। श्री पॉल ने तटवर्ती गाँवों के लिये इकोसैन पद्धति के शौचालय बनाए जो जमीन से थोड़ा ऊँचे थे और जिनमें मल नीचे बने खाने में सूखा ही इकट्ठा हो जाता था। पर जैसे इकोसैन शौचालय उन्होंने यूरोप में देखे थे उनका यहाँ काम करना कठिन था। यूरोप में लोग मलत्याग करने के बाद गुदा कागज से पोंछते हैं, जबकि भारत में शौच के बाद पानी इस्तेमाल होता है। पानी और मल अगर एक ही जगह जाएँ तो वहाँ कीचड़ हो जाता है और मल को गल कर निर्दोष बनने में बहुत ज्यादा समय लगता है।
अगर अच्छी खाद बनानी हो तो पेशाब और मल को अलग करना ठीक नहीं होता। दोनों साथ में गलें तो इसके बाद निकलने वाली खाद मिट्टी के लिये बहुत अच्छी होती है। बढ़िया खाद बनाने के लिये कार्बन और नाइट्रोजन का मेलजोल जरूरी है। मल में कार्बन खूब होता है और मूत्र में नाइट्रोजन। ऐसी खाद जिन गड्ढों में बनती है उनमें दूसरी तरह की जैविक चीजें भी डाली जाती हैं। जैसे सब्जी के बेकार हिस्से, जो हमारे शहरों में कचरे के ढेर बनाते हैं। इस पद्धति से शौचालय बनाने वाले लोग दुनिया भर में हैं। पर एक ही गड्ढे में पेशाब और मल डालना हर कहीं ठीक नहीं है।
श्री पॉल ने इसका समाधान निकाला शौचालय की डिजाइन बदल कर। कमोड की जगह उन्होंने एक ऐसा तसला लगाया जिसमें तीन अलग निकास थे। इस डिजाइन के बीच में था एक बड़ा छेद, जिसके ऊपर बैठकर मलत्याग किया जाता है। मल इसके ठीक नीचे एक खाने में जमा हो जाता है। वहाँ पड़ा-पड़ा यह गलकर खाद बनाता है। बैठक के आगे उन्होंने ढाल देकर पेशाब के अलग बह जाने का इन्तजाम किया, जहाँ से उसे एक पाइप के जरिए किसी डब्बे में इकट्ठा किया जा सकता था। शौच के बाद धोने के लिये इस सबसे अलग उन्होंने ऐसी जगह बनाई जहाँ आसानी से खिसका जा सके। ऐसे तसले बनवाकर उन्होंने शौचालयों में लगवाए और यह कामयाब भी हुए। उस गाँव में तट पर खुले में मलत्याग कम हो गया।श्री पॉल का परिचय उस यूनिसेफ अधिकारी ने श्री सुब्बूरामन को दिया। स्कोप भी मूसिरी के गाँवों में कुछ ऐसी ही समस्या से जूझ रहा था। श्री पॉल को एक कार्यक्रम में इकोसैन पद्धति समझाने के लिये तमिलनाडु बुलाया गया। वहाँ राज्य की ग्रामीण विकास सचिव शांता शीला नायर भी मौजूद थीं। उन्हें और श्री सुब्बूरामन को लगा कि ऊँचे भूजल के इलाके में शौचालय बनाने का समाधान उनके बनाए तसले से हो सकता है। एक से एक तार जुड़ते गए और कई संस्थाओं और लोगों की मदद से स्कोप ने ऐसे शौचालय बनाने शुरू किये जो मल को इकट्ठा करके खाद तो बनाते ही हैं, पेशाब को अलग कर खेती में इस्तेमाल होने वाला उर्वरक भी बनाते हैं।
अगर अच्छी खाद बनानी हो तो पेशाब और मल को अलग करना ठीक नहीं होता। दोनों साथ में गलें तो इसके बाद निकलने वाली खाद मिट्टी के लिये बहुत अच्छी होती है। बढ़िया खाद बनाने के लिये कार्बन और नाइट्रोजन का मेलजोल जरूरी है। मल में कार्बन खूब होता है और मूत्र में नाइट्रोजन। ऐसी खाद जिन गड्ढों में बनती है उनमें दूसरी तरह की जैविक चीजें भी डाली जाती हैं। जैसे सब्जी के बेकार हिस्से, जो हमारे शहरों में कचरे के ढेर बनाते हैं। इस पद्धति से शौचालय बनाने वाले लोग दुनिया भर में हैं। पर एक ही गड्ढे में पेशाब और मल डालना हर कहीं ठीक नहीं है।
हमारी कई बस्तियों की समस्या खाद की कमी नहीं, गन्दगी है। जरूरत है ऐसे शौचालयों की जो मल से रोगाणुओं को फैलने से रोकें। फिर मलत्याग के बाद धोने के पानी से कीचड़ बढ़ता है, जिसे बन्द रखना कठिन हो जाता है। अगर यह कीचड़ लोगों के सम्पर्क में आ जाये तो बीमारी फैलने का खतरा बढ़ता है। इसलिये भारत में इकोसैन शौचालय बनाने वाले लोग मल को मूत्र और पानी से अलग रखने का इन्तजाम करते हैं। उनके लिये मल को सुखाकर निर्दोष बनाना प्राथमिक है।
कई तरह के प्रयोगों के बाद उपयुक्त तसलेनुमा खाके तैयार किये गए हैं। ये खाके श्री पॉल के ईजाद किये तसले पर ही आधारित हैं। पेशाब एक पाइप से होता हुआ एक अलग टंकी में इकट्ठा होता है, मल सीधे नीचे एक कोठी में गिरकर धीरे-धीरे सूखता है और शौच का पानी अलग रास्ते से होता हुआ नाली में बहा दिया जाता है या जमीन में डाल दिया जाता है। पेशाब में जीवाणु बहुत कम होते हैं। इसे सीधा पौधों में डाला जा सकता है, हालांकि इसके ताकतवर उर्वरक पौधों को जला भी सकते हैं। इसे पानी में घोलकर डालना बेहतर होता हैः एक हिस्सा मूत्र में तीन हिस्सा पानी।
मल नीचे की कोठी में पड़ा रहता है। इसके ऊपर एक ढक्कन हमेशा रहता है जिसे केवल मलत्याग करने के समय हटाया जाता है। यह कोठी सब तरफ से बन्द रहती है, मल में मौजूद रोगाणुओं को फैलने से रोकने के लिये। केवल कोठी के पीछे की तरफ एक खिड़की रहती है जिसे गारा-चूना लगाकर हवाबन्द कर दिया जाता है। मल को गलकर मिट्टी और खाद बनने में कुछ महीने तक लग सकते हैं। तब तक मल का खाना भर जाये तो? इसीलिये दो इकोसैन शौचालय साथ में लगाए जाते हैं। ऊपर से शौचालय का कमरा एक ही होता है, लेकिन नीचे अलग-अलग तसलों के नीचे मल की कोठी भी अलग होती हैं। एक कोठी भरने के बाद उसके ऊपर का तसला बन्द कर दिया जाता है और दूसरे तसले का इस्तेमाल शुरू हो जाता है। जब तक दूसरी कोठी भरती है तब तक पहली कोठी का मल निर्दोष खाद में बदल जाता है। इसे खाली करके इसका तसला खोल दिया जाता है और दूसरा तसला हो जाता है बन्द। दोनों तसलों के पेशाब और शौच के पानी की नालियाँ जुड़ी होती हैं।
शहरों के फ्लश कमोड और सीवर लोगों को मल के सम्पर्क से दूर रखने का काम पानी से करते हैं, जिससे मैला बढ़ जाता है। इकोसैन में मल-मूत्र बढ़ने की बजाय घटता है। मल अगर किसी बन्द स्थान पर तीन-चार महीने पड़ा रहे तो उसमें मौजूद रोगाणु धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं। दूसरे जीवाणु भी उन्हें मारने का काम करते हैं और गलते हुए मल के ढेर का तापमान इतना बढ़ जाता है कि रोगाणुओं का बचना मुश्किल हो जाता है। इस प्राकृतिक उपचार के बाद निकली खाद निर्दोष होती है, हाथ से निकाली जा सकती है। इसमें कोई बदबू नहीं होती है, एकदम मिट्टी जैसी दिखती है।
इकोसैन पद्धति में जमीन से निकले उर्वरक वापस जमीन में पहुँचते हैं, जलस्रोतों का प्रदूषण नहीं करते। अगर व्यापक स्तर पर इस पद्धति का उपयोग हो तो इससे बनावटी उर्वरक की खपत कम हो सकती है, खेती की लागत कम हो सकती है। इसमें महंगी सीवर की नालियाँ भी नहीं चाहिए होतीं, तो उनके रुकने का सवाल ही खड़ा नहीं होता, सो सफाई कर्मचारियों को नाली के भीतर के नर्क में उतरना भी नहीं पड़ता। पानी की बर्बादी तो रुकती ही है क्योंकि फ्लश की जरूरत ही नहीं होती है।
स्कोप संस्था दो हजार से ज्यादा इकोसैन शौचालय आज तक बना चुकी है। श्री सुब्बूरामन को उनके काम के लिये कई पुरस्कार और सम्मान मिले हैं। वे देशभर में घूम-घूम कर इस पद्धति के बारे में लोगों को समझाते हैं और शौचालय बनाने के तरीके सिखलाते भी हैं। उनकी सहज बातचीत में शौचालय का आकार-प्रकार, ढाँचा, कीमत और फायदे की चर्चा भी होती ही रहती है। जैसे किसी भी कारीगर की बातचीत उसके हुनर के सन्दर्भों से ही बनती है। उन्हें बहुत खेद होता है कि भारत में सिविल इंजीनियरी की पढ़ाई में शौचालय और सीवर पर ध्यान नहीं दिया जाता। उनके अनुभव में इंजीनियरों के काम में आमतौर पर कमी रहती है, चाहे वह शौचालय की रूपरेखा हो, सेप्टिक टैंक की डिजाइन, या सीवर गैस निकालने वाले पाइप की जगह।
श्री सुब्बूरामन ने शौचालय के कई तरह के प्रारूप समझे तो हैं ही, उन्हें अपने हिसाब से ढाला भी है। अलग-अलग जगह की विशेषताओं के हिसाब से कम लागत में शौचालय बनाने की उनके पास अब 25 रूपरेखाएँ हैं। इनमें से कुछ डिजाइनों के नाम तमिलनाडु योजना आयोग की उपाध्यक्ष रहीं शांता शीला नायर के नाम पर रखे हैं, जो रिटायर होने के पहले एक लोकप्रिय सरकारी अफसर थीं और जिनके कार्यकाल में इकोसैन को सरकारी बढ़ावा और सहारा मिला।
कई संस्थानों में पेशाब को सीवर की नालियों से हटाने पर काम चल रहा है। कोई उससे उर्वरक बना रहा है, कोई बिना पानी के काम करने वाले मूत्रालय ईजाद कर रहा है, कोई पेशाब को सुखाकर पाउडर बना रहा है क्योंकि उसका उपयोग तीन हफ्तों में न हो तो उसमें उर्वरक उड़कर खत्म हो जाते हैं। इकट्ठा किया हुआ पेशाब को सम्भालना भी आसान है, क्योंकि उससे रोगाणुओं के संक्रमण का वैसा खतरा नहीं रहता जैसा मल से होता है। हमारे देश में ही कई लोगों को यह भान हो चुका है कि शुचिता का विचार सीवर की नालियों के बाहर भी बहता है।
स्कोप के सहारे और प्रेरणा से कई सामाजिक संस्थाएँ इकोसैन शौचालय बना रही हैं। सन 2004 की सुनामी में तमिलनाडु के जिन तटवर्ती इलाके को समुद्र लील गया था वहाँ का भूजल स्तर ऊपर आ गया था। कई संस्थाओं ने इस पद्धति के शौचालय वहाँ बनाएँ हैं। ऐसे प्रयासों की वजह से ही सन 2010 में इकोसैन पद्धति को केन्द्र सरकार ने निर्मल भारत अभियान के अन्तर्गत अपना लिया। इस काम में स्कोप ने कई तरह के मित्र बनाए, जिनमें मूसिरी की नगर पंचायत भी है। अब स्कोप का काम अलग-अलग घरों में नहीं है। यह काम नगर पंचायत ने उठा लिया है। इसका सबसे चमकता नतीजा है मूसिरी के सालियार मार्ग का सार्वजनिक शौचालय।एक समय यहाँ 15 साल पुराना ऐसा शौचालय था जैसा कि देश के कई हिस्सों में दिखता है। गन्दगी इतनी रहती थी कि इसे लोग मजबूरी में ही इस्तेमाल करते थे। शौचालय की नाली से निकला मल-मूत्र बगल की सिंचाई नहर में बहता था। गर्मी में जब नहर सूख जाती थी तो मैले की बदबू असहनीय होती थी। बरसात में कीचड़ होता था। आसपास के सेप्टिक टैंक भी इसी नहर में खाली होते थे। स्कोप ने पंचायत से कहा कि वह इसी जगह पर इकोसैन पद्धति का सार्वजनिक शौचालय बनाए। श्री सुब्बूरामन के अनुभव में ऐसा काम कहीं नहीं हुआ था, कोई उदाहरण नहीं था। अपने तजुर्बे के हिसाब से उन्होंने भारत का पहला सार्वजनिक इकोसैन शौचालय बनाया।
आज यह शौचालय नगर पंचायत की शान है। इसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं, क्योंकि इसकी प्रसिद्धि ऐसे शौचालय के रूप में हुई जिसे इस्तेमाल करने वाले को फीस में एक रुपया दिया जाता था। सुलभ शौचालय जैसी व्यवस्थाओं के विपरीत, जहाँ लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने का मोल देना पड़ता है। यह फीस शुरू में लोगों की इकोसैन में रुचि बढ़ाने के लिये थी। अब यह फीस बन्द हो चुकी है। पर शौचालय में साफ-सफाई कम नहीं हुई है। इसकी तुलना किसी भी बढ़िया सार्वजनिक शौचालय से की जा सकती है। सात शौचालय महिलाओं के लिये हैं और सात ही पुरुषों के लिये। मलत्याग करने के बाद मल पर डालने के लिये राख यहाँ रखी रहती है, जिसकी वजह से बदबू न के बराबर रहती है। समय-समय पर इससे खाद मिलती है। शौच का पानी एक तरफ इकट्ठा होकर एक खास नाली में डाला जाता है, जिसमें पत्थर और कुछ पौधे लगे हैं, जिनसे यह पानी निर्दोष होकर केले के पेड़ों में जाता है।
14 तसलों से आने वाले मूत्र को कोयले के एक फिल्टर में साफ करके एक टंकी में इकट्ठा किया जाता है, जहाँ से यह खेतों तक ले जाया जाता है। इससे उर्वरक बनाने के प्रयोग किये जा रहे हैं। तिरुचिरापल्ली में राष्ट्रीय केला शोध केन्द्र ने पेशाब का फसल पर असर बारीकी से समझा है। उन्होंने पाया कि मूत्र के छिड़काव से हर हेक्टेयर फसल में 45,000 रुपए का अतिरिक्त लाभ हुआ। इसमें 36,000 रुपये पैदावार बढ़ने से मिले और 9,000 रुपए बनावटी उर्वरकों पर हुई बचत से। इससे एक छोटी सी झलक मिलती है कि अगर देशभर में मूत्र इकट्ठा करके फसल में लगाया जाये तो किसानों को कितना लाभ हो सकता है। बनावटी उर्वरकों पर सरकार का अनुदान बचे, सो अलग। कुछ कृषि वैज्ञानिकों ने इस सम्भावना के प्रति उत्साह दिखाया है।
बंगलुरु की सामाजिक संस्था ‘अर्घ्यम’ के साथ मिलकर राज्य कृषि विश्वविद्यालय ने एक स्कूल के पेशाबघर से निकले मूत्र में उर्वरकों की सम्भावना पर अनुसन्धान किया है। उनका शोध बतलाता है कि हमारे देश की कुल आबादी का पेशाब से हर साल कोई 78 लाख टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटैशियम मिल सकता है। मक्का की फसल में उन्हें बनावटी उर्वरकों के इस्तेमाल से अधिक पैदावार पेशाब से सींची फसल में मिली। यही नहीं, हर हेक्टेयर में उन्हें दो हजार रुपए से ज्यादा की बचत भी हुई। केले की फसल में औसत से बड़े फल तो निकले ही, फलों के गुच्छे भी पेशाब से पोसे पौधों में ज्यादा निकले। टमाटर, शिमला मिर्च और खरबूजे की फसलों में उन्होंने मूत्र से निकले उर्वरक का उपयोग किया और लगभग हर फसल में उसका असर अच्छा था। बनावटी उर्वरकों की बचत तो थी ही।
कई संस्थानों में पेशाब को सीवर की नालियों से हटाने पर काम चल रहा है। कोई उससे उर्वरक बना रहा है, कोई बिना पानी के काम करने वाले मूत्रालय ईजाद कर रहा है, कोई पेशाब को सुखाकर पाउडर बना रहा है क्योंकि उसका उपयोग तीन हफ्तों में न हो तो उसमें उर्वरक उड़कर खत्म हो जाते हैं। इकट्ठा किया हुआ पेशाब को सम्भालना भी आसान है, क्योंकि उससे रोगाणुओं के संक्रमण का वैसा खतरा नहीं रहता जैसा मल से होता है। हमारे देश में ही कई लोगों को यह भान हो चुका है कि शुचिता का विचार सीवर की नालियों के बाहर भी बहता है।
इकोसैन किसी भी परिस्थिति के हिसाब से ढल सकता है। मूसिरी की नगर पंचायत और स्कोप ने दिखाया है कि यह पद्धति घनी बस्ती में भी काम कर सकती है। रेगिस्तान में इकोसैन से पानी की बचत हो सकती है। तटवर्ती और बाढ़ग्रस्त इलाकों में सेप्टिक टंकी दूभर हो जाती है, वहाँ तो इससे बेहतर कोई शौचालय नहीं हो सकता। पथरीले इलाके में इसका लाभ यह होता है कि इसके कमरे बनाने के लिये नींव नहीं डालनी पड़ती, गहरा खोदना नहीं पड़ता। पहाड़ी इलाकों में इसे साधारण रूप से मिलने वाली सामग्री से भी बनाया जा सकता है। जहाँ किसान बढ़िया प्राकृतिक खाद चाहते हों वहाँ यह पद्धति मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में काम आती है। हर तरह की हालत में इकोसैन के कई लाभ हैं।
शहर के गाँव से सम्बन्ध भी बेहतर हो सकते हैं इकोसैन से। गाँव की उर्वरता खेतों की पैदावार के रास्ते शहर पहुँचती है। शहरी लोगों के भोजन करने का बाद यह उर्वरता सीवर की नाली में बहकर जलस्रोतों को दूषित करती है। अगर शहर अपने मल-मूत्र की खाद बनाकर वापस गाँव भेज सकें तो यह उर्वरता बचाने का तरीका तो बन ही सकता है, जल प्रदूषण को भी थाम सकता है। इकोसैन में अनन्त सम्भावनाएँ हैं। लेकिन इसका चलन तेजी से बढ़ क्यों नहीं रहा?
शहरों में इकोसैन के फैलने को सबसे बड़ा धक्का उस देश से लगा है जहाँ इस पद्धति की सफलता की सम्भावना सबसे ज्यादा मानी जाती है। चीन में सदियों से मल-मूत्र का उपयोग खेती में हो रहा है। दूसरे देशों से हटकर वहाँ मल को अत्यधिक घृणा से नहीं देखा जाता है। इसलिये ओरदोस शहर में सन 2003 में एक बड़ा प्रयोग किया गया। चीन के ठंडे उत्तरी प्रदेश इनर मंगोलिया के रेगिस्तानी पठार पर बसे इस शहर में पानी की कमी रहती थी। पर कोयले की खदानों के कारण बसाहट बढ़ने लगी।
कोई सरल जवाब नहीं है इसका। लेकिन एक नजर वहाँ डालने की जरूरत है जहाँ इस तरह के शौचालय कामयाब नहीं हुए हैं। ऐसी एक कहानी श्याममोहन त्यागी बता सकते हैं। उनका गाँव असलतपुर उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में आता है। वहाँ ‘फोदरा’ नाम की दिल्ली की एक संस्था ने सन 2006 में एक सार्वजनिक इकोसैन शौचालय बनाया। इसके लिये जमीन श्री श्याममोहन से किराए पर ली गई।संस्था ने गाँव में बातचीत करके कोई 100 लोगों को राजी कर लिया। हर रोज इस शौचालय का इस्तेमाल करने के लिये शौचालय की साफ-सफाई के लिये संस्था ने ही एक कर्मचारी भी रखा। इससे निकलने वाले मूत्र और मल की खाद का उपयोग श्री श्याममोहन के खेत में हुआ। दो साल के भीतर ही उनकी एक बीघा जमीन पर पहले से बेहतर धान की फसल लहलहा रही थी और उनकी 2,500 रुपए की बचत भी हुई थी, क्योंकि उन्हें बनावटी उर्वरक खरीदने नहीं पड़े थे। लेकिन संस्था यह काम एक समयबद्ध प्रोजेक्ट के अन्तर्गत कर रही थी। प्रोजेक्ट पूरा होने पर धन आना बन्द हो गया। सफाई कर्मचारी का वेतन बन्द हुआ तो उसने काम करना छोड़ दिया।
कुछ हफ्तों के भीतर ही शौचालय भी बन्द हो गया। आज श्री श्याममोहन के खेत के बगल में उस शौचालय के अवशेष खड़े हैं। प्रोजेक्ट के अन्त के बाद इस शौचालय को चलाने में किसी की रुचि नहीं रही। इसका एक मतलब तो यह है कि गाँव में लोगों ने इस शौचालय को किसी और की जिम्मेदारी माना, इसे अपनाया नहीं। दूसरा यह कि इस पद्धति में लगने वाली मेहनत इससे होने वाले लाभ के लायक नहीं लगी।
फोदरा संस्था के सीताराम नायक ने इस प्रोजेक्ट पर काम किया था। उन्हें इकोसैन के विचार से लगाव है लेकिन इसे लेकर वे निराश हैं। उनका कहना है कि शहरों के आसपास के गाँव में जमीन बहुत महंगी होती जा रही है। ऐसे प्रयोग करने के लिये किराए पर जमीन लेना मुश्किल हो गया है। अगर बड़े शहरों में इकोसैन शौचालय बने तो मल-मूत्र की खाद को शहर से बाहर ले जाने के लिये ट्रक किराए पर रखने पड़ेंगे और उससे कीमत बहुत बढ़ेगी। बाजार में इकोसैन की खाद सरकार के अनुदान से सस्ते हुए बनावटी उर्वरक का मुकाबला नहीं कर सकती है।
सीवर व्यवस्था भी इकोसैन के लिये अड़चन है। चूँकि शहर में रहने वाले लोग अपना मैला पानी साफ करने की असली कीमत नहीं चुकाते हैं, इसलिये उन्हें अपने मल-मूत्र को जलस्रोतों के हवाले करने में कोई हिचक नहीं होती। फ्लश में बहाने का पानी भी शहरों को सस्ते में मिल जाता है। ऐसे में इकोसैन पद्धति असुविधा ही नहीं, दुविधा भी मानी जाती है। बनावटी उर्वरक का अनुदान ही नहीं, सीवर और पानी पर दी गई परोक्ष सब्सिडी भी शुचिता के इकोसैन विचार को फैलने से रोकती है। श्री सीताराम को अब डर है कि इकोसैन पद्धति हमारे शहरों में काम कर ही नहीं सकती है।
फिर ऐसे भी जानकार हैं जो मानते हैं कि इकोसैन जैसा शहरों में काम करेगा वैसा कभी गाँवों में नहीं कर सकता, क्योंकि इन शौचालयों में हर मनुष्य एक साधन है। शहरी आबादी का घनत्व पेशाब और मल की खाद को वाजिब बना देगा। जितने छोटे इलाके में जितने ज्यादा लोग होते हैं उतनी ही ज्यादा खाद बन सकती है। जहाँ साधन ज्यादा हों वहाँ उससे मुनाफा कमाने वाले लोग भी जल्दी आ सकते हैं। जिन लोगों के पास पहले से शौचालय हैं उन्हें शायद इस पद्धति की ओर आकर्षण न हो। परन्तु हमारे शहरों में ऐसे कई लोग हैं जिनके पास सीवर से जुड़े शौचालय नहीं हैं। आवश्यकता है कुछ वैसे प्रयोगों की जैसे मूसिरी नगर पंचायत ने किये हैं।
शहरों में इकोसैन के फैलने को सबसे बड़ा धक्का उस देश से लगा है जहाँ इस पद्धति की सफलता की सम्भावना सबसे ज्यादा मानी जाती है। चीन में सदियों से मल-मूत्र का उपयोग खेती में हो रहा है। दूसरे देशों से हटकर वहाँ मल को अत्यधिक घृणा से नहीं देखा जाता है। इसलिये ओरदोस शहर में सन 2003 में एक बड़ा प्रयोग किया गया। चीन के ठंडे उत्तरी प्रदेश इनर मंगोलिया के रेगिस्तानी पठार पर बसे इस शहर में पानी की कमी रहती थी। पर कोयले की खदानों के कारण बसाहट बढ़ने लगी।
इकोसैन पर काम करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा संस्थान है स्वीडन का स्टॉकहोम एनवायरनमेंट इंस्टीट्यूट, जिसका ऊनो विनब्लाड से पुराना सम्बन्ध रहा है। इस संस्था ने स्वीडन और जर्मनी में कुछ छोटी-बड़ी बस्तियों में इकोसैन के शौचालय बनवाए हैं। लेकिन ओरदोस शहर इस पद्धति के बड़े स्तर पर प्रयोग का पहला उदाहरण था। संस्था ने ओरदोस की सरकार के साथ एक अनुबन्ध किया दुनिया की पहली आधुनिक इकोसैन शहरी बस्ती बनाने का। यहाँ 14 इमारतों के 830 फ्लैटों में कोई 3,000 लोगों के रहने का इन्तजाम था। इनके शौचालयों में फ्लश कमोड नहीं थे। मल-मूत्र नीचे बनी कोठियों में सीधे गिरता था और उस पर लकड़ी का बुरादा डालने का प्रबन्ध था। नीचे से कोठियों को ट्रक के सहारे बाहर निकाला जाता था। अपेक्षा थी कि बिना सीवर के एक आधुनिक शहरी बस्ती खड़ी की जाये।
धीरे-धीरे लोगों ने इन फ्लैटों में अपने घर बसाए। फिर दिक्कतें शुरु हुईं। शौचालयों से बदबू आती थी। लकड़ी का बुरादा पाइप के सहारे ऊपर उड़ आता था। मंगोलिया में तापमान शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे तक जाता है। ऐसी भीषण सर्दी में कितनी ही तरह की दिक्कतें आये दिन आने लगीं। वहाँ रहने वालों ने बार-बार शिकायत की। तंग आकर सन 2009 में जिला सरकार ने अपने खर्च पर इन फ्लैटों में फ्लश कमोड लगवाने शुरू कर दिये। 2010 के अन्त तक सभी निवासियों ने फ्लश कमोड लगवा लिये जो सीवर से जुड़े थे।
यह एक ऐसे देश में हुआ जहाँ इस विचार की पुरातन परम्परा रही है। फिर इस योजना के पीछे एक ऐसी संस्था थी जो कई साल से इस विचार के पीछे मजबूती से खड़ी रही है। लेकिन फिर भी दुनिया का सबसे बड़ा शहरी इकोसैन प्रयोग नाकामयाब घोषित हो चुका था।
शुचिता और इकोसैन का विचार किसी शून्य में नहीं, कई और विचारों के बीच रहता है, उनसे लेन-देन रखता है। यह विचार किसी एक खाँचे, किसी एक शौचालय, किसी एक अभियान में नहीं बाँधा जा सकता। इस विचार का मोल हर गाँव, हर शहर, हर बस्ती, हर घर को अपनी परिस्थिति के हिसाब से करना पड़ेगा। जिसे यह विचार आकर्षक लगता है वह इसे अपने जीवन में इस्तेमाल कर सकता है। जिसे न लगे उसके लिये कई और विचार हैं। आखिर पूर्वी कोलकाता की भेरियाँ तो सूखे शौचालयों से नहीं बनी है। पर वहाँ के मछुआरों की व्यवस्था में एक अंश सामाजिक शुचिता का भी है।
इसे चलाने वाले स्वीडन के विशेषज्ञों ने ईमानदारी से माना कि उनकी योजना में खामियाँ थीं। शौचालय में नीचे से आने वाली बदबू रोकने का ध्यान नहीं रखा गया था। कार्यक्रम बनाते समय उन्होंने फ्लैटों में रहने वालों से बातचीत नहीं की थी, उनसे कोई सीधा सम्बन्ध नहीं बनाया था। उन्हें बने-बनाए फ्लैट बेचे गए, जिनमें वे उन्हीं सुविधाओं की अपेक्षा कर रहे थे जो दूसरे शहरों में सीवर के द्वारा मिलती हैं। प्रयोग शुरू होने के बाद ओरदोस शहर में अचानक समृद्धि आई, जिसके बाद लोगों को लगा की इकोसैन एक दकियानूसी विचार है। फिर योजना पूरी होते-होते ओरदोस में पानी की किल्लत मिट गई थी। हुआंग-हो नदी से पानी यहाँ तक आ गया था और बहुत गहरी बोरिंग से भूजल भी निकल आया था। निवासियों ने स्थानीय सरकार से कहा कि इस प्रयोग की कीमत वे नहीं चुका सकते। सरकार का जवाब था फ्लश कमोड।मूसिरी नगर और उसके गाँवों की कहानी इससे बिल्कुल उल्टी है। एक तो वहाँ इतनी बड़ी योजना नहीं बनी थी। जिन संस्थाओं ने सूखे शौचालय बनाए उनका गाँव में रहने वालों से सम्बन्ध पुराना था। नगर पंचायत का स्कोप संस्था से सम्बन्ध सहज और मधुर है। दोनों एक-दूसरे को खुले मन से श्रेय देते हैं। शौचालय बनाने के बाद जो समस्याएँ आईं उन्हें बनाने वालों ने ठीक तो किया ही, अपनी डिजाइन खामियाँ भी सुधारते गए। जो लोग फ्लश और सेप्टिक टंकी वाले शौचालय बनाना चाहते थे उनके लिये वही बनाए गए। स्कोप ने ध्यान में रखकर ऐसी टंकियाँ बनाई हैं जिनसे भूजल का प्रदूषण कम-से-कम हो। इकोसैन के सूखे शौचालय उन लोगों ने लगवाए जिनके पास सेप्टिक टंकी लगाने का विकल्प नहीं था। जिन लोगों ने यह शौचालय लगाया है उनकी परिस्थिति अचानक बदली भी नहीं है। जिस मजबूरी से यह शुरू हुआ वह वैसी ही बनी हुई है। नहरों की वजह से यहाँ का भूजल स्तर आज भी ऊँचा ही है।
स्कोप के श्री सुब्बूरामन इकोसैन विचार के इतने कायल हैं कि उन्होंने तिरुचिरापल्ली में अपने नए घर की दूसरी मंजिल पर अपने उपयोग के लिये सूखा शौचालय बनाया है। लेकिन परिवार के दूसरे लोगों के लिये उन्होंने फ्लश के कमोड ही लगवाए हैं, क्योंकि उनके सिद्धान्त अपने काम के लिये हैं, दूसरों पर थोपने के लिये नहीं। न ही स्कोप के बनाए शौचालय किराए की जमीन को भाड़े पर लेकर बनाए गए हैं। स्कोप उन लोगों को ढूँढता है जो अपनी मदद करना चाहते हैं। श्री सुब्बूरामन अपनी जिद में किसी आदर्श व्यवस्था का पीछा नहीं कर रहे हैं। वे छोटे और कारगर उपाय ढूँढते हैं। जिन लोगों के घरों में वे काम करते हैं उनसे उनके सम्बन्ध सरस रहते हैं। उनके लिये शुचिता एक सामाजिक मूल्य है।
शुचिता और इकोसैन का विचार किसी शून्य में नहीं, कई और विचारों के बीच रहता है, उनसे लेन-देन रखता है। यह विचार किसी एक खाँचे, किसी एक शौचालय, किसी एक अभियान में नहीं बाँधा जा सकता। इस विचार का मोल हर गाँव, हर शहर, हर बस्ती, हर घर को अपनी परिस्थिति के हिसाब से करना पड़ेगा। जिसे यह विचार आकर्षक लगता है वह इसे अपने जीवन में इस्तेमाल कर सकता है। जिसे न लगे उसके लिये कई और विचार हैं। आखिर पूर्वी कोलकाता की भेरियाँ तो सूखे शौचालयों से नहीं बनी है। पर वहाँ के मछुआरों की व्यवस्था में एक अंश सामाजिक शुचिता का भी है। डीवॉट्स पद्धति तो फ्लश कमोड से जुड़ी है। लेकिन उसमें मैला पानी जहाँ पैदा हो, वहीं उसका उपचार हो जाता है।
इकोसैन पर कई सालों से काम कर रहे लोगों का कहना है कि इस पद्धति को दूसरी पद्धतियों के साथ तौलना नहीं चाहिए। अगर इस विचार को शौचालय बनाने का एक जरिया भर मान लिया गया तो इसका भी वही होना निश्चित है, जो सरकारी अभियानों का हो रहा है। तब इसकी सुन्दर सच्चाई शौचालय में बन्द हो जाएगी। जिन मुश्किलों को यह पद्धति सरलता से सुलझाती हैं वे छुप जाएँगी।
मल-मूत्र का प्रबन्ध आमतौर से वहाँ बेहतर मिलता है जहाँ साधनों की कठिनाई होती है। कठिन समस्याओं के हल कठिन परिस्थिति में ही मिलते हैं। डीआरडीओ के बायोडाइजेस्टर शौचालयों में अंटार्कटिका की बर्फीली ठंड में पलकर तैयार हुए बैक्टीरिया भी हैं और सियाचिन की कठिनाइयाँ भी। छागरा जैसे शौचालय की कीमत लद्दाख के रेगिस्तान की रेतीली मिट्टी में ही पता चलती है, कुछ वैसे ही जैसे प्राणवायु का मोल लद्दाख की कम ऑक्सीजन वाली जलवायु में ही पता चलता है।
जीवन की कहानी में कठिनाई पर विजय निहित है। पृथ्वी पर जीवन खिलने के पीछे वायुमण्डल में असहनीय ऑक्सीजन का बढ़ना भी है। यह कहानी यहाँ तक आ पहुँची है कि मनुष्य जैसे प्राणी के शरीर का दो-तिहाई वजन ऑक्सीजन का होता है।
कठिनाई को शाधना अपने आपमें एक साधन हैं। शुचिता ऐसा ही उपाय है।
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